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खुद जग जाओ, नहीं तो ज़िंदगी पीट कर जगाएगी || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
17 min
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प्रश्न: आचार्य जी, आज दिन भर तमस हावी रहा है। मैं देख रहा था कि उसपर मेरा वश चल नहीं पा रहा था ज़्यादा। कभी देख पा रहा था, कभी लुढ़क रहा था, और कभी उठा रहा था ख़ुद को। ये लगातार चलने वाली प्रक्रिया है या कुछ और है?

आचार्य प्रशांत: देखो बेटा, शरीर तो होता है जड़। ठीक है? तमसा शरीर की तो होती नहीं। कोई कुछ भी बोले कि लोग तीन तरह के होते हैं, या लोगों ने जो भोजन कर लिया होता है वो तीन तरह का होता है इसीलिए वो भोजन कर-करके लोगों के शरीर तीन तरह के बन गए होते हैं। कई लोग होते हैं, कहते हैं, "मेरा शरीर बड़ा आलसी है।" बेकार की बात है!

तुम आलस करने में आलस करते हो क्या?

एक बार तो बड़ा मज़ा लगा था। तब रविवार को सुबह-सुबह सत्र हुआ करते थे, कई साल पहले की बात है। तो नौ बजे लोगों को आना होता था। मैं कहूँ, "नौ बजे आ ही जाना, नहीं तो दरवाज़े बंद कर दूँगा, फिर सत्र में नहीं बैठ पाओगे।" गर्मी में तो फिर भी ठीक था, जाड़ों में जो लोग दूर से आएँ, कोई गुड़गांव से आ रहा, कोई कहीं से आ रहा, वो नौ बजे पहुँचे ही नहीं। जाड़ों में आने वालों की संख्या भी कम हो जाए। पूछो तो कहें, "जाड़ा बहुत है, आलस आता है। सात बजे तक तो अंधेरा ही रहता है, कैसे उठा करें?" ये... वो...।

तो एक बार मैंने दूसरा प्रयोग किया, मैंने कहा, "आज नौ बजे दरवाज़ा मत बंद करना, दरवाज़ा खुला रहने देना, जितने आते हैं आने देना। आज सत्र शुरू होने के समय दरवाज़ा खुला रहेगा, नहीं बंद होगा।" दरवाज़ा खुला रहा, लोग आते रहे, आते रहे। जब आ गए, सत्र हो गया, तो मैंने कहा, "अब दरवाज़ा बंद कर दो! आज आने के लिए खुला था, आज लौटने के लिए नहीं खुलेगा। आज लौटने के लिए बंद रहेगा।" जितने लौटने वाले थे वो सब दरवाज़े पर पहुँच गए, दरवाज़ा पीटने लगे, बोले, "खोलो! खोलो!” बोले, "जाने दो!” स्वयंसेवकों ने कहा, "दरवाज़ा तो खुलेगा नहीं, चाबी आचार्य जी के पास है।"

मैंने कहा, "तुम लोग भाई आलसी लोग हो, या तुम्हें बस आने में आलस आया था?" जहाँ से आए थे, और आने में जितना रास्ता तय किया था, यहाँ से वहीं को वापस लौटोगे, और वापस लौटने में भी उतना ही रास्ता तय करोगे। तो अगर तुमको आने में आलस था, तो वापस लौटने में भी आलस होना चाहिए बिल्कुल बराबर का। तो बिल्कुल आलस करो न। आलस दिखाओ! दरवाज़ा बंद है, सो जाओ।"

"नहीं, नहीं, कोई आलस नहीं है। जाने दो! जाने दो! बहुत मार पड़ेगी।"

"नहीं, तुम तो आलसी लोग हो। वापस जाने में भी आलस करो न, या बस आने में ही आलस होता है? अगर वाकई तुम पक्के और सच्चे आलसी होते तो जितना आलस तुम्हें यहाँ तक आने में होता, उतना ही आलस तुम्हें यहाँ से वापस जाने में भी होता। पर वापस जाने में तुम्हें कभी आलस नहीं होता, हिरण की तरह भागते हो! और यहाँ जब आना होता है तो कछुए की तरह आते हो। कहते हो, "हम तो आलसी हैं"।"

तो ये बात आलस की नहीं है, ये बेईमानी की बात है।

'तमसा' की बात कर रहे हो न तुम? यही शब्द इस्तेमाल किया न तुमने कि दिन भर आज 'तमस' से भरा रहा? 'तमसा' जानते हो क्या होती है? तमसा एक झूठा विश्वास होती है। तमसा एक अंधा विश्वास होती है कि, "मैं जैसा हूँ, ठीक हूँ।" जब मैं जैसा हूँ, ठीक हूँ, तो मुझे सोने दो न भाई! इसीलिए तामसिक आदमी सोता ख़ूब है। "अरे भाई, जब सब ठीक ही चल रहा है, तो मेहनत क्यों करा रहे हो?" मुझे सोने दो! तामसिक आदमी को ये झूठा यकीन बैठ गया होता है कि जो चल रहा है ठीक ही चल रहा है, और वो बिल्कुल ठीक है।

सात्विक, राजसिक, तामसिक मन में अंतर साफ समझ लो।

सात्विक होने का मतलब है कि तुम सही जगह पर बैठे हो। और अब तुम्हारी तपस्या है कि सही जगह पर बैठे ही रहो, और कोई तुम्हें वहाँ से हिला-डुला न दे, भगा न दे। ये सात्विक आदमी है।

राजसिक आदमी वो है जिसे ये तो पता है कि वो ग़लत जगह पर है, पर जिसे सही जगह का अभी कुछ पता नहीं। तो वो दर-दर घूम रहा है और पचास दिशाओं में भाग रहा है, और हर जगह ठोकर खा रहा है। वो तलाश रहा है सही दिशा को, पर सही दिशा उसे मिल नहीं रही। वो सही चीज़ की तलाश कर रहा है, पर ग़लत जगह पर। ये राजसिकता है। इसीलिए राजसिक आदमी को तुम पाते हो ख़ूब दौड़ता-भागता। उसमें महत्वाकांक्षा होती है, उसकी इच्छा होती है, वो दौड़ लगा रहा होता है। उसे कम-से-कम इतना तो पता है कि उसे अभी कुछ चाहिए। उसे इतना तो पता है कि उसकी ज़िंदगी में कुछ अधूरा है, कुछ खाली है, कुछ ग़लत है। तो राजसिक आदमी को आप पाओगे ख़ूब दौड़-भाग करते हुए। उसे अपने भीतर के झूठ का और अधूरेपन का एहसास है।

तामसिक आदमी गज़ब होता है एकदम। पहली बात, वो ग़लत जगह पर बैठ गया होता है, और दूसरी बात, उसने अपने-आपको ये भरोसा दिला दिया होता है कि — मैं सही जगह पर बैठा हूँ। ये भरोसा अपने-आपको दिला कर के वो सो जाता है।

सात्विक आदमी वो है जो सही गाड़ी पर चढ़ा हुआ है, मंज़िल पर पहुँच जाएगा।

राजसिक आदमी वो जो गाड़ी पकड़ने के लिए ज़ोर से दौड़ रहा है, इधर-उधर पूछताछ कर रहा है, "भैया, कौन-सी ट्रेन है जो मुझे मेरी मंज़िल ले जाए?” लोग पूछ रहे हैं, "तेरी मंज़िल क्या है?” ये पता करने के लिए वो कहीं और, किसी और काउंटर, किसी और खिड़की पर जाकर पूछ रहा है, "मेरी मंज़िल क्या है?” वो कह रहे हैं, "टिकट हम बाद में देंगे, पहले तू पता कर के आ कि जाना कहाँ है।" ये राजसिक आदमी आपको स्टेशन पर, प्लेटफॉर्म पर, चारों तरफ बदहवासी में दौड़ता हुआ नज़र आएगा। ये राजसिकता है।

सात्विक आदमी कौन था? वो सही ट्रेन में बैठ गया है। ट्रेन सही दिशा जा रही है। वो मौज में है। वहाँ भजन कर रहा है।

राजसिक आदमी क्या कर रहा है? एक से लेकर बीस नंबर तक प्लेटफॉर्म पर वो दौड़ लगा रहा है, उसको पता ही नहीं कि उसे जाना कहाँ है, "कौन-सी गाड़ी?” पर इतना एहसास उसे ज़रूर है कि उसे कहीं जाना है, उसे कोई गाड़ी चाहिए जो उसे मिल नहीं रही है। तो कभी इस गाड़ी में बैठता है, कभी उस गाड़ी में बैठता है, कभी यहाँ पूछताछ करता है, कभी उससे मिन्नत करता है। ये राजसिक आदमी है।

और हमारे जो तामसिक महाराज हैं, उनका क्या वृतांत बताएँ! वो क्या कर रहे हैं? अरे, गाड़ी में नहीं, वो जो प्लेटफॉर्म पर हाथ-गाड़ी होती है, सामान ढोने की, देखी है? सामान ढोने की हाथ गाड़ी होती है, वो उसपर जाकर सो गए हैं। और उनको पूरा भरोसा है कि वो 'चेन्नई राजधानी' में बैठे हुए हैं और कल शाम ढलते-ढलते वो मंज़िल तक पहुँच ज़रूर जाएँगे। वो धुत्त अपना हाथ गाड़ी पर सो रहे हैं और कोई बताने आता है कि, "अरे, हिल लो! कुछ कर लो!,” तो उसको वो गाली-गलौच कर के भगा देते हैं। कहते हैं, "भक्क! हम बिल्कुल सही जगह पर हैं, और हमें सोने दो"। कोई बोलता है, "आँख खोलकर देख तो लो," बोलते हैं, "आँख क्या खोलनी है? हमें पता है भाई, हम सही हैं!" ये तामसिकता है।

तामसिकता, आलस नहीं है; सतह पर वो आलस जैसी प्रतीत होती है। तामसिकता एक गहरा विश्वास है; कॉन्फिडेंस है तामसिकता। आलसी लोगों को तामसिक मत समझ लेना। जिन लोगों को अपने ऊपर बहुत यकीन है, उनको जानो कि वो तामसिक हैं। वो अपने में ही भरे हुए हैं। वो कह रहे हैं, "हमें पता है, हम सही जा रहे हैं। ठीक है!" देखे हैं ऐसे लोग न? "आई नो (मुझे पता है)।" उन्हें किसी तरह का कोई संदेह ही नहीं उठता अपने ऊपर: "हम कर क्या रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? क्यों जी रही हैं? कहाँ आए हैं? कहाँ को जाना है?”

उन्हें किसी तरह का कोई सवाल नहीं है। वो अपने आप से ही भरपूर हैं, छलछलाए जाते हैं। ये तामसिकता है।

आमतौर पर हम तामसिक आदमी की छवि बना लेते हैं कि कोई मोटा आदमी जो शराब पीकर के एकदम धुत्त पड़ा हुआ है, हिलने-डुलने को तैयार नहीं, उसपर मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं। ऐसी ही छवि है न? नशेड़ी, बेहोश प्रमादी की—यही छवि है तामसिक आदमी की?

तामसिक आदमी ये नहीं है।

तामसिक आदमी कौन है? द कॉन्फिडेंट वन (जिसको अपने ऊपर पूरा भरोसा है)। उस भरोसे के फलस्वरुप वो आलस का भी प्रदर्शन कर सकता है, पर आवश्यक नहीं है कि वो आलस का ही प्रदर्शन करे। उसकी केंद्रीय पहचान आलस नहीं, 'आत्मविश्वास' है। आलस उसमें हो सकता है हो, हो सकता है न भी हो, लेकिन एक चीज़ उसमें ज़रूर होगी, आत्मविश्वास। और ये जो आत्मविश्वास है, ये एक तरह का अंदरूनी आलस है, क्योंकि आत्मविश्वास आपसे कहता है कि - "आप ठीक हो"। जब आप ठीक हो तो आपको कुछ करने की ज़रूरत क्या है? जब कुछ करने की ज़रूरत क्या है, तो आपकी अवस्था कहलाती है आलस की। वो बाहर-बाहर हो सकता है बहुत कुछ करे: बाहर-बाहर चलेगा-फिरेगा, हो सकता है वो दौड़ लगाता हो, लेकिन उसमें एक अंदरूनी आलस्य होता है।

तामसिकता का अर्थ अगर आलस है भी तो, 'अंदरूनी' आलस है।

अंदरूनी आलस्य माने - "मैं भीतर अब जहाँ जम गया हूँ, वहीं जमा रहूँगा, कोई मुझे हिला नहीं सकता। मुझे पता है कि मुझे पता है - ‘आई नो' (मुझे पता है)"। ये तामसिकता है —'आत्मविश्वास', 'कॉन्फिडेंस'।

(प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हैं) तुम्हें भी दिन भर (शिविर में) कुछ रहा होगा आत्मविश्वास कि — "मुझे तो पता ही है,” या, "ये सब यहाँ पर जो गतिविधियाँ चल रही हैं दिन भर, इनकी मुझे क्या ज़रूरत है? मुझे तो पहले ही सब पता है। मैं तो ज्ञानी हूँ; आई नो।" तुमने भी कहा कि - "जब मुझे पहले ही सब पता है तो सो जाओ, लुढ़क जाओ।" तुम्हें वाक़ई अगर लगता कि दिन भर जो हो रहा है वो तुम्हारे काम की चीज़ है, वो तुम्हें कुछ नया दे जाएगी, तो क्या तुम सो पाते? बोलो? नहीं सो पाते न? सो पाने की वजह फिर शारीरिक नहीं, मानसिक है। तुम्हें ये विश्वास है कि, "हमें पता है साहब, हमें मत बताइए!" तो सो गए।

यहाँ भी सत्र में हैं कुछ, जिन्हें बहुत नींद आती है। उनको नींद आने की वजह बस यही है कि उनको भीतर कहीं-न-कहीं ये पूरा विश्वास है कि हमें सब पता है। नहीं तो नींद आ कैसे जाती?

आ रही है बात समझ में?

तो तामसिक आदमी की बेवड़े की छवि मत बना लेना कि, "बेवड़ा है, शराब पीकर के सड़क पर गिर कर सो गया। ये तामसिक आदमी है।" न, न, न! वो आलस हो सकता है बाहरी आलस न हो, भीतरी आलस हो। उस भीतरी आलस का नाम होता है - 'सेल्फ कॉन्फिडेंस'। ये जितने कॉन्फिडेंस के विक्रेता दिख रहे हैं न तुमको, जो सिखाते ही यही हैं - "हाउ टू बी कॉन्फिडेंट (आत्मविश्वास कैसे बने)?” और जितने तुमको ग्राहक दिखाई दे रहे हैं कॉन्फिडेंस के, "बताइए हम कॉन्फिडेंस कैसे बढ़ाएँ?,” ये सब वास्तव में तामसिक होना चाह रहे हैं।

जब आप कहते हो कि, "आई एम कॉन्फिडेंट (मुझे विश्वास है),” तो आप किसी विषय में कॉन्फिडेंट होते हो न? "आई एम कॉन्फिडेंट ऑफ समथिंग (मैं किसी चीज़ के लिए आश्वस्त हूँ)," ठीक? ऑफ़ व्हॉट? किस चीज़ का विश्वास है आपको? अपने आप का, अहंकार का, कि आप ठीक हो, कि आप जानते हो। जबकि तथ्य क्या है? कि आप नहीं जानते हो। तो जो सबसे बड़ा झूठ हम अपने आपसे बोल सकते हैं, वो यही है - कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास)।

अपने आपको ये जतला देना कि, "मैं ठीक हूँ,” "मैं स्वस्थ हूँ,” "मैं सही जगह बैठा हुआ हूँ,” "मुझे पता है,” जबकि मैं न ठीक हूँ, न स्वस्थ हूँ, न मुझे कुछ पता है—यही तमसा है।

प्रश्नकर्ता (प्र): आचार्य जी, जो सात्विक है उसकी साधना यह है कि वो जहाँ बैठा है वहाँ से डिगे नहीं। जो राजसिक है, वो अपनी पूरी ऊर्जा लगाए, किसी सही व्यक्ति को ढूँढे, और सही गाड़ी में बैठे। जो तामसिक है, उसके लिए क्या कदम है कि वो अपना आत्मविश्वास कम करे, क्योंकि वो तो किसी को रिसीव (ग्रहण) भी नहीं करता?

आचार्य जी: कहीं-न-कहीं पता तो उसको भी है कि वो रेलगाड़ी नहीं, हाथगाड़ी पर बैठा हुआ है। कोई और मित्र तुम्हारा हो नहीं सकता, तुम्हारी अपनी चेतना ही मित्र होती है तुम्हारी। तुमने कितना भी अपने आपको तामसिक बना लिया हो, लेकिन कुछ तो चेतना अभी भी बची होगी न तुम में? ईमानदारी से उसकी सुनोगे तो पता चल जाएगा कि — मैं उतना भी ठीक नहीं हूँ जितना मैंने अपने आपको यकीन दिला रखा है। उसके अलावा देखो कोई चारा नहीं है।

उसके अलावा फिर जो चारा है, वो तो ईश्वरीय अनुकम्पा ही है कि तुम हाथगाड़ी पर सोने के मज़े ले रहे हो, और कोई आए और तुम्हारी हाथगाड़ी पलट ही दे, और दो-चार लात लगाए और कहे, "कैसी लग रही है राजधानी के फर्स्ट ए.सी. की यात्रा? कैसी लग रही है, बताओ?” पर ये तो फिर ईश्वरीय अनुकम्पा है कि तुम्हारे जीवन में ऐसी कोई दुर्घटना हो, जो तुम्हें झंझोड़ के जगा ही दे, जो तुम्हारे सब ढकोसलों को उजागर कर दे, जो तुम्हारी सारी आंतरिक गलतफहमी चूर-चूर कर दे।

तो या तो तुम इंतज़ार करो और प्रार्थना करो कि इस तरह का कोई दैवीय हस्तक्षेप हो तुम्हारे जीवन में, या फिर ख़ुद ही ईमानदारी से जग जाओ और कहो कि — "या तो मैं अपने आपको ये बोल दूँ कि मुझे प्लेटफॉर्म पर ही सोना है, फिर ठीक है, फिर प्लेटफॉर्म पर सोने में कोई बुराई नहीं, या मैं ये मान लूँ कि मुझे जाना तो चेन्नई है पर मैं रेलगाड़ी की जगह हाथगाड़ी पर सो रहा हूँ।"

इन दो के अलावा कोई रास्ता नहीं होता — या तो ख़ुद जग जाओ, या इंतज़ार करो कि ज़िंदगी झंझोड़ के जगा देगी। लेकिन ज़िंदगी आवश्यक नहीं है कि जगा ही दे।

दो बातें समझिएगा उस दैवीय हस्तक्षेप के बारे में, जिसकी बात करी मैंने। पहली बात, वो दैवीय हस्तक्षेप हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। हज़ार में से एक ही दो ऐसे लोग होते हैं जिन पर जीवन इतना मेहरबान होता है कि उनको गिरा दे, मार-पीट के जगा दे। हज़ार में एक ही दो लोग होते हैं। दूसरी बात, जीवन जब आपको जगाता है तो वो ये नहीं परवाह करता कि आप जगेंगे या नहीं जगेंगे, और जगेंगे तो आपको चोट कितनी लगेगी, और जगाने की प्रक्रिया में कहीं आप मर ही गए तो—जीवन फिर इन सब बातों की परवाह नहीं करता।

जीवन ऐसा है कि जैसे आप रेल की पटरी पर ही सो गए। आप रेल की पटरी पर ही सो गए, तो आपको जगाने के लिए आ भी रहा है तो कौन? रेलगाड़ी। आप जग गए तो ठीक, धन्यवाद दीजिएगा कि जग गए! और नहीं जगे तो भी ठीक, वो आपके ऊपर से गुज़र जाएगी! उसको ये इच्छा ही नहीं है कि आप जगें, वो अपना काम कर रही है। उसके काम करने के फलस्वरूप अगर आपको जागृति मिल गई कि आप ट्रेन की पटरी पर लेटे हुए थे, और तभी सब कुछ गड़गड़-गड़गड़ हिलने लग गया, ट्रेन की गुर्राहट दूर से आपको सुनाई देने लग गई, और सीटी आपके कानों को चीर गई बिल्कुल, और आप उठ बैठे, तो अच्छी बात है, आपके लिए अच्छा है। पर ट्रेन की ये मंशा नहीं थी कि आपको जगाए। आप उठ गए, आपका सौभाग्य है, पर ये ट्रेन का इरादा नहीं था कि वो आपको जगाए। उसका तो काम है चलते रहना। उसके चलते रहने के फलस्वरूप आप जग जाएँ, तो ये एक आकस्मिक घटना है, आयोजित नहीं। और आप नहीं जगे तो जीवन फिर कोई रियायत नहीं करता, ट्रेन में कोई करुणा नहीं होती है, वो गुज़र जाएगी आपके ऊपर से।

तो कुल मिलाकर के ये दो विकल्प हैं, जो कि — या तो अपनी चेतना के साथ ईमानदारी बरतो और उठ जाओ, या फिर किसी दैवीय अनुकम्पा की प्रतीक्षा करो। इन दोनों में से बेहतर विकल्प कौन-सा है? भैया, ख़ुद ही उठ जाओ! नहीं तो कहते हैं न - "ख़ुदा की लाठी बे-आवाज़ होती है, पर पड़ती बहुत ज़ोर की है।"

या तो ख़ुद सीख लो, नहीं तो ज़िंदगी सिखाएगी। जब ज़िंदगी सिखाती है तो वो किसी तरह की कोई रियायत नहीं करती। वास्तव में वो सिखाना भी नहीं चाहती है, वो बस कर्मफल देना चाहती है। उस कर्मफल से आप सीख लिए, आपकी किस्मत; उस कर्मफल ने आपको तोड़ ही दिया, बर्बाद ही कर दिया और मार ही डाला, आपकी किस्मत।

वो लोग बहुत सावधान रहें जो कहते हैं कि, "नहीं साहब, हमें सीखने की ज़रूरत नहीं है, हम अपने अनुभवों से सीखेंगे। हम तो जीवन से सीखेंगे। हमें ज़िंदगी सिखाएगी।" ज़िंदगी बहुत कठोर शिक्षिका है। वो शिक्षिका भी नहीं है, वो ऐसी है कि वो साल भर पढ़ाती नहीं है, वो सिर्फ़ साल के अंत में इम्तिहान लेती है। वो कहती है - "पढ़ाई-लिखाई तुम जानो। सेल्फ -स्टडी! हमारा काम क्या है? इम्तिहान लेना।" वो इम्तिहान लेती है। तुमने इम्तिहान में योग्यता दिखा दी, बड़ी बात! नहीं दिखाई, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वो सीधे तुमको अयोग्य और अनुत्तीर्ण घोषित करके आगे बढ़ जाएगी।

तो ये प्रतीक्षा मत करो कि "मैं तो जीवन से सीखूँगा," इत्यादि-इत्यादि; जहाँ कहीं से सीख सकते हो, और जितनी जल्दी सीख सकते हो, सीखो बेटा।

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