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लेख
विधि - शारीरिक मेहनत और मानसिक त्याग || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वह्वेर्यथा योनिगतस्य मूर्ति दृश्यते नैव च लिग्ननाश:। स भूय एवेन्धनयोनिगृह्मस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक १३)

अनुवाद: जिस प्रकार अग्नि का उसके आश्रय-स्थान काष्ठ में कोई रूप नहीं दिखता और उसके मूल तत्व का भी नाश नहीं होता, क्योंकि आगे प्रयत्न करने पर ईंधन रूप अपने आश्रय में उसे (अग्नि को) ग्रहण किया जा सकता है, उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा दोनों ॐकार साधना के द्वारा ग्रहण किए जा सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें दिखाई देता हो या ना दिखाई देता हो, वो तो है ही। और वो वैसे ही है जैसे काष्ठ में, माने लकड़ी में आग; दिखाई तो किसी तरीके से देती नहीं, दिखाई तो बिलकुल नहीं देती, लेकिन है। और दिखाई अगर नहीं दे रही तो इसका मतलब ये भी नहीं है कि मिट गई है, थोड़ा प्रयत्न करोगे, दिखाई भी देने लग जाएगी। बस ये है कि जहाँ छुपी हुई थी, जब दिखाई देती है तो उसी को भस्मीभूत कर देती है; ये एक शर्त है।

दूसरी - वो तुमको दिखाई दे इसके लिए आवश्यक है कि उसी जैसी किसी वस्तु के तुम निकट आओ; लकड़ी के भीतर की आग तुमको दिखाई दे इसके लिए ज़रूरी है कि लकड़ी बाहर से आग के पास आए। तुम्हारे भीतर जो छुपा बैठा है उसी के जैसे किसी के पास तुमको बाहरी तौर से आना पड़ेगा, तो फिर वो ही तुम्हारे भीतर से भी प्रकट हो जाएगा। लकड़ी आग के पास आएगी तो आग लकड़ी के भीतर से प्रकट हो जाएगी; नहीं पास आएगी तो लकड़ी आग को अपने ही भीतर रचाए–बसाए एक दिन सड़–गलकर नष्ट हो जाएगी, लकड़ी को तो नष्ट होना ही है।

तो ऋषि कहते हैं, “इससे पहले कि लकड़ी नष्ट हो जाए, तुम अपने भीतर की आग को प्रकट हो जाने दो। बुरे-से-बुरा यही होगा न कि तुम्हारे भीतर की जब आग ज्वाला बनकर के उभरेगी तो तुम्हारी लकड़ी जल जाएगी? पर लकड़ी का तो मिटना-जलना तय ही है; या तो तुम्हारी लकड़ी मशाल की तरह जल जाए, नहीं तो सड़-सड़कर, गल-गलकर जलेगी। जलेगी नहीं, फिर मिटेगी। या तो उसको सड़ जाने दो, आग को अपने भीतर ही दबाए-सुलाए, या उसे जल जाने दो, आग को प्रज्वलित होने का मौका देकर।“

तो तुम्हारे भीतर सत्य वैसे ही छुपा हुआ है जैसे काष्ठ में अग्नि।

आ रही है बात समझ में?

“जीवात्मा और परमात्मा दोनों ॐकार साधना के द्वारा ग्रहण किए जा सकते हैं।” ॐकार साधना क्या है? और उसका काष्ठ में अग्नि से क्या संबंध है? ॐकार साधना कहती है कि तुम अकार, उकार, मकार, इन तीनों को समझो, और इन तीनों बाहरी खोलों को जो समझ गया वो सत्य, माने मौन, माने तुरीय तक पहुँच जाएगा।

ॐकार साधना कहती है कि शुरुआत करो तुम अपने बाहरी खोल से। इसको समझो। तुम्हारे बाहरी खोल का नाम होता है ‘अ’। ‘अ’ माने अकार साधना; ‘अ’ माने तुम्हारी चेतना की जागृति की स्थिति। ॐकार साधना कहती है, “पहले तो इसको समझो कि जब तुम जग रहे हो तब तुम्हारी दुनिया क्या है, उस दुनिया का द्रष्टा कौन है।“ माने तुम अपनी चेतना का जो सबसे ऊपरी विभाग है, उसका निरीक्षण करो। तुम्हारी चेतना का जो चैतन्य हिस्सा होता है वही जागृति में सर्वाधिक सक्रिय होता है, जब वो सक्रिय होता है तो तुम कहते हो, “मैं जगा हुआ हूँ।“

उसके नीचे आता है उकार, उकार का संबंध है तुम्हारी चेतना के सोते हुए हिस्से से। वहाँ पर तुम्हारे चैतन्य की गहराई में जो छुपा हुआ है वो प्रकट होता है, कैसे? सपनों के रूप में। जो तुम्हारे सपनों में दिखाई देता है उसका ज्ञान अकसर तुम्हें अपनी जागृत अवस्था में नहीं होता होगा, इसीलिए तुम्हारे सपने अकसर तुमको भौंचक्का कर जाते हैं, तुम कहते हो, “ये क्या चीज़ आ गई!" वो कहीं से आ नहीं गई, वो भीतर ही थी, बस वो जगते समय पता नहीं चलती थी, क्योंकि जगते समय मन का जो हिस्सा सक्रिय रहता है वो मन का सबसे बाहरी खोल है बस, उससे भीतर का खोल वो है जो स्वप्न के समय सक्रिय होता है।

देखो यही बातें अभी फिर पिछली ही शताब्दी में पहले फ्रायड ने करीं, फिर यंग ने करीं, और अब ये करीब-करीब सर्वमान्य बातें हैं, कि आपकी जो साइकी होती है उसके इस तरीके से हिस्से होते हैं। ठीक है? उन्हीं हिस्सों को एक-एक करके समझने को ॐकार साधना कहा गया है।

फिर मकार साधना। मकार साधना माने अपनी चेतना के उस हिस्से को समझना जो एकदम भीतर है, जो स्वप्न से भी नीचे है, जिसमें आपको कोई अनुभव ही नहीं होता, सिवाय अनुभवहीनता के; वो आखिरी अनुभव है जो बस बचा रह जाता है गहरी-से-गहरी नींद में, उस गहरी-से-गहरी नींद को ही ‘म’ के द्वारा इंगित किया जाता है। और वो जो ‘म’ है वो भी जब आप कहते हैं, “ओम्म्म...” तो मिटता चला जाता है। जब वो भी मिटता चला जाता है तो अंत में बचता है बस मौन; मौन ॐकार साधना को पूरा कर देता है। ठीक है?

तो कहाँ से मिला आपको परमात्मा? कहाँ से मिला सत्य? अपनी ही चेतना के भीतर जाकर के मिला आपको सत्य। कहा जा रहा था न, “काठ के भीतर आग है”, वैसे ही मन के भीतर जाओगे, जाओगे, जाओगे, तो केंद्र में आत्मा को पाओगे।

‘ॐ’ को संसार समझ लो, और उस ‘ॐ’ को पार करके तुम मौन तक पहुँचे; माने संसार को पार करके आत्मा तक पहुँचे, माने लकड़ी को चीरकर आग तक पहुँचे। ऐसे कहा जा रहा है, कि जैसे काठ से आग उत्पन्न हो सकती है वैसे ही ॐकार साधना करने पर सत्य प्रकट हो सकता है।

स्पष्ट हो रहा है?

ॐकार साधना क्या हुई? अपने ही मन और जीवन के तलों को एक-एक करके उघाड़ना, अपने ही भीतर के रहस्यों को एक-एक करके अनावृत करना; ये हुई ॐकार साधना।

स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरराणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासद्दिवं पश्येन्निगूढवत्।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्र्लोक १४)

अनुवाद: साधक को अपनी देह को नीचे की अरणि और ॐकार को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान के द्वारा निरन्तर मन्थन के अभ्यास से (काष्ठ में) गुह्य अग्नि की भाँति परमात्म-तत्त्व को देखना चाहिए।

आचार्य: “साधक को अपनी देह को नीचे की अरणि और ॐकार को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान के द्वारा निरन्तर मन्थन के अभ्यास से काष्ठ में गुह्य अग्नि की भाँति परमात्म-तत्त्व को देखना चाहिए।“

“देह को नीचे की अरणि,” अरणि माने? मथनी। ऐसे कहा जा रहा है कि जैसे दूध को मथो तो मक्खन निकलता है न, तो कहा जा रहा है कि दो तरीके से मथो तुम संसार रूपी दूध को - अपनी देह को उपकरण बनाकर के, और अपने मन को उपकरण बनाकर के। नीचे का, माने पहला और निम्नतर योग्यता का उपकरण होगी—तुम्हारी देह, और उच्चतर योग्यता का उपकरण होगा—तुम्हारा मन। पर इन्हीं दोनों के साधन से तुमको सत्य की प्राप्ति होगी।

वही जैसे काठ में आग छुपी है, कुछ आयोजन करके उस आग को बाहर निकालना पड़ता है न? काठ में आग छुपी है, कुछ तरीका निकालना पड़ता है न, कि वो आग लपलपा-कर बाहर आए? उसी तरीके से संसार जैसे दूध में परमात्मा रूपी घी छुपा हुआ है, कुछ तरीका करना पड़ता है जिससे कि वो घी बाहर आए।

दो तरीके बताए हैं - देह का तरीका, और मन का तरीका। देह का तरीका हुआ, श्रम का तरीका। जो श्रम करने को तैयार नहीं है, उसको सत्य की प्राप्ति कभी नहीं होगी। और मन का तरीका; ॐकार की अरणि क्या हुई? ज्ञान का और संकल्प का तरीका। शारीरिक रूप से श्रम की पूरी तैयारी होनी चाहिए और मानसिक रूप से त्याग की। ज्ञान माने अज्ञान का त्याग, संकल्प माने संस्कारों का त्याग।

शरीर से तुम्हें होना चाहिए श्रमी और मन से तुम्हें होना चाहिए त्यागी। शरीर ऐसा हो जो मेहनत करे ही जाए, करे ही जाए और मन ऐसा हो जो त्यागे ही जाए, त्यागे ही जाए।

वेदांत का कोई और ग्रन्थ याद आया ये सुनकर? निष्काम कर्म नहीं याद आया? श्रम करे ही जाओ, करे ही जाओ और उसके फल को त्यागे ही जाओ, त्यागे ही जाओ। यही दोनों साधन उपनिषद् बता रहा है। शरीर, जो कर्म करने से कभी रुके नहीं और मन जिसने चूँकि अब अपने-आपको जान लिया है, इसीलिए उसकी किसी तरह के भोग में रुचि नहीं रही है। जिसने ये दोनों पा लिए, उसे परमात्म-तत्त्व मिल गया।

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