आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
सत्य-न एक, न अनेक || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
17 मिनट
90 बार पढ़ा गया

आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र सत्तरवें अध्याय में ‘सव्छेन्द्रियों’ की बात करते हैं , स्वक्ष इन्द्रियाँ। तो प्रिय कह रही हैं की इससे क्या अर्थ हुआ? ‘स्वक्ष इन्द्रिययाँ’ मैं एक ही शब्द बोलूँ अभी, उसको कुछ लोग बड़े साधारण तरीके से सुन लेंगे। कुछ उस पर मुँह बिसोरने लगेंगे। कुछ हँसदेंगे। एक सरल चित ऐसा भी हो सकता है जिसे उसमे ऐसा कुछ ख़ास दिखाए ही न दे। और एक मन ऐसा होगा जो उसके हज़ार अर्थ कर लेगा। शब्द एक ही था।

इन्द्रियाँ सिर्फ रास्ते की तरह हैं। वो ये भी तय नहीं कर सकती हैं की उन पर कौन चलेगा। जो शब्द आपके कान में पड़ रहा है, वो शब्द अपने आप में कोई अर्थ रखता ही नहीं है। आप ये मत समझियेगा की शब्द था, अर्थ आपने दिए। वो सिर्फ एक प्रकार का स्पंधन है, एक ध्वनि है। वो कान में पड़ता है, उसके बाद उसमें जितनी भावना भरी जाती है वो हमारे दवारा भरी जाती है। ‘स्वक्ष इन्द्रिययाँ’ का अर्थ ये नहीं है की उसमे स्वक्ष भावना भरी जाए। उसका अर्थ ये है की उसमें कोई भी भावना भरी ही न जाए। इसी कारण ऐसा आदमी देखता हुआ भी नहीं देखता, सुनता हुआ भी नहीं सुनता।

हमने पहले बात करी हुई है की मन को ऐसा कर लो की वो गन्दगी की तरफ आकर्षित ही न हो।

हमने कबीर को उद्द्रित किआ था कि

पहले तो मन काग था, करता जीवन घात।

अब मन हंसा भया, मोती चुन चुन खात।।

और वहाँ से हम यहाँ तक पहुँचें थे की गन्दगी कहीं होती है, और मन उस तरफ जाए ना। अष्टावक्र एक कदम आगे की बात कर रहे हैं। अष्टावक्र कह रहें हैं की मन कहीं भी जाए, उसे गन्दगी दिखे ही न। कबीर ने कहा कि मन गन्दगी की ओर जाए न। या हमने यूँ उसका अर्थ किआ। अष्टावक्र एक कदम और आगे जा रहे हैं, कह रहे हैं की जहाँ भी जाए उसे गन्दगी दिखे ना। लेकिन भ्रम में न रहियेगा, अष्टावक्र ये भी नहीं कह रहे हैं की मन जहाँ भी जाए उसे मोती दिखे। अष्टावक्र ये भी नहीं कह रहे हैं की विष्ठा न दिखे तो मोती दिखे। गन्दगी न दिखे तो स्वछता दिखे। वो कह रहे हैं की कुछ भी, न मलिन न स्व्च्छ।

इन्द्रियों को उसका काम करने दो। इन्द्रियों के होने भर से, कुछ गन्दा कुछ साफ़ नहीं हो जाता। इन्द्रियाँ रास्ता हैं, उस रास्ते पर जो चलने वाला है, उसका निर्धारण मन ही करता है। इन्द्रीओं को रास्ता मात्र ही रहने दीजिए। इन्द्रियाँ रास्ता मात्र हैं, इसी का अर्थ हैं *स्वछेन्द्रियाँ।***

अपना कुछ जोड़ने को उत्सुक नहीं हैं। जैसे रास्ता राही में कुछ जोड़ या घटा नहीं देता। आप रास्ते से गुज़र जाइये, रास्ते में कुछ घट नहीं जाता। इन्द्रियाँ ऐसा रास्ता रहें जो रास्ता ही भर हैं। जो दृश्य है सामने वो दृश्य भर है, उसके आगे कुछ नहीं है, उसके पीछे कुछ नहीं है।

मन का काम होता है जगत का निर्माण करना और जगत तब तक नहीं है जब तक उसमें उसने अर्थ नहीं भर दिए।

*मन* जो देखता है उसमें अर्थ भरना चाहता है। अर्थ न मिले तो बेचैन हो जाता है। नहीं, अर्थ भरने की ज़रूरत ही नहीं है। कोई नाम देने की ज़रूरत ही नहीं है।

उसको किसी तरह की संज्ञा देने की, उपाधि लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। अच्छा-बुरा, साफ़-गन्दा, पाप-पुण्य, मेरा–तेरा, नहीं कुछ नहीं। जो है, सो सामने है।

आप अभी सुन रहे थे अष्टावक्र को कहते हुए, तो आप से कह रहे थे न कि “मैं ब्रह्म हूँ, ये धारणा भी वही रखे जिसे द्वैत दिखाई देता हो। जिसे द्वैत दिखाई देता हो, सिर्फ उसी को ये धारणा रखने की ज़रूरत है की मई ब्रह्म हूँ। और जिसे द्वैत दिखना ही बंद हो जाए, जिसका मन, इन्द्रियाँ ऐसी हो जाएँ की उसे द्वैत दिख ही नहीं रहा, तो वो ये धारणा क्यूँ रखे की मैं ब्रह्म हूँ? मन पर इतना भोज भी क्यूँ ज़रूरी है?”

समझ रहे हैं!

बार-बार वो कह रहे हैं कि “ धर्म , अर्थ, काम तो ठीक ही है, मोक्ष भी नहीं चाहिए।” धर्म छोड़ा, अर्थ छोड़ा, काम छोड़ा, यहाँ तक तो ऐसा लगता है की बात नैतिकता की भीतर की है। फिर वो कह रहे हैं की नहीं मोक्ष भी नहीं चाहिए।

आम तौर पर आदमी जब अर्थ को, काम को छोड़ता है, तो ये सोच कर के छोड़ता है कि इससे मोक्ष मिल जाएगा। वो कह रहे हैं की सब छोड़ रा हूँ, कुछ नहीं। मुक्तता की चाह भी नहीं है।

*मुक्ति* भी नहीं चाहिए। क्योंकि मुक्ति भी तभी चाहिए होगी जब पहले बंधन प्रतीत होंगे।

मन ऐसा हो जाए कि किसी भी दृश्य में, ध्वनि में, बंधन का अर्थ भरे ही नहीं। वो परम मुक्ति है।

हम जिसको मुक्ति कहते हैं वो सिर्फ बंधन का विपरीत है। *मन* को एक स्तिथि भा नहीं रही तो उसने कह दिया की ये बंधन है। उसके विपरीत की स्तिथि चाहिए तो उसका नाम दे दिया *मुक्ति।*** और जिसको मुक्ति का नाम दिया है कल उससे भी मुक्ति चाहिए। और फिर परसों उससे भी मुक्ति चाहिए। परम मुक्ति वही है कि कुछ भी सामने है, उसको कोई नाम दिया ही नहीं गया। *बंधन* का तो नहीं ही दिया गया। मुक्ति का भी नहीं दिया गया।

और याद रखिए की जब तक मुक्ति कुछ है, बंधन को भी कुछ होना पड़ेगा। कुछ यदि बहुत सुन्दर लग रा है आपको, तो आपने अपने आप को खोल दिया है किसी न किसी और को क्रूप कहने के लिए। आप सुन्दर कह नहीं पाएँगे, किसी वस्तु विशेष या व्यक्ति को यदि आप किसी अन्य को क्रूप नहीं कह रहे।

इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि “कम ख्याली लोग इस पर यकीन कर सकते हैं कि आत्म सिर्फ एक ही है। लेकिन मिथ्या धारणा में फंसे रहने से वो ये जान ही नहीं पाते की असल में आत्म है क्या? तो उनकी ज़िन्दगी और दुःख जिएँ।”इससे क्या अर्थ हुआ कि इस पर यकीन कर लेना कि आत्म सिर्फ एक है?

ये अठार्वे प्रकन से है, पिछला सत्रहवे से था।

अष्टावक्र कह रहे हैं कि ये जो मंद-बुद्धि होते हैं वो अक्सर ये धारणा पकड़ कर बैठ जाते हैं की जो सत्य है वो एक है और उसके अतिरिक्त दूसरा नहीं। और ये वाक्य हमें बहुत जगाहों से सुनाई पड़ता है, बहुत सारे प्रचलित पंथ हैं जो इसी भाषा में बात करते हैं की जो परम है वो एक ह, दूसरा नहीं है।

अष्टावक्र कह रहे हैं की ये क्या भ्रम पकड़ कर बैठ गए हो? वो कह रहे हैं की जिसने भी ये बात पकड़ ली अब वो अपना पूरा जीवन दुःख में ही बिताएगा। जिसने भी ये कहना शुरू कर दिया और जिसने इसी को आखरी सच मान लिया की सत्य या परम , एक होता है, और दूसरा नहीं उसके जैसा या दो नहीं है, अब वो दुःख में रहेगा। ठीक है।

क्या कह रहे हैं अष्टावक्र और क्यूँ कह रहे हैं ऐसा? अष्टावक्र का निशाना बहुत दूर तक का है। जहाँ साधारण मन की नज़र भी नहीं जाती, वहाँ तक अष्टावक्र पहुँचे हुए हैं। जगत को छुपने के लिए कोई कोना नहीं छोड़ना चाहते। कि कुछ भी ऐसा छोड़ दिया की जहाँ पर जा कर के भ्रम चुप जाएँ। पूरा मनोनाश। कह रहे हैं की

जब तक तुमने ये कहा कि सत्य एक है, तब तक तुम सत्य की कोई न कोई छवि ज़रूर बनाओगे ही बनाओगे।

ये हो नहीं सकता की न बनाओ। इतना कह देना भी की जो परम है वो एक है, इतना कह देना भी यही बताता है कि तुम उत्सुक बहुत हो परम को शब्दों में कैद करने के लिए। निर्मलता नहीं है तुममे। ये बड़ी चालाकी भरा वक्तव्य हुआ कि सत्य एक है।

आम तौर पे जो इसकी घोषणा करते हैं कि एकोहम , या ईश्वर एक है, वो अपने आप को ज्ञानी मान कर करेंगे। और अष्टावक्र कह रहे हैं ज्ञानी नहीं हैं वो मंद-बुद्धि हैं। क्योंकि उन्हें यह दिख ही नहीं रहा की अपनी ही अहंता के दायरे में कैद हो कर के कोई बात कह रहे हैं। अष्टावक्र की दुनिया में उदघोषणाओं के लिए कोई जगह नहीं हैं। वो कह रहे हैं एक है ऐसा कहने कि कोई ज़रुरत नहीं है। मैं ब्रह्मा इत्यादि हूँ, ऐसा भी कहने की कोई ज़रुरत नहीं है।

तुम मग्न हो, तुम मौज में हो, तम्हें इन सब नारों की ज़रुरत क्या है? तुम्हे दावेदार बनना ही क्यूँ है? फिर वो कह रहे हैं की जहाँ तुमने कहा की दूसरा नहीं है वहाँ ही तुमने सत्य के प्रसार को काट दिया। वास्तव में यदि कोई बहुत इच्छुक ही है कहने का तो कहने के मात्र दो ढंग ही उचित हैं। एक तो ये की नहीं है और दूसरा ये की *सर्वत्र है*। ये कहना की एक है, भ्रम ही पैदा करेगा।

हमने पिछले ब्रहस्पत को भी इसपर चर्चा करी थी। सबसे बेहतर तो ये है की कुछ कहा ही न जाए। पर यदि आपको कहने की बड़ी आवश्यकता महसूस हो रही है तो इतना ही कहलें की नहीं कुछ नहीं जानते। कुछ कहा नहीं जा सकता। या यूँ ही कह लें की जो कुछ भी है सो मन के बहार है, तो क्या सोचों और फिर बोलें कैसे? तो यदि मुझसे पूछोगे तो मैं कहूँगा नहीं है। क्योंकि मन के भीतर तो नहीं है।

तो एक तो ये ढंग हुआ। और दूसरा ढंग ये हो सकता है कि मन भी उसी का है और जो कुछ दिखता है, भासता है सब मन में है, और मन ‘उसका’ है। तो जो कुछ है वही है। तो या तो सब कुछ है, ऐसे कह दिया जाए या कुछ नहीं है ऐसे कह दिया जाए। इसी की तरफ अष्टावक्र इशारा कर रहे हैं कि जो लोग कहते हैं की एक है और दूसरा नहीं वो भ्रम में रहेंगे और जीवन दुःख में बिताएँगे। वो अस्तित्व से ‘एक’ नहीं हो पाएँगे।

ज्यों ही आपने कह दिया की वो एक है, वैसे ही आप संसार में, कण-कण में, रचना तो देख पाएँगे रचयिता नहीं देख पाएँगे। क्योंकि रचयिता तो ‘एक’ ही है न।

जीना आपको व्यक्तियों के साथ है। जीना आपको वस्तुओं के साथ है। यही जगत है। जीना आपको पत्थरों, पहाड़ों, पेड़ों, जानवरों के साथ है। और आपने कह दिया है की जो परम है, जो सत्य है, जो ऊँचे से ऊँचा है, वो कोई ‘एक’ है। अब आप थोड़ा बहुत सम्मान तो दे सकते हैं रचना को। कुछ आस्था तो हो सकती है आपकी। थोड़ा प्रेम हो सकता है। कुछ रेगार्ड्स हो सकते हैं आपके। लेकिन दुनिया आपके लिए बटी-बटी ही रहेगी। हमेशा बटी रहेगी। आपको कण-कण में वो नहीं दिखाई देगा क्योंकि वो तो ‘एक’ है। आपने तो कह दिया की वो एक है अब दुनिया आपके लिए बटी-बटी ही रहेगी। और आप दुःख में जिएँगे।

यही कह रहे हैं अष्टावक्र की ये दुःख को आमंत्रण देना है।

ये तो जानो की दो नहीं है पर ये मत कह दो की एक है। ये तो निश्चित रूप से जानो की दो नहीं है पर ये मत कह दो की एक है।

दो नहीं है, वहाँ से दो रास्ते निकलेंगे। एक तो ये की समष्टि में ही वो दिखाई दे; वो फैलाव का रास्ता है, वो व्रहद हो जाने का रास्ता है। वो ब्रह्मवत हो जाने का रास्ता है।

ब्रह्म का अर्थ ही है फैलाव।

तो या तो ये कहो की दो नहीं अनन्य, असंख्य, असीमित। या जाते हो तो फिर संकुचन के रास्ते पर जाओ। और फिर ‘एक’ पर मत रुक जाना। ‘दो’ से चले हो तो ‘एक’ पर मत रुक जाना, सीधे शून्य पर जाना और कह दो की कुछ नहीं है।

‘एक’ पर रुक कर के सत्य को ‘संसारी’ बना दिया|और वो भी संसार का स्रोत नहीं संसार की वस्तु बना दिया। क्योंकि संसार का स्रोत ‘एक’ नहीं हो सकता। ‘एक’ तो संसार के भीतर होता है। और दो भी संसार के भीतर है। और पंद्रह भी संसार के भीतर है, और पंद्रह करोड़ भी संसार के भीतर है। सब संख्याएँ मात्र हैं। जो स्रोत है उसको गिन्ति में कैसे बाँध रहे हो? गिनतियाँ तो सब तुम्हारी हैं, संसार की हैं, मानसिक हैं। मत कहो की एक है। आप सवाल उठा सकते हैं की शून्य भी तो संख्यां है, नहीं। शून्य, संख्या नहीं है। ‘एक’ संख्या है लेकिन शून्य संख्या नहीं है। ‘एक’ में और शून्य में आयाम का अंतर है। वो अलग-अलग आयाम हैं।

शून्य कोई संख्या नहीं है। शून्य का अर्थ है, जहाँ संख्याएँ पहुँच नहीं सकती। जहाँ अभी संख्याएँ शुरू भी नहीं हुई हैं| समझिएगा। जहाँ तक कोई संख्या पहुँच नहीं सकती और जहाँ अभी कोई संख्या शुरू भी नहीं हुई है। इसी कारण शून्य अपने आप में कुछ नहीं होता पर वो असंख्य अर्थ ले सकता है। आप गणित में भी शून्य को जहाँ भी रखें वो उसके अनुसार अर्थ ले लेता है। अपने आप में कुछ होता नहीं वो। इसी कारण आप पढ़ते हैं की शून्य की खोज भारत में हुई थी।

(सभी श्रोताओं के तरफ इशारा करते हुए)

आपने कभी ये सवाल नहीं उठाया अपने आप से की इस बात को महत्वपूर्ण क्यों नहीं मन जाता की चार की ख़ोज कहाँ हुई थी? और आठ की, नौ की खोज कहाँ हुई थी? अगर सब संख्याएँ हैं, तो सब की खोजों को मत्वपूर्ण माना जाना चाहिए न। फिर तो किसी इतिहास की किताब में ये भी दर्ज होना चाहिए की तीन किसने खोजा था? पर नहीं, एक, दो, तीन तो मंद-बुद्धि भी खोज लेंगे। शून्य खोजना बड़ी दूसरी बात है।

इसी कारण यह कह देना कि सत्य एक है, ईश्वर एक है, अष्टावक्र के मुताबिक मंद-बुद्धियों का काम है। तो फिर तुमने वही कर दिया जैसे तुम केले गिनते हो कि एक, दो, तीन, वैसे ही तुमने ईश्वर गिन लिए की एक है। तुम्हें किसी दुसरे आयाम में जाना पड़ेगा। संसार का स्रोत उसी आयाम में नहीं हो सकता जहाँ संसार’ है। तो वहाँ पर कोई संख्या प्रयोग किए जाने लायक नहीं है। वहाँ पर कोई संख्या मान्य ही नहीं है। एक प्रकार से अवैध है उसको किसी भी प्रकार की धारणा में बांधना। बात गलत हो जाएगी।

समझ रहे हैं।

श्रोता: यानि की शून्य जड़ है और एक,दो,तीन, चार, पाँच, छे, सात उसकी सतह है।

आचार्य जी: इसकी मार बहुत दूर तक जाती है। इसका अर्थ समझिये। जो व्यक्ति इस बोध में जिएगा उसका जीवन बहुत ही अलग तरीके का होगा।

श्रोता: जैसे की जब आप किसी चीज़ को कीमत देते हैं तो फिर आप उसे बे-कीमती नहीं बना सकते।

आचार्य जी: हाँ, वो फिर भगवत्ता को सीमित करके नहीं रख पाएगा। जो व्यक्ति ये जान गया की या तो कह दूँ, बिलकुल झुक जाऊँ और कहूँ की मन से बहार है इसीलिए शून्य कहना ही उचित है। बाकि तो बड़ी से बड़ी संख्या भी मानसिक है, इसीलिए मैं तो नमन करके इतना ही कह सकता हूँ की *शून्य* जिसने शून्य कह दिया वो परम ज्ञानी हो जाएगा। क्योंकि उसने जान लिया, उसका अहंकार तिरोहित हो जाएगा। वो ये कोशिश नहीं कर पाएगा की कभी भी दावा करे की मैं कुछ जनता हूँ। क्योंकि वो जनता है की जो वास्तव में जानने लायक है वो तो मेरी पहुँच से बहार था। उसको तो मैं शून्य कह आया हूँ। तो अब मैं किस हक़ से दावा करों की मुझे कुछ पता है।

उसका सिर अहंकार के भोज से मुक्त रहेगा। जिसने शून्य कह दिया वो *हल्का हो जाएगा, बिलकुल हल्का हो जाएगा।***

और जिसने पूर्ण कह दिया वो परम प्रेमी हो जाएगा क्योंकि उसको ज़र्रे-ज़र्रे में वही दिखाई देगा। लेकिन जिसने एक कह दिया वो ‘हिंसक’ हो जाएगा। वो कहेगा ‘एक’ है, और उसको मैं एक कोने में रख आया हूँ। क्योंकि अगर एक है, तो उसको कोने में रखा जा सकता है। और वो श्रृष्टि से लड़ेगा, बाँटेगा। अपने और पराये के भेद में जिएगा। समझिएगा। जिसने शून्य कह दिया वो बुद्ध हो गया। पूरा हल्का हो जाएगा। उसके अंतरमन की आग भुज जाएगी। इसका नाम है *निर्वाण* पूरा-पूरा समर्पित कर दिया उसने अपने आप को।

श्रोता: आचार्य जी, ये ‘एक’ वाली भावना भी तो आवश्यक है।

आचार्य जी: नहीं, ये भावना नहीं मनोस्तिथियाँ हैं। जो एक वाली मनोस्तिथि है, अष्टावक्र उसकी बात कर रहे हैं।

अगर और साफ़ करके बोलूँ तो ‘एक’ में ही मनोस्तिथि है। शून्य या पूर्ण तो ऐसे हो जाते हैं की मन उनको समेट ही नहीं सकता तो वो मनोस्तिथियाँ भी नहीं हैं। या ये कह लीजिए की वो मन की ख़त्म हुई स्तिथियाँ हैं। ‘एक’ में मन इतना संकुचित हुआ है ज्ञान में, इतना झुका है, इतना ख़त्म हुआ है की परम बोध हो गया है और मन हल्का हो गया है। इतना हल्का की मन ‘शून्यवत’ हो गया है। और दुसरे में मन ऐसा फैला है, ऐसा फैला है की अपने फैलाव के बहार कुछ छोड़ा कहीं नहीं है। तो इस कारण मन पूर्ण हो गया है।

*मन* को बचे रहने के लिए हमेशा दुसरे की ज़रुरत होती है, पराए की ज़रुरत होती है। जब मन कुछ भी बहार न छोड़े, कुछ भी पराया ही न छोड़े, तब भी मन को विगलित होना होता है।

तो ये जीने की दो दृष्टियाँ हैं। पहला ये की मैं नहीं जान सकता। मैं कोई दावा नहीं कर सकता ‘तेरे’ बारे में। मैं ‘तेरा’ नाम भी नहीं लूँगा, विचार ही नहीं करूँगा। अष्टावक्र इसी की बात करते हैं। कोई बात मत करो। तुम नाम लेकर के उसको गन्दा कर देते हो। क्यूँ नाम लेते हो बा- बार? तुम जो भी कहोगे झूठा होगा। क्यों कहते हो बार-बार? तुम उसकी तारीफ में गीत भी गाओगे तो वो गीत भी भ्रम के ही होंगे। क्यों गा रहे हो?

तुम प्राथना भी करते हो तो उसको वास्तु बना देते हो, मत करो प्राथना।

ये एक जीवन दृष्टी है। ये बोध की है।

दूसरी प्रेम की है। जिसने शून्य कहा वो बुद्ध हुआ। जिसने पूर्ण कहा, वो मीरा हो गया, वो फरीद हो गया। वो नामदेव की तरह हो गया की अगर कुत्ता दिख रहा है तो उसको भी कह दिया की ये वही तो है।और सिर्फ़ यही दो तरीके हैं जीवन जीने के। बीच के जो सारे हैं वो भ्रम हैं और उनमें दुःख के अतिरिक्त कुछ रखा नहीं है।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें