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अब तो सुधर जाओ, कल मौका मिले न मिले
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन ने मुझे मेरे कई ढर्रों से आज़ाद कर दिया। बहुत कुछ जो छूट ही नहीं रहा था अपने आप छूट गया। पर कल से लॉकडाउन खुल सकता है, वैसे भी सब धीरे-धीरे नॉर्मल होता जा रहा है। मुझे ये लॉकडाउन हमेशा के लिए चाहिए। कुछ रास्ता बताइए।

आचार्य प्रशांत: ज़िंदगी की छोटी से छोटी, साधारण से साधारण स्थिति भी आपके सामने आती है तो अगर आपकी सुधरने की, सीखने की नीयत है तो उस स्थिति के बाद आप वैसे ही नहीं रह जाएँगे जैसे कि आप उस स्थिति के पहले थे।

वास्तव में जीवन की हर स्थिति आपके सामने आती ही आपको कुछ सिखाने के लिए है, बेहतर बनाने के लिए है।

या ऐसे कह लीजिए कि जीवन की हर स्थिति में आपके लिए यह संभावना होती है कि उसे स्थिति का उपयोग करके कुछ सीख ले, जान ले, बेहतर हो जाएँ। यह मैंने बात करी जीवन की किसी भी साधारण स्थिति की। अभी जो वैश्विक आपदा हमारे सामने है, वह तो निश्चित ही असाधारण है। जो लोग इस आपदा के बाद भी वैसे ही रह जाएँ जैसा वो इसके पहले थे, वह तो फिर बहुत ही जड़ और ढीठ हुए। उन्होंने तो फिर ध्यान रखी है कि जीवन से कुछ सीखना ही नहीं है, अहंकार उनका इतना सघन हो चुका है कि वह बदलने को, पिघलने को राज़ी ही नहीं हैं। तो इस महामारी के प्रति भी दो तरह का रवैया रखने वाले, दो कोटियों के लोग, आपको देखने को मिलेंगे- पहले वो, जो लगातार इन दिनों आपने लॉकडाउन की बात करी, इसी कामना में, इसी प्रार्थना में इसी प्रयत्न और जुगाड़ में लगे होंगे कि किसी तरीके से पहले वाले हालात वापस आ जाएँ, ये पहली कोटि के लोग हैं।

दिसंबर से यह वैश्विक प्रकोप शुरू हुआ था, फरवरी के आसपास से इसकी आहटें भारत में भी सुनाई देनी पड़ी थी, अब तो बहुत महीने बीत चुके, मई का महीना आधे से ज़्यादा बीत चुका है। इतना लंबा समय, एक अपूर्व, असाधारण महामारी के बीच में बिल्कुल काफ़ी है, सीखने वाले को सिखाने के लिए। ज़िंदगी में पहली बार, सभी की ऐसा हो रहा है, इतने दिनों तक घरों के भीतर ही बंद रहना पड़ रहा है, सड़कें खाली हैं, बाज़ार सुनसान हैं, सब तरह के आर्थिक गतिविधियाँ, सामाजिक गतिविधियाँ शिथिल पड़ी हुई हैं। ऐसा नज़ारा किसने कब पहले देखा था? तो यह तो निश्चित ही अपूर्व है। इतनी असाधारण मार पड़ने के बाद भी, नब्बे- पच्चानवे प्रतिशत लोग वही हैं, जो मैंने कहा की कामना में और दुआ में लगे हुए हैं कि बस किसी तरह से यह बुरा सपना टूटे और किसी तरीके से यह महामारी और लॉकडाउन का समय खत्म हो और दुनिया और ज़िंदगी दोबारा वैसे ही चलने लगे जैसी 6 महीने पहले चला करती थी। यह पहली कोटि के लोग हैं, यह कुछ समझना नहीं चाहते। यह सोच रहे हैं कि यह आपदा तो यूँ ही संयोगवश आ गयी है। ज़िंदगी में तमाम तरह की घटनाएँ दुर्घटनाएँ होती रहती हैं, वैसे ही एक यह भी हो गई है। अरे! जल्दी से यह बला टले, हम अपने काम ढर्रों पर वापस आएँ। दस में से से नौ लोग ऐसे हैं।

कोई एकाध ऐसा होता है जिस पर यह आपदा, कष्ट के यह दिन, सामान्य जीवन में व्यवधान की अवधि एक सार्थक और सकारात्मक असर करके जाती है। दस में से एक होता है जिसको बात समझ में आती है कि यह जो महामारी आयी है, यह कुछ बता रही है, कुछ हमें समझना पड़ेगा। हम इतने मूर्ख, अंधे और बहरे नहीं हो सकते कि सज़ा मिल रही है और सज़ा के दरमियान हीं, सज़ा के दौरान ही कामना यह करते रहे कि हम पुनः उन्हीं कामों में जल्दी से वापस लौटें, जिनके कारण सज़ा मिली है कि जैसे किसी को, नशे में धुत्त रहने के कारण गटर में गिरा हुआ पाएँ और वह जब गटर में गिरा हुआ है और उसके मुँह में कीचड़ और मल और सड़ा जल प्रवेश कर रहा है तो वह कह रहा है अरे! अरे! अरे! यह मुँह में बड़ा गंदा पानी आ रहा है, शराब कब नसीब होगी? कहां शराब कहां शराब की खुशबू कहां शराब का ज़ायका और जुनून कहां शराब का सुरूर और कहां यह गटर का गंदा पानी जो अभी मेरे मुँह में घुसा जा रहा है छीह! कितने बुरे दिन आ गए मेरे मुझे यह गटर पीना पड़ रहा है? शराब कब नसीब होगी? जल्दी से यह दिन बीते ताकि मैं बाहर निकल कर शराब पी पाऊँ। यह वह मूढ़ आदमी है जिसको समझ में ही नहीं आ रहा कि तुझे गटर और सीवर का पानी इसलिए पीना पड़ रहा है क्योंकि तूने शराब पी थी और तू जब यह कीचड़ और मूत्र पी रहा है तब भी तुझे यह नहीं समझ में आ रहा कि आज मूत्र पीने की नौबत इसलिए आ गई क्योंकि अभी तक मदिरा पीता आ रहा था। तू मूत्र पीते हुए अपने भाग्य को कोस रहा है और प्रार्थना कर रहा है कि जल्दी से यह दिन टले और दोबारा मुझे मदिरा का सौभाग्य मिले। इससे पागल कोई हो सकता है?नब्बे प्रतिशत आबादी हमारी ऐसी ही है।

इन दिनों जिस तरह का जीवन लोगों का बीत रहा होगा, इन दिनों जिस तरह के अनुभव लोगों को हो रहे हैं, नब्बे प्रतिशत लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहें। उनकी हालत वैसी ही है जैसे गटर में गिरे किसी शराबी की। पहली बात तो ये कि उसके मुँह में मल प्रवेश कर रहा है और दूसरी बात जिस शराब का वो आदि और अभ्यस्त है, जिस शराब पर उसकी तथाकथित सामान्य ज़िंदगी आधारित थी। वो शराब, वो भाँति-भाँति के नशे उसे इन दिनों उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। बड़ी ख़राब हालत है। बड़ी खराब हालत है तो ज़्यादातर लोग इसी कोशिश में और कामना में लगे हैं कि बस पुराने सुनहरे दिन किसी तरह लौंटे। इनका क्या हश्र होना है? इनका वही हश्र होना है, जो उस शराबी का होना है। किसी तरह उसे अगर गटर से निकलने का मौका मिल भी गया तो वो गटर से बाहर निकल कर फिर उसी जगह जाएगा, जिस जगह ने उसे गटर में फेंक दिया था। वो फ़िर पियेगा और फ़िर गिरेगा। और ज़रूरी नहीं है कि बार-बार बाहर निकलने के लिए वो बचा हीं रहे। एक मौका ऐसा भी आएगा कि वो आखिरी बार गटर में गिरेगा।

अभी भी समय है, हम संभल जाएँ। हम इस महामारी को संयोग न मानें। मैंने कहा जीवन की छोटी से छोटी गतिविधि भी हमें कुछ सिखाने के लिए आती है, तो ये तो बड़ी हीं असाधारण स्थिति है। ये निश्चित रूप से हमें कोई बड़ी बात सिखाना चाहती है कृपा करके सीखें! और मैं अभी किसी अंधविश्वास या ईश्वर या प्रकोप की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं एक साधारण बात कह रहा हूँ। ज़िंदगी में एक साधारण छोटी घटना भी घटती है और आप अगर चिंतनशील, विवेकशील आदमी हैं तो उस घटना से कुछ सीखेंगे या नहीं सीखेंगे? सीखेंगे न? तो यह तो बड़ी घटना घट गई भाई! इससे हम कुछ भी नहीं सीख रहे क्या? बिना सीखे, बस हम आँख बंद करके यही विनती किए जा रहे हैं कि किसी तरीके से यह दुःख भरे दिन बीत जाए और हमारा सामान्य जीवन हमें वापस मिल जाए। नहीं नॉर्मल लाइफ़ का रट्टा। यह तो पागलपन हुआ न?

तो आप शायद उन पाँच-दस प्रतिशत लोगों में से हैं, जिनमें इन पिछले दो-तीन महीनों में कुछ दृष्टि जगी है, जिन्हें कुछ नया दिखाई दिया है। जिन्हें अपने जीवन के सब पक्षों को, शांति से और एकांत में, गौर से देखने का मौका मिला है और जिन्हें आपाधापी, हबड़-तबड़ से हटकर के थोड़े एकांत का, शांति का और कैवल्य का मौका मिला है और उनको वह शांति रास आ गई है। अभी तक तो ऐसा हो रहा था कि शांति चीज़ क्या है, स्थायित्व, ठहराव चीज़ क्या है इसका आपको ज़िंदगी स्वाद ही नहीं लेने दे रही थी क्योंकि आप ठहरेंगे, तभी तो पता चलेगा कि ठहरने का ज़ायका कैसा होता है। आप देखेंगे तो न आपको पता चलेगा कि रोशनी का अनुभव कैसा होता है। अगर आँख बंद करके आप दौड़े ही जा रहे हैं, तो न तो आपको प्रकाश के आनंद का कुछ पता चलेगा, न ही ठहराव के, विश्राम के अनुभव का आप रस ले पाएँगे। अभी जबरन आपको वह अनुभव और रस लेना पड़ा है और कुछ ही लोग हैं जिन्हें वो बात, वो अनुभव, वो स्वाद, वो रस रुच गया है। आप शायद उनमें से एक हैं। जिन्हें बात समझ में आ गई है, उन्हें पुरस्कार यह मिलेगा कि उन्हें बार-बार किसी आपदा का दुःख नहीं झेलना पड़ेगा। आपदाएँ आएँगी भी तो उनके बाहर बाहर चक्कर काटती रहेंगी, परितः रहेंगी, चारों तरफ रहेंगी पर उनके भीतर प्रवेश करके उनको दुःखी नहीं कर पाएँगी।

और जो इस आपदा से सीख नहीं रहे हैं, उनको दंड यह मिलेगा कि वह ऐसी ही परिस्थितियों में बार-बार फंसते रहेंगे बार-बार फंसते रहेंगे। ज़िंदगी कुछ सिखाना चाहती है भाई! ज़िंदगी आपको बताना चाहती है कि आप बहुत-बहुत गलत जी रहे थे। बहुत-बहुत गलत जी रहे हैं, इसलिए इस विकट स्थिति में फंसे हैं। ऐसी स्थिति में तो जानवर भी नहीं फंसते। जंगलों में रहते हैं, न घर न द्वार, न विद्या न शिक्षा, न सभ्यता न संस्कृति, न दवा न वैक्सिंग पर इतना बड़ा दंड किसी पशु को भी नहीं मिलता कि तुम महीनों तक बाहर ही नहीं निकल सकता, तू प्रकृति तक के पास नहीं जा सकता ऐसा दंड किसी जानवर को पाया है पाते हुए? हाँ इंसान किसी जानवर के साथ ज़्यादती ही कर दे तो अलग बात है, पर नहीं, नहीं होता।

अस्तित्व ने मनुष्य को चुना है इस विशेष दंड के लिए और मात्र मनुष्य ही चुना गया है। दुनिया भर में जीव जंतुओं, कीट-पतंगों, कीटाणुओं की लाखों प्रजातियाँ हैं। किसी को वह सजा नहीं मिल रही है जो मनुष्य को मिल रही है। मनुष्य अकेला है जिसको कैद दे दी गई है, बाकी सब अपना निमग्न घूम रहे हैं, मजे में, मौज में है सब। आपको विचार करना होगा न कि मनुष्य मात्र को ही यह स्थिति क्यों देखनी पड़ रही है?

या आप वही अपने पुराने आत्मविश्वास, हठ, अकड़ में डूबे हुए कह देंगे कि नहीं संयोग मात्र है! जैसे कि गटर में गिरा हुआ शराबी बोले कि अरे! अरे! नहीं संयोग मात्र है कि हम गटर में गिर पड़े। नहीं तो हम गिरने वाले कहाँ थे? नहीं संयोग मात्र नहीं है बात दूसरी है और यह पहला गटर नहीं है जिसमें आप गिरे हैं। इसी शताब्दी में और इस शताब्दी की तो बस आँखें खुली हैं, कुल 2 दशक बीते हैं इस शताब्दी के, इसी शताब्दी में यह चौथी महामारी है जो इंसानों के ऊपर गिरी है। जो पहले तीन थीं उनकी तीव्रता, विस्तार ज़रा कम था। तो हमने बात हल्के में, करीब-करीब हँसी में उड़ा दी। हमने कहा अरे क्या फर्क पड़ता है? यूँ ही कुछ वायरस है जो फैल गया, क्या फर्क पड़ता है? हम समझे ही नहीं की चेतावनियाँ हैं। हम समझे ही नहीं कि यह पहला कोरोनावायरस नहीं है, जिसने हमें संक्रमित करा है। इससे पहले भी हम पर जो वायरल आक्रमण हुए, वो कोरोना वायरस ही थे, वह दूसरे थे और क्या यह मात्र संयोग है कि वह सब भी उन्हीं कारणों से उठे थे जिन कारणों से यह वायरस उठा है, कोविड-19 वाला?

मनुष्य का पशुओं से अनैसर्गिक संबंध, अभी तक की, कम से कम इस शताब्दी की महामारिओं का कारण रहा है, चाहे वह स्वाइन फ़्लू हो, चाहे बर्ड फ़्लू हो, सार्स हो, मर्स हो, इबोला हो, सब में एक बात साझी ही रही है- आदमी का प्रकृति से गलत संबंध। प्रकृति का शोषण, प्रकृति का दोहन, पशुओं पर अत्याचार और अगर अत्याचार नहीं तो कम से कम उस तरह का संबंध जो किसी भी दृष्टि से होना नहीं चाहिए।

तो पहले सब छोटी-छोटी महामारियाँ आयीं। छोटी इस अर्थ में कि उनसे जो मौतें हुईं, वो उतनी नहीं थी जितनी कि अब देखने को मिल रही हैं, अब तो मौतें लाखों में है और कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि मौतें करोड़ों में भी पहुँच सकती हैं। पिछले 20 साल में इस शताब्दी में जो महामारियाँ आईं, जिनसे मौतें या तो सैकड़ों में या हजारों में हुईं। हमको लगा हम 800 करोड़ लोग हैं, कुछ सौ या कुछ हज़ार मर भी गए तो फर्क क्या पड़ता है? और वह महामारियाँ फैली नहीं, कुछ दिन, कुछ महीने रह कर के फिर उनको सीमित कर दिया गया, हमको लगा कि चलता है। चार-पाँच बार चेतावनियाँ आई पिछले बीस ही सालों में लेकिन हमने उन पर ध्यान नहीं दिया, हमने अपने ढर्रे नहीं बदले और वह भी अधिकांश कोरोनावायरस ही थे। हमने ढर्रे अपने नहीं बदले और हम क्या चाहते थे? पिछले 20 सालों में ही यह शराबी चार बार गटर में गिरा इसे बात समझ में नहीं आई। अभी यह पाँचवी या छठी बार गिर रहा है, यह भी कोरोनावायरस है, यह नए तरीके का कोरोनावायरस है जो कहीं ज़्यादा संक्रामक है जैसे प्रकृति ने पाँच-छः दफ़े चेतावनी देकर के फ़िर बड़ा ही दंड दे दिया हो और एक से एक धुरंधर हैं, एक से एक सूरमा बादशाह हैं, वह अभी भी समझने को राज़ी नहीं हैं। वह कह रहे हैं नहीं नहीं जल्दी से बस यह दुविधा के दिन टले, विपत्ति टले और हम अपने पुराने काम-धंधों में वापस लौट जाएँ।

उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि 20 साल के अंदर-अंदर अगर आप पर पाँच-छः अलग-अलग वायरल आक्रमण हो रहे हैं और वह भी लगभग एक ही तरह के और लगभग एक ही कारण से तो कुछ तो बात होगी न भाई! प्रकृति जैसे बार-बार सावधान कर रही है, चिल्ला-चिल्ला चेतावनी दे रही है, हम कितने मूर्ख और कितने बहरे हैं और भोग के कितने लोलुप हैं कि हमें कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा है। सुनाई दे भी रहा है तो हम सुनना, समझना चाहते नहीं।

प्रश्नकर्ता शायद उन चंद लोगों में हैं जिन्हें बात समझ में आ रही है, वह कह रहे हैं जैसे पुरानी ज़िंदगी चल रही थी, मुझे वापस नहीं चाहिए दोबारा, अपनी इन्हीं भावनाओं को उन्होंने इन शब्दों में कहा है- कि मुझे तो यह लॉकडाउन हमेशा के लिए चाहिए। वास्तव में वह यह नहीं कह रहे हैं कि मुझे यह लॉकडाउन हमेशा चाहिए, मर्म समझिए! वह कह रहे हैं उन्हें वह ज़िंदगी नहीं चाहिए दोबारा जो लॉकडाउन के पहले थी। और कोई बड़ा अभागा ही होगा जो यह मन्नत माँग रहा होगा कि वही ज़िंदगी दोबारा चाहिए जो लॉकडाउन से पहले थी। खेद यह है कि ऐसे अभागे ज़बरदस्त बहुमत में है। और अगर वह अपनी दुर्बुद्धि के शिकार नहीं है तो उनकी बुद्धि को भ्रष्ट करने के लिए बहुत ताकतवर आवाज़ें लगी हुई हैं उनके कानों में ज़हर घोलने के लिए।

दुनिया भर के बड़े राजनेता और उद्योगपति और पूंजीपति सब शोर मचा रहे हैं कि जल्दी से हमारे कारखाने खोलो! जल्दी से हमारे कारखाने खोलो! सरकार कह रही है कि अगर हम कारखाने खोल देंगे तो व्यापक स्तर पर मौतें होंगी। तो वह कह रहे हैं- नहीं नहीं साहब! हमें तो कारखाने खोल के दो, मौतें होती हों तो हों हमारे मुनाफ़े पर असर नहीं पड़ना चाहिए। और इन्हीं उद्योगपतियों के हाथ में मीडिया की भी कमान है। दुनिया भर की मीडिया को मुश्किल से एक दर्जन लोग हैं जो नियंत्रित करते हैं और वह मीडिया के माध्यम से वही बातें प्रचारित कर रहे हैं अगर आप पहले जैसी ज़िंदगी में वापस नहीं आए तो सामाजिक-आर्थिक कहर टूट पड़ेगा। और लोगों में यह भावना फैलाई जा रही है कि पहले ही जैसा जीवन वापस पाना बड़ा ज़रूरी है, नहीं तो प्रलय आ जाएगी।

अभी अमेरिका में बहुत साफ घटना घटी इसको लेकर के, अमेरिका के जिस प्रांत में टेस्ला का कारखाना है, उस प्रांत ने भारत की तरह ही, भारत से मिलता-जुलता ही लॉकडाउन घोषित कर रखा था। एलन मस्क टेस्ला ब्रांड के, कारखाने के मालिक। उन्होंने कहा मेरी फ़ैक्ट्री तो चलेगी, मुझे घाटा बहुत हो रहा है। उन्होंने ट्विटर पर आकर के राज्य को ही धमकियाँ देनी शुरू कर दीं- उन्होंने कहा अगर तुमने मेरा कारखाना मुझे नहीं खोलने दिया तो मैं अपनी फ़ैक्ट्री को इस प्रांत से बाहर ले जाऊँगा। सीधा-सीधा भयादोहन, ब्लैक मेलिंग और प्रांत के गवर्नर उनको समझा रहे हैं कि- साहब! अगर कारखाना खुल जाएगा तो आप समझ पा रहे हैं कितनी मौतें हो जाएँगी? अमेरिका में तो वैसे ही मौतों की वर्षा हो रही है और जो वर्षा हो रही है उसका बहुत हद तक कारण यही है- वहाँ पर राजनेताओं से लेकर के उद्योगपतियों तक सब की नीति यही है कि अर्थव्यवस्था पर आँच नहीं आनी चाहिए, लाशें जितनी गिरती हों तो गिरें। और यही कारण है कि फ़िर लाशें गिर रही हैं। ये वो हैं जिन्हें सीखना नहीं है, जिन्हें समझना नहीं है। जो कह रहे हैं मेरी फ़ैक्ट्री है और मुझे तो कार बेचनी है और मेरी फ़ैक्ट्री तो चलेगी और पहले की ही तरह चलेगी और पहले की जो व्यवस्था थी, उस व्यवस्था में मैं बादशाह था। मैं क्यों स्वीकार करूँ पुरानी व्यवस्था में कुछ परिवर्तन? जब पुरानी व्यवस्था में वह मैं बादशाह था। पुरानी व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होगा तो मैं बादशाह कहाँ रह जाऊँगा? तो व्यवस्था पहले की तरह ही चलनी चाहिए।

पर कुछ लोगों को बात समझ में आ रही है, उन्हें साफ़ दिखाई पड़ रहा है, जैसा कि वह जो बाल कथा है उसमें एक बच्चे को साफ दिखाई पड़ जाता है कि बादशाह नंगा है, बट द किंग इज़ नेकेड, दिख बहुत लोगों को रहा था, पर कह पाने की सरल सहजता बस उस बच्चे में ही थी कि- राजा तो नंगा है। जी हाँ साहब राजा नंगा है! हम सब नंगें हैं, लेकिन हम इतने डरे हुए हैं और मानसिक रूप से हम इतने जटिल हो गए हैं कि हम स्वीकार नहीं कर रहे हैं कि हम पूरे तरीके से निर्वस्त्र और दरिद्र ज़िंदगी जी रहे थे। हम अभी भी एक दूसरे को यही जता रहे हैं और खुद को भी यही बता रहे हैं कि जैसे लॉकडाउन के पहले की ज़िंदगी में हम बहुत खुशहाल थे।

भाई! यह हमको एक अवसर मिला है, एक मौका मिला है, जबरन ठहरने के लिए विवश किया गया है। आप को जबरन ठहरने के लिए इसीलिए विवश किया गया है ताकि आप, अब जब चलें तो वैसे ही न चले जैसे पहले चलते थे और इस सज़ा के बाद भी जो व्यक्ति पहले ही जैसी ज़िंदगी बिता रहा हो, उस व्यक्ति का जीना फिर किसी काम का नहीं है, मौत उस पर लौट कर आएगी और मैं क्या कहूँ कि मौत लौट कर आएगी? भाई! अभी मौत टली कहाँ है कि उसको लौट कर आना पड़े? हम कैसी बातें कर रहे हैं कि लॉकडाउन टल गया, सामान्य ज़िंदगी दोबारा शुरू हो जाएगी हिप हिप हुर्रे!!

हमें अगर महीन सत्य नहीं समझ में आता तो क्या हमें मोटे-मोटे आंकड़े भी नहीं समझ में आते? आंकड़े आप जानते हैं? संक्रमित कुल व्यक्तियों की संख्या के अनुसार भारत अब विश्व में अब ग्यारवें नंबर पर पहुँच गया है, चीन से ऊपर और खौफ़नाक बात यह है कि जहाँ प्रतिदिन उठते नए मामलों का सवाल है भारत तीसरे नंबर पर पहुँच गया है। मैं आज की ही बात करूँ तो आज के दिन अमेरिका में और ब्रिटेन में नए मामलों की संख्या थी कुछ नौ-दस हज़ार और उन दो के बाद सीधे भारत का नंबर है करीब साढ़े चार हज़ार या उससे भी ज़्यादा मामले आज-आज में, भारत में प्रकाश में आए हैं और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। मैं कुल मामलों की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ प्रतिदिन जो नए मामले सामने आ रहे हैं उनकी संख्या भी बढ़ रही है तो कुल मामलों का क्या कहना वह तो एक्स्पोनेंशियल जा रहा है और हम कह रहे हैं अब तो लॉकडाउन खत्म हो रहा है अब तो नॉर्मल ज़िंदगी वापस आ रही है। अरे भाई! नॉर्मल ज़िंदगी वापस नहीं आ रही है। कानूनन हो सकता है कि आपको अनुमति मिल जाए कि आप बाहर निकलो क्योंकि कानून चलाने वाले भी कह रहे हैं कि हम अपने ऊपर अब यह दोष क्यों ले कि हमने लोगों को कैद रखा? उन्हें भी दिख गया है कि लोगों को बहुत दिन तक कैद नहीं रखा जा सकता। लोग खुद भोग लोलुप हैं। लोग ख़ुद भोगने के, मज़े के, सुख के इतने आकांक्षी हैं कि थोड़े दिन उन्हें और घर पर रखा तो वो दंगा-फसाद करने लगेंगे सड़कों पर। तो सरकार ने कहा भैया ठीक है! अब घर से निकलना हो तो निकल लो। अब तक तो हमें सरकार ने घरों में रोक कर रखा था तो हम कह देते थे कि कानूनन हमें रुकना पड़ रहा है या सरकार के कारण हमें जबरन घर में रुकना पड़ रहा है। अब बीमारी रोक कर रखेगी।

वायरस का प्रकोप तो अभी शुरू भी नहीं हुआ है भारत में। अभी तो झांकी भी नहीं निकली है। 8 से 11 दिनों में अभी जब लॉकडाउन चल रहा है तब भी संक्रमित हो रहे व्यक्तियों की संख्या दोगुनी होती जा रही है और यह तब है जब पूरी तरह अभी बाहर निकलने की अनुमति है नहीं, काम-धंधे भी पूरे खुले नहीं है, यातायात भी पूरा खुला नहीं है, एक राज्य से दूसरे राज्य, एक शहर से दूसरे गांव अभी यातायात पूरा खुला नहीं है। तब भी लगभग 10 दिन में या 11 दिन में मामले दोगुने होते जा रहे हैं और अभी जब खुलेगा तो क्या होगा? और अभी हम बात कर रहे हैं कि हर 10 दिन में मामले दोगुने हो रहे हैं। 10 दिन में दोगुने, तो 20 दिन में चौगुने, तो 30 दिन में 8 गुने तो 40 दिन में 16 गुने तो 50 दिनों में, 60 दिनों में 70 दिनों में 128 गुने और जब इस तरह से फैलती है महामारी तो सांख्यिकी, स्टैटिसटिक्स, एपिडेमियोलॉजी तो दोनों यह बताते हैं कि उसके फैलने की दर भी घटती जाती है, माने अगर अभी 10 दिन में मामले दूने हो रहे हैं तो बीमारी के फैलने के साथ फिर वह 8 दिन में 6 दिन में दुने होंगे। अब जब जरूरत है सबसे ज्यादा सावधानी की तो लोग उत्सव मना रहे हैं, राहत मना रहे हैं कि अब तो लॉकडाउन खुल गया है, अब हम बाहर निकलेंगे।

जब भारत में करीब-करीब 0 या 100 मामले थे या 140 करोड़ के इस देश में कुल हजार मामले थे तब लोगों ने बड़ी सावधानियों का सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करा, जबकि आपके शहर में एक भी मामला नहीं है, मैं आज से डेढ़ महीने पहले की बात कर रहा हूँ, जब पूरे शहर में एक भी मामला नहीं है तब उस समय जिसको देखो वही मास्क लगाकर घूम रहा और एक दूसरे से दूरी बनाई जा रही है और लोग सड़क पर नहीं निकल रहे हैं और किवाड़ नहीं खोल रहे हैं, घर में काम वाली को नहीं आने दे रहे हैं, अखबार भी बंद करा दिया। यह डेढ़ महीने पहले कर रहे थे जब यह हो सकता था कि आपके 10-20 लाख की आबादी वाले शहर में, एक भी मामला है ही नहीं, तब तो आपने इतनी सावधानियाँ बरत लीं। अब जब आपके शहर में मामले ही मामले हैं, तो अब लोग थक चुके हैं सावधानी बरत-बरत के, स्टेमिना ही खत्म हो गया है। लोग कह रहे हैं- अरे! डेढ़ महीने तक खेल खेल लिया अब दम नहीं बचा है, अब यह हटाओ मास्क और बाहर निकलो और अब तुम बाहर निकलो, बाहर वायरस नाच रहा है। पहले कम था अब ज़्यादा है। कहाँ से तुमने यह प्रश्न कर दिया कि अब तो लॉकडाउन खुल रहा है और चीज़ें सामान्य हो रही हैं?

यह करीब करीब ऐसा है - जैसे पुराने समय में किलो को घेरा जाता था। जब कोई ताकतवर फौज किसी छोटे राजा पर आक्रमण करती थी तो राजा अक्सर अपने किले के भीतर घुस जाता था और जो वह बड़ा दुर्ग होता था उसकी बड़ी दीवारे होती थी, वह बनाया ही इसलिए गया था कि दुश्मन उसको भेद न सके। और वह दुर्ग ऐसा ही नहीं होता था कि उसमें बस राजा रहता था। वह भीतर से पूरा एक शहर होता था और उस में बहुत लोग रह रहे होते थे। अब दुश्मन बाहर है और दुर्ग वगैरह हमेशा एक छोटी पहाड़ी के ऊपर होता था और उस पर चढ़ना भी आसान नहीं होता था, तो दुश्मन बाहर घेरा डाल देता था तो ठीक है तुम्हारा दुर्ग अभेद्य है, तुम उसके भीतर घुस गए हो हम बस इतना करेंगे कि बाहर घेरा डाल कर बैठ जाएँगे, सीज़ डाल देंगे। अब क्या होता था कि यह जो भीतर घुसे हुए हैं यह अपने आप को बहुत सुरक्षित अनुभव करते थे, कुछ दिनों तक या फिर कुछ हफ्तों तक, फिर यह बातें थे कि इनका रसद-पानी भी चुक रहा है और इनका सब्र भी चुक रहा है। इनकी खाने-पीने की सामग्री भी खत्म होने लगी है और इनका धीरज भी खत्म होने लगा है और साथ ही साथ जो बाहर होता था दुश्मन वह बाहर से जो आपूर्ति की संभावना होती थी उसको पूरी तरह खत्म कर देता था, वह यह तय कर देता था कि बाहर से कुछ भी सामग्री, किसी भी तरह की दुर्ग में पहुँचने न पाए। यहां तक कि बाहर से अगर दुर्ग में पानी की भी आपूर्ति होती है तो वह जो पानी की भी लाइन है उसको काट दो। फिर क्या होता था? फिर यह लोग जो इतने दिनों तक, स्वघोषित लॉकडाउन में रहते थे, अपने आपको दुर्ग के भीतर बंद करके रहते थे, इन्हें खुद ही बाहर निकलना पड़ता था जैसा कि आजकल हो रहा है। हमने भी यही किया है 2 महीने तक तो हमने अपने आपको दुर्ग के भीतर बंद कर लिया, वायरस मजे में बाहर बैठा इंतजार करता रहा। उसने कहा बेटा कभी तो दिल से बाहर निकलोगे, क्योंकि बिल में अगर रहोगे, तो थक जाओगे और तुमने अपनी जैसी व्यवस्था बना रखी है जीने की, तुम्हें खाने-पीने के लिए, मनोरंजन के लिए, काम-धंधों के लिए तुम्हें बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। तुम निकलो बाहर, तुम मुझसे 2 महीने इंतजार करवाना चाहते हो, मैं 2 महीने इंतजार करूँगा, तुम कब तक लॉकडाउन चला लोगे? जहां तुमने किवाड़ खोला और वहां मैंने तुम को घेरा। और फिर वही होता था। जब भीतर की सामग्री वगैरह खत्म होने लगती थी तो दुर्ग के दीवार खुद ही खुलते थे,भीतर से खुलते थे। दुश्मन को तोड़ने नहीं पड़ते थे वह भीतर से ही खोल दिए जाते थे, फिर भीतर से सेना निकलती थी, भूखी-प्यासी, वह जाकर दुश्मन से भिड़ जाती थी। अंत जो होता था वह हम सब जानते हैं। तो कोई इस मुगालते में न रहे कि लॉकडाउन उठ गया है तो इसका मतलब है, चीज़ें सामान्य हो गई हैं। इसका मतलब बस यह है कि अब दुर्ग के किवाड़ खोल दिए गए हैं, अब तुम बाहर निकलोगे और बाहर वो इंतजार कर रहा है तुम्हारा।

लॉकडाउन का उठना यह नहीं बता रहा है कि स्थितियाँ सामान्य हो गई हैं, लॉकडाउन का उठना यह बता रहा है कि अब तुम्हारा सब्र जवाब दे गया है। दुश्मन ने जीत की तरफ एक कदम और बढ़ा दिया है। बात आ रही है समझ में? तो मेरी विनती है कि कोई भी वर्तमान समय को, हल्के में न लें। यह न सोचे कि अब तो पुरानी तरह की ज़िंदगी में वापस लौटने की हमको अनुज्ञा मिल गई। अब तो हम फिर से वैसे ही जी सकते हैं जैसे पहले जीते थे। और बहुत लोग बिल्कुल ताक लगाए बैठे हैं कि कब मिलेगा फ्राइड चिकन दोबारा? कब मिलेगी आलू चाट? मुर्गे की बोटी और बकरे की टाँग चबाने को कब मिलेगी? यही सब चीज़ें तो हैं, जो मिल नहीं रही हैं। अभी मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो बिल्कुल ही गरीब हैं, अभी मैं उनकी बात कर रहा हूँ जो पुराने तरह की ज़िंदगी वापस इसलिए चाहते हैं क्योंकि उनको पुरानी तरह की ज़िंदगी में 'सुख' बहुत था।

जो गरीब है, श्रमिक है, मज़दूर है, काष्टकार है उसको तो पुरानी ज़िंदगी में वैसे भी कौन सा सुख था? वह क्यों मन्नत माँगेगा की पुरानी ज़िंदगी, पुराने समय, पुराने दिन लौट कर के आएँ? उसके लिए तो सब दिन एक बराबर हैं। पहले भी बेचारा मजबूरी और गरीबी में ही रह रहा था।

यह पुराने दिनों को वापस बुलाने की ज्यादा फ़रियाद वही कर रहे हैं, जो इतना भोगते थे, इतना भोगते थे कि पुराने दिनों में 'सुख' बहुत मनाते थे और यही वो लोग हैं जो इस आपदा को आमंत्रित करने के लिए ज़्यादा उत्तरदायी हैं। बात आ रही है समझ में?

ये आपदा हमारी भोगवादिता का नतीजा है। ये आपदा नतीजा है एक बिल्कुल ही गलत जीवन दर्शन का जो हमसे कहता है- कि हम शरीर मात्र हैं और जीवन का उद्देश्य है खाना-पीना, मौज बनाना, सुख करना, भोग करना। यही इस समय विश्व पर छाया हुआ सिद्धांत है। कहने को विश्व में इस वक्त बहुत धर्म हैं, पंथ हैं, मज़हब हैं -ईसाइयत है, इस्लाम है, सनातन धर्म है, बौद्ध धर्म है और न जाने कितने पंथ और शाखाएँ हैं लेकिन इस वक्त विश्व में वास्तव में पूछिये तो हकीकत में निन्यानवे प्रतिशत लोग न तो ईसाई हैं, न मुसलमान हैं, न हिन्दू हैं, न बौद्ध हैं न कुछ और हैं वो सिर्फ़ एक धर्म को मानने वाले हैं- उसका नाम है, भोग धर्म।

ये जो आपदाएँ हम पर एक-एक कर के टूट रही हैं, उसका कारण है 'भोग धर्म'। इस भोग धर्म ने हमको सच्चे धर्म से अलग कर दिया है। इस 'भोग धर्म' ने हमें सिखा दिया है कि हम हीं बादशाह हैं, हम कुछ भी कर सकते हैं। हमने ये जीत लिया, हमने ये वैक्सीन बना ली, हमने ये आविष्कार कर लिया, हम चाँद पर पहुँच गए, हम मंगल ग्रह पर चढ़ जाएँगे, हम ही बादशाह हैं, हम जो चाहे कर सकते हैं, हम मौत को मात दे देंगे। हम हीं सबकुछ हैं। ये जो गलत, भ्रष्ट और आसुरी जीवन दर्शन है यही सब आपदाओं का कारण है। और ये तो महामारियाँ है जिनके लिए वायरस इत्यादि की ज़रूरत पड़ती है और जो सबसे बड़ी प्रलय टूटने को तैयार खड़ी है, वो है क्लाइमेट चेंज की।

कोविड में और क्लाइमेट कैटस्ट्रॉफी में अंतर इतना है कि कोविड के कारण जो मौतें हो रही हैं वो आप गिन सकते हैं, पता चल जाएगा किसी के शरीर पर ज़रा परीक्षण कर के कि ये क्यों मरा? साफ़ दिख जाएगा कि ये तो कोरोना पॉज़िटिव था इसलिए मरा। लेकिन क्लाइमेट चेंज से जो दुःख बरस रहा है और क्लाइमेट चेंज के कारण जो मौतें हो रही हैं उनमें आप कभी साफ-साफ जाँच नहीं पाएँगे, कह नहीं पाएँगे, दावा नहीं कर पाएँगे कि ये मौत तो साहब! क्लाइमेट चेंज से ही हुई है।

मैं कहीं पढ़ रहा था, कोई रिसर्च पेपर था, अब उसकी वैधता कितनी है उसमें मैं नहीं गया लेकिन ये कहा गया कि वुहान में जितनी मौतें हुईं कोरोना वायरस से उससे ज़्यादा ज़िंदगियाँ बच गयीं प्रदूषण के कम होने से। हम सिर्फ़ ये गिन रहे हैं कि वुहान में चार-साढ़े चार हज़ार लोग कोरोना वायरस के कारण मरें। लेकिन वहाँ पर करीब दो महीने का जो लॉकडाउन चला, उसने प्रदूषण का स्तर इतना कम कर दिया कि वहां पर प्रदूषण से संबंधित जो मौतें हुआ करती थी वह थम गई और प्रदूषण से जो मौंते हुआ करती थीं वह कोरोना से हुई मौतों से 20 गुना थी। ऐसे तो हम जी रहे थे और यह वह पुराना समय है जिसकी हम माँग कर रहे हैं कि वह हमें वापस मिले। वाकई आपको वह पुराना समय वापस चाहिए? बात समझ में आ रही है?

मेरी बात सुनने में अटपटी लगेगी, आप कहेंगे कि एक चीज़ जो बिल्कुल वैज्ञानिक है उसको मैं आध्यात्मिक कलेवर क्यों दे रहा हूँ? और थोड़ा अगर आप शांति से समझेंगे तो शायद समझ सकेंगे यह आपदा मूलतः आध्यात्मिक है। हम अधर्म का जीवन जी रहे हैं, हमने शास्त्रों को दरकिनार कर दिया है। धर्म हमारे लिए खिलवाड़ बन गया है और धर्म जीवन की कोई बाहरी या पारिधिक चीज़ नहीं होती, धर्म जीवन का का केंद्र होता है। देखिए कोई भी आदमी हो सब किसी न किसी धर्म का पालन करते हैं। मैं फिर सनातन धर्म, ईसाईयत, इस्लाम की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं कह रहा हूँ हर व्यक्ति के पास अपना एक जीवन दर्शन होता ही होता है भले ही उसे खुद न पता हो कि उसके पास एक जीवन दर्शन है। पर दुनिया का हर बंदा किसी दर्शन, किसी फिलॉसफी को लेकर चल रहा है। अफसोस की बात यह है कि ज़्यादातर लोगों के मन में जो दर्शन बैठा हुआ है, जो फिलॉसफी बैठी हुई है, जो सिद्धांत बैठा हुआ है, जो गाइडिंग प्रिंसिपल है वह यह है- कि मौज करो! कि जीवन का उच्चतम लक्ष्य है मौज करना! यह इस वक्त हमारा धर्म है और जब इतना भद्दा और सड़ा हुआ हमारा धर्म होगा तो अधर्म की सज़ा तो मिलेगी न?

यह जो नई पीढ़ी निकल के आ रही है हिंदुस्तान में खास तौर पर बड़े मेट्रो शहरों में, मुझे बताना इनमें से कितने बच्चे मंदिर भी कभी जाते हैं? इन्हें गीता उपनिषद क्या पता होंगे इन्हें तो रामायण महाभारत के पात्रों के नाम ही नहीं पता। हाँ और बहुत चीज़ें हैं जो इनको पता है। जब आप धर्म से कटते हो, तो आप जानते हो आप किन चीज़ों से कटते हो? जब आप धर्म से कटते हो, तब आप करुणा से कटते हो, आप बोध से कटते हो, आप प्रेम से कटते हो, आप विवेक से कटते हो। जो कुछ जीवन को जीने लायक बनाता है, सब खाली हो जाता है आपकी ज़िंदगी से जब आप धर्म से कटते हो। धर्म कोई यूँ ही फ़िज़ूल की चीज़ थोड़े ही है भाई? मैं केंद्रीय धर्म की बात कर रहा हूँ। मैं धर्म के बाहरी हिस्सों की बात नहीं कर रहा। मैं सुबह 4:00 बजे उठने और तिलक लगाने और जनेऊ धारण करने और फ़लाने पेड़ की पूजा करने और फ़लाने कुलदेवता को पूजने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उन सब चीज़ों की बात नहीं कर रहा हूँ। जब मैं धर्म शब्द का उपयोग करता हूँ तो उसका एक बड़ा ठोस और सीधा अर्थ होता है, बड़ा केंद्रीय अर्थ होता है। उसका अर्थ होता है- अहम की जांच पड़ताल और अहम से मुक्ति। बस यही धर्म है और इसी का नाम अध्यात्म है। बाकि सब चीज़़ें जो धर्म के नाम पर चल रही होती हैं- फ़लाने देवता की पूजा, नदी में नहाना, तेल में सिक्का डालना, ये अंधविश्वास, फ़लानी प्रथा, फ़लानी रूढ़ि, फ़लानी परंपरा उन चीज़ों को मैं धर्म मानता ही नहीं क्योंकि वह धर्म है ही नहीं और यह बात स्वयं धर्म शास्त्र कहते हैं। और वहां धर्मशास्त्र यह भी बता देते हैं कि शास्त्र कहलाने लायक कौन सी पुस्तक है?

जो पुस्तक आदमी की पहचान की बात करें, आदमी के अहं की बात करे, जिसके इर्द-गिर्द उसके मन का घेरा घूमता है और फिर उस घेरे से आज़ादी कैसे मिल सकती है, इसकी बात करें सिर्फ वही पुस्तक आध्यात्मिक पुस्तक है।

तो धर्म क्या है अच्छे से समझ लीजिए!

आदमी एक तनाव है आदमी एक बेचैनी है आदमी एक भीड़ है, आदमी एक सूनापन है आदमी एक चीख है, आदमी एक कराह है, उससे आदमी को आज़ादी दिलाने के विज्ञान का नाम धर्म है।

जब आपकी ज़िंदगी में धर्म नहीं होगा, तो आपकी ज़िंदगी विक्षिप्त हो जाएगी, आप पागल जैसी ज़िंदगी जिओगे, अपने ही खिलाफ जिओगे, आप हर वह काम करोगे जो आपको और दुनिया को तबाह करेगा और उसी तरह की एक तबाही कोरोना महामारी के रूप में हम पर बरस रही है। बात समझ रहे हैं? यह आपदा आई है आपको, आप तक वापस ले जाने के लिए या आपको आपकी जड़ों से मिलवाने के लिए। हम जड़ हीन हैं। जैसे मिट्टी में गड़ा हुआ कोई प्लास्टिक का पौधा। दूर से देखो तो लगता है कितना खुशहाल है, कितना हरा है, क्या झूम रहा है? जड़हीन है। प्राण नहीं है उसके पास बस ऐसा तो हमारा जीवन है। प्लास्टिक।

यह आपदा आई है ताकि आप अपनी जड़ों को हासिल कर सको, आप अपने मूल तक पहुँच सको। इसीलिए आपको एकांत मिला है और इसीलिए आपको यह देखने का मौका मिला है कि आप जो पहले ज़िंदगी जी रहे थे- वह कितनी नारकीय, कितनी भ्रष्ट और कितनी व्यर्थ थी। यह अवसर मत गवाईये। दोबारा लौटकर उसी पुरानी ज़िंदगी में वापस मत जाइए। ये निवेदन है! हम सब गलत जी रहे हैं। हमारे काम-धंधे गलत, हमारा मूल दर्शन ग़लत, जिसके कारण हमारी सब मान्यताएँ गलत, हमारे रिश्ते-नाते गलत, हमारे विचार गलत, हमारी आशाएँ उम्मीदें गलत, हमारी योजनाएं गलत। उन सब पर पुनर्विचार करिए। उन सभी चीज़ों को बदल डालिए, अभी मौका मिला है कर डालिए। कौन जाने आगे मौका मिले न मिले?

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