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व्यक्तिगत भोग की कामना || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: तो बार-बार देवता कहते हैं: उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

ये क्यों बार-बार कहते हैं? क्योंकि मन के लिए दोहराव बहुत आवश्यक है; कोई बात एक बार बता दो, बात बनती नहीं है। मन तो पत्थर सरीखा है, उसको घिसना पड़ता है। इसीलिए आप जितने भी धर्मग्रंथ पाओगे, उनमें दोहराव बहुत ज़्यादा रहता है। आपको लगेगा भी कि कह तो दिया एक बार, बार-बार क्यों कह रहे हो? एक ही बात को दस बार, बीस बार, सौ बार दोहरा रहे हो ग्रंथ के भीतर ही और फिर इतना ही नहीं, जो उन ग्रंथों के वाचक होते हैं, पाठक होते हैं, वो भी फिर उन पाठों को ही न जाने कितनी बार दोहराते हैं। आप यदि गीता में श्रद्धा रखते हैं तो न जाने आप कितनी बार पढ़ोगे और दोहराते जाएँगे, दोहराते जाएँगे, दोहराते जाएँगे। कोई विस्मय कर सकता है, कहेगा कि अभी तक पूरी नहीं पढ़ पाए क्या?

लोग आते हैं, कहते हैं कि मैंने गीता पढ़ी है। वो गीता को उपन्यास आदि समझते हैं कि पढ़ लिया और ख़त्म कर दिया, निपटा दिया आदि। गीता, या उपनिषद या अन्य उच्च आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ लिये नहीं जाते, पढ़ते ही जाते हैं, उनको बार-बार, बार-बार पढ़ना होता है। और आपके पाठ में ध्यान है तो जितनी बार आप पढ़ोगे, उतनी बार उनका नया अर्थ खुलता है। उनके नए अर्थ का खुलना ही द्योतक होता है आपके भीतर नए मन के खुलने का। आपका जो भीतर नया मन खुल रहा है, उसी के लिए तो ग्रंथ में नया अर्थ खुल रहा है, और यही बात ग्रंथ की सफलता की सूचक है कि ग्रंथ आपके भीतर एक नया मन खोल पाया।

नया मन कैसे खुलता है? पुराने मन के ऊपर संस्कारों की जो परतें होती हैं, वो परतें हटा-हटाकर। एक परत हटी, मन कुछ नया हुआ, अगली परत हटी, मन कुछ और नया हुआ, अगली हटी, मन कुछ और नया हुआ। ग्रंथों का काम होता है आपके मन के ऊपर की परतों को काटते जाना, हटाते जाना। मन नया होता जाएगा, ग्रंथों में नए-नए अर्थ उभरते जाएँगे, और गहरे, और गहरे।

तो दोहराव बहुत आवश्यक है। जो परतें मन के ऊपर आई थीं और कैसे आई थीं? दोहराव से, तभी तो एक के ऊपर परत आई? एक परत आई, फिर दूसरी आई, फिर तीसरी आई, फिर चौथी आई। जैसे एक के बाद एक परत आई थीं, क्योंकि समय में दोहराव बहुत है, वैसे ही वो परतें एक के बाद एक हटती भी हैं। एक के बाद एक आई थीं, एक के बाद एक हटेंगी भी, इसलिए दोहराना ज़रूरी है। और दोहराना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उन परतों का आना रुक नहीं जाता सिर्फ़ इसलिए कि आपने ग्रंथ का पाठ शुरू कर दिया।

मन के ऊपर संस्कारों का जमना लगभग वैसा ही है जैसे इस मेज़ के ऊपर धूल का जमना। आज सुबह आपने इस मेज़ की सतह को साफ़ करा होगा। कल सुबह आप क्या पाएँगे? पुन: धूल की एक पतली सी तह इस मेज़ पर बिछ गई है। आप करते होंगे सफ़ाई, लेकिन प्रकृति और समय अपना काम कर रहे हैं। आप सफ़ाई करते चलिए, वो इस पर पुन: धूल बिछाते चलेंगे। तो इसीलिए सफ़ाई को क्या करना जरूरी है? दोहराना, क्योंकि प्रकृति धूल को क्या कर रही है बार-बार? दोहरा रही है। प्रकृति धूल को दोहराती रहेगी, आप सफ़ाई को दोहराते रहिए।

तो दोहराना बहुत महत्वपूर्ण विधि है। यह बात उन लोगों को ठेस पहुँचाएगी जो एक बार पढ़ करके सोचते हैं कि हम तो निपट गए, कि हमारा काम तो हो गया। नहीं, आपका काम नहीं हो गया। कभी यह मत सोचिएगा कि आपने कोई ग्रंथ पढ़ ही डाला। नहीं, कभी नहीं, अनंत पाठ भी कम पड़ते हैं। और भरोसा रखिए अगर आपके पाठ में सच्चाई है, गहराई है तो कोई भी पाठ व्यर्थ नहीं जाएगा। दोहराव के हर प्रकरण के साथ आपके लिए जैसे एक नया ग्रंथ खुलेगा। आपने पिछली बार जो पढ़ा था, अगली बार वो पढ़ेगे ही नहीं, कुछ नया पढ़ लिया तो बताओ दोहराया भी कहाँ?

दोहराने के विरुद्ध अगर आपका यह तर्क हो कि दोहराने से तो हमें ऊब उठती है तो वो तर्क भी मिथ्या है न, क्योंकि ऊब तो तब उठेगा न जब पिछली बार जो पढ़ा हो, उसी को दोबारा पढ़ें। अगर आपके पढ़ने में, मैं कह रहा हूँ, सच्चाई, गहराई है तो पिछली बार जो पढ़ा, अगली बार वो पढ़ेगे ही नहीं, कुछ नया ही सामने आएगा।

समझ में आ रही बात?

इसीलिए बार-बार, बार-बार देवता दोहराते हैं: नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः। नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार। नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार। ये आंतरिक सफ़ाई चल रही है; ये भीतर की धूल हटाई जा रही है। ये मन के फर्श पर बार-बार झाड़ू से बुघेरा जा रहा है। आप झाड़ू-पोछा भी करते हो, तो दोहरा देते हो न थोड़ा? मन को मेज़ की सतह मानना हो तो मेज़ की सतह मान लो और फर्श मानना है तो फर्श मान लो, पर जो भी मानना है, यह पक्का है कि धूल तो उस पर जमती ही जमती है। सफ़ाई बार-बार करनी पड़ेगी।

एक बार आपने कह भी दिया कि मैं देवी के आगे नमित होता हूँ, तो भी मन की वृत्ति है पुन: उठ खड़े होने की, अहंकार फिर तनकर खड़ा हो जाएगा। जब फिर तनकर खड़ा हो जाए तो आपको फिर कहना होगा, “नमो नमः,” आपको फिर कहना होगा, “नमस्तस्यै नमो नमः।” नमन शब्द है, नम, नमन, झुकना।

यह सूत्र आपको अपने जीवन में भली-भाँति उतार लेना चाहिए: जो कुछ अच्छा है, उससे कभी निवृत मत हो जाइएगा, निपटा मत दीजिएगा, उसे बार-बार कीजिएगा। और जो अच्छा है, उसको ही बार-बार कीजिएगा, क्योंकि बुरा तो बार-बार करने की ज़रूरत ही नहीं, वो स्वत: ही हो रहा है बार-बार।

जो कुछ भी स्वत: ही हो रहा हो, उसको ही तो बुरा कहते हैं न? आपको पता भी नहीं है, वह स्वयं ही हो रहा है, वही तो बुरा है, और वो बार-बार हो रहा है। वो बुरा ही नहीं है, वह बार-बार बुरा है। तो जो अच्छा है, वह आपको चेतना से, इच्छाशक्ति से, जान-समझकर, ध्यान से, संकल्प शक्ति से बार-बार करना होगा।

मनुष्य जीवन की यही तो विडंबना है कि जो बुरा है, वह स्वत: ही हो जाता है बार-बार। जो अच्छा है, वो यदि एक बार भी करना है तो ऊर्जा चाहिए, संकल्प शक्ति चाहिए, ध्यान चाहिए, शुभेक्षा चाहिए। बुरा सौ बार स्वत: हो गया, अच्छा एक बार भी करने के लिए बड़ी जान लगती है।

और देवताओं का प्रकरण और अनुभव बता रहा है कि अच्छे को एक बार करके बात बनेगी भी नहीं, अच्छे को भी सौ बार करना पड़ेगा, आपको अगर बुरे को बराबर की टक्कर देनी है तो।

इन दो बातों को, इन दो शब्दों को बहुत अच्छे से समझ लीजिए, इनका अंतर समझ लीजिए: स्वेच्छा और शुभेच्छा। दोनों साथ-साथ नहीं चलते। जो आदमी अपनी स्वेच्छा को जितना कम महत्व देगा, वह जीवन में उतना आगे जाएगा। खेद की बात यह है कि अभी माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि स्वेच्छा ही भगवान है, ‘मेरी मर्जी’, ’माय फ्री विल’, ‘माय स्वीट विल’, ‘माय चॉइस’, ‘माय डिजायर’ , लोग इन्हीं मुहावरों में बात करते नज़र आते हैं।

“मेरा मन, मैं जो भी करूँ,” “मेरी इच्छा, मेरी स्वेच्छा।” पहली बात तो वो आपकी नहीं है, दूसरी बात, बहुत भयानक स्थिति है कि आपको पता नहीं है कि आपकी वो जो स्वेच्छा है, वह आपकी नहीं है और तीसरी बात, आपके भीतर स्वेच्छा का साम्राज्य होना और आपका स्वेच्छा को लेकर बेहोश रहना, यह आपके लिए बड़े संकट का सूचक है, अशुभ का सूचक है।

किसी और से बचने की ज़रूरत ही नहीं है जीवन में, संसार में। बस अपनी स्वेच्छा से बचकर रहिएगा। जैसे ही कोई भीतर वाक्य उठे, “मेरा मन यह कह रहा है, मेरे भाव यह कह रहे हैं, मेरे विचार, मेरी भावनाएँ ऐसा कह रहे हैं,” तुरंत सतर्क हो जाइएगा, भारी गड़बड़। स्वेच्छा ही तो मूल अज्ञान है। स्वेच्छा ही तो मूल बंधन है, वही मूल वृत्ति है।

शुभेच्छा बिल्कुल दूसरी चीज़ है। शुभेच्छा सदा अपने विरुद्ध होती है। स्वेच्छा भली लगती है, प्रिय लगती है, पसंद आती है और सस्ती होती है, आसान होती है। शुभेच्छा अप्रिय लगेगी, नापसंद होगी, और महँगी होती है, कठिन होती है, कष्टप्रद होती है, मूल्य माँगती है।

तो कोई आश्चर्य की बात नहीं कि अधिकाँश लोग स्वेच्छा पर ही चलते दिखाई देते हैं, आसान है न और सस्ता है। और शुभेच्छा पर चलना बड़ा मुश्किल है। शुभेच्छा का जन्म ध्यान में होता है, शुभेच्छा का जन्म निर-अहंकार में होता है। शुभेच्छा को बल आत्मा से मिलता है। स्वेच्छा को बल वृत्तियों से मिलता है।

साधारणतया आप जिसको विल पावर (संकल्प-शक्ति) भी बोलते हो, वह स्वेच्छा मात्र ही है, क्यों? क्योंकि आपकी जो विल होती है, वह अधिकांशत आपकी वृत्तियों की ही अनुयायी होती है। तो आप भीतर से बड़ा संकल्प उठा रहे होंगे कुछ करने का, पर वह संकल्प होता क्या है? जो चीज़ आपको पसंद आ गई है, प्रिय लगती है, उसी को प्राप्त करने लेने के लिए आपकी जो आतुरता है, आप उसको संकल्प शक्ति बोलते हो। फलानी चीज़ है, मुझे बड़ी भाती है, बड़ा आकर्षित करती है, लुभाती है, और मुझे वो चीज़ चाहिए और मैं पूरी जान झोंकने को तैयार हूँ उसको पाने में, इसको आप संकल्प शक्ति बोल देते हो। यही बोलते हो न विल पावर , संकल्प शक्ति?

आत्मशक्ति और आत्मबल बिल्कुल दूसरी चीज़ हैं। उनका संबंध स्वेच्छा से नहीं, शुभेच्छा से है। संकल्प शक्ति कहती है कि मुझे वह करना है जो मुझे प्रिय लग रहा है और आत्मशक्ति कहती है कि वो होकर रहेगा जो सही है, मुझे प्रिय लगे, चाहे अप्रिय। अप्रिय मुझे लगता है तो लगता रहे और मेरे लिए ही अच्छा है कि जो शुभ है, मैं उसी को प्रिय मानना शुरू कर दूँ। ऐसा आदमी मस्त हो जाता है बिल्कुल, जो शुभ को ही प्रिय मानना शुरू कर देता है। ज़्यादातर लोग प्रिय के फेर में इतने ज़्यादा रहते हैं कि वे शुभ को ही अस्वीकार कर देते हैं।

ये दो अलग-अलग तरीके हैं जीने के: एक है कि मुझे जो प्रिय लग रहा है, मैं उस पर चलूँगा, भले ही वह अशुभ हो और दूसरा यह है कि जो शुभ है, वो करना ही करना है चाहे वह अप्रिय भी लगे। तो भला यही है न कि जो शुभ है, उसी को प्रिय मान लो। उसी में मस्त-मगन रहना सीख लो। नियत का विरोध क्या करना, सच से लड़कर कहाँ जाएँगे? तो हथियार डाल दो, शुभ को ही प्रिय मान लो। समझ में आ रही है बात?

देवता स्तुति कर रहे हैं देवी की, यह घटना हमारे लिए क्या महत्व और संदेश रखती है, यह स्पष्ट हो रहा है? हमने कहा विपत्ति का मूल कारण है अहंकार का बड़ा, चौड़ा हो जाना। तो इसीलिए स्तुति आपके संकटों को दूर करती है, क्योंकि वह संकट के मूल को ही हटाती है। संकट का मूल क्या है? अहंकार कह रहा है कि मैं सबसे बड़ा हूँ। तो स्तुति क्या कर देती है? नहीं, तुम नहीं सबसे बड़े हो, तुम तो अभी देवी का यशोगान कर रहे हो न, तो तुमसे बड़ी देवी हैं। लो विपत्ति का मूल ही हट गया, अब यहाँ से हार जीत में परिवर्तित होने शुरू हो जाएगी। फिर हमने बात करी कि बार-बार दोहराया क्यों जाता है।

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