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महत्वपूर्ण है वो टलता रहा, व्यर्थ से जीवन भरता रहा || आचार्य प्रशांत, संत रूमी पर (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
14 min
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They ask, “When someone passes eighty then they play. Will they play before eighty?” I say.

~ Rumi

वक्ता: रूमी कह रहे हैं कि यह सवाल तो बड़ा आम है कि “उम्र बढ़ जाएगी, ज़िन्दगी बीत जाएगी उसके बाद क्या?” पंक्तियाँ हैं कि “अस्सी के बाद क्या ज़िन्दगी में मौज, खेल, क्रीड़ा, आनंद रहेगा?” वह कहते हैं, “मैं पूछता हूँ कि क्या अस्सी के पहले है?” अस्सी समझ लो ज़िन्दगी का आख़िरी सिरा, अस्सी समझ लो ज़िन्दगी का आख़िरी दिन; उसको इंगित करा गया अस्सी कह कर के।

तो लोग पूछ रहे हैं कि “उस दिन के बाद क्या है?” रूमी कह रहे हैं, “यह सवाल बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है, ज़्यादा ज़ायज सवाल यह है कि उससे पहले क्या है? यह मत पूछो कि पूरी उम्र बिताने के बाद क्या होगा? और न ही यह पूछो कि मौत के बाद क्या होगा? उससे ज़्यादा बड़ा और प्रस्तुत प्रश्न और प्रकट प्रश्न और महत्वपूर्ण प्रशन यह है कि आज क्या कर रहे हो? और जो आज ही ठीक नहीं जी रहा, उसका कल ठीक कैसे हो सकता है?”

और यह बड़ी मज़ेदार बात है कि जो आज ठीक नहीं जी रहे होते हैं, उन्हें ही कल की ज़्यादा चिंता होती है। ज़्यादातर लोग जिन्हें भविष्य की बड़ी चिंता होती है, वह वही लोग हैं जिनका वर्तमान उखड़ा हुआ होता है। अभी आप खुल नहीं पा रहे हैं, अभी आप जी नहीं पा रहे हैं, फूल नहीं पा रहे हैं; अभी आप अपने भ्रमों को दूर नहीं कर पा रहे हैं, आप अपने आप को बस बहाना दिए जा रहे हैं। और बहाना क्या है? “कल कर लूँगा।” क्या बहाना है?

श्रोतागण: “कल कर लूँगा।”

वक्ता: “कल कर लूँगा।” तो जब आपने वह सब कुछ जो शुभ है, कल पर स्थगित कर दिया है तो निश्चित सी बात है आपके लिए महत्वपूर्ण क्या हो जाएगा?

श्रोतागण: कल।

वक्ता: कल। और आज क्या हो जाएगा आपके लिए? – गैर महत्वपूर्ण। आज की महत्ता कम हो जाएगी और आप लगातार कल के सपने देखने लगेंगे, फिर उसको आप उम्मीद का नाम देते हैं, फिर उसको आप महत्वकांक्षा का नाम देते हैं, उसको आप लक्ष्यों का नाम देते हैं। हज़ार तरीके से आप इस बात को ज़ायज़ ठहराने की कोशिश करते हैं कि आज का कुछ होश नहीं और कल के लिए बड़ा जोश है।

रूमी कह रहे हैं “पूछो ही मत कि क्या होगा कल और क्या होगा अस्सी के बाद और क्या होगा मौत के बाद? मैं तो एक बात पूछना चाहता हूँ कि ‘क्या हो रहा है अभी?’ मुझे तो यह बताओ कि अभी वह कर रहे हो क्या, जो तुम्हें करना चाहिए? मुझे तो यह बताओ कि ठीक अभी-अभी सच की पुकार सुनी क्या? और सुनी तो क्या ज़वाब दिया? और ज़वाब दिया भी कि नहीं दिया?” क्योंकि सच कभी कल परसों में नहीं पुकारता। सच की पुकार छ: महीने पहले आने का कोई तरीका नहीं है और न तुम यह कल्पना कर सकते हो कि “अभी नहीं आ रही है छ: महीने बाद आएगी” लगातार आ रही है, अभी ही आ रही है। जिसे सुननी होती है वह कब सुनता है?

श्रोतागण: अभी।

वक्ता: जिसे नहीं सुननी होती, वह कब पर टालता है?

श्रोतागण: कल पर।

वक्ता: कल पर टालता है। हज़ार तरीकों से कल पर टाला जाता है। जहाँ कहीं भी तुम्हारे लिए भविष्य महत्वपूर्ण हुआ, वहाँ समझ लो कि तुम अपने साथ कोई धोखा-धड़ी कर ही रहे हो। जहाँ कहीं भी तुमने यह कहा कि “जब वह हो जाएगा तब देखेंगे”, इतना समझ लो कि कोई आंतरिक धोखा-धड़ी चल रही है। असली बात तो होती ही तब है, जब तुमको सच्चाई इतनी साफ़-साफ़ दिखाई दे कि तुम्हारे पास कोई तरीका ही न बचे उसके साथ टालम-टोल करने का।

हमें दिखती तो है, हमें झलक तो लगती है, पर हमें झलक वैसे लगती है जैसे किसी को धुँएं के पार कुछ दिख रहा हो, जैसे किसी शराबी को सत्य वचन कहे जा रहे हों। तो उसे दिखाई देके भी नहीं दिखाई नहीं दे रहा, और उसे सुनाई दे कर भी सुनाई नहीं दे रहा। फिर हमारे लिए टालना आसान हो जाता है, फिर हम कहते हैं “बात कुछ ठीक-ठीक सी लग रही है पर अभी हमारे पास दूसरी ज़िम्मेदारियाँ हैं। अभी मौका नहीं है?” कब करेंगे?

श्रोतागण: कल।

वक्ता: “कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे।” और अभी क्या कर रहे हैं? अभी तो नशा है, अभी वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अभी तो हम अपने नशे में मदहोश हैं। और यह रोज़-मर्या की चीज़ है या नहीं? होता है या नहीं होता है? कि “बात तो आपने बिल्कुल ठीक कही, पर अभी हमारी उम्र नहीं आई है। या बात तो आपने बिल्कुल ठीक कही पर अभी हमारी वरिताएंदूसरी हैं, अभी हमें कुछ और करना है। कुछ और है जो आवश्यक है अभी। और जब हो जाएगा तब देखा जाएगा।” सवाल यह है कि समय का चक्र क्या तुम वाकई यह सोचते हो कि कभी रुक जाना है? क्या वाकई तुमने यह सोच रखा है कि एक दिन ऐसा आएगा जब तुम कहोगे कि “अब कल नहीं बचा, अब आज आख़िरी दिन है तो जो करना है कर लूँ?”

जिस क्षण मर भी रहे होगे, क्या उस क्षण भी कल से खाली हो जाओगे? जो आदमी आख़िरी साँसे भी ले रहा होता है, क्या वह भी यह कह रहा होता है कि “ठीक आख़िरी घड़ी है?” कह रहा होता है क्या? तो कल तो लगातार बचा रहेगा।

तुम उम्मीद कर रहे हो किसके आने की?

श्रोतागण: कल की।

वक्ता: और कल लगातार?

श्रोतागण: बचा रहेगा।

वक्ता: बचा रहेगा! तो आएगा कब?

श्रोतागण: कभी नहीं।

वक्ता: यह तो बड़ी मज़ेदार बात है। कल आएगा कब?

श्रोतागण: कभी नहीं।

वक्ता: और तुम टाल किस पर रहे हो?

श्रोतागण: कल पर।

वक्ता: मतलब तुम किस पर टाल रहे हो?

श्रोतागण: कभी नहीं पर।

वक्ता: तुम एक ऐसी घड़ी पर टाल रहे हो जो वस्तुतः…?

श्रोतागण: नहीं आनी है।

वक्ता: (एक श्रोता को अंगित करते हुए) आनी?

श्रोता १: नहीं है।

वक्ता: कभी नहीं है। इसका मतलब टालने का अर्थ ही क्या है? क्या टालने का यह अर्थ है कि कभी और करूँगा?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: टालने का अर्थ क्या है कि?

श्रोतागण: कभी नहीं करूँगा।

वक्ता: कभी नहीं करूँगा। इसीलिए कहा कि आतंरिक धोखेबाज़ी है टालना; आतंरिक धोखेबाज़ी है प्रतीक्षा। भविष्य एक अंदरूनी प्रवंचना है, कि कहीं न कहीं तुम्हें पता है कि होना कुछ नहीं है, पर साथ ही तुम्हें यह स्वांग भी रखना है कि “नहीं नहीं नहीं हमने चीज़ को बर्खास्तनहीं किया, हम ने उसको अस्वीकार नहीं किया। हमने उसको वादा दिया है कल का।” तुम्हें अपने आप को यह बहला फ़ुसला के रखना है कि “न न ऐसा थोड़ी है कि हमने सत्य को अस्वीकार कर दिया। हमने तो सत्य को कल का समय दे दिया है। साहब देखिए अभी तो हम व्यस्त हैं तो आप कल आइएगा। अभी हम व्यस्त हैं, आप कल आइएगा।” और तुम जानते खूब हो कि तुमने उसे कल का समय नहीं दिया है, तुमने उसे ठुकरा ही दिया है!

तुम अगर उसे चाहते ही होते तो कल पर स्थगित नहीं करते। बात समझ रहे हो? अब देखो कि क्या है जिसे तुम टालते रहते हो, और क्या है जिसे कभी नहीं टालते? क्या है जो तुम्हारे लिए हमेशा प्राथमिक बना रहता हैं, ज़रूरी। और क्या है जो असली, सच्चा होते हुए भी टलता रहता है। तुमने अपनी शान्ति के लिए शर्तें रखी हैं कि नहीं रखी हैं? हाँ या न?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: क्या ठीक अभी शांत हो? बोलो?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: तुमने शर्तें रखी हैं न अपने ऊपर? तुम क्या बोलते हो कि “मैं शांत हो जाऊँगा जब फलानी चीज़ हासिल कर लूँगा”?जल्दी बोलो?

श्रोतागण: ज़ी सर।

वक्ता: “मैं थम जाऊँगा जब मैं उस मुक़ाम पर पहुँच जाऊँगा।” तो शान्ति के लिए और थमने के लिए, स्थिरता के लिए तुमने खूब शर्तें रखी हैं। हाँ या ना?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: (ज़ोर देते हुए) रखी हैं?

श्रोतागण: हाँ।

वक्ता: तो शान्ति को तुमने क्या किया है?

श्रोतागण: शर्तों में बाँध दिया है।

वक्ता: शर्तों में बाँध कर के क्या किया है तुमने उसे? शान्ति को शर्तों में बाँधा तो मैंने शान्ति को क्या कहा कि शान्ति अभी है या कि जब कुछ हो जाएगा तब आएगी?

श्रोतागण: कल पर टाल दिया है।

वक्ता: मैंने शान्ति को कल पर टाल दिया। और मैंने अभी क्या चुना?

श्रोतागण: अशांति।

वक्ता: निश्चित सी बात है जब शान्ति पर शर्तें लगा दीं, तो मैंने कहा “शान्ति तो कल आएगी जब यह शर्तें पूरी हो जाएंगी और जब तक शान्ति नहीं आई है, तब तक क्या है मेरे पास?”

श्रोतागण: अशांति।

वक्ता: अशांति। तो हमेशा टाला क्या जाता है?

श्रोतागण: शान्ति

वक्ता: और हमेशा चुना क्या जाता है?

श्रोतागण: अशांति।

वक्ता: फिर से इस बात को कहो और गौर करो, हमेशा स्थगित क्या हो रहा है?

श्रोतागण: शान्ति।

वक्ता: और हमेशा प्राथमिकता किसको दी जा रही है? चुनाव किसका किया जा रहा है?

श्रोतागण: अशांति।

वक्ता: और यही हमारी ज़िन्दगी की कहानी है। कोई लगातार दौड़ते तो नहीं रहना चाहता न? अंततः चाहते यही हो कि कहीं पहुँच कर के थम जाओ, विश्राम कर सको, पर कहते यह हो कि “खूब दौड़ लूँगा तब विश्राम करूँगा।” तो क्या टाला?

श्रोतागण: विश्राम।

वक्ता: और अभी के लिए चुना क्या?

श्रोतागण: दौड़ना।

वक्ता: (एक श्रोता को अंगित करते हो) कल मुझसे क्या पूछा कि हम हमेशा क्या रहते हैं?

श्रोता१: थके हुए।

वक्ता: “थके-थके क्यों रहते हैं?” अब समझ गए हमेशा थके-थके क्यों रहते हैं? क्योंकि थकान का ही तो?

श्रोता१: चुनाव किया है।

वक्ता: चुनाव किया है। जो चुना है सो मिला है, अब ताज्जुब क्या है? जो चुना है सो मिला है। तुम्हें कुछ नहीं मिलता जो तुम्हें चाहिए नहीं। जिस दिन दिल से माँगोगे सच्चाई, परम, हक़ उस दिन पाओगे कि प्रस्तुत है। पर तुम्हारी शिकायत यह रहती है कि “मिलता नहीं” रहती है कि नहीं रहती है? दुनिया की यही शिकायत है कि “चाहिए तो पर मिलता नहीं” और मैं कह रहा हूँ, तुम्हें ठीक वही मिलता है जो तुम्हें चाहिए। और मिल नहीं रहा तो यह किस बात का प्रमाण है कि तुमने?

श्रोतागण: चाहा नहीं।

वक्ता: चाहा नहीं। कोई यह शिकायत ले के न आए कि “मिला नहीं।” जिसे मिला न हो वह बस यह जान ले कि चाहा नहीं।

कोई आए और खूब रोए कि “ज़िन्दगी में कभी प्यार नहीं मिला” और देखें हैं ऐसे लोग कि नहीं देखे हैं? कि तड़पते रह गए, शायरी करते रह गए। प्रेम न मिला? तो ज़वाब बहुत सीधा, “चाहा था?”

तुम्हें मिली क्या? तड़प। तो बात ज़ाहिर है कि तुमने चाही ही क्या थी?

श्रोतागण: तड़प।

वक्ता: जो चाहा सो मिला। तुम्हारे चाहने में आग़ होती, तो फिर क्या बात होती। तुम्हारे चाहने में आग़ थी? बोलो?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: रूमी कह रहे हैं “पूछो मत कि फिर क्या होगा, मुझे बताओ अभी क्या है? और जिसको अभी का होश नहीं है वह कभी की बात क्या कर रहा है”? हालत हमारी है कि जैसे कोई शराबी, जिसे यह नहीं दिख रहा है कि सामनेगड्डा है और वह दुनिया भर के नक्शे देख रहा है कि “कल कहाँ जाऊँगा, और परसों कहाँ जाऊँगा और पाँच साल बाद कहाँ पहुँचूँगा।” और क्या नहीं दिख रहा उसको?

श्रोतागण: सामने गड्डाहै।

वक्ता: सामने गड्डाहै। कुछ बनी बात? खूब किया है या नहीं किया है? योजनाएं बनाई हैं कि “कल, परसों, नर्सों, तरसों यह कर लूँगा?” और वह सारी योजनाएं सिर्फ़ इसलिए बनी हैं कि अभी वह न करना पड़े जो अभी करना उचित है। करने का मौका कब होता है? एक ही मौका मिलता है तुम्हें कुछ करने के लिए, कब होता है वह मौका?

श्रोतागण: अभी।

वक्ता: हालत हमारी ऐसी है कि जैसे तुम मेरे सामने बैठे हो और अभी मुझे न सुन रहे हो, यह कह के कि “रिकोर्डिंग तो हो ही रही है, परसों सुन लेंगे। आप जो कहते हैं वह अंततः छप तो जाता ही है, वेबसाइट पर आ जाता है, उपलब्ध हो जाता है कई तरीकों से। तो सामने बैठ के ध्यान लगाने की ज़रूरत क्या है?” कितना सुन्दर तर्क है? “छोड़िये न, अभी क्या करना है? अभी हमारी दूसरी वरिताएं हैं।”

श्रोता १: तो सर फिर कल पर टालते ही क्यों हैं?

वक्ता: अभी अगर मुझे न सुनो, और कहो कि कल सुन लोगे तो देखो कि कैसा छगम है? तुम्हें वाकई मुझे सुनना हो तो क्या कल पर टालोगे? जल्दी बोलो?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: तो कल पर टालने का एक ही मकसद हो सकता है, क्या? कि तुम्हें सुनना ही नहीं है, करना ही नहीं है; पर नैतिकता के नाते, एक सुन्दर चेहरा, एक सम्माननीय चेहरा भी बना कर रखा है, तो यह कह भी नहीं सकते कि “देखिए साहब बात तो सच्ची है पर हम मानेंगे ही नहीं।” तो तुम क्योंकि यह नहीं कह सकते सीधे-सीधे, हिम्मत चाहिए वह कहने के लिए भी कि “सच्ची बात है पर हम नहीं मानते।” तुम कहते हो “बात सच्ची है, कल मानेंगे।” तुम क्या कहते हो, “बात सच्ची है?”

श्रोतागण: कल मानेंगे।

वक्ता: कल मानेंगे। अभी के लिए तो हमारे झूठ काफ़ी हैं। जब मन भर जाता है इधर से, उधर से, इकठ्ठा किये हुए झूठों से, बाहरी सामग्री से, व्यर्थ की गन्दगी से और उस सामग्री से नाता जोड़ लेता है, मोह बैठा लेता है; तब सफाई गंदी लगने लगती है उसको। कचड़े के साथ रहने के अभ्यस्त हो जाओ, तो कचड़े से रिश्ता बैठ जाता है, आँखों को आदत लग जाती है। मोह इसी का नाम है, आदत है एक तरह की, मोह। अब तुम्हें सफ़ाई दुश्मन जैसी लगेगी। यह अलग बात है कि सफ़ाई हो जाएगी उसके बाद एक दिन शुक्रिया अदा करोगे, कहोगे कि “कहाँ फसे हुए थे, भला हो कि मुक्ति मिली।”

पर दुनिया में आने का अर्थ ही यही है, पैदा होने का अर्थ ही यही है कि तुम्हारे मन पर हज़ार तरीके की दावेदारियां होंगी, पच्चासों इधर-उधर के प्रभाव तुम्हें घेर लेंगे, तुम पर हावी होंगे, मन को मलिन करेंगे। और मन की प्रकृति कुछ ऐसी है कि उसे कुछ चाहिए, डर सा जाता है वह अकेले रहने में, कुछ चाहिए उसको, तो फिर जो मिलता है उसी को पकड़ लेता है। जैसे कोई आदमी इतना भूखा हो कि कच्ची-पक्की, उल्टी-सीधी कुछ भी सामग्री खा जाए। कोई बहुत भूखा हो, तो बहुत संभव है, कोई ज़हरीली चीज़ भी तुम उसको खिला दो तो वह इस उम्मीद में खा ले कि “ज़हर से तो हो सकता है बच भी जाऊं पर खाया नहीं तो भूख से तो ज़रूर ही मर जाऊँगा।”

यह संभव है, निश्चित संभव है कि भूख तुम पर इतनी हावी हो जाए कि तुम कहो कि “भूखे मरने से तो अच्छा है कि विषैला खाना ही खा लें।” मन की हालत यही रहती है, मन को सच्ची संगत मिलती सिर्फ सत्य में है, बाकी सब उसके लिए है ज़हर समान ही। उसको सच्ची संगति दे दो, बाकी तो जो भी कुछ इधर से उधर से संग्रहित करोगे वह छगम ही होगा, बहाना ही होगा और वह जो आतंरिक परेशानी है उसको कभी हल भी नहीं कर पाएगा, भूख-प्यास सब यथावत बनी ही रहेगी। आ रही है बात समझ में?

यह जानो कि भूख है और उसका समाधान अभी करो, ठीक है?

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