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लेख
क्यों नहीं मिल सकते भारत को अच्छे नेता? || (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: प्रश्न है कि “क्यों नहीं मिल सकते भारत को अच्छे नेता?”

यहाँ ‘नेता’ लिखा है, मैं समझता हूँ कि राजनैतिक क्षेत्र की बात की जा रही है, तो राजनेताओं की ही बात की जा रही होगी; क्योंकि नेतृत्व तो वरना किसी भी क्षेत्र में हो सकता है, पर यहाँ पर शायद पॉलिटिकल (राजनैतिक) क्षेत्र की ही बात हो रही है।

देखो, जनतंत्र है भई! यहाँ पर ऐसा तो है नहीं कि कोई ताक़त के दम पर या अपनी फ़ौज के दम पर आ कर के चढ़ बैठता है और तुम्हारा मुखिया बन जाता है या प्रधान बन जाता है, यहाँ तो गद्दी उसको ही मिलती है जिसको तुम चुनते हो। तो एक बहुत प्रसिद्ध (वक्तव्य), अंग्रेज़ी में है, कि “पीपल गेट द लीडर्स दे डिज़र्व।” (लोग जैसे होते हैं, उन्हें उसी तरह का नेता मिलता है) और ये बात लोकतंत्र में तो शत-प्रतिशत लागू होती है। तो ये प्रश्न कैसा है फिर, कि “क्यों नहीं मिल सकते भारत को अच्छे नेता”?

भारतीय जैसे हैं, भारतीयों को वैसे नेता मिल जाते हैं। नेता कोई धाँधली कर के तो सत्ता पर काबिज़ होते नहीं, बाक़ायदा मतगणना होती है; जिसको ज़्यादा मिले हैं वोट उसको गद्दी मिल जाती है। तो आप ही तो दे रहे हैं, और आप भारतीय हैं; आप जिस आधार पर मत अपना दर्ज़ कराते हैं, उसी तरीके से लोग सत्ता पर पहुँच जाते हैं। वैसे ही अंग्रेज़ी का एक और (वक्तव्य) याद आ रहा है, कि, “दुनिया-भर में क्या होता है कि पीपल कास्ट देयर वोट; इन इंडिया, पीपल वोट देयर कास्ट (लोग अपना मत देते हैं; भारत में, लोग अपनी जात वालों को मत देते हैं)।“ फिर आप कहते हैं कि भारत को अच्छे नेता क्यों नहीं मिल रहे। जब तक लोग बेहतर नहीं होंगे तब तक नेता बेहतर नहीं हो सकते; और ये बात अच्छे से समझ लीजिए।

लोकतंत्र में नेता जनता की अगुवाई नहीं करता, वो जनता के पीछे चलता है। मतलब समझ रहे हो? लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता कि तुम कहो कि “आइए नेता साहब, हमारा पथ-प्रदर्शन करिए, हमारे आगे-आगे चलिए।" लोकतंत्र में नेता चलता है जनता के पीछे-पीछे; जनता जिधर को जा रही होगी, नेता उधर को ही चल देगा। और अगर नेता किसी और दिशा में चलना चाहेगा, तो फिर वो जनता से अलग हो जाएगा, उसको गद्दी नहीं मिलेगी। आप सवाल पूछ रहे हैं, (अर्थात) आपकी कुछ ऐसी धारणा है कि “हमारा नेता है, वो हमें राह दिखाए, हमारे आगे-आगे चले, हमें रास्ता बताए।“ जनतंत्र में ऐसा नहीं होता, जनतंत्र में लोग आगे-आगे चलते हैं; लोगों में भी कौन लोग आगे-आगे चलते हैं? जो सबसे मूढ़ होते हैं वो सबसे आगे चलते हैं, क्योंकि संख्या सबसे ज़्यादा उन्हीं की होती है, बहुमत उन्हीं का होता है।

तो पहली बात तो लोग चुनते हैं नेता को, और दूसरी बात, लोगों में भी वो वर्ग जो सबसे ज़्यादा मूढ़ है, वो चुनता है नेता को, क्योंकि वही सबसे ज़्यादा बड़ा होता है। जब मतों की गिनती होती है तो उसमें ये थोड़े ही देखा जाता है कि जिसने वोट डाला है उसने बुद्धि कितनी लगायी थी, उसने होश कितना लगाया था, ये देखा जाता है क्या? एक वोट बुद्ध ने डाला हो, एक वोट बुद्धू ने डाला हो, दोनों की बराबर की हैसियत होती है जनतंत्र में। तो बेहतर नेता तभी मिल सकते हैं जब लोग बेहतर हों। लोग तब बेहतर होंगे जब उन्हें पहले एक बेहतर आध्यात्मिक नेता मिलेगा, क्योंकि लोगों को बेहतर और किसी तरीके से बनाया नहीं जा सकता।

लोग बेहतर हों, इससे मेरा क्या आशय है? लोगों के कपड़े बेहतर हों, लोगों के मकान बेहतर हों? मैं कह रहा हूँ, लोग बेहतर हों, तब बेहतर उनको नेता मिलेगा; मैं किस तरह की बेहतरी की बात कर रहा हूँ? मैं मन की बेहतरी की बात कर रहा हूँ न; आपकी चेतना का स्तर ऊँचा हो, आपके निर्णयों का स्तर ऊँचा हो। ये काम कौन करवाएगा? ये काम एक आध्यात्मिक नेता ही करवा सकता है। तो आप एक बेहतर राजनेता चुन पाएँ, इसके लिए पहले आवश्यक है कि आपको पहले एक बेहतर आध्यात्मिक नेता मिले।

आध्यात्मिक नेता होता है जो जनता के आगे-आगे चलता है, जनता के पीछे नहीं चलता। अगर आप समाज में, देश में बदलाव चाहते हैं, तो वो बदलाव जनतंत्र में एक राजनेता ला ही नहीं सकता, भले ही वो प्रधानमंत्री ही क्यों न हो, क्योंकि ले-देकर प्रधानमंत्री को भी आपके पीछे-पीछे ही चलना है। “तुम दिन को अगर रात कहो, हम रात कहेंगे।" प्रधानमंत्री आपके पीछे-पीछे नहीं चलेगा तो वो गद्दी से उतार कर फेंक दिया जाएगा। और यहाँ तो हर साल चुनाव होते हैं। केंद्र में पाँच साल में होता है, और ये जो दो-ढाई दर्जन राज्य हैं; तो हर साल दो राज्य, चार राज्य, छः राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं, भारत में चुनाव तो कभी रुकते ही नहीं। आप किसी को प्रधानमंत्री बना दें, मुख्यमंत्री बना दें, राष्ट्रपति बना दें, वो ज़रा-सा जनता की इच्छाओं के खिलाफ़ कोई काम करेगा, तुरन्त दो महीने बाद जो भी चुनाव होगा उसमें उसको सज़ा मिल जाएगी, तुरन्त मिल जाएगी। भारत में किसी भी समय आप किसी आम-चुनाव से बहुत दूर नहीं होते हैं। आज का दिन ले लीजिए, आप कहेंगे, “अच्छा, अगले चार महीने में फलाना चुनाव आ रहा है, ये चुनाव आ रहा है, वो चुनाव आ रहा है।“ राज्यों में चुनाव हो रहे होंगे, नगर-समितियों में हो रहे होंगे; कहीं-न-कहीं कोई चुनाव लगा रहता है। सज़ा तुरन्त मिल जाएगी नेता को, जो जनता के पीछे चलने की जगह जनता के आगे चलने की कोशिश करेगा। जनता के आगे राजनेता नहीं चल सकता, जनता के आगे बस आध्यात्मिक नेता, माने गुरु चल सकता है।

भारत को गुरु की ज़रूरत है। भारत को सही गुरु मिल गया तो भारतीय सीख लेंगे सही नेता को चुनना; जब तक भारतीयों को सही गुरु नहीं मिलता, भारतीय घटिया नेता ही चुनते रहेंगे। और अगर आज आपको प्रश्नकर्ता के तौर पर ये लग रहा है कि भारतीयों ने सब गड़बड़ नेता ही चुने हैं आज तक, तो उसकी वजह फिर सीधे ये जान लीजिए, मामला साफ़ है, कि भारतीयों को अच्छे गुरु नहीं मिले हैं पिछले पचास-सौ साल में, क्योंकि गुरु ही तो रास्ता दिखाता है। समाज की चेतना को आकार देना गुरु का काम है। अगर गुरु ग़लत है या आपने ग़लत लोगों को गुरु बना लिया है तो समाज विक्षिप्त हो जाएगा, पागलों जैसी उसकी दशा हो जाएगी, इधर-उधर के चुनाव करेगा, बेकार की बातें सोचेगा, जिस दिशा नहीं चलना चाहिए उधर को बढ़ेगा।

समझ में आ रही है बात?

तो जो लोग चाहते हों कि राजनैतिक क्रांति हो भारत में, मैं उनको बताए देता हूँ कि एक अच्छी राजनैतिक क्रांति हो पाए भारत में, उसके लिए पहले एक आध्यात्मिक क्रांति करनी पड़ेगी; आध्यात्मिक नेता अच्छा पहले आएगा, उसके बाद अच्छा राजनैतिक नेता आएगा।

स्पष्ट हो रही है बात?

प्रश्नकर्ता: गुरु जी नमन। पिछले सौ सालों में भारत में आध्यात्मिक गुरु भी हुए हैं, फिर भी लोगों ने ग़लत नेताओं को चुना है।

आचार्य: नहीं, देखिए, गुरु होने-भर से आज के समय में काम नहीं चलेगा। आज का कालधर्म ऐसा नहीं है कि आप गुरु हो जाएँ, उतने-भर से समाज में, संसार में क्रांति आ जाएगी। गुरु अगर एक सामाजिक-कार्यकर्ता नहीं है, एक सोशल-एक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता) नहीं है, तो अब बात नहीं बनेगी।

आप देश की उन जगहों को देखिए जिन्होंने सबसे भद्दे नेता चुने हैं, सारी ही जगहें ऐसी हैं वैसे तो, पर फिर भी उनमें जो विशेषकर पिछड़ी हुई जगहें हैं, उनको देखिए। वहाँ तक उन गुरुओं का नाम भी पहुँच रहा है क्या, जिनका अभी आप ख़्याल कर रहे हैं? तो अभी वो समय आ गया है जहाँ गुरु को बहुत ज़बरदस्त रूप से सोशल-एक्टिविज़्म (सामाजिक सक्रियता) में उतरना पड़ेगा। गुरु अपनी जगह बैठा रहे, किसी को उसका पता ही नहीं चल रहा, तो उससे कौन-से समाज में फिर परिवर्तन आ जाएगा, बताइये?

गुरु को अपना प्रचारक बनना पड़ेगा। ये बात आपको सुनने में जैसी भी लगे, लेकिन आज अगर कोई सच्चा गुरु होगा तो वो प्रोपोगेंडिस्ट होगा। ये शब्द मुझे मालूम है, सुन कर हमें अजीब-सा लगता है, “ प्रोपोगेंडा अध्यात्म में! अरे! ये कैसी बात है!” पर अगर आप वाकई दुनिया का भला चाहते हैं, एक गुरु होने के नाते, तो आप आज ये नहीं कर सकते कि अपनी गुफा में छुप कर बैठे रहें; आप गुफा में छुप कर बैठे रहिए और वहाँ समाज में आग लगी रहेगी। आप को बाहर निकल कर के ज़ोर-शोर से, ढोल बजा-बजा कर, लोगों के कानों में घुस कर शोर मचाना पड़ेगा; क्योंकि स्वेच्छा से तो कोई आपको सुनना चाहेगा नहीं, तो आपको घर-घर जा कर ज़बरदस्ती अपनी बात को उनको सुनाना पड़ेगा, तब जा कर के आप उम्मीद कर सकते हैं कि कुछ बदलाव आएगा।

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