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चाहते ही गए हमेशा, और चाहतों से बर्बाद हुए || आचार्य प्रशांत, दुर्गासप्तशती द्वितीय चरित्र (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: दुर्गा सप्तशती ले रहे हैं। उसका जो मध्यम चरित्र है; दूसरा चरित्र, तीन चरित्र है उसमें। तो जो दूसरा उसका चरित्र है, वो अध्याय दो, तीन, चार से आता है। इसमें प्रकृति, माने देवी, अपने रजोगुणी रूप में प्रकट होती हैं। ठीक है? यहाँ जो उनका नाम है, वो है, ‘महालक्ष्मी।’ और यहाँ जिस असुर का संहार है, उसका नाम है, ‘महिषासुर।’ महिषासुर प्रमुख असुर है। उसके अलावा कम-से-कम एक दर्जन नाम और आते हैं, वो सब जो छोटे-मोटे थे, जिनका वध हुआ।

तो जो दूसरा चरित्र है, आज हम उसको; उसके सार को समझेंगे और चर्चा करेंगे। तो पहला चरित्र समाप्त हुआ था कि जो तमोगुणी महाकाली हैं, उन्हीं के प्रभाव से पहले तो मधु-कैटभ की उत्पत्ति होती है, शरीर के मैल से। और फिर वही जब दोनों असुरों की मति फेर देती हैं, तो उससे दोनों असुरों का संहार हो जाता है।

ये पहले पाठ की कथा थी, पहले चरित्र की। पहले चरित्र में बस पहला ही अध्याय आता है। तो वहाँ पर जो हमारा पहला चरित्र समाप्त हुआ था कि तमोगुणी महाकाली द्वारा मधु-कैटभ का संहार श्रीविष्णु के हाथों। तो वहाँ समाप्त होता है।

और फिर दूसरा अध्याय है वो आरम्भ होता है। और दूसरा अध्याय ही दूसरे चरित्र का आरम्भ है। और इसमें आरम्भ में ही बड़ी भारी लड़ाई चल रही है। और वहाँ दिखाया था पहले चरित्र में कि जो लड़ाई थी विष्णु और मधु-कैटभ की, वो पाँच हज़ार साल चली थी।

तो ये एक शैली है। कथा में ये एक शैली होती है, अतिशयोक्ति। तो पाँच हज़ार वर्ष लड़ाई चली, यहाँ पर भी यही है कि एक सौ साल लड़ाई चली। तो चाहे पाँच हज़ार वर्ष कहा जाए, चाहे एक सौ साल कहा जाए, इशारा ये है कि ये एक बहुत लम्बी और बहुत प्राचीन लड़ाई है, बस इतना समझना है। सौ का अर्थ ये नहीं होता कि निन्यानवे नहीं या एक-सौ-एक नहीं। सौ से आशय है, पुरानी और बहुत लम्बी।

तो लम्बी एक लड़ाई है, देवताओं और दानवों के बीच में; सौ साल से चल रही है। और देवताओं का नेतृत्व कर रहे हैं, इन्द्र। और असुरों का नेतृत्व कर रहा है, महिषासुर। तो वो इस दूसरे चरित्र में एक प्रमुख पात्र है, महिषासुर। और सौ साल में ही देवताओं की हो जाती है पिटाई। वो झेल नहीं पाते, पाँव उखड़ जाते हैं।

जब पाँव उखड़ जाते हैं तो हमें बताया जाता है कि जितने अधिकार थे देवताओं के, वो सब महिषासुर ने अपने हस्तगत कर लिये। हस्तगत माने? ले लिये। अपने हाथ के नीचे ले लिये। तो सूर्य का प्रकाश और सूर्य की यात्रा जो प्रकृति द्वारा निर्धारित होती थी, वो किसके द्वारा निर्धारित होने लगी? महिषासुर। क्योंकि सूर्यदेव का तो काम अब ले लिया, महिषासुर ने अपने हाथ में। वरुण जिस तरीक़े से जल का और बादलों का संचालन करते थे, वो सब किसने ले लिया? तो पूरी जो प्रकृति है, उसमें त्राहि-त्राहि मच गयी। क्योंकि ये देवता लोग थे, ये एक व्यवस्थित तरीक़े से; ये प्रकृति के प्रतिनिधि हैं। जो सारे देवता हैं, वो प्रकृति की ही शक्तियों के प्रतिनिधि होते हैं।

तो ये सारे देवता लोग तो, प्रकृति; माने महादेवी के अन्तर्गत काम करा करते थे एक नियमित और अनुशासित रूप से। तो सूर्य को कभी देखा है कि वो अपने अनुशासन से विचलित होता हो? देखा है क्या? या चाॅंद-तारों किसी को देखा है? सब अपने-अपने नियमों के अनुसार काम करते है न? हाँ, तो वो जो नियम हैं, वो किसके नियम हम कहते हैं? प्रकृति के नियम। तो ये तो देवी के नियमों के नीचे काम किया करते थे।

लेकिन असुर ने क्या करा? असुर ने कहा कि मैं सारे नियम प्रकृति के तोड़ दूँगा। तो आग का नियम तोड़ दिया, उसने वनस्पति का नियम तोड़ दिया, हवा का नियम तोड़ दिया, वायु का, जितने भी। ये सब जो हैं, देवताओं के रूप में प्रकट होते हैं। तो सब देवताओं को हरा दिया और प्रकृति के सारे नियम तोड़ दिये।

मतलब समझिए कि यहाँ पर देवी से आशय क्या है? देवी प्रकृति ही हैं। प्रकृति ही हैं। और प्रकृति का भोग नहीं करना है, ये दुर्गा सप्तशती का मूल सन्देश है। प्रकृति भोगने के लिए नहीं है। प्रकृति का सम्मान करो। प्रकृति से कोई नहीं जीत सकता। छेड़छाड़ मत करो। चाॅंद-तारे ये तुम्हारे उपयोग, उपभोग के लिए नहीं बने हैं।

तो महिषासुर ने लेकिन देवताओं को हरा दिया। अब देवताओं को हरा दिया। उसके पास बड़े तरीक़े के ज़बरदस्त अस्त्र- शस्त्र थे, संसाधन थे, बड़ी उसकी सेना थी। इससे उसके बारे में क्या पता चलता है? कोई वो हल्का आदमी तो रहा नहीं होगा। अब महिषासुर कोई इंसान नहीं है। महिषासुर भी एक प्रतीक भर है। पर वो किस चीज़ का प्रतीक है, हम ये समझना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई व्यक्ति है महिषासुर; कि था, यहाँ रहता था और फिर भैंसा बन जाता था और ऐसा होता था। ये सब तो समझाने के लिए हमें कुछ बातें बोली गयी हैं।

पर जो बात हमें समझायी जा रही है, वो बड़े महत्व की है। देवताओं को हराया जा सके इसके लिए महिषासुर में क्या सामर्थ्य रही होगी? ज्ञान भी रहा होगा, प्रबन्धन की क्षमता भी रही होगी, सैन्य नेतृत्व भी उसका ज़बरदस्त रहा होगा। इतनी बड़ी उसने सेना खड़ी करी है, हल्के आदमी की बात है? बोलो? और इतने लम्बे समय तक वो देवताओं से संघर्ष कर रहा है, इसके लिए उसमें कई तरीक़े की क्षमताएँ होंगी, साहस होगा, जीवट होगा, बड़ा पुरुषार्थी होगा, बड़ा कर्मठ होगा। और ज्ञानी भी बहुत होगा। क्योंकि देवताओं; सारे देवताओं से एक साथ लोहा ले लिया है, तो ज्ञान के बिना तो ये कर नहीं सकता। तो ये सबकुछ है उसमें।

लेकिन इस नीयत से है कि इनको हराकर के फिर प्रकृति को भोगना शुरू कर दूँ। समझो! साहस भी है, कौशल भी है, ज्ञान भी है, सब है उसमें। लेकिन चाह वो ये रहा है कि अपने साहस, कौशल, ज्ञान का उपयोग करे प्रकृति के शोषण, खनन और भोग के लिए। तो उसने ये सब करना शुरू कर दिया, देवताओं को हराकर।

असुर की परिभाषा देख लीजिए, साफ़-साफ़। असुर वो नहीं है जैसा कि हम दिखा देते हैं कि वो भयानक लम्बे-लम्बे दाॅंत और सिर पर सींग है। पीछे कई बार पूॅंछ दिखा देते हैं और हा-हा-हा कर रहा है। मूर्ख सा लगता है ये जो दिखाते हैं। बच्चे हॅंसते हैं। ये जो असुरों वाले जितने एनिमेशन होते हैं या धारावाहिक वगैरह होते हैं, वहाँ वो अपनी तरफ़ से तो असुर को डरावना बनाते हैं और छोटे-छोटे बच्चे हँस-हँसकर पागल हो जाते हैं। कहते हैं, सो फनी! असुर ऐसा थोड़े ही होता है। इतने देवताओं और यहाँ तो देवता ही भर हैं, पहले चरित्र में तो स्वयं भगवान विष्णु थे। और मधु-कैटभ से पाँच हज़ार साल लगे हैं, हार नहीं रहे हैं, मधु-कैटभ।

तो ये कोई विदूषक जैसा चरित्र तो नहीं हो सकता होगा। ये तो कई तरीक़े की प्रतिभा, कौशल और ज्ञान से सम्पन्न चरित्र है, जिसने देवताओं को परास्त ही कर डाला। असुर वो फिर भी कहला रहा है। क्योंकि असुर के लिए ये नहीं ज़रूरी है कि उसकी काया का रंग कैसा है? और ये सब बातें। असुर के लिए ये नहीं है कि आप बहुत तमोगुणी हो, तामसिक हो इत्यादि-इत्यादि। नहीं, उससे भी नहीं है। असुर वो; लिख लीजिए अच्छे से, ‘असुर वो जिसमें प्रकृति को भोगने की कामना हो। जो दुनिया को देखता ही ऐसे है कि दुनिया से अधिक-से-अधिक क्या नोच-खसोट लूँ, क्या लूट लूँ, क्या पा लूँ; उसको असुर कहा गया है।’

तो बहुत बड़ा ज्ञानी हो सकता है फिर भी असुर होगा। बहुत तरह की उसमें प्रतिभा, गुण, कुशलता हो सकती है फिर भी वो असुर होगा। बड़ा तपस्वी हो सकता है फिर भी असुर होगा। बहुत उसमें धीरज हो सकता है फिर भी असुर होगा।

ज्ञानी असुर नहीं जानते क्या? रावण क्या था? महाज्ञानी। और इतने बड़े-बड़े तपस्वी असुर हुए हैं। कैसे भूल सकते हैं भस्मासुर को? उसने कैसे पाया था वरदान? तपस्या करके। वैसी तपस्या किसी और ने नहीं करी थी। महादेव प्रसन्न हो गये। बोले, ‘बताओ क्या चाहिए?’ वो बोला, ये चाहिए। बोले, ‘तथास्तु।’ वो भी अपनेआप को रोक नहीं पाये वरदान देने से। तो आप हो सकता बहुत बड़े तपस्वी हों, फिर भी आप असुर ही हैं।

सवाल ये है कि तपस्या कर क्यों रहे हो? अगर भोग की कामना से तपस्या कर रहे हो, तो असुर हो। कुछ भी कर रहे हो तुम, तुम्हारी कामना आकर उसको गन्दा कर देती है, अगर भोग की कामना है तो। ऊँचे से ऊँचा काम भी भोग की कामना द्वारा गन्दा कर दिया जाता है। भोग की कामना ऐसी है कि जैसे आप बढ़िया शुद्ध-से-शुद्ध और स्वादिष्ट-से-स्वादिष्ट व्यंजन बनायें और उसके ऊपर कीचड़ का लेप कर दें। अब उसे कौन खाएगा? कौन खाएगा? कुछ नहीं।

भोग की कामना हर चीज़ को गन्दा कर देती है। आपके ज्ञान को गन्दा कर देती है, आपके तप को गन्दा कर देती है, प्रेम को गन्दा कर देती है। जितने भी आप सद्गुण ला सकते हैं अपने, जिस अर्थ में सद्गुण शब्द का इस्तेमाल होता है, जितने भी आप सद्गुण ला सकते हैं, वो सब गन्दे हो जाते हैं बस अगर कामना पीछे भोग की है।

श्रीमद्भगवद्गीता इसीलिए सर्वोच्च ग्रन्थ है। पहले वो वेदान्त की प्रस्थानत्रयी में सबसे ऊपर है, प्रसिद्धि में सबसे ऊपर है और फिर सनातन धर्म के भी सभी ग्रन्थों में सबसे ऊपर है। क्योंकि उसके केन्द्र में निष्कामता बैठी है। निष्काम कर्म; इसकी बात सबसे ज़्यादा प्रखर तरीक़े से श्रीमद्भगवद्गीता में निकलकर आती है। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ शिरोमणी है। वो बताती है बिना कामना के कैसे एक सच्चा, गहरा, प्रेमपूर्ण और सफल जीवन जीना है।

कामना हमने कहा, हर चीज़ को गन्दा कर देती है। तो ये बेचारे महिषासुर की और नहीं कोई ग़लती थी। कामना बहुत थी इसके पास। और कुल कामना यही थी कि नदियों को भोग लूँगा, पहाड़ों को भोग लूँगा, पशुओं को भोग लूँगा। पूरा जो दूसरा चरित्र है, वो महिषासुर के भोग से भरा हुआ है। आप देखेंगे, तो आपको पता चलेगा और तीसरे चरित्र में तो ये बात और खुलकर सामने आएगी। और जब शुम्भ-निशुम्भ का तीसरे चरित्र में वध हो जाता है, तब देखिएगा क्या होता है।

तब पता चलता है हमें कि वहाँ जो बात करी जा रही है, वो पुरानी बात नहीं करी जा रही, वो आज की बात करी जा रही है। ऐसा लगता है जैसे शुम्भ-निशुम्भ वो लोग हैं, उन लोगों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने आज पृथ्वी पर क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की आपदा डाल दी है। शुम्भ-निशुम्भ गये और कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज के जितने भी लक्षण थे, वो सब हट गये। और वहाँ जो एक-एक लक्षण बताया गया है, आप पाओगे कि वो जलवायु परिवर्तन, क्लाइमेट चेंज का ही है।

आऍंगे तीसरे चरित्र पर। तो अभी दूसरा चरित्र। तो अब इन्होंने क्या करा? पूरी प्रकृति को अपने हस्तगत कर लिया। ‘साहब! मेरे हिसाब से चलेगा मामला। मेरे हिसाब से चलेगा।’ तो ये लोग रोते-कलपते गये। जब हार जाते हैं, तब ये जाते हैं। तो वहाँ पर महादेव हैं, विष्णु हैं। ये जाते हैं उनके पास और बताते हैं ऐसा हो गया है। और जब वो बताते हैं कि प्रकृति के; इन्होंने सारी व्यवस्था तोड़ दी है प्रकृति की और इन्होंने इस तरह की पृथ्वी पर पूरे तबाही ला दी है।

तो आता है कि भारी क्रोध करते हैं दोनों। कौन? महादेव और श्रीविष्णु। ये एकदम कुपित हो जाते हैं और फिर विष्णु के ही क्रोध से, विष्णु की ही कुपित काया से एक शक्ति उत्पन्न होती है। एक शक्ति उत्पन्न होती है, नारी आकार में। और वो पैदा ही बड़े क्रोध के साथ होती है। क्रोध से ही उसकी उत्पत्ति है और वो स्वयं भी कुपित ही जन्म लेती है। ‘देवी शक्ति।

तो जो हम असुरों वाली बात कर रहे थे, उसको थोड़ा यहाँ आगे बढ़ाऍं, तो क्या पता चलता है? हम आमतौर पर मानते हैं तपस्या अच्छी है। आपसे कहा जाए एक तपस्वी है, एक क्रोधी है, दोनों में तुरन्त आप किसको बोल दोगे अच्छा? तपस्वी को। पर आप कहोगे क्रोधी होना तो ठीक नहीं है, आध्यात्मिक बात नहीं है।

दुर्गासप्तशती हमें कुछ समझा रही है। कह रही है, “न तपस्या अच्छी है, न क्रोध बुरा है। सत्यनिष्ठा अच्छी है और असत्यनिष्ठा बुरी है।” ग़लत कामना के साथ तपस्या करी, तो तपस्या बुरी है। तपस्या न अच्छी है, न बुरी है। निर्भर कामना पर करता है। असुर तपस्वी भी हो सकता है, पर उसकी कामना ख़राब है इसीलिए वो असुर कहलाएगा। और देवी महाक्रोधी हो सकती हैं पर उनका क्रोध प्रकृति की रक्षा के लिए है, तो इसलिए वो देवी कहलाऍंगी। न क्रोध बुरा है, न तपस्या अच्छी है। अच्छा या बुरा इसका निर्धारण होता है, आपकी कामना की दिशा से। सही कामना के लिए क्रोध आ रहा है, कोई बात नहीं और ग़लत कामना के लिए तपस्या भी कर रहे हो, तो बहुत बुरी बात है।

देवी का जन्म ही है, वो क्रोध से हो रहा है। और वो पूरे चरित्र में कुपित ही रहती हैं। और यही नहीं कि दूसरे चरित्र में कुपित हों, तीसरे चरित्र में भी एकदम कुपित हैं। कुपित हैं, हत्या कर रही हैं; मार रही हैं, इसको मारा, उसको मारा, इसका वध किया, उसका वध किया।

बहुत लोगों ने ये प्रश्न करा है। कह रहे हैं, इतना रक्तपात, इतनी हिंसा! मैंने कहा तुम हिंसा का अर्थ ही नहीं समझे। हिंसा पर मैंने बहुत बात करी है और किताबों में अपनी बहुत बार हिंसा पर लिखा है, बोला है। अध्याय हैं पूरे-पूरे, हिंसा पर।

आप पहले समझना कि हिंसा का अर्थ क्या होता है, ये हिंसा नहीं है। वो तपस्या जो कामना के लिए करी जाए, वो बड़ी भारी हिंसा है और वो क्रोध जो सच्चाई की रक्षा के लिए किया जाए, उसमें कोई हिंसा नहीं है। वही अहिंसा है। सत्य की रक्षा के लिए जो कुछ भी करो, वो अहिंसा है और अहंकार को और फैलाने के लिए जो भी कुछ करो, वो हिंसा है। समझ में आ रही है बात?

तो अब ये जो तेजोमय नारी रूप था, ये प्रकट हो जाता है। ये प्रकट होकर हुंकार करता है। ये बहुत कुपित है। तो ये सब देवता थे, ये जो अपना पराजित होकर आये थे, ये सब देवता अपनी-अपनी शक्तियाँ ये उस रूप को प्रदान कर देते हैं। शक्तियाँ, शस्त्र, अलंकार, आभूषण उस रूप को ये समर्पित कर देते हैं। कहते हैं, ‘हमारे पास जो कुछ भी ऊँचे-से-ऊँचा है, वो आपको देते हैं, आप लीजिए।’ ठीक है? इसमें आशय क्या है? इसमें आशय है ये जानना कि तुम्हारे पास जो है, वो प्रकृति का ही दिया हुआ है।

लेकिन विमूढ़ अहंकार ये मान लेता है कि मेरा है। तो सब देवता जो अपनी शक्तियाँ देवी को अर्पित कर रहे हैं, उससे आशय ये है कि उनको ज्ञान आ गया, थोड़ी अक़्ल आ गयी। शायद श्रीमद्भागवद्गीता पढ़ आये। कौनसा श्लोक है गीता का जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम क्यों सोच रहे हो कि ये तुम्हारा है? ये तो प्रकृति के तीन गुण हैं। सारे काम प्रकृति कर रही है प्रकृति माने शक्ति, देवी। सारे काम प्रकृति के हैं लेकिन तुम्हारा अहंकार यूँही फूलकर कुप्पा हो रहा है, मैंने किया, मैंने पाया, मैंने भोगा। तुम कुछ हो नहीं, तुमने क्या किया?

तो देवता जो अपना पूरा स्वत्व है, वो किसको दे रहे हैं अभी? देवी को दे रहे हैं। लो! तो उससे आशय यही है कि आप ये जान गये कि ये तो मेरा कभी था ही नहीं। और चूॅंकि मैंने इसको अपना मान रखा था, इसलिए महिषासुर से फिर पिटाई खायी। अहंकार ही हारता है। तो अपना मानकर बैठे थे।

और देवताओं का तो ऐसा ही है। वो हर दूसरे अध्याय में; पुरानी किताबों में, पुराणों में, वो हर दूसरे अध्याय में अहंकार ग्रस्त हो जाते हैं। जब अहंकार ग्रस्त हो जाते हैं, तो उनका क्या होता है? फिर वो भागे-भागे आते हैं, तो कभी यहाँ, कभी वहाँ। और फिर उनको कुछ सहायता दी जाती है, तो फिर वो अपना पाते हैं वापस सब। अब जब उनके साथ कुछ गड़बड़ हो गयी है, तो उनको बात समझ में आयी कि हम तो यूँही, ज़बरदस्ती अपने मुँह मिया मिठ्ठू में हो रहे थे। जो जिसका है, उसको दे दो। “तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मेरा।” और बहुत सारी बातें हैं न?

“सुख में सुमिरन सब करें, दुख में करें न याद। कहें कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥”

तो चलो दुख में तो याद आ गया। सत्य याद गया दुख में। दुख में सत्य याद आ गया कि ये सब हमारा तो था ही नहीं। हमने व्यर्थ ही इस पर अपना अहंकार चढ़ा दिया। तो देवी को अपना सब दे दिया उन्होंने। समझ में आ रही है बात? नहीं तो ये चीज़ें हम बहुत जगह देखते हैं। टीवी पर देखते हैं और पढ़ लेते हैं और सोचते हैं; हमें लगता है कि सचमुच इन्द्र ने अपना ये दे दिया, फ़लाने ने अपना ये शस्त्र दे दिया और सूर्य ने अपना तेज दे दिया। और इस तरह हम कहते हैं।

तो दे दिया माने क्या दे दिया? दे नहीं दिया। जिसका था, जान लिया कि उसका है, ऐसे दिया जाता है। देना, माने ऐसा थोड़ी होता है कि अपना कुछ निकालकर दे दिया। निकालकर नहीं दे दिया। झूठ को झूठ-मूठ ग्रहण करे हुए थे। जो चीज़ तुम्हारी नहीं है, उसको अपना माने बैठे थे। अब जान गये कि हमारी तो कभी थी ही नहीं। तो एक तरीक़े से जो पकड़े बैठे थे, उसका त्याग कर दिया। इसी को कहते हैं, दे देना।

तो ऐसे उस देवी शक्ति का निर्माण हुआ। निर्माण नहीं कहना चाहिए, निर्माण जड़ वस्तुओं का होता है, उत्पत्ति कह लीजिए। उत्पत्ति भी लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं है। प्रादुर्भाव कहना चाहिए। प्रादुर्भाव हुआ। या प्राकट्य हुआ। ठीक है?

तो अब क्या होता है? अब हम यहाँ से जाते हैं सीधे रण क्षेत्र पर। तो रण क्षेत्र में क्या हो रहा है? महिषासुर प्रसन्न बैठा हुआ है कि मैं तो मैं तो जीत गया। वहाँ वो प्रसन्न होकर क्या रहा है? वो कर रहा है कि पूरे ब्रह्माण्ड के साथ तबाही। उसने नदियाँ गन्दी कर दी हैं, उसने सूरज, चाॅंद-तारों, ग्रहों-नक्षत्रों, इन सब की दिशा बदल दी है। उसने पहाड़ तोड़ दिये हैं। और अभी जब युद्ध होगा तो देखिएगा क्या करेगा वो? उसने सागरों में इतनी हलचल मचा दी है। बाप रे! बोलते हैं, सागरों का स्तर उठ गया है और सागरों ने भूखंडों को लील लिया है।

ये कब होता है सागर का स्तर उठना और सागर जाकर भूखंड को खा जाए, ये कब होता है? ये ग्लोबल वार्मिंग में होता है। तो ये सब महिषासुर कर रहा है ग्लोबल वार्मिंग वाले काम। समझिए, महिषासुर कौन है। महिषासुर कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं है कि किसी समय कोई आदमी था जो भैंसा बन जाता था। उसको महिषासुर बोलते थे। हम महिषासुर हैं। जो भी प्रकृति का अनादर करे, छेड़छाड़ करे, भोग भर करे, शोषण करे, वही महिषासुर है। तो महिषासुर यही सब कर रहा था।

अब इसमें नाम आऍंगे राक्षसों के। और बड़े ज़बरदस्त नाम हैं, तो मेरी स्मृति से नहीं बताऊँगा, पढ़ना पड़ेगा। एक-से-एक नाम हैं। लिख लीजिए, बच्चों को नाम देने के लिए कई बार आप लोग.. आजकल चल रहा है कि बच्चों को एकदम अनूठे नाम देने हैं, यूनिक जो किसी के न हों। ख़ासतौर पर अगर आप थोड़ा समाज में इज्ज़त पा गये हैं, तो आप अपने बच्चे को राकेश या मोहन नाम तो दे ही नहीं सकते। और बेटी है, तो उसको सीता या गीता नाम तो दे ही नहीं सकते। उसका नाम होगा, यक्षिका। भले ही उस नाम का कोई बहुत ही भद्दा अर्थ होता हो, पर नाम में ही कूलनेस होनी चाहिए। तो सबसे कूल ये सब नाम हैं। लिखो, ये देना अपने बच्चों को नाम।

बिडाल, कराल, चिक्क्षुर, चामर। ये बड़े ज़बरदस्त क़िस्म के राक्षस थे। रख दो बच्चे का नाम। दुर्दुर, दुर्मुख। जिसके मुख से बस गालियाँ निकलती हैं, उसके लिए क्या नाम है बढ़िया, दुर्मुख। या गाली काहे बोलो, जिसके मुँह से बस कामना फूटती हो। ये चाहिए, वो चाहिए। ये चाहिए, वो चाहिए। मम्मा आप वो दिला दो, पापा आप वो दिला दो। ऐसे बच्चे का तो नाम दुर्मुख। और कुछ नहीं।

तो अब तीसरा अध्याय शुरू हो गया है दूसरे चरित्र का। तो इसमें आया सबसे पहले चिक्क्षुर। तो चिक्क्षुर आता है, तो देवी मारती है शूल, फट से मर जाता है। अब ये सब दैत्य कौन हैं? ये सब दैत्य समझ लीजिए कि अपना-अपना विभाग सँभाल रहे होंगे, भोग का। किसी को बोला गया होगा जाओ वनों को भोग डालो, तो वो वनों को काट रहा है। किसी को बोल दिया होगा जितने जानवर हैं सबकी खाल उतार लो, उस खाल से हम कुछ अपना सुख और; तो वो अपना खाल उतार रहे हैं। उन खालों के कपड़े बन रहे होंगे या जो भी हो रहा होगा। तो ये सब इतने सारे हैं।

फिर आता है एक चामर नाम का। वो हाथी पर बैठकर आया था। देवी का सिंह जो है, वो बहुत गुस्से में है। देवी का जो सिंह है, वो एकदम गुस्से में है। और उसके लिए बार-बार आता है; और वो बात मुझे बड़ी रोचक लगती है कि देवी का सिंह जो है, वो ऐसे-ऐसे-ऐसे अपना सिर हिलाता रहता है। और उसके जो बाल हैं यहाँ पर (छाती पर), वो बाल ऐसे झूमते रहते हैं। और बड़ा भारी देवी के सिंह का मुँह है। और आधे दैत्य तो देवी का सिंह ही साफ़ कर रहा है। वो कह रहा है कि तुम पहले तो मुझसे निपटो। तो ये आया है चामर। अब चामर आता है, तो देवी का सिंह उछलकर उसके हाथी के ऊपर बैठ जाता है। और फिर चामर का वध भी सिंह ही करता है। देवी को ज़रूरत ही नहीं, मैं ही काफ़ी हूँ।

सिंह इसलिए कुपित होगा कि जब जंगल ख़राब कर दोगे, तो विलुप्त तो सिंह ही होता है न। फिर आप चलाते हो, मिशन टाइगर, सेव टाइगर, प्रोजेक्ट टाइगर। जब कुछ छोड़ोगे ही नहीं, तो टाइगर भी नहीं बचता है। फिर बाहर से चीते लाते हो और वो चीते भी मर गए सब। और कहाँ गये वो शेर भी जो गिर में होते थे? कहाँ हैं? भारत के कितने शेर बचे हैं? तो बाक़ी सब जब मार दोगे, तो शेर भी नहीं बचता। तो शेर; इसीलिए देवी का सिंह बहुत कुपित है। तो ये चामर तो गया।

अब ये मैं सीधे उद्धृत कर रहा हूँ श्लोक से ही। ‘सिंह बड़े वेग से आकाश की ओर उछला और उसने गिरते समय पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया।’ ये चामर कोई पक्का ऐसा आदमी है जिसने जंगल में कुछ लकड़ी माफ़िया, रेत माफिया या कोयला माफ़िया, लोहा माफ़िया कुछ चला रखा होगा। तो सिंह ने कहा, इसी ने पूरे सब पेड़ काटे, इसी ने घास तक नहीं रहने दी। जब घास नहीं बची, तो हिरण नहीं बचे। जब हिरण नहीं बचे, तो शेर कहाँ से बचेगा? समझ में आ रही है बात?

फिर आता है कराल। ‘तो क्रोध में भरी हुई देवी ने गदा की चोट से कचूमर निकाल दिया।’ फिर आता उद्धत, फिर आता है बाष्कल। ये सारे बढ़िया नाम हैं। एकदम नाम में ही कुछ ख़नक है। बाष्कल। फिर आते हैं ताम्र और अन्धक। उग्रास्य उग्र वीर्य और महाहनु। अब वो बच्चा है छोटा, उसको बचपन से ही उल्टा-पुल्टा सब दिखा दिया है। घर में माँ बाप बैठकर एडल्ट मूवी देखते थे, उसने भी देख ली है। तो ऐसे का नाम रखना है उग्रवीर्य। बस ये समझ लो लेकिन कि ऐसे नाम रखोगे, तो मारा वो जाएगा देवी के ही हाथ। और जो आज उग्रवीर्य है, वो कल लुप्तवीर्य बनेगा। देवी के हत्थे चढ़ेगा, बचेगा थोड़ी। तो ये सब जो दैत्य हैं, ये मारे गये। तलवार की चोट से बिडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया। और दुर्धर और दुर्मुख इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया।

भोग आपकी शक्ति हर लेता है। उसके बाद जब आपके सामने कोई सत्य का प्रतिनिधि बनकर आएगा, तो आप किसी भी तरह उसके सामने खड़े हो नहीं पाऍंगे। आप उसी दिन तक बचे हुए हैं, जिस दिन तक कोई सच्चा आदमी आपका हिसाब करने आपके सामने आया नहीं है। जिस दिन आ गया, उस दिन बचोगे नहीं। हम उस दिन बात कर रहे थे न कि जिसको तुम भोगते हो, उसको तुम नहीं भोग रहे, वो तुम्हें भोग रहा है।

तो भोग आपकी सब शक्ति का हनन कर देता है। और भोग की परिभाषा क्या है? वो सबकुछ जो आप अपने अहंकार की वृद्धि के लिए करो, उसको भोग बोलते हैं। वो सबकुछ, जो अपने अहंकार की वृद्धि के लिए करो, उसको भोग बोलते है। ऊँचे-से-ऊँचा काम भी अगर इस नीयत से हो रहा है कि इससे अहंकार तृप्त हो जाएगा, तो उसे भोग ही मानना। बहुत बड़ा त्याग भी किया जा रहा है इस नीयत से कि इससे कुछ लाभ मिल जाएगा इस त्याग से, तो वो भी भोग है।

कठोपनिषद् को मत भूलिएगा। नचिकेता ने यही तो पूछ लिया था पिताजी से कि ये सब जो आप दे रहे हो, आपका नाम तो बहुत फैलेगा। आपका तो नाम ही पड़ा हुआ है ये कि महादानी हैं आप। नाम तो बहुत फैलेगा आपका, लेकिन ये तो बताओ ये जो आप दे रहे हो सब बूढ़ी गायें, इसका औचित्य क्या? तो वो जो त्याग था वो भी भोग सरीखा ही था। वहीं से फिर कठोपनिषद् आगे शुरू होता है।

तो महिषासुर की जो पूरी सेना है, उसका संहार चल रहा है। देवी के सामने एक से बढ़कर एक दैत्य आ रहे हैं और देवी किसी का गदा से, किसी को बाण से और किसी को बस घंटे की नाद से धराशायी कर रही हैं। और कुछ तो ऐसे हैं जो देवी से बस थप्पड़ खाकर ही मर गये। इतनी ताक़त बचती है कि देवी ने एक लगाया, वो बनकर आया था बड़ा कराल, विकराल राक्षस और थप्पड़ से ही मर गया।

तो महिषासुर कुपित हुआ। बोला, ‘मेरी पूरी सेना का संहार हो रहा है। तो उसने भैंसे का रूप लिया। और वो, उसने, देवी के जो सब गण थे माने उनके जो सेवक, अनुचर ये सब थे, उनको उसने सताना शुरु किया। किसी को ऐसे मार रहा है, किसी को वैसे मार रहा है। तो क्या कर रहा है, किसी को थूथुन से मार रहा है, किसी को खुरों से मार रहा है, पूँछ घुमा-घुमाकर मार रहा है सबको और किसी को सींगों से क्षत-विक्षत कर रहा है। किसी को ज़ोर से जाकर सिर से मार दिया, किसी को आवाज़ से परेशान किया, किसी को सींग पर उठाकर चक्कर घुमा-घुमाकर मारा और कितनों को ही तो उसने इतनी ज़ोर से साँस ली कि वो ऐसे ही मर गये। फुफकारता सा है न? आपने भैंसे को नहीं देखा, साँड को देखा होगा। फुफकारता है बहुत ज़ोर से, ऐसा लगता है दहाड़ ही रहा हो। तो कई तो उससे ही मर गये।

अब ये पशु का जो रूप लिया है महिषासुर ने, इससे हमें क्या पता चलता है? क्या पता चलता है? देवी सिंह पर सवार हैं और महिषासुर ख़ुद बन बैठा है महिष। इससे क्या पता चलता है हमें? देवी वो जो पशुता से ऊपर उठी हुई हैं, जो पशुता की स्वामिनी हैं। और असुर वो, जो स्वयं ही पशु है। और एक जगह पर तो आकर के महिषासुर सिंह भी बन जाता है। अभी आगे होगा ऐसा। तो वहाँ तो बात और स्पष्ट हो जाती है। देवी सिंह पर सवार है और महिषासुर किसका रूप ले रहा है? सिंह का। तो बहुत स्पष्ट हो जाती है बात कि क्या है।

तो अब वो भैंसा बनकर सिंह को मारने के लिए झपटता है। जब सिंह को मारने के लिए झपटता है, तो क्या करता है? वो धरती को खुरों से खोदने लगा जिससे पूरी धरती क्षुब्ध हो गयी। देखो, अब कोई साधारण पशु अगर खुरों से धरती को खोदेगा, तो वो नहीं क्षुब्ध हो जाऍंगी। खुरों से धरती को खोदना क्या हुआ? साधारण थोड़ा बहुत खोदोगे, तो पृथ्वी क्यों मना करेगी? ये किस स्तर की खुदाई है? ये माइनिंग है। उसने इतना खोदा, इतना खोदा कि पृथ्वी हाय-हाय कर उठी कि ये क्या कर रहे हो?

और अपने सींगों से ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने लगा। ये पर्वतों को उठाकर फेंकने लगा से क्या आशय है? वही जो भी आपने सिक्किम में देखा है, तीस्ता नदी के साथ। विकास के नाम पर पर्वतों की कटाई। जो विकास करके, विकास की बात करके पर्वतों को काटें, लोग और देश, जैसा कि पूरे विश्व में हुआ है, भारत में भी हो रहा है, वही असुर है। तो वो अपने सींगों से उठा-उठाकर सबको; उसके लिए सबकुछ बस उसकी कामना पूर्ति का साधन बस है। मेरी कामना ये है। ये देवी हैं, इनको परास्त करना है, तो उसके लिए मैं सारे पहाड़ तोड़ दूॅंगा। शत्रु को हराना है, पहाड़ काट दो। ये असुरता का प्रतीक है। शत्रु को हराना है, तो पहाड़ ही काट दो। यह असुरता की निशानी हो गयी। शत्रु को हराना है तो नदी बाॅंध दो।

भारत के लिए जानते हैं एक ख़तरा क्या है? ब्रह्मपुत्र चीन में बड़ा लम्बा रास्ता तय करके आती है भारत। और चीनियों ने उसमे बना दिये हैं बाॅंध। और युद्ध की स्थिति में उन बाॅंधों का दुरुपयोग होगा। कुछ वैसा ही डर पाकिस्तानियों को लगता है। उनकी सिन्धु नदी भारत के लद्दाख से होकर खूब जाती है। उनको लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ न कर दें, युद्ध की दिशा में। और ये होता आया है। भारत का तो पता नहीं, पर चीन की ओर से पूरी आशंका है कि अगर अपनी कामना पूरी करनी है, जो अपने को दुश्मन लग रहा है उसको हराना है, तो कुछ भी कर लो। पूरी नदी ही भले क्यों न ख़राब हो जाए। नदी के सारे जीव क्यों न मर जाऍं। पर कोई बात नहीं, हमें तो जीत मिलेगी न? हमें तो जीत मिलेगी।

कावेरी विवाद चल ही रहा है। वो आप जानते ही हो। बीच-बीच में दिल्ली को पानी आने पर भी बहुत चर्चा और बड़ा विवाद होता है। वो भी आप जानते ही हो। मेरे स्वार्थ पूरे होते रहें, उसके लिए नदियों का, जलाशयों का मुझे भोग करना पड़े, दुरुपयोग करना पड़े, कोई बात नहीं, मैं करूँगा।

उत्तराखंड में आपने देखा ही है, जोशीमठ का हाल। और ख़ासकर जब मानसून रहते हैं, तब वहाँ क्या हालत होती है, ये कोई छुपी चीज़ अब नहीं है। और वो बात बढ़ती ही जा रही है। जोशीमठ कोई छोटी-मोटी जगह नहीं थी। वो जगह अब नक्शे से ही गायब हो गयी है। कारण यही है। पहाड़ को काटना है, सुरंग बनानी है, रेल ले जानी है। यही सब बात यहाँ बतायी गई है। समझ रहे हो?

लेकिन हम हर चीज़ का ट्रिविलाइजेशन कर देते हैं। इस पर बहुत तरह के वृत्तचित्र और वृतचित्र तो क्या बोलूॅं मैं; धारावाहिक इत्यादि बने हैं। उनमें आप देखिएगा तो ऐसे ही दिखाते हैं जैसे सचमुच महिषासुर कोई भैंसा है और उसने अपनी सींग से पहाड़ उठा लिया है। फिर इसीलिए जो बुद्धजीवी वर्ग है, वो धर्म से दूर हो जाता है। वो कहता है हम ये गप्प और क़िस्सा-कहानी नहीं मानते हैं कि कोई भैंसा ऐसा था जिसने अपनी सींग से पहाड़ उठा लिया।

वो भी भैंसा, भैंसा नहीं है असली, वो असुर है। बोले, ये हम मानेंगे नहीं। जबकि बात ये है कि ये जो कथा है, इसमें बहुत गहरा सार और छुपा हुआ मर्म है। उसको अगर हम समझ पायें, तो हमारे आज के जीवन में बड़ी मदद मिलेगी। पर अगर हम समझ नहीं पाऍंगे तो बात भक्ति के नाम पर बस मनोरंजन तक ही रह जाएगी। नवदुर्गा प्रत्येक वर्ष आऍंगी, चली जाऍंगी और हम उनसे कुछ सीख नहीं पाऍंगे। हम देवी को कभी जान नहीं पाऍंगे। क्यों? क्योंकि हम कथा की जो प्रतीकात्मकता है, उसका उद्घाटन ही नहीं कर पाते। हम प्रतीकों को ही सत्य मान लेते हैं।

हम हर चीज़ को लिट्रली ले लेते हैं, उसके शाब्दिक अर्थ पर ही ले लेते हैं। जबकि अर्थ लिटरल नहीं हैं, सिम्बॉलिक है, प्रतीकात्मक है, सांकेतिक है। संकेत किधर को करा जा रहा है, ये हम कभी समझने की परवाह ही नहीं करते। बात समझ रहे हो? फिर क्या होता है?

चंडिका फिर महान क्रोध करती हैं। अब क्रोध के विषय में फिर वही बात। देखिए, आप अक्सर पूछते हो कि गुण किसको बोलते हैं, सद्गुण, अवगुण किसको? क्रोध तो हमें यही बताया गया है न कि महाअवगुण है। क्रोध निश्चित रूप से कोई अच्छी बात तो नहीं है। लेकिन हमें वो जो साधारण, सामाजिक, नैतिकता होती है जो कहती है क्रोध बुरी बात है; दुर्गासप्तशती हमें उससे आगे की कोई बात समझा रही है।

सप्तशती कह रही है जो कुछ भी सत्य के लिए किया जाए, ठीक है। प्रकृति में न सद्गुण होते हैं, न अवगुण होते हैं। प्रकृति में मात्र गुण होते हैं। अगर गुणों को सत की सेवा या सत की रक्षा के लिए आपने इस्तेमाल किया, तो सद्गुण हो गया। कोई भी गुण जो सत्य को समर्पित है, वो सद्गुण हो गया। और कोई भी गुण अच्छे-से-अच्छा और बढ़िया-से-बढ़िया, ऊँचे-से-ऊँचा माने जाना वाला गुण भी अगर असत्य को समर्पित है, असत्य के काम आ रहा है, तो वो अवगुण हो गया या दुर्गुण हो गया। यहाँ क्रोध है, उस क्रोध को सद्गुण ही मानना है।

वैसे भी जो मध्यम चरित्र है जिसकी आज चर्चा हो रही है, उसमें देवी अपने रजोगुणी रूप में है और क्रोध रजोगुण में आता है। तीन गुण हैं जो सबके पास होते हैं। इन तीनों गुणों को उसको समर्पित कर दो जो गुणातीत है। लिख लिजिए, ये सूत्र है। सत-रज-तम हैं और वो सबके पास होंगे। यहाँ कोई नहीं दूध का धुला। ऐसे तो मुहावरा बदल देना चाहिए। दूध का धुला हो भी कोई क्यों? दूध हटाओ सारे मुहावरों से। ये ‘दूध-का-दूध, पानी-का-पानी’ नहीं चलेगा। कुछ और कर लो उसको। ‘जूस-का-जूस, पानी-का-पानी।’ और क्या! हमारे मुहावरों को भी तो शाकाहारी होना चाहिए न?

तो सत-रज-तम हैं। और आपके पास तीनों हैं। कोई नहीं होगा जिसके पास सिर्फ़ तामसिकता हो या सिर्फ़ राजसिकता हो। ऐसा कोई नहीं मिलेगा। कोई कह दे, ‘मैं बहुत बड़ा सात्विक आदमी हूँ’। उसमें भी रज और तम होंगे। थोड़े कम-ज़्यादा हो सकते हैं। होंगे, सब होंगे। इन तीनों को समर्पित कर दो गुणातीत को। और गुणातीत जो होता है उसी को सत्य, साक्षी, तुरीय, आत्मा, ब्रह्म बोलते हैं और मुक्ति इसी का नाम है।

मुक्ति का ये मतलब नहीं है कि अब आपके पास कोई गुण नहीं बचेगा। कि मेरे पास पहले तमोगुण बहुत था। लेकिन जबसे मैंने फ़लाने गुरुजी की सेवा करी है, तबसे मेरा तमोगुण समाप्त हो गया। ऐसा कुछ नहीं होता। वो सबकुछ आपके डीएनए में बैठा है। कहाँ से समाप्त हो जाएगा? मुक्ति का अर्थ है सब गुणों को, गुणातीत सत्य को समर्पित कर देना। इसको ही मुक्ति कहते हैं। यही गुणों से मुक्ति हुई। गुणों से मुक्ति ये नहीं है कि मेरे गुण समाप्त हो गये। गुण को ही विकार भी बोलते हैं। ‘मेरे सब गुण समाप्त हो गये’ ऐसा नहीं होता; मेरे सब गुण समर्पित हो गये। समाप्ति नहीं, समर्पण। लिखो।

कोई चीज़ समाप्त नहीं होने वाली। जब तक आपका शरीर है, तब तक ये सब चलेगा। क्रोध भी रहेगा, ऑंसू रहते हैं, निराशा रहती है, सब रहती हैं चीज़ें। इनको सबको समर्पित कर दो; आशा, ममता जो कुछ भी है आपके पास, लड़ो मत उससे। समर्पित करो उसे। आशा है, आशा किसकी है? जैसे सन्त बोलते हैं, आशा एक हरि नाम की। और कोई आशा है नहीं हमें। सम्बन्ध ही बनाने हैं, तो एक सम्बन्ध बना लेंगे, ‘जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई, दूसरों न कोई’। समर्पित कर दो। जो कुछ है, सब रखेंगे, समर्पित करेंगे लेकिन। समर्पण सही जगह होना चाहिए, यही मुक्ति है। समझ में आ रही है बात?

तो देवी को फिर क्रोध आ गया बहुत ज़ोर से। क्योंकि ये जो महिषासुर था, ये क्या कर रहा था? ये प्रकृति के साथ उत्पात कर रहा था। तो उन्होंने इस बार उसको पाश से बाॅंध लिया। जब पाश से बाॅंध लिया, तो वो भैंसे से शेर बन गया। जब शेर बन गया, तो बोली, ‘तेरा सिर ही काटे देती हूँ’। तो फिर से उसने रूप बदल लिया और अब वो एक पुरुष योद्धा बन गया जो तलवार से लड़ रहा है। ये जो वो रूप बदल रहा है अलग-अलग, इससे क्या पता चलता है? कि असुरता कोई भी रूप धारण कर सकती है। असुरता कोई भी रूप धारण कर सकती है। आप ये मत सोचिएगा कि असुर है तो पशु जैसा ही लगेगा। असुर का सम्बन्ध पशु से तो बहुत आसानी से लगा लेते हैं। भैसा है, कुछ और है, अजगर है, ख़ासतौर पर अगर कोई हिंस्र पशु हो, बर्बर पशु हो, तो बहुत आसान होता है उससे असुरता का सम्बन्ध बैठा देना। है न? कि असुर है तो किसके ऊपर होगा? और भेड़िया है, आप आराम से बोल दोगे, ये असुर है। लेकिन अब वो यहाँ एक जवान योद्धा बन गया है! महिषासुर! वो भी असुर ही है। असुरता किसी भी रूप में आ सकती है सामने।

तो अब ये जब पुरुष था, इसको भी देवी ने फिर कह रहे हैं, बाणों की वर्षा करके इसको भी बींध दिया। तब वो हाथी बन गया। वो कुछ भी बन सकता है। कुछ भी बन सकता है। माने जो कुछ भी है, उसका रूप मत देखो। उसका केन्द्र देखो। हाथी हो, शेर हो, इंसान हो, महिष हो, उसका केन्द्र देखो। रूप तो कुछ भी हो सकता है। केन्द्र देखो, केन्द्र।

एक शेर वो है जो महिषासुर बन बैठा। और एक शेर वो है जिस पर देवी सवार हैं। ऊपर-ऊपर से तो दोनों शेर एक ही जैसे हैं। केन्द्र दोनों का बड़ा अलग है। केन्द्र देखो। ऊपर कोई कैसा दिख रहा है, वो नहीं देखना है। केन्द्र देखो। तो अब ये हाथी बन गया और अब उसने सूॅंड से जो देवी का सिंह था, उसको पकड़ लिया। बोला, ये सिंह जो है; इसको मैं अब छोडूॅंगा नहीं। महान गजराज बन गया था। बोला, ‘ये सिंह जो है, इसकी अब पिटाई करता हूँ’। तो देवी का सिंह जो है, वो फँस गया। तो देवी आयीं रक्षा को और देवी ने तलवार से उसकी सूॅंड को मारा, काट दी उसकी सूॅंड। जैसे ही उसकी सूॅंड पर मारा तलवार, तो वो फिर से भैंसा बन गया।

ये सब देखो क्या हो रहा है? ये कोई मनोरंजक कथा भर नहीं है। ये चल क्या रहा है, देखना। जैसे ही आपके एक रूप पर वार होता है, आप रूप बदलते हो, केन्द्र? हमने भी बेहतरी और प्रगति और अध्यात्म के नाम पर ऊपर-ऊपर से क्या बदले हैं? बस रूप बदले हैं। व्यक्ति कहता है मैं धार्मिक हो गया। कपड़े बदल देता है। ये वैसे ही है कि गजराज, सिंह बन गया, कपड़े बदल दिये। काया कपड़ा ही होती है न?

काया बदल दी, केन्द्र नहीं बदला। और जब सत्य सामने आता है तो झूठ खट-खट-खट-खट-खट-खट काया बदलने लग जाता है। जब देवी सामने आती हैं, तो असुर फटाफट काया बदलने लग जाता है। झूठ का यही काम है, सच के सामने पड़ते ही फटाफट वो अपना रंग-रोगन, चेहरा, कलेवर बदलना शुरू कर देता है ताकि ऐसा लगे जैसे वो सचमुच ही बदल गया है।

वो बदला नहीं है। ये बदलाव तो ‘न बदलने’ के लिए है। एक बदलाव होता है कि ‘बदल’ गये और एक बदलाव इसलिए होता है ताकि बदलना न पड़े। ये वैसा बदलाव है।

और अब इसने जब भैंसे का रूप लिया, तो अब ये पृथ्वी को और ज़्यादा परेशान करने लग गया। और पृथ्वी के साथ अब चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा। चर प्राणी, अचर प्राणी माने जो ये स्थावर हैं, जंगम हैं, चलते हैं, नहीं चलते हैं, हर तरीक़े के। जो और हर लोक में, सब जो लोग हैं, सबको, सबको दुखी कर दिया। सिर्फ़ किसलिए? अपनी कामना, अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु सबको दुखी दिया।

तो देवी ठहर गयी। एक क्षण आता है अब ये मध्यम चरित्र में, देवी ठहर जाती हैं। देवी बोलती हैं, अब आर-पार का करना पड़ेगा। ये अब बहुत धृष्टता कर रहा है। और ठहरकर के देवी क्या करती है? तब क्रोध में भरी हुई जगन्माता चंडिका बार-बार उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगी। जब वो ये करने लगीं, तो उधर बल और पराक्रम से मद से उन्मत्त हुआ राक्षस गरजने लगा और अपने सींगों से चंडी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा। ‘मैं सब कुछ बर्बाद कर दूॅंगा, अपने स्वार्थ की ख़ातिर’।

आप जब एक पर्वत ख़राब करते हो, तो पर्वत कोई रेत, पत्थर भर थोड़ी है। पर्वत मतलब समझते हो क्या होता है? पर्वत का मतलब होता है, जंगल। दुनिया भर के बड़े-से-बड़े जंगल पर्वतों पर पाये जाते हैं। और जो पर्वतों पर पाये जाते हैं, वो थोड़े से बचे भी हुए हैं। नहीं तो अमेजन के जंगलों को देखो, क्या हाल है! इंडोनेशिया के जंगलों का देखो, क्या हाल है! लेकिन पर्वतों में ख़ासतौर पर ऊँचाइयों पर जो जंगल हैं, वो अभी भी अपेक्षतया थोड़े बचे हुए हैं।

तो पर्वत तोड़ने का मतलब समझो। और हमने पर्वतों के साथ बहुत नाइंसाफ़ी करी है न? शिमला का हाल देखो। सिक्किम का हाल देखो। उत्तर पूर्व अभी हमारा थोड़ा बचा हुआ है क्योंकि वहाँ हम उतना पर्यटन करते नहीं। विकास की उतनी हवस अभी उधर पहुँची नहीं। उत्तराखंड का हाल देखो!

तो पर्वतों की बहुत बात होती है दुर्गासप्तशती में। और बार-बार ये आ रहा है कि देवी सबसे ज़्यादा कुपित तब होती हैं, जब पर्वत नष्ट किये जाते हैं। आगे और भी बात होगी। नदियों की खूब बात होगी। और पर्वत और नदियों का तो हम सम्बन्ध जानते ही हैं।

तो अब ये सब करने लगा। देवी उधर ठहर गयीं और देवी बहुत कुपित हैं और हँस रही हैं। और जब वो ठहर गयीं, तो राक्षस और गरजने लगा और चंडी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा। देवी क्या कर रही हैं? उत्तम मधु का पान करने लगी और लाल आँखें करके हँसने लगी। उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी। देवी बोलीं, “ओ मूर्ख! मैं जब तक मधु पी रही हूँ, तब तक क्षण भर के लिए तू खूब गरज ले। और मेरे हाथ से अब तेरी यहीं मृत्यु होगी और अब गर्जना देवता करेंगे।”

अब ये लीजिए! हम आमतौर पर इस बात को भी बहुत अच्छा तो नहीं मानते; मधुपान। और मधु के मद से लाल हो रहे हैं देवी के नयन और वाणी उनकी लड़खड़ा रही है। लेकिन फिर वही बात आती है। मदान्ध तो असुर हैं न? देवी तो अगर मद भी ले रही हैं, तो यही कह रही हैं कि तू एक क्षण ठहर जा। मधु का पान करके तेरा वध करूँगी। मैं मधु का पान कर ही इसीलिए रही हूँ कि तेरा वध करूँ। और उसके बाद करेंगे देवता गर्जना, जैसे अभी तू गर्जना कर रहा है। तो क्षणभर को गरज ले। गरज ले क्षणभर को।

तो खान-पान, आचरण-व्यवहार इसको भी कैसे देखना है, इसमें एक सबक हमको सप्तशती से मिल रहा है। देवी मद में नहीं हैं। भले ही मधु का पान देवी कर रही हैं, पर मद में तो असुर है। मद में असुर है भले ही मदिरा का पान देवी ने करा हो।

जो हमारी साधारण नैतिक दृष्टि है, जो बस यही देखती है कि क्या पहना, क्या खाया, क्या पिया, क्रोध का संयम किया कि नहीं, आचरण का संयम किया कि नहीं, मर्यादा का पालन किया कि नहीं, उसको एक चुनौती दे रही है दुर्गासप्तशती। ये बताने की वरना कोई ज़रूरत नहीं थी कि देवी ने मदिरा का पान किया। ये बात आसानी से हटायी जा सकती थी। क्यों बतायी जा रही है? क्यों लिखा गया?

ताकि आपको पता चले कि सिर्फ़ मदिरा न पीने से आप सुर नहीं हो जाते। बहुत लोगों को इसी बात का बड़ा गौरव रहता है। देखो! ज़िन्दगी भर हमने कभी शराब में हाथ नहीं लगाया। तो? तुम तब भी असुर हो। और देवी यहाँ पर भी और अभी तीसरा चरित्र आएगा, वहाँ पर भी, अगर मद का पान कर भी रही हैं, तो भी देवी हैं। क्योंकि मद का पान करते हुए भी यही कह रही हैं कि एक क्षण रुक जा। ये मैं ले ही इसीलिए रही हूँ कि और मुझमें उन्माद आये और अब तेरा वध ही होगा सीधा।

समझ में आ रही है बात?

यूँ कहकर देवी उछलीं और अब महादैत्य पर चढ़ ही गयीं। पाँव से उसको दबा दिया और शूल से सीधे उसके कंठ में आघात किया। बोलीं, “गरज लिया? इसी कंठ से गरज रहा था न?” तो महिषासुर अपने मुख से किसी दूसरे रूप में बाहर आने लगा। बोला, ‘मैं रूप बदल दूॅंगा, इस रूप को मार दो। यही तो मेरा काम है। मैं रूपों को मरने देता हूँ, स्वयं को नहीं। मुझे मारोगे, तो मैं रूप की बली दे दूॅंगा। मैं कोई और रूप पकड़ लूॅंगा।’ अब आधा निकल ही गया था अपने मुँह से कि कोई और रूप ले लूँ, देवी ने उसको रोक दिया। वो आधा ही निकला-निकला युद्ध करने लगा। हार कहाँ माननी है। अभी भी चाहता, तो समर्पण कर देता।

पर अहंकार की यही बात है, समर्पण नहीं कर सकता। दुख झेल लेगा, कष्ट झेल लेगा, भारी-से-भारी तकलीफ़ झेल लेगा, समर्पण नहीं करेगा। महिषासुर मर गया, समर्पण नहीं किया उसने। घोर दुख झेल लिया, समर्पण नहीं किया। नहीं समर्पण किया, तो इस बार देवी ने वध ही कर दिया उसका। समाप्त। महिषासुर समाप्त।

अब महिषासुर समाप्त, तो सब देवता इधर-उधर से देख रहे थे। वो तुरन्त कूदकर बाहर आ गये और लगे ताली बजाने। हो गया, हो गया, बढ़िया हो गया, माँ ने बचा लिया। और उसके बाद बहुत लम्बी-चौड़ी वो देवी की स्तुति करते हैं। बाप रे! समझ लीजिए कि जो मध्यम चरित्र है, वो आधा बस जो देवताओं ने फिर माँ की स्तुति करी, उसको समर्पित है। वो बोलते हैं, “आप ऐसे ही हैं, आप ऐसी हैं, आप ऐसे ही हैं, आप महान हैं। सबकुछ आपका है। आप ही श्री हैं। आप ही लक्ष्मी हैं। आप ही मनुष्यों के भीतर विवेक बनकर बैठती हैं। आप सबकुछ हैं”।

तो बहुत लम्बी-चौड़ी उन्होंने वन्दना करी। उसमें से कुछ बातें मैं बता देता हूँ। ‘आपके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान विष्णु, ब्रह्मा जी और महादेव भी समर्थ नहीं है। आप ही पुण्यात्माओं के घरों में लक्ष्मी रूप में, पापियों के घरों में दरिद्रता के रूप में, शुद्ध अन्तःकरण वालों के घर में, हृदय में बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धा रूप से और कुलीन मनुष्यों में लज्जा रूप से निवास करती हैं। देवी आप ही अब संपूर्ण विश्व का पालन करिए’।

हाँ, ये बहुत अच्छा है। और इसका सम्बन्ध देवी के क्रोध से है। और देवी जो रक्तपात करती हैं, हिंसा करती प्रतीत होती हैं उससे है। और फिर देवी जो मदपान करती हैं, उससे है।

‘देवी! आपमें सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण; ये तीनों मौज़ूद हैं। लेकिन विशेष बात ये है कि किन्हीं भी गुणों के साथ आपका संसर्ग नहीं है। गुण तो तीनों हैं, पर कोई भी गुण आपके केन्द्र पर नहीं है। आपके केन्द्र पर तो मात्र सत्य है। गुण तीनों मौज़ूद हैं। भगवान विष्णु और महादेव आदि भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। ये जगत आपका अंशभूत है। आप सबकी अधिभूत, अव्याक्रता, परा प्रकृति हैं। संपूर्ण यज्ञों में जिसके उच्चारण से सब तृप्ति लाभ करते हैं वो स्वाहा आप ही हैं। आप मोक्ष की प्राप्ति का साधन है’।

‘आप अचिन्त्य, महाव्रत स्वरुपा हैं। आप भगवती पराविद्या हैं। मोक्ष की अभिलाषा वाले मुनिजन जिनका अभ्यास करते हैं वो आप ही हैं। आप शब्द स्वरुपा हैं। आप अत्यन्त निर्मल, ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्गीथ के मनोहर, पदों के पाठ से युक्त, सामवेद का आधार हैं। आप देवी हैं। आप त्रयी हैं। आप भगवती हैं। इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिए आप ही वार्ता, खेती और आजीविका के रूप में प्रकट हुई हैं। आप सबकी पीड़ा का नाश करने वाली हैं। जिससे सब शास्त्रों के सार का ज्ञान होता है, वो मेधा शक्ति भी आप ही हैं’।

ये बात तीसरे चरित्र में और आएगी जब पूरा आपके सामने देवी की स्तुति आएगी न, “या देवी सर्वभूतेषु, बुद्धिरूपेण संस्थिता।”, तो वहाँ पर ये बात और विस्तार में आएगी। ‘दुर्गम भवसागर से पार उतारने वाली नौका रूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं’। फिर आगे बात। ‘ये सब होते हुए भी आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है’। ये महत्वपूर्ण बात। आप इतना कुछ हैं, फिर भी आप इन सबसे बिलकुल ही अस्पर्शित हैं। गुण तीनों हैं लेकिन तीनों गुणों से आपका कोई स्पर्श नहीं है। बहुत है आगे। पूरा देवी की स्तुति है। सुन्दर स्तुति है, आप पढ़िएगा स्वयं ही। देवताओं ने इतनी स्तुति अपने सुख के काल में कर ली होती, तो महिषासुर से हार होती उनकी कभी? अब देखो, इतनी स्तुति!

तो पूरी जब स्तुति हो गयी। तो इस प्रकार जब देवताओं ने जगन्माता दुर्गा की स्तुति की और नन्दनवन के दिव्य, पुष्प एवं गन्ध नन्दनआदि के द्वारा पूजन किया। तब देवी ने प्रसन्न वदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओं से कहा, “देवताओं! तुम लोग सब मुझसे जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, वो माँग लो!” देवी को ये पता ही है कि ये कोई निष्काम स्तुति तो कर नहीं रहे। बोलीं, अब इतनी तो तुमने स्तुति कर ली। जो चाहिए, वो बता दो। सुनिएगा ध्यान से। देवता इतना बोल गये, इतना बोल गये, देवी बस एक बार बोलती हैं। “देवताओं, तुम लोग सब मुझसे जिस वस्तु की कामना रखते हो, वो माॅंग लो!’ देवी को पता है ये निष्काम नहीं हैं। ये अगर स्तुति कर रहे हैं, तो इन्हें कुछ चाहिए।

ये हमारी आम स्तुति होती है। इसीलिए हम कभी नहीं पाते कि देवताओं को मोक्ष मिल गया। मिला? कभी पढ़ा कि इन्द्र मुक्त हो गये। वो अभी भी बन्धन में ही हैं भले ही स्वर्गलोक में बैठे हैं। लेकिन स्वर्गलोक ही उनका बन्धन है। कि सकामी जब सुमिरन करता है, तो अधिक-से-अधिक क्या पाता है, उत्तम धाम। लेकिन जब निष्कामी सुमिरन करता है, तो क्या पाता है, अविचल राम।

“सकामी सुमिरन करे, पावै उत्तम धाम। निष्कामी सुमिरन करे, तो पावै अविचल राम॥”

तो सकाम होकर के तुम जो उच्चतम है उसका भी सुमिरन करोगे, तो अधिक-से-अधिक उत्तम धाम मिल जाएगा। उत्तम धाम को ही स्वर्ग कहते हैं। लेकिन मुक्ति तब भी नहीं मिलेगी। मुक्ति तो सिर्फ़ निष्कामता से मिलती है।

और अध्यात्म को और दर्शनशास्त्र को श्रीकृष्ण का यही अनूठा योगदान है, निष्काम कर्म। बोले, बाक़ी सब बातें एक तरफ़ और निष्कामता एक तरफ़। सारा अध्यात्म इस एक शब्द में समा जाता है, निष्कामता। और देवी यहाँ कह रही हैं देवताओं से निष्काम तो तुम हो नहीं सकते, तो बता दो कामना क्या है? तो देवता बता भी देते हैं। और बताते भी देखो कैसे हैं, तो शुरू ऐसे करते हैं। ‘भगवती वैसे तो आपने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी है, कुछ भी बाक़ी नहीं हैं। लेकिन फिर भी आप अगर हमें और वर देना ही चाहती हैं; ये देख रहे हो! वैसे तो कोई इच्छा नहीं है आपने पूर्ण ही कर दिया है इसको महिषासुर को मार दिया हम नहीं माँगना चाहते, लेकिन आप अगर देना ही चाहती हैं, तो क्या कह रहे हैं अब, ‘जब-जब हम आपका स्मरण किया करें तो आप दर्शन देकर हमारे संकट दूर कर दिया करें”।

माने अभी से तय कर रखा है कि संकट तो बुलाऍंगे ही। संकट यूँही तो आ नहीं जाता है। संकट तो जब सत्य को विस्मृत कर देते हो, तभी आता है। तो देवता कह रहे हैं, देखिए! अब हम फिर से कुछ गड़बड़ करेंगे। फिर से कोई दूसरा दैत्य आकर‌ के हमको मार-पिटाई करेगा। तो ऐसा करिएगा, ‘अब जब हम बुलाएँ , तो फट से आ जाइएगा। हम जब-जब आपका स्मरण करें, तो आप तत्काल आ जाऍं। तब आप हमें दर्शन देकर हमारे महान संकट दूर कर दिया करें’। और आगे भी और कह रहे हैं कि जो-जो लोग आपकी स्तुति करें, उन्हें धन दीजिए, समृद्धि दीजिए, वैभव दीजिए और उसकी स्त्री आदि सम्पत्ति भी बढ़ा दीजिए।

यही माॅंग रहे हैं कुल। देवता! धन, वैभव, समृद्धि और स्त्री। ये देखो! और ये नहीं देख रहा कि देवी से ही ये बोल रहे हैं। देवी भी कह रही हैं कि चलो! तो देवी बोलती हैं, ‘तथास्तु’ और अन्तर्ध्यान हो जाती हैं। और कुछ बात ही नहीं करी उन्होनें देवताओं से। उनसे इतनी ही बातचीत हो सकती है। वो अन्तर्ध्यान हो जाती हैं।

देवता अगर सचमुच ही सुधर गये होते, तो दुर्गासप्तशती यहीं समाप्त हो गयी होती। तीसरे चरित्र की ज़रूरत नहीं पड़ती। पर देवता तो देवता हैं, वो वैसे ही रहेंगे। अभी भी अन्त भी हो रहा है, तो यही धन-ऐश्वर्य यही सब माॅंग रहे थे, स्त्री। तो फिर अब तीसरा चरित्र आएगा, उसमें और भारी संकट खड़ा होना है देवताओं पर। समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: अगर माँ को माया कहा जाता है और हम माँ से ही चाहते हैं इन दिनों में। तो हम माँ से माँगते क्या है? हम माँ से उन्हीं से, उनके द्वारा ही मुक्ति माँगते हैं?

आचार्य: जब माँ शरीर को जन्म देती है, तो माया मात्र है। शरीर का जन्म अगर माँ दे रही है, तो वहाँ पर माँ अपने महामाया रूप में है। और जब माँ चेतना को मुक्ति दे रही है तब माँ महादेवी रूप में हैं। तो जो साधारण हमारी शारीरिक माँ होती है जो मनुष्यों में हमारी माँ होती है, उसके भी दो काम होते हैं। शरीर से जन्म दिया, तो उस वक़्त वो महामाया है। और अगर चेतना को मुक्ति दी, तो तब वो महादेवी हैं।

इसलिए मैं बार-बार सब माताओं से आग्रह किया करता हूँ कि आपने उसको शरीर से जन्म दे दिया है, इतना कोई पर्याप्त थोड़ी हो गया? अभी तो आपको उसको चेतना से जन्म देना है। और चेतना से जन्म देना नौ महीने भर का काम नहीं होता। उसमें बड़ा समय और श्रम लगता है। और असली माँ आप तभी हैं जब आप उसकी चेतना को जन्म दे पायें। नहीं तो शरीर से तो जन्म पशु भी दे देते हैं कि नहीं दे देते? सब पशु शरीर से जन्म देते रहते हैं। तो उससे माँ फिर सम्मान की अधिकारिणी नहीं हो जाती।

माँ सम्मान की अधिकारिणी बस तब है जब वो महादेवी बन पाये। महादेवी बनने का क्या अर्थ हुआ कि जिसको शरीर से जन्म दिया है, उसकी चेतना को भी तो विकसित करो। ज्ञान, बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा ये सब जाग्रत करने पड़ते हैं। ये प्रकृति से नहीं आ जाते। आप जंगल में एक बच्चे को छोड़ दीजिए, कहाँ से उसमें कौनसा ज्ञान, कौनसा बोध आ जाना है? तो अब जब माँ ने बच्चे को जगत में ला ही दिया है और जगत माने दुख होता है न, तो जगत में बच्चे को लाना ही इसीलिए माँ का महामाया रूप कहा जाता है क्योंकि उसको दुखालय में ले आये हो। आप एक जीव को दुख की दुनिया में ले आये, तो ये आपने मायावी काम ही तो कर दिया न? उसको ले आये, अब वो क्या करेगा? दुख भोगेगा। तो माँ जब बच्चे को जन्म देती है, तो वो माया है।

बच्चे को जन्म देना तो आराम से हो जाता है। उसके लिए तो बस कामवासना का एक पल चाहिए। बच्चा पैदा हो जाएगा। असली काम होता है, बच्चे को असली जन्म देना, बच्चे को द्विज बनाना। इसीलिए देवी मृत्युदायिनी भी कही जाती हैं और मुक्तिदायिनी भी कही जाती हैं। जो मनुष्यों में हमारी माँ है अगर वो बच्चे को सिर्फ़ शरीर से जन्म दे रही है, तो उसको जन्मदायिनी भी नहीं कहना चाहिए। उसको मृत्युदायिनी कहना चाहिए। बच्चे को चाहिए कि माँ के सामने जाकर कहे, ‘हे मृत्युदायिनी!’ क्यों कह रहे हो जन्मदात्री है? जन्मदात्री नहीं है, वो मृत्युदात्री है। उसने तो तुम्हें अब दुख के लिए पल-पल मरने के लिए पैदा कर दिया है।

असली माँ वो है जो मुक्तिदायिनी हो। वैसी माँ देखने को नहीं मिलती कि मुक्तिदायिनी माँ। कि इसको पैदा करा है, तो इसको इस स्तर तक ले जाऊॅंगी चेतना के कि ये मुक्त ही हो जाए सब दुख से, बन्धन से। ऐसी माँ कहीं है नहीं। तो ज़्यादातर माँ बस महामाया हैं और कुछ नहीं हैं।

प्र: प्रणाम आचार्य जी। असुर और दैत्य की परिभाषा आपने यह समझायी कि सुर माने वो जो सत्य को समर्पित है। और दानव माने जो हमेशा अपनी कामना के लिए जो भी करता है। तो इसमें जो आपने कोर्स हमारा जो लास्ट ईयर जो अपने दुर्गासप्तशती पर बात करी थी, उसमे मैं सुन रहा था कि जब हम ये देखते हैं कि असुर और देवता दोनों गये भगवान के पास वरदान माॅंगने, तो वो इस बात का प्रतीक है कि आत्मा के पास जा रहा है अगर देवता तो माने सत्य को समर्पित है।

तो मतलब वो जो भी कर रहा है वरदान उसका ये हो गया कि वो सत्य को समर्पित होकर निष्काम कर्म कर रहा है। तो वरदान वो माॅंग रहा है कि मुझे जो भी बल मिले, वो निष्काम कर्म को करने के लिए ही मिले। और दानव वो हो गया जो वरदान माॅंग रहा है सत्य को ही ख़त्म करने के लिए ख़ुद ही।

आचार्य: बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।

प्र: तो आत्मा; हम कह रहे हैं भगवान प्रतीक है आत्मा का। तो आत्मा तो माने अब वो सत्य मात्र ही है। तो सत्य के बाद जब असत्य जा रहा है, तो उसको वरदान मिल ही क्यों रहा है?

आचार्य: ‘जो चाहोगे, वो मिलेगा’ ये बहुत खूफ़िया सूत्र है। अभी चौथे में है, आप गीता में हैं साथ में? जो चाहोगे, मिलेगा। चौथा अध्याय ग्यारहवाॅं सूत्र।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वतर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

पकड़कर बैठिएगा जब हम वहाँ पहुँचे। कब पहुँचेंगे लेकिन? अगले साल के अन्त तक पहुँचेंगे जिस गति से जा रहे हैं। कृष्ण साफ़ कहते हैं, “मैं किसी को मना नहीं करता लेकिन जो तुम्हें मिलेगा उसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ तुम हो। तो इसलिए सोच-समझकर माँगना।” तुम जो चाहोगे, मिल जाएगा। सत्य किसी को खाली हाथ वापस करता ही नहीं है। इसीलिए देखते नहीं है कि महादेव के साथ ख़ासतौर पर ये बात आती है। और बार-बार पुराण आपको बताते हैं कि उनसे कुछ भी माॅंगा गया, उन्होंने दे दिया। और कई बार तो ऐसा होता था कि वो असुर तपस्या कर रहा होता था, तो नारद और बाक़ी देवता लोग परेशान हो जाते थे। कहते थे, ‘ये कुछ गड़बड़ चीज़ माॅंगने वाला है। और ये माॅंगेगा, वो दे भी देंगे।’ तो वो बीच में आकर कुछ विघ्न डालते थे कि इसको मिल न जाए जो ये माॅंगना चाहता है।

कृष्ण वही बात भगवद्गीता में कहते हैं। कहते हैं, “मैं तो कभी कहूँगा ही नहीं कि तुम सिर्फ़ मेरी उपासना करो। तुम जिसकी चाहे उसकी कामना कर सकते हो। तुम्हें मिल भी जाएगा। लेकिन जो तुम्हें मिलेगा, तुम भुगतना फिर। और भुगतना क्योंकि भोगने के लिए ही तो माँग रहे हो। मेरे पास आते, तो निष्कामता माँगते। मेरे पास आओ, तो मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। बल्कि मैं तो तुम्हे तुम्हारी माँगों से ही ख़ाली कर दूँगा। लेकिन कुछ और माँगोगे, तो वहाँ तुम्हें मिल भी जाएगा। तुम्हें भोगना पड़ेगा और यही तुम्हारा दंड होगा कि जो तुमने माँगा है वो तुम्हें मिल जाएगा अब भुगतो।”

अगर ऐसा होता जो आप कह रहे हो, तब तो मज़ा ही आ जाता न। कि अगर सही चीज़ माॅंगोगे तो मिलेगी, ग़लत चीज़ ठुकरा दी जाएगी, ऐसा आप होते देखते हो क्या जगत में? आप बहुत मोटे आदमी हो और आप अपने लिए बिलकुल कोई तली-भुनी कोई कुछ मँगवा रहे हो, मटन का शोरबा। तो उधर से मना कर दिया जाता है, नहीं देंगे? जगत तो आपको दे देता है। अब रात में हार्ट अटैक आएगा, आप जानो। जो चाहोगे मिल जाएगा लेकिन फिर क्या होगा, वो तुम जानो। और आमतौर पर घटिया, चीज़ पानी ज़्यादा आसान रहती है। क्षुद्र कामनाएँ ज़्यादा आसानी से पूरी हो जाती हैं, जगत में। कितनी अजीब बात है!

निष्कामता; जिसमें आप कुछ नहीं माँग रहे, वो बड़ी मुश्किल से मिलती है। और जहाँ आप ये सब माँग रहे हो, मटन बिरियानी दे दो, ये दे दो, कपड़ा दे दो, घर दे दो, वो सब आसानी से मिल जाता है। जो कुछ नहीं माँगता, उसको कितनी मेहनत करनी पड़ती है, ‘कुछ नहीं’ माँगने के लिए। और जो ये सब टुच्चे ही माँग रहे हैं, उनको हर दिन, हर हफ़्ते, हर महीने जो वो चाहते हैं, मिलता ही रहता है। लेकिन जो मिलता रहता है, उसकी उनको सज़ा ये मिलती है कि कितना भी मिल जाए, पूरा नहीं पड़ता है। मिल गया है, अब और माॅंगो। मिल गया, अब और माॅंगो। यही जो कर्मचक्र है, ये तुम्हारा दंड है।

बोध कथा है पुरानी, फिर याद नहीं ज़ेन दिशा से है या सूफ़ियों से है, वहाँ पर यही है कि दुनिया में सबसे ख़तरनाक चीज़ है, माँगना। माँगना माने? कामना। जब भी भीतर कोई कामना उठे, एकदम कूदकर खड़े हो जाओ। ये क्या माॅंग लिया! अरे, मत माॅंगो। ये क्या माॅंग लिया! और कितनी ही कहानियाँ हैं। मेरी समस्या ये है कि ऐन मौक़े पर याद नहीं आतीं। जहाँ दिखाया ही ये गया है कि माँगने वाला अपनी माँगी हुई चीज़ का शिकार हो गया। माँग तो लाये थे, अब जो ले आये हो, वो सँभाले नहीं सँभल रहा। और जब माँगा था, तब देने वाले ने अपनी ओर से थोड़ा सा चौकस भी करा था कि तुम्हें पक्का है तुम्हें चाहिए? बोले, चाहिए। ‘तो ले फिर चाहिए तो।’

भई! अगर आप कहते हो प्रकृति को बनाने वाला ईश्वर है, तो प्रकृति तो स्वयं ही देवी हैं। उन्हें बनाया थोड़ी किसी ने। माने प्रकृति ही ईश्वर है। माने जगत ही ईश्वर है। माने इससे अगर कुछ माॅंगते हो, कामना करते हो तो वही है कि ईश्वर से आराधना करके कुछ कामना कर रहे हैं। और जगत दे भी देता है। जगत से कुछ माँगते हो, जगत दे देता है न? वो वैसे ही है कि आपने ईश्वर की आराधना करी और ईश्वर ने वरदान दे दिया।

वरदान मिल जाएगा, लेकिन तुम सम्भाल नहीं पाओगे। आप लोग एक काम करिएगा। आज ऐप पर यही कहानियाँ खोज-खोजकर डालिएगा जहाँ पर रहता है कि फ़लाने ने फ़लानी चीज़ की इच्छा करी, वो उसको मिल गयी। और फिर वो भुगतते-भुगतते दुखी हो गया।

आपको सबसे बड़े-बड़े दुख उन्हीं चीज़ों से मिलते हैं, जो आपने खूब इच्छा करके माॅंगी थीं। एक तो वही है, ‘शेर की सवारी’। कि एक था, उसको सब बोलते थे, झुन्नूलाल। अब कहानी नहीं मिलेगी गूगल पर। झुन्नूलाल डालोगे, तो कुछ आएगा नहीं। फिर कहोगे, ये आचार्य जी बेवकूफ़ बनाते हैं। ये मैं अपनी ओर से उसमें थोड़ा सा अपनी पाक कला दिखाता हूँ। तो झुन्नूलाल को कोई भाव न दे। कहीं इधर धकियाए जाए, उधर लतियाए जाए। तो झुन्नूलाल को एक ऋषि मिल गये। झुन्नूलाल बड़े उदास। बोले, क्या है? बोले, कोई इज़्ज़त नहीं करता। तो ऋषि बोले, अच्छा चलो। ऋषि ने उनको एक शेर दे दिया। झुन्नूलाल से बोले शेर पर बैठ जाओ, बहुत इज़्ज़त मिलेगी। तो झुन्नूलाल शेर पर बैठ गये। और जहाँ निकले, वहीं इज़्ज़त मिले। और लोगों को दौड़ा लें। शेर पीछे जा रहा है अपनी बहुत गति से दौड़ रहा है, लोगों को पकड़ रहा है।

ऐसे कर लिया शुरू में पाँच-छः घंटे तो बड़ा मज़ा आया। फिर शेर बोला कि खाने को चाहिए। तो झुन्नुलाल बोले वो तो मेरे पास कुछ है ही नहीं। मेरा तो अपने खाने का नहीं हिसाब। तो शेर बोला, ‘थोड़ा नीचे उतरना’। झुन्नुलाल बोले मुझे नीचे उतरना ही नहीं। समझ गये। तो अब क्या करें? शेर को अगर खाने से रोकें, तो झुन्नुलाल ख़ुद क्या खायें? झुन्नुलाल को भी तो भूख लगी है। खाना है, तो नीचे उतरना पड़ेगा और नीचे उतरोगे, तो शेर खा जाएगा। या तो भूख से मरो या शेर का भोजन बनो। सोच-समझकर माँगना चाहिए, क्या माँग रहे हो? ऐसी और भी बहुत कहानियाँ हैं।

प्र: मेरा ये अभी जो दुर्गासप्तशती हुआ है, तो इसमें हम देख पा रहे है कि प्रकृति की छेड़खानी जितना कर रहे हैं उससे जो प्रभाव पड़ रहा है उससे देवी का रूप कुपित हो जाता है और ये सब असुरों का वध इत्यादि। तो मैं ये अभी ग्लोबल वार्मिंग जब आपने कहा, तो जोड़कर देखने का प्रयास कर रही थी अभी जो हो रहा है, जितने भी माइनिंग जितने भी पशुवध, हत्या इत्यादि हो रही है, वहाँ पर एक तरीक़े से देवी का जो मदिरापान का जो हुआ था, मैं इस तरीक़े से जोड़कर देखने का प्रयास कर रही हूँ कि जो भी अभी भूकम्प आया है जैसे। उसके पीछे का कारण भी देख रहे हैं कि वो बेल्ट ही पूरा हिल रहा है। और पूरा तैयारी है कि आगे कुछ भी हो सकता है।

ज़ोन रेडी है। भीतर हो ही रहा है। तो मैं इससे जोड़कर देखने का प्रयास कर रही हूँ। जैसे प्रकृति बीच-बीच में हमें चेतावनी दे रही है, माँ चेतावनी दे रही है। छोटे-मोटे जो असुरों को मार रही हैं, तो ऐसा लग रहा है कहीं दूर में भूकम्प हल्का सा आ गया, कभी बाढ़ आ गया, कभी ये आ गया, कभी वो आ गया। पर पूरी तरीक़े में अभी हम पर थोड़ा-बहुत करुणा है, अभी उसकी कि सुधर जाओ, क्या ऐसे है?

आचार्य: बिलकुल है। अगर हम जो आवृत्ति है माने फ्रीक्वेंसी देखें, एक्स्ट्रीम इकोलॉजिकल और इनवायरनमेंटल इवेंट्स की, ठीक है, आप यही गूगल कर दीजिएगा, एक्सट्रीम इकोलॉजिकल , तो आपको पता चलेगा कि वो फ्रीक्वेंसी कहीं पर पाँच-गुना, कहीं दस से बीस गुना भी बढ़ गयी है। एक्सट्रीम इवेंट्स में ये सब आतें हैं। एक्सट्रीम टेम्प्रेचर, एक्सट्रीम रेन फॉल और ये जो सीसमिक इवेंट्स होते हैं, तो उसमें लैंडस्लाइड वगैरह भी कहीं-कहीं पर जोड़कर बताऍंगे।

तो आप पाऍंगे कि इनकी फ्रीक्वेंसी बहुत बढ़ गयी है। बस इतनी सी बात है कि मीडिया वही बात बताएगा, दिखाएगा जो बात आप देखना चाहते हो। ये चीज़ आप देखना नहीं चाहते, तो आपको दिखाया नहीं जाएगा। तो चेतावनियाँ तो आ ही रही हैं, हर तरह से आ रही हैं लेकिन उसके बाद भी असुर की तरह हम बस अपने काम में; काम माने डिज़ायर में ही अगर हम मगन हैं, तो कोई इसका क्या कर सकता है। जितना आप उपेक्षा करोगे चेतावनियों की, जो अगला झटका जो आएगा वो और बड़ा आएगा फिर और बड़ा आएगा।

अच्छा, झटका बस इसी रूप में आये कि बाढ़ हो गयी या अतिवृष्टि हो गयी या भूकम्प आ गया, ज़रूरी नहीं है। हम भी तो प्रकृति हैं न? ये जो हमारा खोपड़ा ख़राब हो रहा है, हम इसी से लड़ मरेंगे। अब जो पूरा ये हमारा क्षेत्र है मध्यपूर्व का, वहाँ जो होता है वो किसके लिए हो रहा है? आज जब वो महिषासुर ऐसे-ऐसे कर रहा था, तो हमने कहा माइनिंग। ठीक है? माइनिंग। न होता तेल मिडल-ईस्ट के पास, तो वहाँ इतना बवाल मचता क्या? वहाँ तो सारा कुछ है ही खेल इसलिए कि वहाँ तेल है। नहीं तो वहाँ जो आबादियाँ हैं देशों की, वो बहुत कम-कम आबादियाँ हैं। न वहाँ कुछ पैदा होता है, न पानी है। थोड़ा-बहुत होता है। मोटा-मोटा समझिए। और अर्थव्यवस्था में वहाँ और कोई चीज़ नहीं है कि आप कर पाओगे।

वो तेल है, तो उस तेल की ख़ातिर, उसके खनन की ख़ातिर कितना दिमाग ख़राब हुआ। अब लोग कह रहे हैं कि इजराइल हमास का जो ये युद्ध है, ये तीसरा विश्वयुद्ध बन सकता है। हमास तैयार ही था। अब हिज़बुल्लाह तैयार हो गया पीछे से। और हमास, हिज़बुल्लाह, इनके बाद ईरान का नम्बर है।

तो प्रकृति कुपित हो रही है। ये तभी मत माना करिए जब आप पायें कि तापमान चालीस रहता था, पैंतालीस हो गया है। प्रकृति कुपित हो रही है, ये इससे भी जानिए कि आदमी का दिमाग बिलकुल ख़राब हो गया है। ये भी प्रकृति का ही कोप है। अच्छा, एक बात बताइए। आप एकदम कहीं सड़ी हुई जगह पर रहती हैं। जहाँ एक पेड़ देखने को नहीं मिलता। घनी आबादी, खूब प्रदूषण है। वहाँ आपका दिमाग कैसा रहेगा? और आप एक ऐसी जगह पर रहते हैं जहाँ पर मौसम भी अच्छा रहता है, खूब हरियाली है, घने पेड़ हैं, अच्छा पानी है। वहाँ आपका मन कैसा रहेगा? तो जो आप प्रकृति का इतना नाश करोगे, तो उससे आपका दिमाग भी तो नष्ट हो जाता है न? होगा कि नहीं?

प्र: जी, होगा।

आचार्य: सुन्दर, शान्त जगह हो, निर्मल बिलकुल, तो वहाँ आपका मन भी कहाँ करेगा कि मैं अपराध करूँ और हिंसा करूँ और विनाश करूँ? नहीं करेगा। और आप कहीं कंक्रीट के जंगल में रह रहे हो, गन्दा खाना, गन्दा पानी, भारी आबादी, ये-वो चिल्लपौ, पसीना, तो वहाँ पर तो सब फिर हो ही जाते हैं, झगड़ालू, हिंसक। और आपके भीतर जो पाशविक वृत्तियाँ होती हैं और उभरकर सामने आती हैं। तो बहुत सारी बातें हम कर रहे हैं, मीडिया में रहती हैं। बहुत-बहुत कम बातें हो रही हैं जो हम प्रकृति और इकोलॉजी के साथ कर रहे हैं उसको लेकर के।

दुर्गासप्तशती जो मुझे प्रिय है, उसका एक कारण ये भी है, बड़ा कारण। ये उन ग्रन्थों में से है, जो सीधे-सीधे हमें प्रकृति के कोप से परिचित कराते हैं। ये जो तुम असुर बनकर प्रकृति के साथ कर रहे हो, तुम बचोगे नहीं। और ये जो तुम खुश हो जाते हो नौदुर्गा के पंडालों में राक्षसों को, महिषासुर इत्यादि को देखकर, वो महिषासुर तुम ख़ुद हो। ये जो सब तुमने सब अभी बकरा-मुर्गा काटा है न, उनकी माँ यही हैं। उस माँ के तुमने बच्चे मार दिये।

और बड़ी से बड़ी धूर्तता ये कि वो बच्चे माँ के नाम पर ही मार दिये। वो माँ नहीं तुम्हें छोड़ने वालीं। जिस माँ का तुम बच्चा काट रहे हो मटन बिरयानी बोलकर के, वो माँ तुम्हें छोड़ देगी क्या? गाय जैसा सीधा जीव भी कितना उग्र हो जाता है, तुम उसके बछड़े को छेड़ दो। वो गाय जो है, आपको सींगों से उठाकर दूर फेंक देगी। गाय शेरनी बन जाती है बछड़े को छेड़ दो बस। छोटा हो बछड़ा, छेड़कर देखो। तो प्रकृति छोड़ देगी क्या? आप उसके सब जीवों के साथ जो कर रहे हो?

प्रतिदिन आपको पता है न कितने-कितने जीव आप काटते हो प्रतिदिन? दुनिया की जितनी आबादी है, उससे ज़्यादा जीव आप प्रतिदिन काटते हो। मछलियाँ मैं उसमें जोड़ रहा हूँ। दुनिया की जितनी आबादी है माने प्रति व्यक्ति एक से ज़्यादा जीव। उसमें वही नहीं कि सारे खा लिये, बहुत सारे तो बस ऐसे ही। फिशिंग कर रहे थे। बहुत सारे ऐसे ही बेकार में मारे गये। तो प्रकृति माँ तो उनकी है, उनकी भी है। बल्कि जो कमज़ोर बच्चा होता है, माँ उसको ज़्यादा देखती है। तो प्रकृति आपको छोड़ देगी क्या?

आप जो ये अपना फ्रीडम टू ईट के नाम पर जो भी कुछ कर रहे हो, आपको छोड़ थोड़ी दिया जाएगा! फ्रीडम टू ईट, फ्रीडम टू नेविगेट, फ्रीडम टू बिल्ड, फ्रीडम दिस, फ्रीडम दैट! बिना भीतर से फ्री हुए बाहर आप फ्रीडम एक्सरसाइज करना चाहते हो। भीतर से आप बॉन्डेज में हो, भीतर से सौ तरह के बन्धनों में हो, तो बाहर भी फ्रीडम के नाम पर आप बस क्या कर रहे हो? नाश, उत्पात। यही तो।

प्र: दूसरा इसी से जुड़ा था। जैसे असुर और देवता के बारे में हम चर्चा ही कर रहे थे और अन्त में जो देवता हैं, वो सारे दिन पहले तो दे देते हैं सारे शक्तियाँ कि माँ तुम ही बचाओ। जब भी होता है, तो ऐसा लग रहा है कि हम ख़ुद देवता हैं, हम ही ख़ुद असुर हैं। तो इसमें कभी आपत्ति में देख लेते हैं जो सुख में सुमिरन न करे, वो वाली दोहा यहाँ पर बैठ जाती है। फिर देवता अन्त में जो स्तुति करने के बाद ऐसा लगता है कि मैं ही हूँ जो मन बदलकर बोल देती हूँ कि नहीं-नहीं आप जो कहोगे, वो ही सही है। मैं मानूॅंगा इत्यादि। मतलब मेरे ऊपर ही मुझे लग रहा है कि मैं कहीं-न-कहीं ऐसी ही हूँ।

आचार्य: तो क्या होता है। अन्त में माँ तो अन्तर्ध्यान हो जाती हैं और देवताओं को उनका राज-पाट वापस मिल जाता है। माने देवताओं ने जो अपने स्वत्व का त्याग किया था, माँ को अर्पित किया था, माँ तो अब अन्तर्ध्यान हो गयीं, तो वो जो सब चीज़ थी, वो वापस किसके पास चली गयीं? देवताओं को कहा, वर माॅंगो। देवताओं ने ये कहा क्या हम अब निर्बोझ हो गये हैं माँ, तेरा तुझको सौंपते हैं, अब तू अपने पास रख माँ। हम बच्चे ही भले, हम हल्के ही भले। हमें ये सब चीज़ें लौटाना मत। ये सब जो शक्तियाँ, अधिकार हैं, हम इनके योग्य नहीं हैं। ये माँ, अब तुम अपने पास ही रखो। देवताओं ने ऐसा कहा क्या? नहीं कहा। माँ ने भी कहा, ”चलो ठीक है अब, मुझे जाने दो। अपना देखो तुम।”

प्र: बचपन में तो माँ की या मन्दिर या ऐसी चीज़ें मना ही किया गया था, तो पढ़ने का अवसर नहीं मिला। जब से पिछले जो सत्र हुई थी दुर्गासप्तशती तब से पढ़ना प्रारम्भ किया था। संस्कृत में भी लेकर पढ़ा था, तो उसमें बहुत ही अच्छा लगा। मतलब कुछ चीज़ें निकलकर आयी थीं जो पहले पता ही नहीं था। ऐसे जोड़कर भी देखा जाए, ये पता ही नहीं था। बस हमें तो रोक दिया गया। इन चीज़ों को नहीं पढ़ना।

आचार्य: अगर कोई ग्रन्थ आपके तात्कालिक सन्दर्भ में माने ‘आज’ एक समकालीन अर्थ नहीं रख रहा है, तो वो ग्रन्थ आपके लिए बेकार चला गया। क्या करोगे जानकर किसी और के साथ कभी और क्या हुआ था? क्या मतलब है? तुम्हें आज अपनी ज़िन्दगी जीनी है न? तो अगर कोई बात अगर बतायी जा रही है, चाहे वो इतिहास की हो, चाहे प्रतीकों की हो, उसका आज आपके लिए क्या उपयोग है, ये आपको पता होना चाहिए, नहीं?

ये एक बहुत मूल सिद्धान्त है जीवन का जो हम भूल जाते हैं। सबकुछ मेरे लिए है। सबकुछ मेरे लिए है, मैं कुछ भी कर रहा हूँ, तो इसलिए कि मेरा दुख कम हो। अपना दुख कम करने के लिए न, अपना अज्ञान हटाने के लिए आप ग्रन्थ पढ़े ले रहे हो; कोई भी ग्रन्थ हो सकता है, महान-से-महान ग्रन्थ हो सकता है। पर अगर आप ये नहीं देख पा रहे कि उसकी आपके आज के जीवन में प्रासंगिकता क्या है, तो आपको मिल क्या गया? पाठ कर लेने से, पट-पट-पट पढ़ लिया। पढ़ लिया, इससे क्या मिल गया? कुछ नहीं मिल गया। समझना पड़ेगा न? बार-बार पूछना होगा, इससे मेरी आज की कौनसी समस्या सम्बोधित हो रही है? और मेरी जो भी समस्या है, क्या वो इससे सम्बोधित हो रही है?

यहाँ यही तो है वो। हर दिन लगभग एक मिलियन माने ये दस लाख, नौ लाख इसमें दे रखा है, तो ये जब का भी होगा तो बढ़ ही रहा है। तो लगभग एक मिलियन गाय, लाख में बोल देता हूँ। नौ लाख गाय, चौदह लाख बकरी, सत्रह लाख भेड़, अढ़तीस लाख सूअर। अरे बाप रे! और लगभग एक सौ अट्ठारह लाख; माने एक करोड़ अट्ठारह लाख बत्तख, दो सौ दो मिलियन चिकन; माने बीस करोड़ मुर्गे। फिश के लिए ऑंकड़े नहीं दे रखा। लिखा है, हंड्रेड्स ऑफ मिलियन्स ऑफ फिश। कोई ऑंकड़े नहीं पता कितना होगा।

ये प्रतिदिन का है। फिश को मालूम है ऐसे नहीं नापते हैं ‘कितनी मछलियाँ’। वहाँ नापते हैं कितने किलो। उनको तो जैसे जीव भी नहीं माना जाता, कितने जीव माने। वहाँ बस ये पूछते हैं कितने किलो कैच है। उनको, उनकी मौत को इतनी भी इज़्ज़त नहीं है कि ये भी गिन लो कि कितने मारे। वहाँ किलो में बस गिन लेते हैं, इतने किलो। किलो नहीं होता, टन भी नहीं होता, कितने लाख टन। लाख, मिलियन, वो भी ग़लत है। करोड़, बारह करोड़ टन प्रति दिन मछली।

और मछली बहुत समझदार जीव होता है। बहुत पुराना जीव है। जितने भी ये थल जीव हैं माने ज़मीन वाले, इनसे पुरानी है ये जल जीव, मछली। मछली हम सबकी बहुत पुरानी दादी है। मछली पहले आयी, डायनसोर उसके भी बाद आये। तो मछली की जो बुद्धिमत्ता होती है, वो अच्छी वाली होती है। हल्की-फुल्की नहीं होती। तो उसको ये सोचना कि वो तो ऐसे ही है। बस घास-फूस है। घास-फूस नहीं है। दर्द भी जानती है, समझदारी भी जानती है। बहुत सारे भाव जो मनुष्यों को होते हैं, मछलियों में भी होते हैं। उसका बहुत एवॉल्यूशन हुआ है। बहुत पुरानी है।

दो सौ दस करोड़! प्रतिदिन! आठ सौ करोड़ तो आबादी है हमारी, मनुष्यों की। और ये वो बस हैं जिनको हम खाने के लिए मार रहे हैं। अभी इसमें वो सब जोड़ेंगे जिनके मरने का हमको पता भी नहीं है; हमने प्रदूषण से मार दिये या वनों की कटाई से मार दिये, तो वो संख्या अलग है। या खेती के लिए मार दिये हैं, इसमें खेती वाले जीव थोड़ी गिने हैं अभी। खेती में भी भारी हिंसा होती है, वो जीव इसमें अभी थोड़ी गिने। जो मिट्टी होती है, जैसे जंगल प्राणियों का घर होता है, वैसे मिट्टी भी प्राणियों का घर होती है। मिट्टी किसी का घर है, ऐसे ही नहीं है मिट्टी। मिट्टी एक ज़िन्दा चीज़ होती है।

मिट्टी में हर इंच पर प्राणियों की बस्ती होती है। और आप जब खेती करते हो, तो क्या करते हो? आपको सबको मारते हो, सबको। एकदम नन्हे प्राणी से लेकर थोड़े बड़े प्राणी तक। बड़ा प्राणी हो गया जैसे चूहा। फिर उससे नीचे हो गया केंचुआ, उसके नीचे हो गये और छोटे-छोटे प्राणी। सबको मार देते हो आप खेती में। और कहते हो मैं तो शाकाहारी हूँ, मैं थोड़े ही हिंसा करता हूँ।

हिंसा तुम्हारे शाकाहारी होने से थोड़ी कम हो जाती है। पर होती तो तब भी है और खूब होती है। हिंसा नहीं हटेगी तुम्हारे शाकाहारी होने से। हिंसा हटती है तुम्हारे ‘न होने से’। पैदा होने का मतलब ही ये है कि अब तुम न जाने कितने लाख जीवों की हत्या का कारण बनोगे। सबसे बड़ा पाप तो ये आबादी है। भले ही ये शाकाहारी आबादी हो। शाकाहार में भी बड़ी हिंसा रहती है।

आप जो रोटी भी खा रहे हो, आप अपनेआप को बोलते हो, इसमें जीव हत्या नहीं है। जीव हत्या कैसे नहीं है? रोटी लाल है। रोटी भी लाल है। जैसे वो पुरानी कहानी है न, नानक साहब के जीवन से कि उनको किसी सेठ ने बुलाया था तो रोटी उसकी ऐसे निचोड़ी उसमें से कहते हैं खून निकला। तो वो तो कहानी प्रतीक में हो गयी। आज सचमुच रोटी में खून है। ये जो आप फसल उगाते हो, ये बहुत हत्या से उगती है। बिना पेस्टीसाइड के खेती दिखा दो? फर्टिलाइजर क्या मारता नहीं है वहाँ अन्दर? पोटाश डालो अपने ऊपर फिर देखो क्या होगा।

अब बोलो कि भाई कम पैदा करो, तो इनको लगने लग जाता है हमारी प्रजाति विलुप्त हो जाएगी। बार-बार यही आता है, ‘अरे! अगर तुमने इस आदमी की बात सुन ली, तो मानव प्रजाति अगले साढ़े तीन महीने में विलुप्त हो जाएगी। यही आक्षेप आते हैं। अरे! तुम्हारी प्रजाति विलुप्त जाएगी? तुमने सारी प्रजातियाँ तो विलुप्त कर दीं और डर तुम्हें यही लग रहा है कि तुम्हारी प्रजाति नहीं बचेगी। तुम्हारे होने से करोड़ो प्रजातियाँ साफ़ हो गयीं सदा के लिए और डर तुम्हें लग रहा है कि तुम नहीं बचोगे। पागल!

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