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दुर्गासप्तशती के तीनों चरित्रों में देवी-असुर संग्राम के वर्णन एक समान क्यों हैं? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: नौवें अध्याय में प्रवेश करते हैं। तो हमने रक्तबीज का अंत देख लिया या रक्तबीज की मुक्ति देख ली।

राजा ने कहा – “भगवन! आपने रक्तबीज वध से संबंध रखने वाला देवी-चरित्र का यह अद्भुत माहात्म्य मुझे बतलाया। अब रक्तबीज के मारे जाने पर अत्यंत क्रोध में भरे हुए शुम्भ और निशुम्भ ने जो कर्म किया, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।”

ऋषि कहते हैं – “राजन! युद्ध में रक्तबीज तथा अन्य दैत्यों के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ के क्रोध की सीमा न रही। अपनी विशाल सेना इस प्रकार मारी जाती देख निशुम्भ अमर्ष में भरकर देवी की ओर दौड़ा।" अमर्ष माने जब अपमान इत्यादि होता है तो उसके विरोध में जो क्रोध उठता है, उसे अमर्ष कहते हैं।

“उसके साथ असुरों की प्रधान सेना थी। उसके आगे, पीछे तथा पार्श्व भाग में बड़े-बड़े असुर थे, जो क्रोध से ओठ चबाते हुए देवी को मार डालने के लिए आए। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना के साथ मातृगणों से युद्ध करके क्रोधवश चंडिका को मारने के लिए आ पहुँचा। तब देवी के साथ शुम्भ और निशुम्भ का घोर संग्राम छिड़ गया। वे दोनों दैत्य मेघों की भाँति बाणों की भयंकर वर्षा कर रहे थे। उन दोनों के चलाए हुए बाणों को चंडिका ने अपने बाणों के समूह से तुरंत काट डाला और शस्त्र समूहों की वर्षा करके उन दोनों दैत्यों के अंगों में भी चोट पहुँचाई।”

“निशुम्भ ने तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के श्रेष्ठ वाहन सिंह के मस्तक पर प्रहार किया। अपने वाहन को चोट पहुँचने पर देवी ने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की श्रेष्ठ तलवार तुरंत ही काट डाली और उसकी ढाल को भी, जिसमें आठ चाँद जड़े थे, खण्ड-खण्ड कर दिया। ढाल और तलवार के कट जाने पर उस असुर ने शक्ति चलाई, किन्तु सामने आने पर देवी ने चक्र से उसके भी दो टुकड़े कर दिए।”

“अब तो निशुम्भ क्रोध से जल उठा और उस दानव ने देवी को मारने के लिए शूल उठाया, किन्तु देवी ने समीप आने पर उसे भी मुक्के से मारकर चूर्ण कर दिया। तब उसने गदा घुमाकर चंडी के ऊपर चलाई, परंतु वह भी देवी के त्रिशूल से कटकर भस्म हो गई। तदनंतर दैत्यराज निशुम्भ को फरसा हाथ में लेकर आते देख देवी ने बाण समूहों से घायल कर धरती पर सुला दिया।”

“उस भयंकर पराक्रमी भाई निशुम्भ के धराशायी हो जाने पर शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ और अम्बिका का वध करने के लिए वह आगे बढ़ा। रथ पर बैठे-बैठे ही उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी बड़ी-बड़ी आठ अनुपम भुजाओं से समूचे आकाश को ढककर वह अद्भुत शोभा पाने लगा।”

“उसे आते देख देवी ने शंख बजाया और धनुष की प्रत्यंचा का भी अत्यंत दुस्सह शब्द किया। साथ ही अपने घण्टे के शब्द से, जो समस्त दैत्य सैनिकों का तेज़ नष्ट करने वाला था, सम्पूर्ण दिशाओं को व्याप्त कर दिया। तदनंतर सिंह ने भी अपनी दहाड़ से, जिसे सुनकर बड़े-बड़े गजराजों का महान मद दूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को गुँजा दिया। फिर काली ने आकाश में उछलकर अपने दोनों हाथों से पृथ्वी पर आघात किया। उससे ऐसा भयंकर शब्द हुआ, जिससे पहले के शब्द शांत हो गए।”

“तत्पश्चात शिवदूती ने दैत्यों के लिए अमंगलजनक अट्टहास किया, इन शब्दों को सुनकर समस्त असुर थर्रा उठे, किन्तु शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ। उस समय देवी ने जब शुम्भ को लक्ष्य करके कहा – ‘ओ दुरात्मन! खड़ा रह, खड़ा रह', तभी आकाश में खड़े हुए देवता बोल उठे – ‘जय हो, जय हो'।”

“शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त अत्यंत भयानक शक्ति चलाई। अग्निमय पर्वत के समान आती हुई उस शक्ति को देवी ने बड़े भारी लूके से दूर हटा दिया। उस समय शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक गूँज उठे। राजन! उसकी प्रतिध्वनि से वज्रपात के समान भयानक शब्द हुआ, जिसने अन्य सब शब्दों को जीत लिया।”

“शुम्भ के चलाए हुए बाणों के देवी ने और देवी के चलाए हुए बाणों के शुम्भ ने अपने भयंकर बाणों द्वारा सैंकड़ों और हजारों टुकड़े कर दिए। तब क्रोध में भरी हुई चंडिका ने शुम्भ को शूल से मारा। उसके आघात से मूर्छित हो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।”

“इतने में ही निशुम्भ को चेतना हुई और उसने धनुष हाथ में लेकर बाणों द्वारा देवी, काली तथा सिंह को घायल कर डाला। फिर उस दैत्यराज ने दस हज़ार बाँहें बनाकर चक्रों के प्रहार से चंडिका को आच्छादित कर दिया। तब दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट गिराया।”

“यह देख निशुम्भ दैत्य सेना के साथ चंडिका का वध करने के लिए हाथ में गदा ले बड़े वेग से दौड़ा। उसके आते ही चंडी ने तीखी धार वाली तलवार से उसकी गदा को शीघ्र ही काट डाला। तब उसने शूल हाथ में ले लिया। देवताओं को पीड़ा देने वाले निशुम्भ को शूल हाथ में लिए आते देख चंडिका ने वेग से चले हुए अपने शूल से उसकी छाती छेद डाली। शूल से विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती से एक दूसरा महाबली एवं महापराक्रमी पुरुष ‘खड़ी रह, खड़ी रह' कहता हुआ निकला।”

“उस निकलते हुए पुरुष की बात सुनकर देवी ठठाकर हँस पड़ीं और खड्ग से उन्होने उसका मस्तक काट डाला। फिर तो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनंतर सिंह अपनी दाड़ों से असुरों की गर्दन कुचलकर खाने लगा, यह बड़ा भयंकर दृश्य था। उधर काली तथा शिवदूती ने भी अनन्य दैत्यों का भक्षण आरंभ किया।”

“कौमारी की शक्ति से विदीर्ण होकर कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए। ब्रह्माणी के मन्त्रपूत जल से निस्तेज़ होकर कितने ही भाग खड़े हुए। कितने ही दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से छिन्न-भिन्न हो धराशायी हो गए। वाराही के थूथुन के आघात से कितनों का पृथ्वी पर कचूमर निकल गया। वैष्णवी ने भी अपने चक्र से दानवों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। ऐंद्री के हाथ से छूटे हुए वज्र से भी कितने ही प्राणों से हाथ धो बैठे।”

“कुछ असुर नष्ट हो गए, कुछ उस महायुद्ध से भाग गए तथा कितने ही काली, शिवदूती तथा सिंह के ग्रास बन गए।"

निशुम्भ वध। कुछ है इसमें जिस पर आप बात करना चाहें?

बार-बार आप देख रहे हैं एक ही तरह का वर्णन आ रहा है। युद्ध का जैसा वर्णन आपको महिषासुर संग्राम मे मिला था, जैसा चंड-मुंड वध में मिला, वैसा ही वर्णन आपको निशुम्भ वध में भी मिल रहा है, लगभग वैसी ही बातें। जहाँ तक युद्ध के वर्णन की बात है, आपके लिए निर्णय करना मुश्किल हो जाए कि कौन से अध्याय की बात चल रही है। फिर दैत्य ने ऐसा किया, फिर देवी ने ऐसा किया, फिर दैत्य ने ऐसा किया।

यह क्या विधि है? यह आपके मन में बात स्थापित करने की विधि है कि संग्राम निरंतर चलता रहता है। नाम बदलते रहते हैं, संग्राम चलता रहता है। पात्र बदलते रहते हैं, भाव वही रहते हैं। अलग-अलग काल में, अलग-अलग स्थितियों में, अलग-अलग स्थानों में, अलग-अलग नामों से वही पुरानी वृत्तियाँ क्रियाशील रहती हैं। वृत्तियाँ भी पुरानी है और सच्चाई भी पुरानी है। अहम् भी बहुत पुराना है और आत्मा तो पुरानी-से-पुरानी है, समय से भी पुरानी है वो।

और आपके मन में यह स्थापित करने की चेष्टा है कि कितनी भी बार यह संग्राम हो, उसमें जीत देवी की ही होती है। अहंकार कितनी भी कोशिश कर ले, सैंकड़ों-हज़ारों विधियाँ लगा ले, सैंकड़ों-हज़ारों साल तक लड़ता रहे, हारेगा तो है ही।

इसलिए आप यहाँ पर बार-बार संग्राम में पुनरुक्तियाँ देखते हैं। एक ही तरह की बात बार-बार दोहराई जाती है ताकि यह बात आपके मन में बैठ जाए बिल्कुल कि कितने भी असुर हों, कितनी भी तरह के हों, हारेंगे वही। अलग-अलग असुर, अलग-अलग नाम, अलग-अलग तरह के उनके बल, हार फिर भी एक ही है।

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