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किसी भी शक्ति से बड़ा है तुम्हारा संकल्प
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: जैसे शरीर बढ़ता है खाने-पीने, हवा-पानी से, वैसे ही ये जो जीवात्मा है, मैं, अहम् भाव, अहंता, ये कैसे बढ़ती है? जो शरीर में गया वो शरीर ही बन जाता है न? उसके बाद अंतर नहीं कर पाओगे। सेब खाया, बताओ अब सेब कहाँ है? हर जगह है, आँख में भी है, बाल में भी है। जो पूरा शरीर है ये कोई-न-कोई चीज़ है जो कभी खाई थी, ठीक है न? तो शरीर में और शरीर द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थ में अंतर करना संभव नहीं रह जाता। यही हाल अहम् का है।

अहम् में और अहम् ने जिस चीज़ को पकड़ रखा है, इन दोनों में अभेद की स्थिति पैदा हो जाती है। अहम् किसके लिए, किसके लिए—यह लगातार याद रखना ज़रूरी है; मैं भूल भी जाऊँ तो आप पूछा करिए—किसके लिए? अहम् के लिए। वो अपने-आपको इतना भुला देता है कि जिस चीज़ को पकड़ रखा है वही उसकी पहचान बन जाती है, ज़िन्दगी बन जाती है, अस्तित्व बन जाता है।

जैसे शरीर का अस्तित्व ही अब क्या है? सेब। अंदर गया, कभी बाहर था; अंदर गया नहीं कि शरीर ही बन गया वह। अब शरीर कैसे बोले कि, "सेब अलग है और मैं अलग हूँ"? कुछ-कुछ वैसे ही इशारे से बताया जा रहा है समझाने के लिए, कुछ-कुछ वैसे ही जितने विषय होते हैं वो अहम् का अस्तित्व ही बन जाते हैं, हस्ती बन जाते हैं।

उसकी प्रक्रिया क्या है? प्रक्रिया में ऋषि कह रहे हैं, "सबसे पहले आता है संकल्प।" और ये बात बड़ी ज़रूरी है, बड़ी प्यारी बात है यह। क्योंकि ये बात ज़िम्मेदारी की है।

संकल्प माने इच्छा, संकल्प माने जो आप चाहते हो। अहम् की बात हमने अभी करी, तो उससे हो सकता है आपको ऐसा लगा हो कि बेबसी हो जाती है उसकी। जैसे शरीर की बेबसी हो जाती है कि "अब सेब को अलग कैसे देखूँ?" वैसे ही अहम् की बेबसी हो जाती है कि "अगर मैं अब शरीर से जुड़ गया तो शरीर को अब अपने से अलग देखूँ।"

नहीं, ऋषियों ने एक तरफ ये कहा कि अहम् शरीर से जुड़ गया तो दोनों में एक अभिन्नता पैदा हो जाती है। लेकिन पहले संकल्प आता है। जुड़ ऐसे ही नहीं गए थे, तुमने चाहा था इसलिए जुड़े थे। और एक बार आपको बता दिया गया कि चीज़ आपके लिए संकल्प पर निर्भर करती हैं, आपके संकल्प के कारण जुड़े थे आप, तो आपको ताकत मिल जाती है तोड़ने की भी।

"जिस संकल्प का इस्तेमाल करके मैं जुड़ा था उसी संकल्प का प्रयोग करके अलग भी हो सकता हूँ।" लेकिन अगर आपने कह दिया, "मैं करूँ क्या? टूटा हुआ पत्ता हूँ, हवा के झोंके के साथ कहीं पहुँच गया, अब मैं क्या कर सकता हूँ?" तो फिर बात नहीं बनेगी। कभी भी अपने आप को ये सोचने की आज़ादी मत दीजिएगा कि "हाय, मैं क्या करूँ? बेबस हूँ, लाचार हूँ, परिस्थितियों का शिकार हूँ।"

संकल्प! जो हुआ है तुम्हारे संकल्प से हुआ है।

"मैं बेहोश था, आचार्य जी!" आज आप बोल रहे थे न कि बेहोशी में हो जाता है, कोई और आकर कब्ज़ा कर लेता है।

पूरी बात बोल पानी मुश्किल रहती है, तो जो बोला था उससे थोड़ी आगे की बात बताता हूँ। आप कितने भी बेहोश हो जाओ, आप कभी पूरी तरह बेहोश नहीं हो सकते। कितनी भी बेहोशी हो, ज़रा-सा होश तो बाकी रहता है न। और ज़रा सा होश बाकी है, तो ज़रा-सा दोष बाकी है। अगर पूर्ण बेहोशी है, तो आपको दोष नहीं दिया जा सकता। अदालत भी दोष नहीं देती। आप एकदम बेहोशी में कुछ कर डालें, तो अदालत आपको दोष नहीं दे सकती। लेकिन ज़रा-सा होश बाकी हमेशा रहता है।

कोई न कहे, "हमसे अनजाने में कुछ हो गया।" ज़रा-सा होश था। तो जितना होश था उतना ही दोष था। दोष तो था न? और जितना दोष था, फिर आगे के लिए मुक्ति की उतनी ही संभावना भी है क्योंकि मुक्ति भी किससे है? होश से।

कुछ होश बचा था न? उसी होश के चलते हम आप पर दोष लगा रहे हैं। "क्यों बंधन स्वीकार किए?" लेकिन उसी होश के चलते हम आपको हौसला भी दे रहे हैं, क्या? कि बंधन तोड़ भी सकते हो। जिस मुँह से हाँ बोला था, उसी मुँह से ना भी बोल सकते हो।

अच्छा, तुम बहुत बेहोश थे? तो बेहोशी में हाँ को ना क्यों नहीं बोल दिया? हम ऐसे ही कहते हैं न कि "मैं क्या करूँ? मैं तो बेहोशी में हाँ बोल गया।" अगर तुम पूरे ही बेहोश होते तो हाँ को ना भी तो बोल सकते थे। नहीं होता ऐसा?

तुम पूरे ही बेहोश होते, तो तुम्हें याद कैसे रहा कि हाँ माने हाँ, कि स्वीकार करने के लिए हाँ ही बोला जाता है? ये याद कैसे रहा अगर तुम इतने ही बेहोश थे? अगर तुम पूरे ही बेहोश होते, तो तुम्हें ये भी तो भ्रम हो सकता था कि स्वीकार करने के लिए ना बोला जाता है। तो तुम (गर्दन को 'हाँ' में हिलाते हुए) बोलते, "ना-ना।" ऐसा तो कभी करते नहीं। हाँ ही बोला, माने पूरे बेहोश।

ये अच्छे से समझ लीजिए। दूसरों पर बार-बार इल्ज़ाम देकर के कुछ मिलेगा नहीं। किसको बेवकूफ बना रहे हो? संकल्प, संकल्प!

इंद्रियों का खेल फिर चालू होता है। आँखें ऐसे ही किसी दिशा में नहीं चली जाती, हाथ अनायास ही किसी को नहीं छू लेते। क्यों, यहाँ बहुत कुछ है देखने को, सारी आँखें इस आसन की ओर क्यों हैं अभी, कहिए? संकल्प।

संकल्प पहले आया, फिर स्पर्श, दृष्टि, ये आए। संकल्प आता है, संकल्प गड़बड़ था, तो नज़र भी गई गलत तरफ को, स्पर्श भी गलत चीज़ को करने लगे—और जो बात यहाँ नहीं लिखी है वो और जोड़ दीजिए—सुनने गलत चीज़ को लगे। जितनी इंद्रियाँ थी सभी गलत दिशा में प्रेरित हो गई। और फिर क्या? मोह।

गलत संकल्प, गलत चीज़ से संबंध—संबंध इंद्रियों के माध्यम से ही होता है न, देख लिया, सुन लिया, छू लिया, ये संबंध है। तो संकल्प, फिर संबंध, जिसको यहाँ पर स्पर्श और दृष्टि कहा गया है, और फिर आता है मोह, आसक्ति।

गलत संकल्प से क्या बनता है? गलत संबंध। और संबंध जितना गलत होगा, उसमें उतनी ज़्यादा आसक्ति मौजूद रहेगी। अगर आपके संबंधों में आसक्ति है, तो वही प्रमाण है इस बात का कि गलत है। संबंध सही होता तो संबंध ही ऐसा होता कि उसमें आसक्ति माने अटैचमेंट हो नहीं सकती थी। मोह हो नहीं सकता था उसमें। तो इस तरीके से अहंकार बढ़ता है।

शरीर कैसे बढ़ता है? खा-पीकर। अहंकार कैसे बढ़ता है? देखकर, छूकर, साइकिक (मानसिक) संबंध बनाकर, मानसिक तरीके से ये कहकर, "यह मेरा है", ग्रहण कर लिया। शरीर को कुछ ग्रहण करना है, प्रक्रिया स्थूल होती है। कोई चीज़ उठानी पड़ेगी, मुँह में डालनी पड़ेगी। भीतर मन को कुछ ग्रहण करना है, प्रक्रिया सूक्ष्म होती है। वो आँखों-ही-आँखों में ग्रहण कर लेता है।

आँखों से ही किसी को कच्चा चबा गया। शरीर का तो ज़्यादा कुछ नहीं बिगड़ता। कुछ गलत वो खा भी लेता है तो वमन कर देगा या किसी और तरीके से शरीर से उसको निकाला जा सकता है। एक-आध दो दिन की बात है, हफ्ते की बात है।

मन ने अगर कुछ गलत ग्रहण कर लिया, तो जो भीतर जाता है वो चिपक जाता है। वही है मोह, आसक्ति, *अटैचमेंट*। होता ये शरीर में भी है। जितनी गलत चीज़ें खाओ वो तुम्हारी व्यवस्था में, आँतों में या वगैरह में, उतने ज़्यादा समय तक रहती हैं, तेज़ी से बाहर नहीं निकलती। लेकिन फिर भी निकल जाएँगी।

मन का खेल तो ये है कि जितनी गलत चीज़ उसमें डालोगे वो उतने ज़्यादा वहाँ जड़ जमा लेगी। कहेंगे, "ऐसा क्यों है? अच्छी चीज़ क्यों नहीं जड़ जमाती, बुरी चीज़ ही क्यों जड़ जमाती है?"

मिट्टी ही ऐसी है। खबरदार रहिए, बहुत सतर्क। मन की मिट्टी कैसी होती है? गड़बड़। इसपर झाड़-झंकार, ज़हरीले विष, वृक्ष बहुत आसानी से खड़े होते हैं, बड़े होते हैं। लेकिन अगर उसपर कुछ सार्थक उगाना है आपको तो बड़ी खेती करनी पड़ती है। हल चलाना पड़ेगा, एक खास किस्म की खाद डालनी पड़ेगी, बहुत-बहुत बीज डालने पड़ेंगे, बड़ी सिंचाई करनी पड़ेगी, सही मौसम का इंतज़ार करना पड़ेगा, अंकुर फूटेंगे, फिर रक्षा करनी पड़ेगी। न जाने क्या-क्या करना पड़ेगा एक सही नन्हा-सा पौधा जन्माने के लिए। और घटिया, कटीले, ज़हरीले झाड़, ये अपने-आप पैदा होते हैं। मिट्टी ही ऐसी है। भूलिएगा कभी नहीं और किसी नाज़ में भी मत रहिएगा। ये मिट्टी गलत है।

"आचार्य जी, आप निराशावादी लगते हैं। ऐसा लगता है आपको तो मनुष्यता से ही चिढ़ है।"

मुझे किसी से चिढ़ नहीं है, सच्चाई से प्यार है। जो बात है सो है। बात खत्म। अब मुझे तो ये नहीं समझ आता कि ये बात आम आदमी को साफ-साफ कैसे नहीं दिखाई देती? आप ही बता दो न, किसी को घटिया चीज़ सिखाना आसान है या बढ़िया चीज़? लत लगवाना आसान है या लत छुड़वाना, बोलो?

श्रोतागण: लत लगवाना।

आचार्य: तो आपको नहीं पता मिट्टी कैसी है हमारी?

कुछ भी गलत करना हो, मन उसके लिए तत्काल उपलब्ध है। और जो गलत हो गया उसे सही करना हो, अरे, भारी मेहनत लगती है। छोटे बच्चे को ही देख लो। कहीं रौशनी दिख रही होगी, तुरंत लपकेगा। एकदम भाग कर जाएगा। ये क्या हो रहा है? इसे चकाचौंध छ: महीने की उम्र से ही पसंद है। खिलौने देखे हैं कैसे होते हैं, क्या करते हैं? बत्तियाँ जलती हैं और आवाज़ें आती हैं। और वो (पकड़ने का इशारा करते हुए) ऐसे तुरंत हाथ बढ़ा देता है, "हाँ, चाहिए, चाहिए।" यही अब ज़िंदगी भर इसी वृत्ति से तो अंड-शंड चीज़ों की ओर, जो इंद्रियों को आकर्षित करती हैं, हाथ पहुँचता रहता है। बस बत्ती जलनी चाहिए और चूँचा-चूँचा कुछ होना चाहिए। हाथ तुरंत बढ़ा देगा वो, "चाहिए।" और मेरे जैसा कोई आ जाता है तो छोटे बच्चे तो...

मेरे भी घर में है एक। वो दूर से ही मुझे—छोड़ दो, दूर से भी छोड़ दो—वो ज़ूम कॉल पर भी मुझे देख लेता है तो झक हो जाता है बिलकुल। ४०० किलोमीटर दूर होगा, ज़ूम पर उसको बस… कुछ ज़्यादा उत्पात कर रहा होता है, इतना ही करते हैं कि कॉल लगाकर मेरी शक्ल दिखा देते हैं। और ये बिलकुल हकीकत बता रहा हूँ। एक बच्चे की नहीं सबकी यही बात है। मिट्टी ही ऐसी है, हम पैदा ही ऐसे होते हैं।

इस बात को आप जितना याद रखें उतना अच्छा है कि आप खतरे में हैं। हम सब पैदा ही गड़बड़ हुए हैं। ये मॉडल (नमूना) ही डिफेक्टिव (दोषपूर्ण) है, फैक्ट्री (कारखाने) से ही डिफेक्टिव आया है। तो ज़्यादा चढ़ने की ज़रूरत नहीं है। अपनी सच्चाई याद रखना बहुत ज़रूरी है।

इसी को फिर विनम्रता कहा जाता है। नहीं तो विनम्रता की ज़रूरत क्या थी? तुम अगर वाकई बहुत ऊँचे हो, साफ हो, सुंदर हो तो विनम्रता चाहिए काहे को? फिर तो वो विनम्रता झूठी होगी। अगर तुम वाकई ऊँचे हो और बोलो, "नहीं-नहीं, मैं तो छोटा-सा, नन्हा-सा हूँ।" तो तुम झूठी बात कर रहे हो न। झूठ काहे को बोलते हो? विनम्रता झूठ नहीं होती, विनम्रता सच होती है।

विनम्रता का मतलब होता है "मैं वाकई छोटा हूँ, इसलिए मैं बोल रहा हूँ कि साहब मैं तो छोटा हूँ।" ये ह्यूमिलिटी (विनम्रता) है। विनम्रता ये नहीं होती कि भीतर तो लग रहा है "हम से ऊँचा कौन है? हम ही तो हैं नारियल का पेड़", और बोल क्या रहे हो सभा में दूसरों के सामने, क्या? "अजी, मैं तो घास का तिनका।" नहीं। और लोग फिर तारीफ करते हैं, "देखिए, वो इतने बड़े आदमी हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने-आपको इतना छोटा बोला।" अगर वो बड़े आदमी हैं और छोटा बोला तो धोखा दे रहे होंगे फिर, नहीं?

कोई बहुत बड़ा-सा बिल लाए, और तुम उसको छोटा-सा भुगतान करो, तो ये धोखा हुआ कि नहीं, बोलो? जो चीज़ जैसी है उससे हट कर कुछ करो तो धोखा होता है। बड़े को बड़ा बोलेंगे, सच्चाई अगर यही है।

विनम्रता का मतलब होता है कि जानो कि तुम वाकई छोटे हो, कहने भर की बात नहीं है। तुम, हम, हम सब हैं ही छोटे। छोटे भी हैं और खतरे में भी हैं। तो सतर्क रहो, सावधान रहो। इसी का नाम ध्यान है। सीधी सरल ज़मीनी बात। तुम खतरे में हो, सावधान रहो। स+अवधान, अवधान माने ध्यान। ध्यान को ही सावधानी कहते हैं।

ध्यान का मतलब ये नहीं है कि आँख बंद करके तुम देवी-देवता का स्मरण कर रहे हो। खतरा सामने है, आँख और बंद कर ली। खतरा अगल-बगल है, इर्द-गिर्द है, घर में है, दफ़्तर में है, बाजार में है। आँख खोल कर देखो ध्यान से। ये ध्यान है। आँख बंद काहे को कर रहे हो?

खतरा कहाँ से आक्रमण करता है तुम पर? अरे, इंद्रियों से ही तो करता है। कैसी इंद्रियों पर करता है? जो अपना काम नहीं करती, जो बंद पड़ी हैं। तुम्हारी आँखें पहले ही बंद थीं, इसलिए तुमपर आक्रमण हो रहा है। अधखुली थीं तुम्हारी आँखें, उन पर आक्रमण हो रहा है इसलिए। लिखा है न यहाँ पर, "दृष्टि।" संकल्प के बाद क्या आता है? दृष्टि। अब खुली आँखों पर आक्रमण हो रहा था, तुमने उनको पूरा ही बंद कर दिया? उन्हें और खोलो।

और ये तो कह मत देना कि आँखें खोलने का तरीका यही है कि आँखें बंद करेंगे। बात-बात में शायरी मत करने लग जाया करो, कि, "साहब हमारी तो खुलती ही तब हैं जब बंद होती हैं।" ऐसे करोगे तो फिर तुम्हारा मोबाइल फोन ले लेंगे, बोलेंगे, "हमने तो लिया ही नहीं, दिया है।" अगर खुलना बंद होना है, तो लेना देना है। ज़िंदगी का गणित ऐसे शायरी में नहीं चलता। समझ में आ रही है बात? तो ज़रा ठीक से देखना सीखिए। ठीक से सुनना सीखिए।

आपकी ज़िन्दगी की समस्या ये नहीं है कि आपने एकांतवास कम करा है या आँखें आपने कम मूंदी थी, इसलिए आप समस्या में हो। आप सबकी ज़िन्दगी में समस्याएँ हैं। इसलिए हैं क्योंकि आपने गलत देखा, क्योंकि आपने गलत सुना। और बहुत छोटी-सी बात है। दुनिया की बड़ी-से-बड़ी समस्या सिर्फ यहीं से आई है, क्या? गलत देखा। जो था नहीं वो देख मारा। और जो स्पष्ट था उसकी ओर आँखें बंद कर ली। जो सुनना चाहिए था वो नहीं सुना, और जो सुना उसके गलत अर्थ किए। दुनिया की हर समस्या यहीं से आई है, चाहे वो कितनी भी बड़ी या कितनी भी छोटी समस्या हो। तो स-अवधान रहिए, सावधान रहिए।

सावधानी से ज़्यादा आध्यात्मिक शब्द दूसरा नहीं। लगातार सतर्क रहिए। और सावधानी सतर्कता से आगे की बात है क्योंकि अवधान तर्क से आगे की बात है। तर्क भी आवश्यक है, लेकिन अवधान माने ध्यान तर्क से आगे जाता है। तर्क भी आपको सुरक्षा देगा। पर कुछ चालें ऐसी होती हैं माया की जिनको तर्क नहीं पकड़ पाता। उनको क्या पकड़ता है? ध्यान। तर्क नहीं समझ पाएगा कि कुछ गड़बड़ है। पर अगर आप ध्यान दे रहे हैं, तो एकदम स्पष्ट हो जाएगा कि कुछ तो ठीक नहीं है यहाँ पर।

सतर्कता और सावधानी साधारण भाषा में एक-दूसरे के पर्याय हैं। अध्यात्म में सतर्कता भी ज़रूरी है, सावधानी भी, लेकिन सावधानी सतर्कता से आगे की बात है। अब इसी में पता करिएगा कि फिर सजगता कहाँ पर आती है।

शुरू में ही कह दिया कि तुम जिस भी जगह पर हो और जिस भी रूप में हो, अरे जीवात्मा, उसके पीछे क्या है? तुम्हारा कर्म। अब समस्या सबको है उस जगह से और उस रूप से जो उन्हें मिला हुआ है, है न? रूप का क्या मतलब है? रूप का मतलब है दृश्य। रूप का मतलब है जो कुछ भी तुम्हें अपने आसपास दिखाई दे रहा है। जैसे तुम बन बैठे हो, जैसे तुम्हारी स्थितियाँ बन बैठी हैं, वो सब रूप में आ गया। सबको उससे समस्या है। प्रमाण ये है कि हर कोई बदलना चाहता है।

यह घर ठीक नहीं है, अगला घर लेते हैं। ये नौकरी ठीक नहीं है, ये व्यापार ठीक नहीं है। कुछ भी, ये कपड़ा ठीक नहीं है। तो अगर वो ठीक नहीं है, तो उसका ज़िम्मेदार कौन है? तुम्हारा कर्म ही। तुम्हें मिला वही है जो तुमने माँगा था। दिक्कत बस यही है कि तुमने बेहोशी में माँगा था। अपनी सुरक्षा में, अपने पक्ष में ये तर्क मत दे देना कि, "हमने तो माँगा ही नहीं।" अगर मिला है, तो तुमने माँगा था। बस, बात खत्म।

अगर तुम जानते नहीं कि तुम्हीं ने माँगा था, इसका मतलब बेहोश थे जब माँगा था। उन चीज़ों के सेवन से बचो जो तुम्हें बेहोश करती हैं और बेहोश करने के बाद उन्हीं चीज़ों की माँग और बढ़ाती हैं जिन्होंने तुम्हें बेहोश करा है। क्योंकि फल तो मिलेगा।

तुमने पी ली, पीकर के बेहोश हो गए। और जितना बेहोश हो रहे हो उतना बोलते जा रहे हो, "और, और, और!" ये तुम क्यों और माँग रहे हो? क्योंकि तुमने वही चीज़ पी है जो और माँग रहे हो। और जितना और माँगोगे, उतना और और माँगोगे। चलो कर लो। करा तुम्हीं ने है। लेकिन जितना और माँगोगे उतना भूलते जाओगे कि तुम्हीं ने माँगा है। तुम भूल लो, वो बार (मधुशाला) का मैनेजर तो नहीं भूलेगा। वो कर्मफल देगा इतना लंबा (हाथ उठाते हुए)।

जब कर्मफल आएगा तुम क्या बोलोगे? "पर मैंने तो बेहोशी में कर दिया।" तो वो क्या कहेगा? "अरे-अरे-अरे, नहीं-नहीं, आपको तो डिस्काउंट , वेवर (छूट) है, बाहर जाइए।" ऐसे बोलेगा? तुम बोल लो, "मैंने बेहोशी में कर दिया।"

वो बेहोशी भी तुमने होश में चुनी थी, ठीक? तुम लगातार तो बेहोश नहीं थे न। कोई क्षण आया था जब तुमने बेहोशी का चुनाव किया था, जब तुमने कहा था, "मैं बेहोश होना चाहता हूँ।" वो चुनाव है तुम्हारा। तो अब बिल भरो। और दोष तो दो ही मत। न ये बोलो बाहर निकलकर कि "ये बार वाले चोर हैं। ज़बरदस्ती पिला दी, इतना लंबा बिल है। हम थोड़े ही देंगे।" फिर धरना प्रदर्शन करो।

जो है वो हमने कहीं-न-कहीं माँगा है। समझ में आ रही है बात? रूप भी बदल जाएगा, दृश्य भी बदल जाएगा, समूचा परिदृश्य बदल जाएगा, जीवन ही बदल जाएगा, आपके संकल्प बदल जाएँ। संकल्प का ही दूसरा नाम इच्छा है। इच्छा के साथ दिक्कत ये है कि वो नैतिक मापदंड सारे पार कर लेती है। पता नहीं चलती न, अंदर-ही-अंदर इच्छा को हम गुप्त रूप से पालते-पोसते रहते हैं। ज़बान से कुछ और बोल देते हैं, तो नैतिक आधार पर कोई आपत्ति नहीं करता। लेकिन वो जो भीतर आपके इच्छा है, वही आपके कर्मों को संचालित कर रही है, उसी से कर्मफल मिल रहा है, और उसी से फिर सारी तकलीफ है।

तकलीफ है ज़िन्दगी में तो साफ समझ लीजिए कि भीतर कोई खुफिया इच्छा आपने पाल रखी है। इतनी खुफिया होती भी नहीं है। घर में बिल्ली होगी तो म्याऊ तो बोलेगी कि नहीं बोलेगी? तो ये इच्छाएँ भी जो होती हैं न भीतर, ये म्याऊ-म्याऊ तो बोलती ही हैं और गंदा भी करती ही हैं। "नहीं, मेरी म्याऊ का तो लिटर-बॉक्स है।" अरे, उसको तो साफ करते होगे कभी? तो तुम्हें पता तो है हर घर में म्याऊ है। वैसे ही ऐसा नहीं है कि हमें अपनी इच्छाओं का पता नहीं, पर भीतर-हीभीतर हम उनके मज़े लेते रहते हैं।

आज मैं बोल रहा था "रसना।" बड़ा रस है। भीतर इच्छाएँ ली हुई हैं, रखी हुई हैं, उनके मज़े ले रहे हैं। इच्छा है, इच्छा में क्या छुपा होता है? इच्छा की पूर्ति की आशा। वो काल्पनिक दृश्य जब इच्छा साक्षात् हो गई है। एक इच्छा है, भीतर बैठे हैं और... (मुस्कराहट देते हुए)। किसी को पता भी नहीं चला, मज़े भी ले लिए। किसी को पता चल गया होता तो बहुत पीटे जाते। पर किसी को पता भी नहीं चला, कानी-कौड़ी नहीं लगी, भीतर-ही-भीतर रस ले लिया।

साहब, कानी-कौड़ी नहीं लगी ऐसा आपका ख्याल है। अभी बहुत लंबा बिल आएगा। बिल तैयार हो चुका है। और जैसे आपने खुफिया तौर पर इच्छा कर ली थी वैसे ही खुफिया तौर पर बिल भी तैयार है। इच्छा भी खुफिया है, बिल भी खुफिया तैयार हुआ, लेकिन उसका भुगतान नगद करोगे। तो भुगतान करते समय रोया मत करो। जो हो रहा है तुम्हारी इच्छा से हो रहा है।

गुप्त इच्छा से वैसे ही बचिए जैसे गुप्त रोगों से बचा जाता है। और दोनों का निदान, समाधान भी एक ही तरीके से है: विशेषज्ञ के आगे प्रकट करिए।

"लाज आती है।"

ठीक है, बाँधे रहो। तुम्हारा माल है, भाई।

हम बड़े चतुर हैं न अपनी नज़रों में। "भीतर-ही-भीतर मैं क्या चाह रहा हूँ मैं क्यों बताऊँ? कितना मज़ा आएगा।" भीतर-ही-भीतर यही चल रहा होता है, "कितना मज़ा आएगा।" वो मज़ा भी क्या? मुफ्त का है। हाँ बेटा...

जानते हैं पुराने समय में एक परंपरागत रूप से आत्मानुशासन की बात ये भी होती थी कि अगर आपने कोई भद्दा विचार कर लिया है तो आप खुद ही अपने-आपको उसकी सज़ा भी दे देते थे। कोई और नहीं आता था सज़ा देने क्योंकि किसी और को पता ही नहीं चला। आपकी कल्पना थी, आपका विचार था। पर आपने अगर कर लिया है तो फिर आपमें इतनी ईमानदारी रहती थी कि अपने-आपको सज़ा खुद ही दे देते थे। अपने-आपको सज़ा देना भी एक तरह से कर्मफल माने बिल का ही भुगतान है। क्यों इंतजार करते हो कि कोई और आकर के सज़ा दे? वो जो बिल है वो सज़ा है। क्यों इंतजार करते हो कोई और दे? खुद ही दे दिया करो।

बाहरी रूप से, प्रकट रूप से कुछ गड़बड़ करोगे, तो परिवार वाले, समाज वाले, कानून वाले सज़ा देते हैं। तो हम बहुत चतुराई दिखाते हैं। हम कहते हैं, "बाहर-बाहर नहीं करेंगे, अंदर-अंदर करेंगे।" वही जैसे कि कोई पूछे कि, "फलाना काम क्यों करना चाहते हो?" तो बोल दो, "जन कल्याण के लिए।" और भीतर-ही-भीतर नाचो खूब कि, "अच्छा बुद्धू बनाया उसको!"

हम बहुत चतुराई में रहते हैं आंतरिक रूप से। ये चतुराई नहीं है। जब भी ऐसा कुछ करो, खुद को सज़ा दे लो। पर खुद को सज़ा देना, ये बात ही हमें बड़ी पुरानी लगती है। हम तो सेल्फ लव (स्वप्रेम) वाले लोग हैं। एक से बढ़कर एक किताबें आ रही हैं: " सेल्फ लव में रहो।" तो उसमें सज़ा देना खुद को, ऐसा तो कोई प्रावधान ही नहीं।

खुद को सज़ा देना ज़रूरी है। समझ में आ रही है बात? वो करीब-करीब व्रत जैसी चीज़ होती है, *फास्टिंग*। चुरा कर खा आए हो न? किसी को बताया नहीं। अपने ही घर में चोरी की, रात में उठे, फ्रिज झाड़ दिया। तो वैसे ही अब किसी को बताए बिना अगले दिन उपवास भी कर लो। कोई और सज़ा दे, उससे पहले खुद ही दे लो।

तो खुद को सज़ा देना या शुद्धीकरण या रिपेन्टेन्स प्रायश्चित ये बहुत महत्वपूर्ण चीज़ें हैं। खेद की बात ये है कि ये सब आजकल प्रचलन से बाहर हो गई हैं। कोई नहीं मिलता अब जो इन शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हो, कि, "मैं क्या कर रहा हूँ अभी? प्रायश्चित कर रहा हूँ।" हम करते ही नहीं। हम तो सेल्फ लव करते हैं बस। सेल्फ लव में प्रायश्चित कहाँ से आएगा?

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