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क्या भारत अपने सिद्धांतों के कारण पड़ोसी देशों से पिछड़ गया? || (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते रहते हैं जो साबित करते हैं कि छल, कपट, बेईमानी के साथ भी सुख से जिया जा सकता है। मैं पड़ोसी देश पाकिस्तान को देखती हूँ तो पाती हूँ कि उसने हमेशा ही छल, कपट, बेईमानी, झूठ का सहारा लिया है और निश्चिन्त रहा है। और दूसरी ओर भारत है, भारत ने सत्य-पथ पर चलना चाहा है और दुःख झेला है। अहिंसा का रवैया रखा और हार और चोट खाई तो फिर मैं कैसे प्रेरित रहूँ कि ईमानदारी से जिऊँ?

आचार्य प्रशांत: दो-तीन बातें समझनी पड़ेंगी। सच का रास्ता आसान होता नहीं क्योंकि उसमें जाना पड़ता है अपने ही ख़िलाफ़ और झूठ और छल का रास्ता हमेशा आकर्षक लगता है क्योंकि प्रतीत ये होता है कि उस पर आसानी से सुख-सफलता वगैरह मिल जाएँगे। तो हमारे भीतर की पुरानी, आदिम, अँधेरी वृत्तियाँ लगातार खिंचती रहती हैं झूठ की ओर। लेकिन हम मान कैसे लें कि झूठ की ओर हमें बड़ा झुकाव हो रहा है, झूठ बड़ा लुभावना लग रहा है, तो फिर हम झूठ के पक्ष में कुछ तर्क गढ़ते हैं।

इसी तरीके से सच कितना भी कीमती क्यों न हो लेकिन उसकी तरफ जाना क़ुर्बानी माँगता है, साधना-श्रम माँगता है। तो भले ही हमको बौद्धिक रूप से, चैतन्य रूप से पता हो कि सच्चाई की ओर जाना ही ठीक है लेकिन फिर भी भीतर से हमारी वृत्तियाँ और मन की गहरी अँधेरी परतें कुलबुलाती हैं कि इतनी मेहनत कौन करे, कौन सच की तरफ जाए। पर सच तो सच है, उसको झुठलाएँ कैसे या उसको अस्वीकृत कैसे करें? तो फिर हम सच के ख़िलाफ़ तर्क गढ़ते हैं। झूठ की ओर जाने के लिए हमे कुछ तर्क चाहिए, नहीं तो हम अपनी ही नज़रों में गिर जाएँगे न। कोई हमसे पूछेगा या हम खुद से ही पूछेंगे, आईना हमसे पूछेगा कि “झूठ की तरफ क्यों जा रहे हो?” और हमारे पास कोई जवाब नहीं होगा तो शर्म सी आएगी। तो हमें फिर कोई तर्क चाहिए, कोई जवाब चाहिए जो हम दे सकें।

इसी तरीके से कोई हमसे पूछेगा या हम ही ख़ुद से पूछेंगे कि, "सच की तरफ क्यों नहीं जा रहे?" तो वो भी सही प्रमाणित करने के लिए, कि क्यों सच की तरफ नहीं जा रहे, हमें कोई तर्क चाहिए, नहीं तो वही होगा कि निरुत्तर हैं और शर्मसार हैं। तो हम वो तर्क कैसे गढ़ते हैं दोनों तरफ के? वैसे ही गढ़ते हैं जैसे आपने अपने सवाल में गढ़े हैं कि झूठ के रास्ते को दिखा दो, बड़ा प्यारा-प्यारा और सफलता से और आनंद से भरा हुआ, भले ही वो हो ना। और सच के रास्ते को दिखा दो, कंटकाकीर्ण और दुःख से घिरा हुआ और असफलता से भरा हुआ, भले ही वो हो ना। सुख के साथ वो सारी चीज़े जोड़ दो जो झूठ से संबंधित हैं और सच का ताल्लुक बिलकुल ठोस तरीके से दुःख से जोड़ दो। दिखा दो, प्रदर्शित कर दो खुद को भी, दूसरों को भी कि, "देखो झूठ पर जो लोग चलते हैं वो सब मौज मना रहे हैं, वही सफल हैं, उन्हीं के पास ताक़त है सत्ता है, वही अग्रणी हैं सब।" और दिखा दो कि जो लोग सच के रास्ते पर चल रहे हैं उनकी तो दुर्गति है, बुरे हाल हैं। और ये दोनों तर्क दिखा कर के खुद को ही साबित करदो कि साहब, झूठ के रास्ते पर चलना ही सही है।

भई जैसे तुम्हारा समोसा-जलेबी खाने का मन हो, तुम कैसे ख़ुद को जायज़ ठहराओगे समोसा-जलेबी खाना? तो तुम किसी घटिया अख़बार में छपी किसी घटिया लेखक की कोई झूठी कहानी ले आओगे जिसमें कहा गया होगा कि समोसा और जलेबी खाने से शरीर को तमाम पोषक-तत्वों की आपूर्ति होती है। तुम को भी पता है कि वो कहानी, वो लेख, रिपोर्ट बिलकुल झूठा है। दो-टके का कोई अख़बार और ऐसे ही कोई सड़क छाप लेखक जो व्यर्थ ही अपने नाम के साथ डॉक्टर लगाता है, आजकल तो डॉक्टर लगाना बहुत आसान हो गया है न। कहीं से, इधर से उधर से, अफ्रीका से कोई डिग्री ले आ लो, अपने नाम के साथ डॉक्टर लगा लो और कुछ भी बेहूदी बात प्रचारित करने लगो। बात जितनी बेहूदी होगी उतनी ही ज़्यादा चलेगी क्योंकि दुनिया में बेहूदे ही लोग ज़्यादा हैं तो बेहूदी बात को वो तुरंत ग्रहण कर लेते हैं।

तो ऐसे ही कोई बेहूदे डॉक्टर साहब ने लेख डाल दिया और लेख क्या डाला? पहले बताया जाता था कि भई समोसा, कचौड़ी, जलेबी खाने से बदहज़मी हो जाती है या अगर तुम घटिया दुकान से खा रहे हो ये सारी चीज़ें तो तुम्हें जीवाणु वगैरह भी लग सकते हैं। तो उन्होंने अपना एक घटिया लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि “बदहज़मी जैसी कोई बीमारी होती ही नहीं। ये तो अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों की काली साज़िश है। इसी तरीके से जीवाणु तो होते ही नहीं, ये तो दुनिया भर के जो अमीर लोग हैं वो और पैसा बनाने के लिए ये प्रमाणित करने में लगे हुए हैं कि जीवाणु कुछ होता है ताकि जीवाणु के ख़िलाफ़ दवाएँ बिक सकें। बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों ने चाल चली है ये।”

और आप ये लेख लाकर के दिखाओगे कि, "देखो, समोसा-कचौड़ी में कोई बुराई नहीं और उनसे कोई नुकसान नहीं और लेख में आगे ये भी लिखा हुआ है कि 'समोसे से ज़्यादा विटामिन तो कही पाए ही नहीं जाते, और जलेबी, वो तो हर तरीके के प्रोटीन्स का और खनिजों का भण्डार होती है'।” तुम दिल-ही-दिल में जानते हो ये सारी बातें झूठी हैं पर ये झूठ इतना मीठा है, इतना चटपटा है, समोसा है, जलेबी है कि तुम्हें इस झूठ को स्वीकार करना ही पड़ेगा। तो तुम ये कहीं से लेख उठा करके ले आए ये दर्शाने के लिए कि जिधर को हम जा रहे हैं वो चीज़ ग़लत नहीं है।

इसी तरीके से तुम्हारे सामने उबला हुआ खाना लाकर रख दिया गया। अब तुम्हें पता है कि वो जो खाना है वो तुम्हारे लिए ज़रूरी है। कुछ दिन पहले तुम बीमार थे और चिकित्सक ने बोला हुआ है कि साहब आपको तो उबला ही हुआ खाना खाना है। तो कैसे कह दो कि, "मुझे नहीं खाना है"? तुम कोई बहाना ढूँढोगे, कोई झूठा तर्क ढूँढोगे, क्या बहाना ढूँढोगे? तुम्हारे सामने वो एक कटोरे में लाकर रख दिया गया उबला हुआ खाना तो तुम उसको ग़ौर से देखोगे — “वो काला-काला क्या दिख रहा है? क्या है? कीड़ा है, बरसाती कीड़ा है, छोटा सा कीड़ा है।” तुम्हारी माता जी तुम्हारे लिए वो सब उबाल कर लाई हैं वो कहेंगी, “कीड़ा नहीं है जीरा है, जीरा है खा ले।” तुम कहोगे, “जीरा है ही नहीं, कीड़ा है।” तो और पास जा कर देखेंगी कहेंगी, “अरे ये तो जीरा भी नहीं है, ये तो राई है खा ले।” “नहीं खाना ही नहीं है।” कहेंगी, “अच्छा ये मैं हटाए देती हूँ, अब खा ले अब तो इसमें कुछ बचा नहीं।” “नहीं, नहीं, नहीं उसके भीतर का सारा तत्व निकल करके उसमें फैल गया है।” और वो महान डॉक्टर हैं वही जिन्होंने बताया था कि जीवाणु तो कुछ होता ही नहीं। उन्होंने ही ये भी बताया हुआ है कि “अगर ज़रा सा भी कोई कीड़ा तुम्हारी सब्ज़ी में स्पर्श कर गया है तो वो जो सब्ज़ी है वो कोबरा के ज़हर से भी ज़्यादा ज़हरीली हो गई है। वो पोटैशियम साइनाइड बन चुकी है। ज़बान पर रखना तो छोड़ दो, तुमने उसे उंगली पर भी रखा तो तत्काल मर जाओगे।” तो अब ये तुम बहाना बना रहे हो ताकि तुम उस उबली सब्ज़ी से बच सको।

बुरे लोगों और अच्छे लोगों को लेकर भी हम अमूमन ऐसे ही बहाने बनाते हैं। बुरा होने की हमारी दिली ख्वाहिश है तो इसीलिए बुरे लोगों को देखकर हम कहते हैं, “सफल तो वही हैं न, आगे तो वही चल रहे हैं न, सुखी तो वही हैं न।” वो कितने सुखी हैं तुम्हें कैसे पता? तुम्हें कैसे पता वो कितने सुखी हैं? तुमने जाँच-पड़ताल करी?

आपने पाकिस्तान का उल्लेख किया है कि पाकिस्तान ने सब तरह के द्वन्द-फंद करे, छल-कपट करा लेकिन देखिए कितना निश्चिन्त है, कितना आगे है। कैसे आगे है मुझे बताइएगा? पाकिस्तान को आगे दर्शाने की जो आपकी कोशिश है कहीं वो पाकिस्तान जैसा ही बन जाने की कोशिश तो नहीं है?

प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान की आज भारत की लगभग आधी है। भारत का औसत आदमी जितना कमाता है पाकिस्तान का औसत आदमी उससे लगभग आधा कमाता है। और ये तब जबकि आज़ादी के समय पाकिस्तानियों की प्रति व्यक्ति आय भारतीयों से ज़्यादा हुआ करती थी। भई, उनकी जो आबादी है उसकी तुलना में उनका क्षेत्रफल बहुत बड़ा है तो जनसंख्या का जो घनत्व है वो कम है। समझ में आ रही है बात?

व्यापार करने की सुविधा वहाँ भारत की अपेक्षा बहुत कम है। इसी कारण वहाँ का जो व्यासायिक क्षेत्र है वो विकसित नहीं होने पाया। ‘व्यापार करने में आसानी’ की वरीयता सूची को ज़रा खोल कर देखिए, समाज की हालत ये है कि मानव विकास सूचकांक हो, लिंग विकास सूचकांक हो, लिंग सशक्तिकरण उपाय हो इन सब में पाकिस्तान भारत से पीछे ही नहीं बहुत पीछे है। प्रति व्यक्ति बिजली का उत्पादन, पाकिस्तान भारत से बहुत पीछे है और मैं प्रति व्यक्ति आँकड़ों की बात कर रहा हूँ ताकि आप ये न कह दें कि, "भारत जनसंख्या में पाकिस्तान से साढ़े छह-सात गुना बड़ा है इसीलिए तो यहाँ पर चीज़ों का उत्पादन ज़्यादा होता है", नहीं। मैं प्रति व्यक्ति उत्पादन की बात कर रहा हूँ। हर तरह की आधारभूत संरचना भारत में पाकिस्तान की अपेक्षा बहुत बेहतर है, चिकित्सकीय सुविधाएँ भारत में पाकिस्तान की अपेक्षा बहुत बेहतर हैं, यहाँ तक कि साक्षरता दर भी भारत में पाकिस्तान की अपेक्षा ज़्यादा ही है। बात समझ में आ रही है?

खेलों को भी ले लीजिए। एक-दो खेल छोड़ दीजिए क्रिकेट और हॉकी तो पाकिस्तान बाकी सब खेलों में भारत के मुक़ाबले कहीं ठहरता नहीं। ये बात अलग है कि ख़बरें ज़्यादा इन्हीं दो खेलों की आती हैं तो हमें लगता है कि पाकिस्तान हमें टक्कर दे रहा है। वो टक्कर भी अब कहाँ दे पा रहा है? चाहे क्रिकेट हो चाहे हॉकी हो, वरीयता क्रम में पाकिस्तान हमसे पीछे ही रहता है अधिकांशतः। यहाँ तक कि स्क्वाश जैसे खेल में भी जिसमें बीस-पच्चीस साल पहले तक पाकिस्तान के खिलाड़ी शीर्ष पर हुआ करते थे, आज बमुश्किल एक या दो पाकिस्तानी होंगे शीर्ष पचास में। और उन्हीं शीर्ष पचास में भारत के दो या चार खिलाड़ी मौजूद रहते हैं, स्क्वाश में भी, जहाँ पाकिस्तान कभी राज किया करता था।

कुछ-न-कुछ धार्मिक असहिष्णुता की घटनाएँ हर देश में घटती हैं, भारत में भी घटती रहती हैं पर फिर भी भारत में बहुत छूट है सब धर्मों को, सम्प्रदायों को अपने अनुसार काम करने की, यहाँ तक कि अपने धर्म का प्रचार करने की भी। पाकिस्तान में तो मुसलमान मुसलमान पर ही अत्याचार कर रहा है। शियाओं और अहमदियों तक को वहाँ पर पूरी धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है, हिन्दुओं और ईसाईयों की तो बात ही अलग है। तो किस आधार पर आप कह रहे हैं कि पाकिस्तान भारत से श्रेष्ठ है या पाकिस्तानी ज़्यादा सुख में हैं, आनंद में हैं या आगे निकल गए?

भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम देख लीजिए, दुनिया के शीर्ष तीन या चार देशों में आता है भारत। और आपको ये जानकर शायद ताज्जुब हो कि पाकिस्तान ने अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम भारत से पहले शुरू करा था और उसकी कहीं कोई गिनती नहीं है। और अभी मैंने आईटी उद्योग की तो बात ही नहीं करी, अभी मैंने तमाम तरह की सेवाओं की और विनिर्माण की तो बात ही नहीं करी, जिसमें पाकिस्तानियों का कहीं कोई स्थान ही नहीं है। बात समझ में आ रही है?

तो जल्दी से ये कह देना कि, "देखिए फलाना तो ग़लत ज़िंदगी जीता है फिर भी मज़े में है।" वो वास्तव में ग़लत ज़िंदगी जीने की तैयारी ही है ऐसा तर्क। आप अपने-आपको साबित कर रहे हैं कि ग़लत चल कर के बड़े फायदे हो जाते हैं। क्या आप पाकिस्तान का नाम ले रही हैं, एशिया में कम ही मुल्क हैं जिनके दो फाड़ हो गए हों, पाकिस्तान की तो ये हालत हुई कि पूर्वी पाकिस्तान ही पश्चिमी पाकिस्तान से अलग हो गया। आप एक ऐसे देश को सुखी बता रही हैं जिसके दो फाड़ हुए हों। अब वो भी तब जबकि उस देश का जन्म ही धार्मिक आधार पर हुआ था, इस आधार पर हुआ था कि भई हम सब एक ही धर्म के हैं तो धर्म के आधार पर हम सब लोग बहुत एकता से, बहुत शांति से, बहुत बंधुत्व से रहेंगे। कहाँ गया वो बंधुत्व? हो गए न दो टुकड़े।

और दो टुकड़े करवाने में किसी की साज़िश नहीं थी। उसी देश का एक हिस्सा दूसरे हिस्से पर तमाम तरह के अत्याचार कर रहा था और अत्याचार करते वक़्त फिर नहीं सोचा जा रहा था कि हम सब एक ही धर्म के हैं, भाई-भाई हैं। अत्याचार ऐसे भी नहीं थे कि मात्र आर्थिक शोषण ही किया जा रहा हो या सामाजिक उत्पीड़न ही किया जा रहा हो, सीधे-सीधे हत्याएँ और बलात्कार हो रहे थे। वो भी इतने बड़े पैमाने पर जिसकी मिसाल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मिलती ही नहीं है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से जो बड़े-से-बड़े जनसंहार हुए हैं उसमें उन्नीस-सौ-इकहत्तर शामिल है। तो कैसे आप ऐसे देश को सफल या सुखी बता रहे हैं? ऐसा देश जो कि एफ़एटीएफ़ (वित्तीय कार्यवाही टास्क फोर्स) के सामने बार-बार गिड़गिड़ाता रहता है कि हमे ब्लैकलिस्ट मत करो ग्रे-लिस्ट पर ही रहने दो, जैसे कि ग्रे-लिस्ट पर रहना कोई बड़े आदर की बात हो। और बार-बार उसके कान उमेठे जाते हैं, हाथ मरोड़ा जाता है कि “बेटा, जो जो बातें बताई जा रही हैं सब कर नहीं तो ब्लैकलिस्ट में डाल देंगे।” आप कहना चाह रहे हैं कि ऐसा देश बहुत सुखी है?

भारत के सामने तमाम तरह की चुनौतियाँ रही हैं, असफलताएँ भी रही हैं लेकिन फिर भी भारत की शिक्षा व्यवस्था पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था से कहीं श्रेष्ठ है। निश्चित रूप से हमारे विश्वविद्यालय, हमारे महाविद्यालय, हमारे विद्यालय बिलकुल वैसे नहीं हैं जैसे होने चाहिए लेकिन आप वैश्विक वरीयता सूची को उठा करके देखिए। अगर आप विश्वविद्यालयों की सूची देखेंगे तो आपको शीर्ष सौ में नहीं तो शीर्ष दो सौ में तो कम-से-कम चार-पाँच भारतीय विश्वविद्यालय मिल जाएँगे। शीर्ष पाँच-सौ में भी एक भी पाकिस्तानी विश्वविद्यालय खोजना आपके लिए बड़ा मुश्किल हो जाएगा। कैसे आप कह रहे हैं कि पाकिस्तान सुखी है और सफल है?

अभी मैं किसी भी देश की सफलता के सारे मापदंड शायद याद भी ना कर पाऊँ, किन-किन पैमानों पर देश को सफल कहा जा सकता है तुरंत मैं आपको बता भी ना पाऊँ लेकिन आप खुद ही खोजिएगा, खुद ही सोचिएगा। जनतंत्र — आपातकाल के उन चंद महीनों को छोड़ करके भारत में जनतंत्र निरंतर और निर्बाध रहा है। हाँ, हमारा जनतंत्र कई तरीके से त्रुटिपूर्ण है लेकिन है तो सही। और पाकिस्तान में कोई भरोसा नहीं कि कब कौनसा जनरल उठेगा और रातों रात तख़्ता पलट देगा। भारत में तो अब तृणमूल जनतंत्र भी है, ग्रास रुट डेमोक्रेसी , पाकिस्तान में मुझे दिखाइएगा कहाँ है पंचायती राज या कहाँ है जिला स्तर पर जनतांत्रिक प्रशासन? समझ में आ रही है बात? और भी बहुत सारे पैमाने निकल आएँगे, मैं अभी सारे याद भी नहीं कर पा रहा हूँ।

सिर्फ सात ही गुने का अंतर है न दोनों देशों की आबादियों में तो दोनों देशों के जो निर्यात हैं उनको देख लीजिए उनमें कितने गुने का अंतर है। दोनों देशों का जो विदेशी मुद्रा भण्डार है उसको देख लीजिए उसमें कितने गुने का अंतर है। सात गुने से कहीं ज़्यादा का आपको अंतर मिलेगा। क्यों पाकिस्तान को सफल बता करके पाकिस्तान ही जैसा बन जाने की ओर बढ़ें हम? ठीक है भारत में हज़ार दोष हैं लेकिन जो दोष नहीं हैं उनकी कल्पना क्यों करें भाई?

हाँ, आम जनमानस को दो ही चार चीज़ें दिखाई देती हैं, क्या? कि “भाई फौजी टक्कर कैसी होगी?” तो जहाँ तक सैन्यशक्ति की बात है उसमें भी कोई तुलना नहीं है। हाँ, एक चीज़ ज़रूर है जिसमें पाकिस्तान ने भारत की बराबरी कर रखी है, कि कितने आणविक हथियार हैं। जो आणविक हथियारों की संख्या है, वो ज़रूर दनादन दनादन बढ़ा-बढ़ा कर लगभग डेढ़ सौ कर लिए हैं। भारत से दस-बीस ज़्यादा ही होंगे, कम नहीं हैं उनके पास। इसके अलावा कोई और आँकड़ा नहीं है जिसमें आप पाकिस्तान को आगे पाएँगे। यहाँ तक कि पर्यावरण संरक्षण में भी भारत पाकिस्तान से आगे है। वन-आवरण भारत का पाकिस्तान से बेहतर है।

भारत का राष्ट्रीय पशु है, क्या? बाघ, वो जब विलुप्ति की तरफ बढ़ने लगा तो भारत ने बहुत ज़ोर लगा करके ‘बाघ बचाओ’ अभियान चलाया और बाघों की संख्या में बढ़िया इज़ाफ़ा भी हुआ। अभी भी बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन पहले जितनी आपात स्थिति नहीं है जितनी आज से पाँच-सात साल पहले थी। और पाकिस्तान का राष्ट्रीय पशु क्या है ज़रा पता करिएगा और देखिएगा कि उसकी क्या हालत है। वो एक तरह का बकरा है (राष्ट्रीय पशु) और उसकी जो हालत है वो तो जो है सो है, अभी एक अमेरिकन ने पैसे दिए, शिकारी ट्रॉफी हंटर ने, उसने पैसे दिए करीब एक लाख डॉलर और बोला “मुझे मारना है इसको।” और पाकिस्तान की सरकार ने कहा, “इतने डॉलर दे रहे हो तो मार लो।” और ये उनका राष्ट्रीय पशु है और ये विलुप्ति की कगार पर खड़ा हुआ है। भारत ऐसा तो नहीं है न।

इसी तरीके से कोई चिड़िया है, अब उसका नाम मुझे नहीं पता आप लोग देख लीजिएगा, पर अरब से राजकुमार लोग आते हैं, शेख, वो कहते हैं “हमें तो यही मारनी है और हम पैसे देंगे।” और पाकिस्तान के हाथ में वो कटोरा हमेशा रहता है, वो कहता है, “हाँ, पैसे दे दो यहाँ तुम्हें जो मारना है मार लो, जो जानवर मारना है मार लो।” और आप कह रहे हैं कि पाकिस्तान छल-कपट करके बड़ा सुखी रहा है। किस तरह से सुखी रहा है बताइए तो?

छात्रों की कुशाग्रता को नापने की जितने तरह की प्रतियोगी परीक्षाएँ होती हैं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनमें सबसे आगे कौन रहता है? भारतीय रहते हैं। मैं नहीं कह रहा नंबर एक पर ही रहते हैं पर शीर्ष दस में तो हमेशा रहते हैं भारतीय, कभी-कभी नंबर एक पर भी रहते हैं। पाकिस्तानियों का कभी नाम सुना है? हाँ, भूले-भटके सुन लें एकाध कोई आ जाए वो अलग बात है, अन्यथा कभी सुना है?

विदेशों में चले जाइए। अमेरिका अगर आप जाएँगे तो वहाँ पर यहूदियों के बाद जो सबसे सफल और संपन्न समुदाय है वो भारतीयों का है। भारतीयों को नियम पालन करने वाला माना जाता है कि ये कानून का पालन करते हैं। अच्छा नागरिक उनको माना जाता है और उनको आमंत्रित किया जाता है, स्वीकार किया जाता है। और ये बात उन सब देशों की नीतियों में भी दिखाई देती है, चाहे अमेरिका हो चाहे कनाडा हो, यूके हो, ऑस्ट्रेलिया हो।

और पाकिस्तानियों का क्या हाल रहता है? जी ये हाल रहता है कि बहुत दफे ऐसा होगा कि आपको एक आम पाकिस्तानी अगर यूरोप की सड़कों पर मिल जाएगा और आप उससे पूछेंगे, “भारतीय?” तो संभावना यही है कि वो कह देगा, “हाँ।” क्योंकि उसके लिए बड़ा मुश्किल है ये कह पाना कि वो पाकिस्तान से है। कहीं पर अभी मैं रिपोर्ट पढ़ रहा था या कोई मुझे बता रहा था कि लंदन के जितने भारतीय भोजनालय हैं उसमें से बहुत सारे पाकिस्तानी के हैं, चला रहे हैं, क्योंकि वो ये लिख ही नहीं सकते हैं कि यहाँ पाकिस्तानी खाना है, कोई घुसेगा ही नहीं अंदर। कहीं घुसे और वो बिरयानी में ही बम फोड़ दे, क्या भरोसा। तो स्वीकृति पाने का वहाँ भी उनके पास तरीका यही रहता है कि अपने-आपको भारतीय बताओ। इतना तो उन्हें अपने ऊपर नाज़ है। वो खुद जानते हैं कि वो सफल नहीं हैं और आप कह रही हैं, “वो बड़े सफल हैं बड़े सफल हैं”, कैसे बड़े सफल हैं भाई?

वैश्विक आतंकवाद का केंद्र कौनसा देश है? पाकिस्तान। बार-बार इधर-उधर कभी कोई देश का नेता और कभी कोई दूसरा किसको यह कहकर सम्बोधित करता है कि ये तो चरमराता हुआ देश है, असफल राज्य, भारत को? नहीं, भारत की सफलता की तो कामना की जाती है कि, "दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है, हम मनाते हैं कि ये सफल हो, आगे बढ़े।"

और आप जो कह रही हैं कि “भारत सत्य पथ पर चला है और दुःख झेला है”, ये बात भी ठीक नहीं है। भारत ने जो असफलताएँ पाई हैं, जो दुःख पाए हैं वो इसलिए नहीं पाए है कि वो सच के पथ पर चला है। हम इतने भी दूध के धुले नहीं रहे हैं जितना आप प्रदर्शित कर रही हैं। तमाम खामियाँ, खोटें, ऐब हममें रहे हैं और उन्हीं के कारण हमें जो असफलताएँ मिली हैं वो मिली हैं।

देखिए सच की निशानी होती है साहस। सच के रास्ते पर जो आदमी चल रहा है उसका अनिवार्य लक्षण होता है निर्भयता। और जो साहसी है और जो निर्भय है वो हार नहीं सकता। अगर आप बात कर रही हैं तमाम युद्ध में मिली हारों की तो वो हारें इसलिए नहीं मिली हैं कि भारतीय सब जन सच्चाई के रास्ते पर चलते थे, वो हारें इसलिए मिली हैं क्योंकि हम सच्चाई के रास्ते से विमुख हो गए थे। ये नाता तो आप जोड़ ही मत दीजिएगा कि जो सच्चा होता है वो कमज़ोर हो जाता है और हारने लग जाता है। बिलकुल झूठी और बिलकुल ग़लत बात है ये। ये बात कोई भी अपने मन में ज़रा भी ना रखे।

मैं कह रहा हूँ जो आदमी सच्चा है वो मर तो सकता है पर हार देखने के लिए वो ज़िंदा नहीं बचेगा और जब तक वो जीया है तब तक वो हारेगा नहीं क्योंकि हार होती ही तब है जब तुम घुटने टेक दो। आप किसी को पीट सकते हो बुरे तरीके से, उसकी दुर्गति कर सकते हो, हड्डी-पसली एक कर सकते हो, लेकिन क्या वो हार गया? हारा तो वो तब तक नहीं न जब तक कि उसने पलटवार करने का, दुबारा लड़ने का संकल्प ही त्याग नहीं दिया। आपने किसी को बिलकुल भुर्ता बना डाला ऐसी उसकी पिटाई करी, किसी भी तरीके से, सामरिक तरीके से, आर्थिक तरीके से, कैसे भी, लेकिन अगर अभी उसमें जज़्बा बाकी है, वो कह रहा है कि, "मैं पलटूँगा, मैं दुबारा उठूँगा!" तो अभी वो हारा है क्या? अभी तो लड़ाई बाकी है, अभी तो अगली पारी आएगी।

तो हार सच्चे आदमी की कभी हो ही नहीं सकती। भारतीयों की अगर हार हुई है तो सच्चाई में कोई कमी रह गई होगी। जिस देश का, जिस मिट्टी का सबसे बड़ा और सबसे मान्य धर्मग्रंथ ही कहता हो कि “अर्जुन तू तो लड़ और ये सोच मत कि अंजाम क्या होगा। अंजाम के लिए नहीं सच के लिए लड़ अर्जुन, कृष्ण के लिए लड़ अर्जुन।” जिस देश का सबसे बड़ा धर्मग्रंथ ही युद्धभूमि की पृष्ठभूमि में रचा गया हो वो देश हार कैसे सकता है? और अगर हारा तो इसका मतलब उस देश ने गीता भुला दी थी।

तो ये मत कहिए कि “अरे, हम तो बड़े सच्चे लोग थे, हम तो धर्म की और कृष्णों की और ऋषियों की सीख पर चलते रहे। हम तब भी हार गए, इसका मतलब कौन नाकामयाब है? इसका मतलब कि साहब, कृष्ण में ही कोई खोट है, धर्म में ही कोई खोट है, सच में ही कोई खोट है।” नहीं, नही, नहीं कुतर्क मत करिए। ना सच में खोट है, ना कृष्ण में खोट है, ना धर्म में खोट है, खोट हममें है जो हमने उनकी सीख का पालन नहीं करा। अगर हम हारे हैं तो इसलिए नहीं कि हम उनकी सीख पर चलते थे, अगर हम हारे हैं तो इसलिए क्योंकि हम उनकी सीख पर बहुत-बहुत कम चलते थे।

ये तो हमने ज़बरदस्त कुतर्क कर दिया। तुम किसी की सीख का पालन ना करो और हार जाओ या किसी की सीख का बस आंशिक पालन करो और हार जाओ और कहो कि “साहब, मैंने आपकी सीख पचास प्रतिशत तो मानी थी न, देखिए मैं तब भी हार गया।” तो तुम इस बात को छुपा रहे हो कि तुमने उसकी सीख सिर्फ पचास प्रतिशत मानी थी और पचास प्रतिशत नहीं मानी थी। और सच का रास्ता ऐसा नहीं होता है कि उसपर आप तीस, चालीस, पचास, सत्तर प्रतिशत चल करके जीत जाएँगे। सच के रास्ते पर तो पूर्ण समर्पण चाहिए, निष्ठा पूरी शत-प्रतिशत चाहिए। शत-प्रतिशत, नहीं है तो हार मिलेगी। ये भी हो सकता है कि अठानवे-निन्यानवे प्रतिशत पर भी आपको हार झेलनी पड़े, दोष आपका ही होगा, सच का नहीं। और कायरता को और भगोड़ेपन को और दब्बूपन को तो आप कभी जोड़ ही मत लीजिएगा सच के साथ। सच्चा आदमी विवेकपूर्ण होता है, उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण हो जाती है। ज़बरदस्त तरीके से सोचता है वो। दुश्मन को हराने के लिए या सत्य की स्थापना के लिए वो जैसा विचार कर सकता है और जैसी चतुर चाल चल सकता है वैसा अधार्मिक आदमी चल ही नहीं सकता।

ब्रह्मविद्या के बारे में कहते ही यही हैं कि ब्रह्मविद्या ऐसी विद्या है कि इसके बाद बाकी सब विद्याएँ आसान लगने लगती हैं। जो ब्रह्मविद्या में पारंगत हो गया वो दुनिया की बाकी सब विद्याओं में पारंगत हो जाएगा। इसी तरीके से जो सत्य के प्रति निष्ठापूर्ण हो गया, जो धर्म में निष्णात हो गया उसका विचार ज़बरदस्त रूप से पैना हो जाता है। आप उसको हरा नहीं सकते, ना तर्क में, ना ज्ञान में, ना विज्ञान में, ना युद्ध में।

सच के साथ हमने दो-चार बड़े दुर्भाग्यपूर्ण चित्र जोड़ दिए हैं। हमने छवि ऐसी बना ली है कि “सच्चा आदमी कैसा होता है? अच्छा होता है पर बेवकूफ सा होता है, समझदार नहीं होता, दुनियादारी नहीं जानता और उसको एक झापड़ लगा दो तो हें-हें हें-हें करके खींस निपोरेगा और पीछे हो जाएगा। ठसक नहीं होती, छाती चौड़ी करके वो लड़ नहीं जाएगा। वो कहेगा, ‘अरे, कोई बात नहीं गाल पर ही तो मारा है और गाल तो मिथ्या है, देह तो मैं हूँ नहीं।’ वो इस तरह की कुछ बातें बोलेगा और आप उसे जितना दबाएँगे वो दबता जाएगा।"

और कैसा होता है सच्चा आदमी? ये जो हमारी प्रचलित छवि बन गई है आजकल सच की, मैं वो बता रहा हूँ आपको। कि और कैसा होता है सच्चा आदमी? “वो दुनियादारी की कोई समझ नहीं रखता, उसको आसानी से बेवकूफ बना सकते हो।” और कैसा होता है? “शारीरिक रूप से दुर्बल होता है, ऐसे ही दुबला-पतला सा है। उसको ऐसे ‘शु’ करदो तो भाग जाएगा। और हाँ, भागते हुए भी उसको रंच मात्र भी ना क्रोध आएगा ना शर्म आएगी, क्रोध तो उसमें होता ही नहीं। धार्मिक आदमी है उसको कभी आक्रोश उठता ही नहीं।” इस तरह की हमने छवियाँ बना रखी हैं। नतीजा ये निकला है कि हमने सच का संबंध अनिवार्य रूप से दुर्बलता से जोड़ दिया है जबकि सच का सीधा-सीधा संबंध शक्ति से है, ताक़त से है। और जो कोई अशक्त है, दुर्बल है वो ये साफ़ समझ ले कि वो सच के साथ नहीं है, चाहे वो कोई व्यक्ति हो चाहे कोई देश हो। और देश क्या है? जहाँ के व्यक्ति दुर्बल हों वो देश बली हो सकता है क्या? समझ में आ रही है बात?

ये भी झूठ की बहुत बड़ी साज़िश है कि एकदम किसी गिरे-पड़े, दब्बू, मुर्ख, कमज़ोर आदमी को खड़ा कर दो ऐसे। वो खड़ा भी नहीं हो पा रहा, उसको ऐसे टांग कर खड़ा करना पड़ता है, उसको छोड़ दो तो वो बिखर जाएगा। तो ऐसे उसको खड़ा कर दो और बोलो, “ये देखो ये बहुत सच्चा आदमी है।” और वो जो सच्चा आदमी है, जैसे ही उसको तुमने टांग रखा है उसने दो चार श्लोक बोल दिए और कुछ भली-भली नैतिकता की बात बोल दी। भाई साहब, धर्म का, सच का कोई संबंध सामान्यतया प्रचलित नैतिकता से नहीं है। सामान्यतया प्रचलित जो नैतिकता होती है वो तो हमारे मन के सामाजिक संस्कार होते हैं और धर्म का वास्तविक अर्थ है — मन पर संस्कारों की जितनी परतें चढ़ी हों उन सब को धो देना, मिटा देना। धर्म आपको सब तरह की नैतिकता से आज़ाद कर देता है, धर्म आपको आत्मिकता दे देता है और वो आत्मिकता ही सच्ची नैतिकता होती है।

तो आप दुश्मन का सामना ना कर पाएँ या आवश्यकता पड़ने पर भी दुश्मन को मृत्यु-दंड ना दे पाएँ ये कह कर के कि “मैं तो भला आदमी हूँ, मैं तो नैतिक आदमी हूँ।” तो आप धार्मिक नहीं हैं आप सिर्फ बेवकूफ हैं। कृष्ण अर्जुन से मृत्यु-दंड नहीं दिलवा रहे हैं क्या पूरी एक सेना को ही? और भीम कमज़ोर पड़ रहे थे थोड़ा, उनसे मृत्यु-दंड दिया नहीं जा रहा था तो कृष्ण ने मामला ही अपने हाथ में ले लिया। बोले ये नहीं मार पा रहा है तो मैं ही बताए देता हूँ, “अरे, नीचे मार नीचे”, भले ही वो युद्ध के नियमों के ख़िलाफ़ हो, भले ही उससे नैतिकता टूटती हो। “ये खड़े हैं बगल में बलराम, ये नाराज़ होंगे, कोई बात नहीं, देखा जाएगा, तू तोड़ दे। सच से बड़ी कोई नैतिकता नहीं होती, तोड़ दे दुर्योधन की जाँघ अभी।” ये कृष्ण कह रहे हैं।

अगर भारत नैतिकता के पचड़ों में इतना फँस गया कि नैतिकता के कारण हारने लग गया तो वो नैतिकता झूठी है, उसका धर्म से क्या लेना-देना? और अपनी ही उनकी शपथ थी, दुर्योधन को वचन दिया था युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा और देख रहे हैं कि वो पीछे खड़ा हुआ है अर्जुन और वो भावनाओं के वशीभूत होकर के अपने पितामह पर बाण ही नहीं चला पा रहा या इधर-उधर हल्का-फुल्का कुछ चला रहा है तो बोले, “वचन गया भाड़ में। कोई वचन सच से बड़ा नहीं होता। दिया होगा मैंने दुर्योधन को वचन कि युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा। मैंने ही वचन दिया था न, मेरा वचन मुझसे बड़ा नहीं हो गया। अभी तोड़ रहा हूँ अपना वचन। मैं ही इनको मारे देता हूँ, अर्जुन तो कुछ कर नहीं पाएगा ये तो बिलकुल कापुरुष हुआ पड़ा है।” फिर अर्जुन घबराया, कुछ चेतना जगी। पीछे से आकर पकड़ा, “अरे, नहीं, नहीं, नहीं आप ये ना करें, मैं ही लड़ लूँगा।” तुम्हें क्या लगता है कि वो इस योजना से आगे बढ़े थे कि अर्जुन पीछे से आ ही जाएगा, अर्जुन नहीं आता पीछे से तो उन्होंने खुद ही काम तमाम कर दिया होता। चक्र चलाने का तो उनका वैसा भी बड़ा अभ्यास था। वो तो छोटा चक्र था सुदर्शन, बड़ा वाला चक्र लिए हुए थे, दे कर मारते वो। सब वही काम हो जाता।

तो अगर आप झूठे नैतिकता के पचड़ों में फँसते रहे हैं, आप तथाकथित भले आदमी हैं और इस भलाई के कारण आपको ज़िंदगी में असफलता दर असफलता मिली है तो कृपा करके ये ना बोलें कि आपको असफलता आपके सच के कारण मिली है। आपको आपकी असफलता आपके संस्कारों के कारण मिली है। सच में और संस्कारों में अंतर होता है।

मेरे उत्तर के पहले हिस्से में मैंने बताया कि कैसे भारत कम-से-कम पाकिस्तान की अपेक्षा सफल है और अब मैं चर्चा कर रहा हूँ कि अगर भारत असफल रहा है एक बड़ी सीमा तक तो उसकी क्या वजह रही है। उसकी वजह ये रही है क्योंकि यहाँ बहुत सारे लोग हैं जो भले बन कर घूम रहे हैं और उनको ये नहीं समझ में आ रही बात कि उनकी भलाई धार्मिक नहीं है, मात्र संस्कार जनित है। वो अपने संस्कारों को ही सोच रहे हैं कि यही तो धर्म है, यही तो सच्चाई है, ऐसे ही तो चलना है। तो एक तो इस तरह के लोग हैं।

हिन्दुस्तान में दो तरह के लोग प्रमुखता से हैं — एक वो जिन्होंने कह रखा है, "हमे धर्म से कुछ लेना ही देना नहीं।" इनकी तो दुर्गति ज़िन्दगी कर ही रही है और इनका होना देश के लिए भी अभिशाप जैसा है। दूसरे वो लोग हैं जो बहुत बड़ी तादात में हैं, जो कह रहे हैं, “हम धार्मिक हैं।” ये वास्तव में धार्मिक नहीं हैं, मैं कह रहा हूँ — ये सिर्फ संस्कारित हैं और नैतिक हैं। इनका वास्तविक अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। इनका अध्यात्म वही वाला है कि कमरे के किसी कोने में बैठ जाओ, आँखे बंद करलो और ध्यान लगाओ और बाहर सड़क पर क्या चल रहा है उससे कोई सरोकार नहीं। जब युद्ध का समय आए और दुश्मन ललकारे तो ही-ही ही-ही करके बत्तीसी दिखा कर के कहीं कोने में घुस जाओ। तब ना बुद्धिबल है, ना बाहुबल है, ना आत्मबल है। ये कौनसा भगोड़ा और दुर्बल अध्यात्म है भाई? कम-से-कम ये गीता का अध्यात्म तो नहीं है, ये उपनिषदों का अध्यात्म तो नहीं है। समझ में आ रही है बात?

तो भारत के लिए आगे का रास्ता ये नहीं है कि भारत सच को और अध्यात्म को और धर्म को छोड़ता चले। वो तो बड़ा अनिष्ट हो जाएगा। आगे का रास्ता ये है कि समझो कि वास्तविक सफलता और विजय मात्र उसे मिलती है जो सत्य के साथ होता है, इसलिए तो ‘सत्यमेव जयते’। ये नहीं है कि ‘सत्यं जयते’। बीच में क्या लगा हुआ है? एव, एव माने? ही, ही माने? सिर्फ। ये संभावना भी नहीं है कि सच जीतेगा और अर्धसत्य भी जीत जाएगा या मिश्रित सत्य भी जीत जाएगा, जो शत-प्रतिशत खरा है सिर्फ वही जीतेगा। हाँ, अगर लड़ाई हो रही है अंधेलाल और काणेलाल में तो वो काणेलाल जीत सकते हैं। दो ऐसे लोग अगर भिड़ गए जिसमें से एक सत्य के साथ बिलकुल नहीं है और दूसरा सत्य के साथ आधा-अधूरा है तो इसमें कोई भी जीत सकता है। फिर अब जो जीत रहा है या जो हार रहा है उसकी जीत में या उसकी हार में सत्य का कोई संबंध है ही नहीं क्योंकि ये दोनों ही जो आपस में भिड़ रहे थे ये दोनों ही अधार्मिक किस्म के लोग थे, इसमें से कौन जीता कौन हारा अब ये संयोग की बात है, हमें क्या लेना-देना।

लेकिन एक बात पक्की है कि अगर दो ऐसे पक्षों में मुक़ाबला होता है या तुलना होती है जिनमें से एक वास्तविक रूप से धार्मिक है और दूसरा नहीं है तो मैंने कहा कि जो वास्तविक रूप से धार्मिक है उसको हराया नहीं जा सकता। आप अधिक-से-अधिक ये कर सकते हैं कि उसको मार दें, हारेगा वो तब भी नहीं। आप उसे मार भी देंगे तो भी हारे आप ही। बात समझ में आ रही है?

अपनी असफलाओं का ठीकरा धर्म के सिर मत फोड़ें। हमारी हालत ऐसी है जैसे कोई घटिया छात्र, जिसने सालभर अपनी किताब खोली नहीं या खोली भी तो आधी ही, थोड़ा बहुत पढ़ा थोड़ा नहीं पढ़ा, ऐसा ही किताब के साथ रूखा-सौतेला व्यवहार करा और फिर वो जाता है परीक्षा लिख कर आता है, परिणाम आता है। परिणाम क्या आता है? असफल। तो वो आकर के ऐसे दिखाता है जैसे उसके साथ बड़ा अत्याचार हुआ है, बड़ा ग़लत हो गया है और अपनी किताब में आग लगा देता है, कहता है, “इस किताब की वजह से ही तो आज मैं अनुत्तीर्ण हुआ हूँ। ये घटिया किताब, मैं इसका पालन करता रहा, मैं इसी को पढ़ता रहा और आज देखो क्या हुआ मेरे साथ, मैं अनुत्तीर्ण हो गया।” तू अनुत्तीर्ण इसलिए हुआ है क्योंकि तू उस किताब का पालन कर रहा था या इसलिए हुआ है क्योंकि तूने उस किताब का पालन किया ही नहीं। आज यही चलन चल रहा है।

लोगो को वेदांत नहीं पढ़ना, गीता नहीं पढ़नी, उपनिषद नहीं पढ़ना और तर्क क्या देना है? तर्क यही कि “देखो न, पश्चिम वाले कितने आगे हैं, उन्होंने तो कभी गीता नहीं पढ़ी।” एक आए थे सज्जन, बोल रहे हैं, “आइंस्टीन ने कोई गीता नहीं पढ़ी थी, इतनी उसकी प्रखर बुद्धि थी।” मैंने कहा तुम बैठो, उनको फिर बात समझाई। जब बात समझाई तो पहले तो अड़े, फिर पसीना-पसीना हो गए बिलकुल। एक आए, बोले, “देखिए, अमेरिका तो कोई अहिंसा का पालन नहीं करता और चीन को देखिए, सबसे ज़्यादा वहाँ हिंसा है, अत्याचार है, जानवरों का माँस भी सबसे ज़्यादा वहीं खा रहे हैं और सबसे आगे हैं।" मैंने कहा, "बैठो, बात समझाते हैं।"

बात बस इतनी सी है कि आप ये साबित करके कि चीनियों से ज़्यादा माँस कोई खाता नहीं, ख़ुद आप माँस खाना चाहते हैं। आप कह रहे हैं कि "देखिए, चीनी चढ़े जा रहे हैं हिंदुस्तान पर और चीनी तो टनों के भाव से माँस खाते हैं। तो इससे ये साबित होता है कि जो माँस खाने वाले लोग हैं वही सफल हैं।" ये तर्क आप दे क्यों रहे हो आपको पता है न, क्यों दे रहे हो? ताकि आप भी माँस खा सको। जो असली बात है वो आप छुपा रहे हो। अपनी हार की असली वजह आप छुपा रहे हो। वजह आपने क्या ज़बरदस्त ढूँढ कर निकाली है कि "देखिए, वो गीता नहीं पढ़ते और वो सब जानवर मार-मार कर खाते हैं इसीलिए तो वो आगे हैं।" तो यानी कि अगर मुझे आगे बढ़ना है ज़िंदगी में तो मुझे दो काम करने हैं। पहला — गीता नहीं पढ़नी और दूसरा — मैं भी जानवर काट-काट कर खाऊँगा तो मैं आगे बढ़ जाऊँगा ज़िंदगी में। क्या ज़बरदस्त तर्क है साहब? बचिएगा ऐसे तर्कों से।

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