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लेख
क्या शक्ति ही शिव का द्वार हैं? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: विष्णु भगवान सो रहे हैं। तो इनके कानों के मैल से दो असुर पैदा हो गए, मधु और कैटभ। इन्होंने बड़ा उत्पात मचाया। और ये ब्रह्मा को मारने को तत्पर हो गए, बोले कि मारेंगे ब्रह्मा को। और लगे हैं पीछे ब्रह्मा के, ब्रह्मा वहाँ से भागे कि यह क्या हुआ, यह क्या विपत्ति आयी? विष्णु के पास आए, देखा कि वो सो रहे हैं। तो ब्रह्मा समझ गए कि विष्णु नहीं उठेंगे, कोई विशेष बात ही है जो इन्हें सुलाये हुए हैं। विष्णु अपनी योग निद्रा में हैं। तो तब उन्होंने महामाया का स्तवन किया, स्तुति की और बोले कि आप से ऊँचा कौन हो सकता है! आप जो स्वयं भगवान को भी सुला सकती हैं, आपकी मैं स्तुति भी कैसे करूँ! मैं ऐसा क्या बोलूँगा जो पर्याप्त होगा आप की प्रशंसा हेतु! कुछ नहीं कह सकता मैं। आप से ऊँचा कोई नहीं। आपमें वह शक्ति है कि आप स्वयं भगवान को भी निद्रा में डाल सकती हैं। तो ऐसा कह करके ब्रह्मा जी ने महामाया की स्तुति की।

ये सारी बातें हम कह चुके हैं कि सांकेतिक हैं। समझना। स्तुति करी महामाया की। तो फिर महामाया विष्णु जी की आँखों से और भौंहों से प्रकट हो करके बाहर आईं और विष्णु भगवान जग बैठें। जब उठ बैठें तो ब्रह्मा जी ने उनको सारा हाल कह सुनाया। जब हाल कह सुनाया तो विष्णु बोले कि ठीक है। और फिर कहानी कहती है कि मधु-कैटभ से उनका पाँच हजार साल तक युद्ध हुआ। और तब भी वह दोनों हारे नहीं। जब हारे नहीं तो महामाया का खेल, उन्होंने मधु-कैटभ की मति ऐसी कर दी कि उनको लगा कि विष्णु तो बड़े वीर योद्धा हैं, हम दोनों जैसे पराक्रमी असुरों से इतने दिनों से, इतने वर्षों से अकेले ही युद्ध कर रहे हैं।

तो वो दोनों प्रसन्न हो गए और विष्णु से बोले, “माँगो, क्या वरदान माँगते हो?” लड़ते-लड़ते दोनों जो हैं, जैसे देख रहे हो और विष्णु के ही प्रशंसक हो गए। बोले कि यह तो बड़ा बढ़िया योद्धा है। हम जैसे पराक्रमी असुरों से लड़ रहा है। ले-देकर उसमें अपनी ही बड़ाई की है। पर बात यह है कि यह तो बड़ा पराक्रमी है, हम जैसे दो से लड़ रहा है। तो एक दूसरे की ओर देखा ही होगा आँख-आँख में, बोले होंगे कि इसको तो वरदान देते हैं। बोले, “क्या वरदान चाहिए?” माया का खेल। विष्णु तो अब माया से मुक्त हैं, बोलते हैं कि मुझे एक ही वरदान चाहिए, तुम दोनों मेरे ही हाथों मरो। फँस गए दोनों बेचारे।

फिर से उन्होंने बुद्धि लगाई और बुद्धि बेचारी कितनी चलती है, इसके बारे में तो मेधा मुनि हमें बता ही चुके हैं कि जानवरों से ज़्यादा बुद्धि चलती नहीं किसी की। तो बोलते हैं, “ठीक है, हमें मार लेना पर ऐसी जगह पर मारना जहाँ पर जल ज़रा भी न हो।” उन्होंने यह देखा कि जिधर को भी देखो, वहाँ जल कुछ-न-कुछ राशि में तो होता ही होता है, वह समय ऐसा था। कहते हैं कि प्रलय काल, जब जो पूरी पृथ्वी ही थी वह जल आप्लावित हो गई थी, चारों तरफ बस पानी था। तो उन्होंने कहा कि ऐसी जगह मारना जहाँ जल बिल्कुल न हो। तो सोचा कि हमने तो बढ़िया चाल चल दी, अब हमें नहीं मार पाएँगे ये। तो विष्णु ने कहा, “हाँ।” और दोनों को पकड़ा और ऐसे अपनी जाँघ उठाई, दोनों के सिर अपनी जाँघ पर रखा और काट दिया, क्योंकि ज़मीन पर तो हर जगह पानी ही पानी था। तो इस तरीके से पहला जो अध्याय है और वही पहला चरित्र भी है सप्तशती का, वह समाप्ति को आता है।

अहंकार के लिए समझना बहुत ज़रूरी है कि उसकी वास्तविक स्थिति क्या है। अपने बारे में कल्पना में रहना कोई अच्छी बात नहीं। हमारी तो चेतना भी हमारे शरीर से उठी है। तुम प्रकृति से मुक्त कैसे हो जाओगे? तुम्हारे शरीर पर अगर चोट लग जाए, ख़ास तौर पर यदि मस्तिष्क में कोई आकर हथौड़ा मार दे तो कहाँ गई चेतना? बड़ी-बड़ी बातें करते थे, कहाँ गई बुद्धि? कहाँ गई?

तो मनुष्य को यह समझना होगा कि है तो वह प्रकृति पुत्र ही। और यह जो माँ है, शरीर माँ है जिससे चेतना उठती है—शरीर माँ है और चेतना पुरुष है—इसकी अवहेलना करके तुम कहीं पहुँच नहीं सकते, कम-से-कम तुम कोई विजय नहीं पा सकते। शरीर को भी माँ बोल सकते हो, संसार को भी माँ बोल सकते हो, क्योंकि शरीर भी कहाँ से उठा है? मिट्टी से उठा है न संसार की।

तो तुम्हें अपनी स्थिति याद रखनी है कि देखो, मुझे जो भी जीत हासिल करनी है, वह इन सीमाओं के मध्य रहकर ही हासिल करनी है। असीम को भी मुझे अगर प्राप्त करना है तो सीमाओं के मध्य, अपनी स्थिति को ध्यान में रखकर। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि मैं असीम हो गया। मैं इस आधार पर अपना खेल नहीं खेल सकता कि मैं तो असीम हूँ। तुम नहीं हो। तुम भूलो मत अपना यथार्थ। तुम सत्य तक कैसे पहुँच जाओगे अगर तुम्हें अपने तथ्य ही नहीं पता? तो अपने तथ्यों को मत भूलना। तथ्य माने प्रकृति।

हम कल्पना में जीते हैं, कल्पना माने विकृति। प्रकृति तुम्हें सत्य तक पहुँचा देगी। मैं कहा करता हूँ न, फैक्ट्स आर द डोर टू ट्रुथ (तथ्य सत्य का द्वार हैं)। वह दूसरे अर्थों में, दूसरे शब्दों में यह बात है कि शक्ति ही शिव का द्वार हैं। फैक्ट्स आर द डोर टू ट्रुथ , तथ्य सत्य का द्वार है। प्रकृति परमात्मा का द्वार हैं; शक्ति शिव का द्वार हैं।

जो तथ्यों में नहीं जी सकता और पहला तथ्य यह है कि तुम्हारी चेतना जो मुक्ति माँग रही है वह है तो सांसारिक ही। जन्म उसका यहीं पर हैं, जैसे कबीर साहब कहते हैं न कि 'नैहरवा हमको ना भाए'। मायका तो यहीं है, जन्म तो यहीं हुआ है। हाँ, तुम्हें पहुँचना है 'साईं की नगरी परम अति सुंदर’, वह बात कर लेंगे लेकिन वह बात अलग है। पहली बात यह याद रखो कि मायका, माने माँ तो यहीं हैं। हाँ, अब यह तुमको नहीं भा रहा क्योंकि यहाँ पर कई तरह के तुमको बंधन प्रतीत होते हैं, वह बात ठीक है।

साईं की नगरी अगर तुम्हें जाना भी है तो तुम्हारी डोली कहाँ से उठनी हैं? मायके से भाग जाओगे तो डोली कैसे उठेगी? मायके में ही लड़ बैठोगे तो ब्याह कैसे होगा? तो डोली उठवाना अगर तुम्हारा लक्ष्य हो तो मायके में ज़रा मर्यादा से रहना सीखो। जो तुम्हारा पार्थिव पिता है, जो तुम्हारी ये पार्थिव माता है प्रकृति, इससे संघर्ष करके तो तुम्हारी डोली कभी नहीं उठने की। साथ-ही-साथ अगर तुम इसी में लिप्त रह गए तो भी डोली कभी नहीं उठने की। मायका ही बहुत पसंद आ रहा है तो साईं की नगरी फिर जाओगे ही काहे को। तो साईं की नगरी जाना ज़रूर है लेकिन वहाँ जाने के लिए यह आवश्यक है कि मायके में सम्यक संबंध रखा जाए।

तुम ऐसे भी कह सकते हो कि जिन्हें दूसरे लोक वाले अपने साईं से, अपने पति से, परमात्मा से, सत्य से जितना ज़्यादा प्रेम होता है, वे उस प्रेम की खातिर ही इस अपने सांसारिक लोक में, मायके में सही संबंध रखते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि यहाँ अगर सही संबंध नहीं रखा तो वहाँ पहुँचने में देर हो जाएगी। वहाँ जाना है, वहाँ प्रेम है तो यहाँ मामला ठीक रखो।

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