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बड़े सेलिब्रिटी और छोटे लोग
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज आप से सेलेब्रिटी-कल्चर (सेलिब्रिटी संस्कृति) के बारे में बात करना चाहता हूँ। एक आम आदमी का मन इन सेलिब्रिटीज़ से, क्रिकेटर्स से, फिल्मस्टार्ज़ से इतना ज़्यादा क्यों डॉमिनेटेड (शासित) रहता है? उन्हीं के बारे में सोचते हैं, उन्हीं के जैसा हो जाना चाहते हैं, उनकी जैसी बॉडी (शरीर) चाहते हैं।

आचार्य प्रशांत: लालच है और डर है। देखो, हर इंसान अपनी ज़िन्दगी से नाखुश है। कोई भी नहीं है जिसके मन में संतुष्टि हो। लेकिन लगता सबको यही है कि कोई तो और होगा जो शायद संतुष्ट होगा, जिसको ज़िन्दगी में सब कुछ मिल गया है जो होना चाहिए। तो फ़िर हम इन लोगों की ओर देखते हैं जिन्हें आप सेलिब्रिटीज़ बोलते हो। और उनको देखते हैं, उनसे डरते भी हैं, उनके जैसा बन भी जाना चाहते हैं, यही आम-आदमी की कहानी है। ये जाँचपड़ताल कोई नहीं करता है कि जिसकी ओर तुम देख रहे हो उसकी अपनी ज़िन्दगी कैसी है, उसके मन का अपना आंतरिक माहौल कैसा है, उसको क्या वाकई वो सब कुछ मिला है जिसकी तुमको चाहत है?

चकाचौंध की बात है बस और कुछ नहीं। इसी चकाचौंध में फँसकर आम-आदमी अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देता है, ख़राब कर लेता है, मर जाते हैं।

प्र: नहीं, ये भी देखा है कि ये जो सेलिब्रिटीज़ हैं, ये एडवरटाइजमेंट्स (विज्ञापन) भी बहुत करते हैं और...

आचार्य: पैसा है उसमें।

प्र: बड़े ब्रांड्स इनको इस्तेमाल करते हैं एक ट्रस्ट एस्टेब्लिश (विश्वास स्थापित) करने के लिए कि आप एक बड़े एस्टेब्लिश्ड (स्थापित) क्रिकेटर हैं, आपने हमेशा रिस्पॉन्सिब्ली (ज़िम्मेदारी से) मैचेस जिताए हैं तो आप ये इन्वर्टर ले लीजिए ये भी रिस्पॉन्सिब्ली आपको हमेशा संभालेगा, कभी फुकेगा नहीं।

आचार्य: क्रिकेटर सिखा रहा है आपको कि इनवर्टर कौनसा खरीदना चाहिए, कोई फ़िल्म एक्टर आपको बता रहा है कि आपको लाइफ-इंश्योरेंस (जीवन-बीमा) कौनसा खरीदना चाहिए और लोग उस क्रिकेटर, उस एक्टर की बात में आकर के वो लाइफ-इंश्योरेंस खरीद भी रहे हैं। भई, तभी तो वो जो कंपनी है, एजेंसी है उस क्रिकेटर को, उस सेलेब्रिटी को पैसा दे रही है।

तो इससे यही पता चलता है कि आम जनता का मन, समझ, बौद्धिक स्तर किस तल का है। हम सोचने-समझने वाले लोग ही नहीं हैं। हम भीड़ के पीछे चलने वाले, भावनाओं में बह जाने वाले, जल्दी से उत्तेजित होकर के निर्णय करने वाले लोग हैं।

सब नहीं होंगे ऐसे पर ९५ प्रतिशत लोग ऐसे ही हैं। और ये बहुत बहुत खेद की बात है। यही थोड़े ही है कि ये आपको बता रहे हैं कि आप लाइफ इंश्योरेंस कौनसा खरीदो, ये आपको ये भी बता रहे हैं कि ज़िन्दगी कैसे जीनी चाहिए। तुम अखबारों को उठा लो या न्यूज़ (समाचार) वेबसाइट्स को उठा लो तो वहाँ पर धड़ल्ले से और बहुत सारे तुमको ऐसे लेख मिलेंगे - फाइव लाइफ लेसन्स फ्रॉम (जीवन के पाँच सबक इनसे सीखें), और वो कौन है? वो कोई एक्ट्रेस (अभिनेत्री) है यूँही जिसको अभी एक्टिंग (अभिनय) करना भी नहीं आया है। वो प्रसिद्ध क्यों है ज़्यादा?

वो खुली बात है, यही कि वो प्रसिद्ध है अपनी देह की वजह से, अपनी सेक्सिनेस (कामुकता) की वजह से। और वो आपको बता रही है कि लाईफ लेसन्स , ज़िन्दगी कैसे जीनी चाहिए।

ये चल रहा है। और ये चल ही नहीं रहा, ये ज़िन्दगी में ऊँचाई का, सफलता का पैमाना बन गया है। जो लोग दिखाना चाहते हैं कि वो ज़िन्दगी में कहीं पहुँच गए हैं वो ये तथाकथित सेलिब्रिटीज़ के साथ एकदम झुककर के, तलवे चाटते हुए फोटो खिचा लेंगे। इसमें राजनेता भी आते हैं।

"कोई फलाने नेता के साथ मेरी फ़ोटो है।"

प्र: एक तो आचार्य जी मूवीज़ होती हैं। अच्छी मूवीज़ , ऐसी मूवीज़ जो चेतना का स्तर बढ़ाएँ, उनको देखने के लिए तो आप भी हमें कहते हैं। तो एक चीज़ तो मूवीज़ हो गईं और एक होता है उसी एक्टर (अभिनेता) की जो बाहरी ज़िन्दगी है, बिहाइंड द सीन्स (पर्दे के पीछे) उसके पीछे जो लोग इतना पागल होते हैं कि वो कब जिम (व्यायामशाला) जा रहा है, कब गाड़ी से उतरा, उसको चेज़ (पीछा) करना, वो जहाँ जिस रोड (सड़क) से निकल रहा है। ये फेटिश (बुत) क्या है?

आचार्य: हाँ, क्योंकि लोगों को ये लग रहा है कि उसको कुछ ऐसा मिल गया है जो बहुत-बहुत कीमती है। और लोगों को तब भी होश नहीं आता जब हर साल आधा दर्जन, एक दर्जन बहुत ही दर्दनाक और झकझोर देने वाले वाख्य फिल्म-इंडस्ट्री से सामने आते हैं। कभी कत्ल के, कभी आत्महत्या के, कभी डिप्रेशन (अवसाद) के, कभी आपराधिक गतिविधियों के। लोगों को तब भी समझ में नहीं आता कि तुम कैसे लोगों को अपना आदर्श बनाए बैठे हो। ये लोग इस लायक हैं कि तुम पूछो कि, "ये क्या पहनता है, क्या खाता है, ये क्या विचार करता है? हम भी वैसा ही करेंगे"?

और अभी तो ये पिछले कुछ सालों से नया एक चलन शुरू हुआ है कि जो फिल्मी सेलिब्रिटीज़ हैं वो विचारक भी बने बैठे हैं। अब इंटेलेक्चुअल्स (बुद्धिजीवी) भी यही हैं। तो कोई भी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय महत्व का मुद्दा हो, उसपर बढ़-चढ़ कर राय कौन दे रहे होंगे?

प्र: यही लोग।

आचार्य: ऐसे लोग जो घटिया फिल्में बनाते हैं और घटिया एक्टिंग करते हैं और पूरे समाज का मन गंदा करते हैं। ये अब विचारक हैं। ये बढ़-चढ़ कर बता रहे होंगे, "नहीं, भारत को ऐसा करना चाहिए, फलाना नियम ऐसे पास होना चाहिए, फलानी चीज़ ऐसे चलनी चाहिए।" तो ये है।

प्र: तो इनका जो लार्जर दैन लाईफ पॉर्ट्रेयाल (जीवन से बड़ा चित्रण) होता है वो हॉलो (खोखले) है।

आचार्य: देखो, लार्जर दैन लाईफ तो होना चाहिए। हम सब की जो लाईफ (ज़िंदगी) है उससे कुछ लार्जर (बड़ा) हम सब के पास होना चाहिए। बिलकुल सही बात है। पर इनकी जो ज़िन्दगी है इसमें वाकई क्या कुछ ऐसा है जो अगर आपको मिल गया तो आपको बड़ा आनंद आ जाएगा? ये आप कभी जानने की कोशिश तो करिए। कभी अपने मन को भी पूछिए कि, "तुम किस चमक-दमक के पीछे भाग रहे हो?"

प्र: मेनली (ज़्यादातर), आचार्य जी पैसा और फेम (ख्याति) ये दो ही चीज़ें होती हैं।

आचार्य: पैसा और फेम यही दो ही चीज़ें होती हैं और वो फ़िर एक बड़ा घटिया सर्किट (परिपथ) बन जाता है। एक सेलेब्रिटी दूसरी सेलेब्रिटी को प्रोमोट (बढ़ावा) कर रही है। एक की फेम (प्रसिद्धि) दूसरे की फेम बन रही है, दूसरे की फेम पहले की फेम बन रही है, सेलेब्रिटी कॉलाबोरेशनस (सहयोग) चल रहे हैं। गुरुजी राजनेताओं के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। गुरु महाराज बैठे हैं किसी एक्ट्रेस (अभिनेत्री) के साथ वो तत्वचर्चा कर रहे हैं, आध्यात्मिकता की बातें कर रहे हैं। और लोग पूछते भी नहीं हैं कि "भई, जो जिस क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है, उससे बात की जाती है न?" गुरुजी का वीडियो आ रहा है कि गुरुजी बात कर रहे हैं एक टॉप कॉमेडियन (शीर्ष हास्य कलाकार) से। तुम कॉमेडियन से स्पिरिचुअलिटी (आध्यात्मिकता) की बातें कर रहे हो? चलो, गुरुजी ने करी तो करी, वो वीडियो फ़िर सुपरहिट भी हो रहा है। ठीक वैसे जैसे उस कॉमेडियन के कहने पर आप ये तय कर लोगे कि कौनसे डॉक्टर को आपको दिखाना चाहिए अगर आपको कैंसर हो गया है।

ये बात थोड़ी सुनने में अजीब लग रही होगी पर वही कॉमेडियन आकर के आपको बताए कि "देखो, मैं तुम्हें बताता हूँ तुम्हें क्या खाना-पीना चाहिए, तुम्हें कहाँ इलाज़ कराना चाहिए, तुम्हें कौनसे बैंक में अपना पैसा जमा कराना चाहिए।" तुम उसकी बातें बिलकुल सुन लोगे। तुम ये पूछोगे भी नहीं कि, " कॉमेडियन का बैंक से क्या संबंध?" कॉमेडियन अब मेडिसिन (दवा) के बारे में बताएगा क्या? उसी तरीक़े से कॉमेडियन अब धरम और अध्यात्म के बारे में बताएगा क्या?

पर आप सुन लोगे। सामने बस कुछ ऐसा होना चाहिए जो हमारी चेतना के जो सबसे निचले तल हैं, उन्हें उत्तेजित करता हो। और हम बिलकुल बह निकलते हैं। एकदम पूरे ही गीले हो जाते हैं। गीले ही नहीं हो जाते, घुल जाते हैं। हमें समझ में ही नहीं आता कि हम नशे में हैं।

प्र: आचार्य जी, हाल ही में ये जो टर्म (शब्द) है जो इंस्टाग्राम, फेसबुक इत्यादि से निकल के आई है- इन्फ्लुएँसर्स (प्रभावशाली व्यक्ति)। इसपर कुछ बताएँ कि सेलेब्रिटी कल्चर में इस शब्द का क्या महत्व है?

आचार्य: देखो, सबसे पहले तो मैं ये पूछूँगा कि हम इतना ज़्यादा इन्फ्लुएँस्ड (प्रभावित) होने को तैयार क्यों बैठे हैं? पहली बात। दूसरी बात, तुम्हें अगर कुछ जानना भी है, सुनना भी है, सीखना भी है, तो तुम किससे जान-सुन-सीख रहे हो?

पहली बात मैंने पूछी कि तुम इतना क्यों तैयार बैठे हो कि कोई तुम्हारे सामने धड़ल्ले से इन्फ्लुएँसर बनकर खड़ा हो जाए?

और दूसरी बात अगर वो इन्फ्लुएँसर बन रहा है तुम्हारे सामने तो ये तो पूछो कि वो तुम्हारे दिमाग पर कैसा असर डाल रहा है। वो तुम्हारे दिमाग को रौशनी दे रहा है, सफ़ाई दे रहा है या अंधेरा और गंदगी दे रहा है? ये पूछना ज़रूरी है न?

प्र: करेक्ट (सही)। क्योंकि ये बात बहुत अजीब लगती है कि एक क्रिकेटर एक गुरुजी के साथ बैठकर तीसरी चीज़ की बात कर रहा है।

आचार्य: और ऐसा नहीं है कि ये क्रिकेटर आध्यात्मिक रूप से बहुत उत्सुक था इसलिए गुरुजी के पास आया है। ये तो गुरुजी की पी.आर. एजेंसी (जनसंपर्क एजेंसी) घूम-घूम कर सेलेब्रिटी कोलेबोरेशन्स कराती है। कि फलानी सेलेब्रिटी के साथ महीने, दो महीने कोशिश की जाएगी, उससे टाइम (समय) लिया जाएगा कि "प्लीज़-प्लीज़-प्लीज़ गुरुजी के साथ १५ मिनट का एक वीडियो बनवा दो। इससे ये साबित हो जाएगा कि देखो, गुरुजी को इतने बड़े-बड़े लोग भी सुनते हैं।"

तो जब जनता ऐसी है कि जिसे ये सब फरेब समझ में ही नहीं आता, वो सोचती भी नहीं है कि स्क्रीन (पर्दे) के पीछे क्या चल रहा है, तो तुम क्या करोगे? फ़िर तुम यही करोगे कि...

प्र: तो क्या ये कह सकते हैं कि जो बात-चीत हो रही है वो तो एक प्रिटेक्सट (व्याज) है, उसका कुछ मतलब ही नहीं है?

आचार्य: वो जो बात-चीत हो रही है उसका कोई मतलब ही नहीं है। वो जो तस्वीर है न सामने, कि एक आदमी के साथ दूसरा बड़ा आदमी बैठा हुआ है। बस उस तस्वीर का मतलब है।

प्र: जो थंबनेल पर लगती है।

आचार्य: बस वो जो थंबनेल है, उसका मतलब है। बातचीत क्या हो रही है, उसका कोई मतलब नहीं है। कंटेंट (सामग्री) उसमें कुछ नहीं है। वो जो इमेज (छवि) है वही कंटेंट है, द इमेज़ इस द कंटेंट (छवि ही सामग्री है)।

हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ पर जो वास्तविक सब्सटेंस (सार) है, उसकी कोई अहमियत ही नहीं बची है। आप इमेज क्या पोट्रे (दिखाना) कर रहे हो, कैमरा कैप्चर (पकड़) किस चीज़ को कर रहा है, वो दिख कैसा रहा है, बस उस चीज़ की अहमियत है। तो बस ये दिखना चाहिए कि देखो, एक तरफ़ ये बैठे हैं और दूसरी तरफ़ कोई बहुत बड़े नेता बैठे हैं। या ये तुम्हारी स्क्रीन (चित्रपट) पर एक एक्ट्रेस खड़ी है और उसने अपने हाथ में एक वॉशिंग पाउडर ले रखा है। बस उस इमेज की कीमत है।

प्र: ये जो फ्रेम (ढाँचा) है आचार्य जी, जिसमें गुरुजी बैठे हुए हैं और एक कोई बहुत ही पेप (जोशीला), नया, अपकमिंग सक्सेसफुल मॉडल (आगामी सफल मॉडल) बैठा हुआ है। ये जो इमेज है मैं इसके बारे में बात करना चाहता हूँ कि इस इमेज में ऐसा क्या है कि लोग एकदम मंत्रमुग्ध हो जाते हैं और पागल हो जाते हैं?

आचार्य: इस इमेज में तुम्हारी सब निचले तल की वासनाएँ हैं। वो मॉडल क्या है? उस मॉडल के पास पहली बात तुम्हें दिखाई देता है कि पैसा है, दूसरी बात आकर्षक शरीर है, तीसरी बात, अगर वो पुरुष मॉडल है तो उसके पास लड़कियाँ हैं। और इसी बात पर मरी जा रही है जनता। क्योंकि हर आदमी को यही चाहिए, और हर आदमी को यही क्यों चाहिए?

क्योंकि बोध से, विज़डम (बुद्धिमत्ता) से, हमें कोसों दूर खींच दिया गया है। हमारी ज़िन्दगी में किसी भी तरह की सच्चाई के लिए गहरी, गंभीर बात के लिए, सोचने और समझने के लिए बहुत कम जगह बची है। हमारी ज़िन्दगी में तो कूद-फांद, छलाँग, उत्तेजना इन्हीं के लिए जगह बची हुई है।

प्र: तो ये कह सकते हैं आचार्य जी, कि ये जितने भी ऐसे सेलेब्रिटी कोलेबोरेशन्स हो रहे हैं, वो उनमें कुछ ऐसा हार्टली (दिली) नहीं है कि दिख रहा है वीडियो में कि दोनों हँस-खेल रहे हैं। ये एक कॉन्ट्रैचुअल (समझौते के तौर पर)...

आचार्य: बहुत ही मूर्ख आदमी होगा जिसको वो जो लोग हँस रहे हैं स्क्रीन पर उनकी हँसी का खोखलापन नहीं दिखाई दे रहा होगा।

प्र: क्योंकि उनकी जो कन्वर्सेशन्स (संवाद) होती हैं उसमें एक-दूसरे की लाईफ का एक बड़ा अच्छा माहौल बन जाता है, प्यारी-प्यारी बातें करते हैं।

आचार्य: माहौल पूरा स्क्रिप्टेड (लिखित) होता है। अगर आपमें ज़रा भी अक्ल होगी तो आप देख लेंगे कि वो सब पहले से तय है कि ये ये बोलेंगे और ये ऐसा बोलेंगे। ये भी तो सोचा करो न कि तुम्हारे सामने जो चीज़ आ रही है, उसमें कैमरा कहाँ है और कितने लोग मौजूद हैं और कौन-कौन सी चीज़ पहले से ही तय है कि ऐसे होगा और ऐसे होगा।

प्र: तो ये सब प्रीडिसाईडेड (लिखित), कॉन्ट्रैचुअली अरेंज्ड (अनुबंधित व्यवस्था) होता है?

आचार्य: कॉन्ट्रैचुअली अरेंज्ड होता है, पैसे का लेन-देन हो चुका होता है।

प्र: अच्छा मनी (पैसे) भी इंवॉल्वड (शामिल) है?

आचार्य: तुम्हें नहीं लगता है मनी भी इंवॉल्वड होगी?

और अगर मनी नहीं इंवॉल्वड है तो किसी और तरीक़े से फेवर्स (एहसान) लिए-दिए जा रहे हैं। यू स्क्रैच माई बैक, आई स्क्रैच यौर बैक (तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारा खुजलाऊँगा)। तुम नेता हो, मैं धर्मगुरु हूँ; तुम मेरा समर्थन करो, मैं तुम्हारे वोट बढ़वाऊँगा। तुम फ़िल्म एक्टर हो, मैं गुरुदेव हूँ; दोनों साथ मिलते हैं, मेरे फॉलोअर्स (अनुयायी) तुम्हारी तरफ़ आएँगे, तुम्हारे फॉलोअर्स मेरी तरफ़ आएँगे। ले दे कर दोनों का फायदा है। जनता को मूर्ख बनना है, जनता मूरख बनी जा रही है। ये अब एडवरटाइजिंग (विज्ञापन) का नेक्स्ट लेवल (अगला तल) है। ये विज्ञापनबाजी का अगला तल है। कि पहले तो विज्ञापनबाजी में यही होता था कि एक एक्टर आकर के तुमको बता रहा है कि आप फलाना कच्छा खरीदिए या फलाना मोजा खरीदिए और तुम बिलकुल प्रभावित हो जाते थे। अब तुम्हें एक्टर आकर ये भी बता रहा है कि आप फलाने गुरु के पास जाइए।

कुछ दिनों में वो ये भी बताएँगे तुम्हें कि आप फलाना धर्म अपनाइए। फलाना धर्म बेहतर है।

प्र: कि हाल ही में मैने ये भी देखा है कि कोई बहुत बड़ी मार्केटिंग फर्म है, उसके साथ गुरुजी जुड़ गए हैं और फ़िर जितनी भी उसकी...

आचार्य: सब जुड़े हुए हैं। सब जुड़े हुए हैं!

प्र: गुरुजी के फॉलोअर्स सब, सेल्स (बिक्री) बढ़ रही है मार्केटिंग फर्म की।

आचार्य: गुरुजी हों, एक्टर्स (अभिनेता) हों, नेता हों सब को अच्छे से पता है कि जनता मूर्ख है, मूर्ख ही रहना है उसे। जनता बस इमेज की परवाह करती है। तो पूरा जो अब खेल है वो विज्ञापनबाजी का और पी.आर. का चल रहा है।

प्र: अब कह सकते हैं कि पहले ऐसा होता था कि ४० मिनट के वीडियो में या ४० मिनट के टेलीविज़न धारावाहिक में कुछ सेकंड्स के लिए एड (विज्ञापन) आते थे। अब कह सकते हैं कि पूरा वही है।

आचार्य: पूरा विज्ञापन-ही-विज्ञापन है। और देखो, बार-बार तुम इस तरफ़ की बात करना चाह रहे हो कि वो लोग क्या कर रहे हैं। मैं ये नहीं बात करना चाहता कि वो लोग क्या कर रहे हैं। चाहे वो एक्टर हो, नेता हो, गुरु हों। मैं ये पूछना चाहता हूँ, जनता क्या कर रही है? मेरा सरोकार लोगों से है। लोग क्या कर रहे हैं? उनको असलियत दिखाई नहीं देती? उनको बेवकूफ़ बनने में बहुत मज़ा आ रहा है, लोगों को? लोगों को खुद ही मूर्ख बनने में इतना मज़ा आ रहा है कि वो कोई चीज़ देखते हैं स्क्रीन पर और उनको लगता है ये असली है?

वो कभी सोचते नहीं कि ये चीज़ हुई कैसे होगी और क्यों हो रही है, इन दोनों ने क्या दिमाग़ लगाया है? इन दोनों में आपस में डील (सौदा) क्या है, सौदा क्या है? ये ज़रा सा भी दिमाग़़ नहीं लगाया जाता।

वो दिमाग़़ इसलिए नहीं लगाया जाता न क्योंकि बुद्धि कामनाओं के नीचे दब जाती है। बुद्धि तो तब चले न, जब इच्छाएँ थोड़ी कम हों। जब आदमी के दिमाग़़ पर डिज़ायर्स (कामना) हावी रहती हैं तो बुद्धि चलनी बंद हो जाती है। उसके बाद वो बस इन डिज़ायर्स का, कामनाओं का एक पुतला बन जाता है। उस पुतले को कहीं से उठाकर कहीं रखा जा सकता है, उस पुतले को किसी भी रंग से पोता जा सकता है, उस पुतले को खड़ा किया जा सकता है, गिराया जा सकता है, हँसाया जा सकता है, रुलाया जा सकता है। ये सब कामनाओं की वजह से है और वो जो डिज़ायर्स हैं वो सिर्फ़ एक तरीक़े से काबू में रखी जा सकती हैं और उस तरीक़े को कहते हैं बोध का रास्ता, विज़डम या अध्यात्म। वो जैसे रास्ता ही बिलकुल बंद कर दिया गया है नकली प्रोपोगेंडा (प्रचार) के द्वारा।

प्र: तो इस ऐज (युग) में आचार्य जी अगर फॉर्म (रूप) ही कंटेंट (सामग्री) है, इमेज ही सब्सटेंस (सार) है तो क्या किया जाए कि लोग जो भी बचा-कुचा सब्सटेंस है, रेरिटी (दुर्लभता) में जो प्रेज़ेंट (मौजूद) है अभी उसकी तरफ़ खिंचे? क्या वो भी एक इमेज है?

आचार्य: लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एक तरफ़ वो लोग हैं जिनके पास कोई कंटेंट नहीं, सब्सटेंस नहीं, इमेज है बस एक। और वो इस इमेज पर ही अपना ८० प्रतिशत समय लगाते हैं, ध्यान लगाते हैं, पैसा लगाते हैं। सारा खेल ही यही है कि एक इमेज बिलकुल बचा कर रखी जाए और एक बहुत चकाचौंध कर देनेवाली इमेज जनता के सामने बस रखते चलो, रखते चलो। तो वो लोग हैं।

दूसरी ओर अगर तुम कह रहे हो कि कहीं पर सब्सटेंस बचा हुआ है तो जहाँ बचा हुआ है उन्हें लड़ाई लड़नी पड़ेगी। उसके अलावा कोई तरीक़ा नहीं है।

'हे अर्जुन! धनुष उठा, युद्ध कर। और कोई तरीक़ा नहीं है।'

लोगों को अगर पता चल जाए कि इमेज के पीछे क्या है तो ये पूरी दुनिया अलट-पलट हो जाएगी। आप जिसको सिर्फ़ टीवी या मोबाइल के पर्दे पर देखते हो या सिनेमा की स्क्रीन पर देखते हो, वो वास्तव में इंसान कैसा है ये बात अगर सामने आ जाए तो हम मुँह कहाँ छुपाएँगे जाकर के? हम अपने-आप को माफ़ नहीं कर पाएँगे कि हमने ऐसे लोगों को इतने दिनों तक सर पर चढ़ा कर रखा।

प्र: और सारी मैनेजमेंट (प्रबंधन) ही इसी चीज़ में है न कि रिएलिटी (सच्चाई) कभी इमेज के आगे ना आ जाए।

आचार्य: हाँ तो सारी ऊर्जा ही जब इमेज मैनेजमेंट (छवि प्रबंधन) में जा रही है तो असली कंटेंट क्रिएट (उत्पन्न) कैसे हो? उसकी तरफ़ ऊर्जा जा ही नहीं रही है। आप अपना सारा ध्यान, सारी एनर्जी (ऊर्जा) किस चीज़ में लगा रहे हो?

अपनी इमेज में।

तो आप अंदर से कैसे हो? उसकी परवाह करने के लिए आपके पास एनर्जी बच ही नहीं रही है।

प्र: मासेस (जनता) को सेंसिटाइज (संवेदनशील) करने के लिए ताकि वो जैसे ही ऐसी कोई चीज़ देखें, एकदम से अलर्ट (सतर्क) हो जाएँ।

आचार्य: हम कर तो रहे हैं। और यहाँ ये क्यों बातचीत हो रही है? ये काहे को कैमरा लगा हुआ है?

देखो, मेरी समस्या ये है कि मैं इस समय किसी तर्क से नहीं लड़ रहा, किसी विचारधारा से नहीं लड़ रहा। अभी कोई बड़ी चीज़ नहीं है जिसके ख़िलाफ़ लड़ाई करनी पड़ रही है। बहुत सारे छोटे-छोटे लोगों का छोटा-छोटा अज्ञान एक किसी छोटे आदमी को बहुत बड़ा बना दे रहा है। वो सब बहुत छोटे-छोटे लोग हैं, बहुत अदने-अदने लोग हैं वो। उनमें से ऐसा कोई भी नहीं है जो अकेले सामने खड़ा हो जाए तो उसको फूँक मार कर उड़ाया नहीं जा सकता। उनमें से किसी में कोई दम नहीं है, बस वो बहुत सारे हैं। बहुत सारे। उनकी संख्या बहुत ज़्यादा है।

और ये बहुत सारे छोटे-छोटे लोग मिल जाते हैं और ये अपने ही जैसे किसी छोटे आदमी को बड़ा घोषित कर देते हैं। और वो बड़ा आदमी बड़ा सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि बहुत सारे छोटे आदमी उसको बड़ा बोल रहे हैं वरना वो भी वैसे ही छोटा आदमी है।

तो पहले तो एक मूर्ख आदमी को आप बहुत बड़ा बना देते हो। और फ़िर जब मैं कोई बात बोलता हूँ तो जानते हो सबसे आजकल प्रचलित तर्क क्या आ रहा है मेरे ख़िलाफ़?

"नहीं, आप तो ये बोल रहे हो लेकिन फलाने ने तो ये बोला हुआ है न?"

अरे भाई, ये बोलो कि मेरी बात में कमी कहाँ पर है?

वो कमी उसे कहीं नहीं दिख रही। वो कह रहा है, "आपकी बात तो शायद ठीक है पर फ़िर फलाने ने ऐसा क्यों बोला हुआ है?" अगर मेरी बात ठीक है और फलाने ने उसके विरुद्ध कुछ बोला हुआ है, उससे हटकर कुछ बोला हुआ है तो वो जो तुम्हारा फलाना है वो झूठा हुआ, सीधी सी बात ये है।

पर तुममें हिम्मत ही नहीं है कि कह पाओ कि वो बड़ा आदमी झूठा है।

प्र: वो उसकी इमेज से कॉलोनाइज्ड (उपनिवेशित) है मेंटली (मानसिक रूप से)।

आचार्य: वो उसकी इमेज से आतंकित है। सेलेब्रिटी-स्टेटस जनता को खौफ़ में रख देता है। एक बार आप बहुत बड़े बन गए, उसके बाद किसी की हिम्मत ही नहीं होती कि वो सोच भी पाए कि आप ग़लत हो या झूठे हो।

एक बार आप बड़े हो गए, उसके बाद जनता ये तो छोड़ दो कि आपके ख़िलाफ़ मुँह खोल कर कुछ बोलेगी, ९५ प्रतिशत लोगों को ये खयाल आना भी बंद हो जाता है कि आप एक झूठे, खोखले और बौने आदमी हो।

प्र: आप किसी के भी प्रति अपनी आलोचनात्मकता खो देते हैं, समझ ही नहीं आता आपको।

आचार्य: तो अभी यही तर्क आता है कि "आचार्य जी, आपने जो बात बोली अभी वो ठीक है लेकिन वो फलानि एक जो किताब है, उसमें तो ऐसा लिखा हुआ है न?"

अरे यार, बात अगर ठीक है और वो किताब उस ठीक बात के ख़िलाफ़ कुछ कह रही है तो वो किताब ग़लत हुई न?

उस किताब को छोड़ो। होगी कोई घटिया किताब तुम उठा लाए, उसका नाम ले रहे हो। या "आप जो बोल रहे हो वो तो ठीक है। पर वो ऐसा बोल रहे हैं, वो ऐसा बोल रहे हैं और वो बड़े लोग हैं तो वो तो ग़लत नहीं हो सकते न?"

ये बड़े लोग क्या होता है?

१०० बेवकूफ़ लोग मिलकर के किसी एक बेवकूफ़ को होशियार घोषित कर दें तो वो होशियार हो गया?

१०० बौने लोग मिलकर के अपने ही जैसे एक बौने को विशाल घोषित कर दें तो वो विशाल हो गया, बड़ा हो गया?

पर जो पूरा सेलेब्रिटी-कल्चर है, वो इसी सिद्धांत पर चलता है। किसी तरीक़े से बस अपनी एक बार इमेज बना लो और उस इमेज को चमकाते रहो, लोग डरे रहेंगे तुमसे। और वो डर के मारे तुम्हारी कही हुई बात भी मान लेंगे, तुम्हारा सुझाया हुआ टॉनिक (शक्तिवर्धक औषध) भी खरीद लेंगे, जूता भी खरीद लेंगे। तुम उनको बोलोगे "देखो, मैं ऐसा हूँ और मैं बता रहा हूँ तुम्हें तुम फलानी सब्ज़ी खाया करो।" वो सब्ज़ी भी खा लेंगे।

तुम उनको बताओगे, "देखो, ऐसे कपड़े पहना करो।" वो तुम्हारे बताए हुए कपड़े भी पहनने शुरू कर देंगे। लोग ही ऐसे हैं।

तभी तो मैं तुमसे कह रहा हूँ न, मैं लोगों की बात करना चाहता हूँ। लोग ऐसे क्यों हैं? हम लोग ऐसे नहीं होते तो मक्कार लोगों को नहीं मौका मिलता न हमें ठगने का। कोई मक्कार आदमी आपको ठग रहा है बड़ा बनकर के, इमेज वाला सेलेब्रिटी बनकर के, मैं उस मक्कार आदमी को बाद में दोष दूँगा। पहले तो मैं आपसे पूछूँगा कि आप इतने बेवकूफ़ क्यों हो कि कोई आपको ठग रहा है?

देने वाले ने आपको सोचने की, समझने की, विवेक की शक्ति दी है न?

आप क्यों बेवकूफ़ बनते रहते हो दिन-रात?

जाओ किसी ऐसी ही छोटी सी कोई दुकान होगी किराने की और उसने एक पीछे तस्वीर लगा रखी होगी क्षेत्र के विधायक के साथ। और गुरुजी ने तस्वीर लगा रखी है फलाने मुक्केबाज के साथ।

इन दोनों मानसिकताओं में कोई अंतर है क्या?

कोई अंतर है?

प्र: नहीं।

आचार्य: जो किराना खरीदने जा रहा है वो सोचता है, "आहाहा! ये किराने की दुकान बढ़िया है। इस बंदे के यहाँ पर तो कभी क्षेत्र के माननीय विधायक पधारे थे।" ये किराने की दुकान के स्तर की बात है। लेकिन बिलकुल वही बातचीत चल रही है राष्ट्रीय और अंर्राष्ट्रीय स्तर पर भी।

तुम बहुत जुगाड़ लगाते हो कि किसी तरीक़े से फलाने देश के प्रधानमंत्री से या किसी सांसद से हमारी मुलाकात हो जाए। और वो मुलाकात हो रही है और हाथ खिजाते हुए या गले मिलते हुए तुमने ५-१० कैमरे लगा दिए, "मेरी फ़ोटो खींच लेना" और अब उन फोटोज़ के दम पर तुम बताना चाह रहे हो "देखो, मैं कितना बड़ा आदमी हूँ, मुझसे तो फलानी यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) के लोग मिलते हैं। फलाने बड़े-बड़े लोग मिलते हैं।"

ये कुछ नहीं है, ये देहशत है, ये खौफ है। आम आदमी डरपोक है। वो बहुत जल्दी ऐसी बातों के नीचे दब जाता है, जल्दी से हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और उसको पता भी नहीं होता कि वो हाथ इसलिए जोड़ रहा है क्योंकि वो दहशत में आ गया है। उसको लगता है वो हाथ इसलिए जोड़ रहा है क्योंकि उसमें डिवोशन (भक्तिभाव) आ गया है।

ये ज़्यादातर जो डिवोटीज़ (भक्त) हैं इन्हें नहीं पता कि इनके पास डिवोशन (भक्ति) नहीं, दहशत है। तुम डरे हुए हो और तुम्हारी हिम्मत नहीं है कि तुम अपना दिमाग़ चला सको। ज़बान चलाने की बात तो बाद में आती है, दिमाग़़ भी नहीं चला पाता आदमी दहशत में।

ये इतने डरे हुए हैं सेलिब्रिटीज़ के आगे।

प्र: बॉलीवुड अभिनेता, अभिनेत्रियाँ, क्रिकेटर इत्यादि ये तो पहले भी भारत में हुआ करते थे, इक्कीसवीं सदी से पेहले भी। ये आज का क्या चलन है कि लोग पागलों की तरह फ़ोटो खिचाना चाह रहे हैं फ़िर उसको फ़ेसबुक पर डालते हैं?

आचार्य: भोग की बात बढ़ती जा रही है न। और वो पहले एक्टर्स-ऐक्ट्रेसेस होते थे, अब वो लाईफ-मॉडल्स (जीवन आदर्श) हैं। अब आप उनके जैसी ज़िन्दगी ही जीना चाहते हो।

अख़बार में हेडलाइन (मुख्य खबर) ही ऐसी आएगी। ' द अमेजिंग लाइफ ऑफ (इनका अद्भुत जीवन)...' और आगे कोई एक्ट्रेस (अभिनेत्री) होगी, उसका कुछ नाम लिखा होगा। उसकी अमेजिंग लाइफ कैसे हो गई?

प्र: क्योंकि उसके पास पैसा है।

आचार्य: नहीं, कैसे अमेजिंग-लाईफ हो गई? और फ़िर उसको देखकर के हर लड़की को ये लग रहा है, "मेरे पास भी ऐसी ही लाईफ होनी चाहिए क्योंकि देखो अभी-अभी इस न्यूज़पेपर ने ये घोषित किया है न कि ' द अमेजिंग लाइफ ऑफ ...' कोई भी कुछ भी नाम हो सकता है उसका, 'नेहा सायरन' - ' द अमेजिंग लाइफ ऑफ नेहा सायरन'।"

और आप पागल हो रखे हैं, कि, "अरे ये अमेजिंग लाईफ है तो मेरी भी ऐसी ही होनी चाहिए!"

प्र: तो लोगों की अपनी भी जो इन्फिरियरिटी (हीनता) है, अपना जो खोखलापन है, उसी पर बिल्ड-अप (बनना) होता है पूरा *सेलेब्रिटी-कल्चर*।

आचार्य: इसीलिए मैं बात सेलिब्रिटीज़ की नहीं, आम जनता की करना चाहता हूँ। ठग तो हर ज़माने में रहे हैं। ये आज का ज़माना कैसा है जिसमें ठग ही राजा बन गए हैं और ठग ही जनता के ज़हन पर बिलकुल छाए हुए हैं?

देखो, एक वो समय था जब किसी जनक को जब अष्टावक्र से कुछ बात पूछनी होती थी, तो वो जाते थे अष्टावक्र के सामने ज़मीन पर बैठ जाते थे। और कहते थे "मैं अपना राज्य, धन-दौलत, प्रतिष्ठा सब पीछे छोड़कर के आया हूँ, परेशान हूँ, मुझे कुछ बताइए।"

रैकु गाड़ीवान की कहानी सुनी है तुमने?

तो वो रैकु गाड़ीवान है लेकिन ज्ञानी था। तो राजा उसके पास जाते हैं, वो राजा से बोलता है, "चलो, पहले मेरी पीठ खुजाओ।" और राजा को ज्ञान चाहिए तो वो पीठ खुजाता है।

तो जो असली गुरु होता है, राजा उसके पास चलकर आते हैं, गुरु नहीं हिलता। वो राजा को अपने बगल का सिंहासन नहीं देता। राजा उसके पाँव में बैठता है।

गुरु वो होता है जिसे कोई चाहत ही ना हो कि उसके पास राजनेता आए, या कोई धनी आदमी आए, या कोई प्रतिष्ठित आदमी आए। लेकिन ये बात लोगों को तब पता चलेगी न जब वो उपनिषद पढ़ेंगे या अष्टावक्र गीता पढ़ेंगे।

रैकु की कहानी कहाँ है?

उपनिषद में।

अष्टावक्र के बारे में कब जानोगे?

जब अष्टावक्र गीता की ओर जाओगे। वो जब तुम्हें बातें ही नहीं पता, तुम्हारे दिमाग़ में उस तरह का विचार, वो आइडिया भी नहीं आ पा रहा है तो तुमको वो फ़िर कंट्रास्ट (विरोध) भी नहीं दिखता न, कि एक तरफ़ तो था रैकु जो राजा से बोल रहा है, "पहले मेरी पीठ खुजा, उसके बाद मुझसे बात कर।" और दूसरी तरफ़ हैं ये आज के गुरु जो इधर-उधर घूम-घूम कर के हाथ जोड़कर के सेलेब्रिटी कोलेबोरेशन करा रहे हैं अपनी पी.आर. एजेंसी के माध्यम से।

तो ये चल क्या रहा है?

वो लेकिन तब पता चले जब पहले एक बार कुछ ऐसी ऊँची किताबें पढ़ो जो तुम्हारे दिमाग़ में कुछ बहुत ही ऊँचे विचार डाल सकें। एकदम नए, आउट ऑफ द बॉक्स आइडियास (अलग सोच) डाल सकें। वो किताबें...

प्र: और ये दो धारी तलवार है न? वही गुरु फ़िर ये किताबें पढ़ने से भी तो रोक रहे हैं।

आचार्य: वही गुरु फ़िर ये किताबें पढ़ने से भी रोकेंगे आपको। वो गुरु भी रोकेंगे, वो एक्टर्स-ऐक्ट्रेसेस भी रोकेंगे। वो बल्कि तुमको घटिया किताबों की ओर भेजेंगे। उनसे पूछा भी जाए अगर, " फेवरेट बुक (पसन्दीदा किताब)?"

कोई एक्टर है, उससे पूछ दिया गया और उस एक्टर की कुल कमाई क्या है? क्लेम टू फेम (प्रसिद्ध होने का दावा) क्या है उसका?

कि उसने खूब माँस खा-खा कर के शरीर बना रखा है। और वो फ़िर आपको बता रहा है कि ज़िन्दगी में आपको किताब कौनसी पढ़नी चाहिए।

तो उपनिषदों की ओर जाने से आपको गुरु भी रोक रहे हैं, दुनिया रोक रही है, सब सेलिब्रिटीज़ * । कौनसा * सेलेब्रिटी आपको ज़िन्दगी में सच्चाई की ओर, रौशनी की ओर भेज रहा है?

कोई नहीं भेज रहा।

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