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साक्षित्व का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत, उपनिषद् पर (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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बिहाय वैरिणं काम्मर्थं चानर्थसंकुलं।

धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रादरं करु।।

अष्टावक्र गीता

(अध्याय १०, श्लोक १)

आचार्य प्रशांत काम को छोड़कर, जो कि शत्रु है, अर्थ को छोड़कर, जो अनर्थ से एकत्रित किया जाता है, और धर्म को छोड़कर, जो, उन दोनों का कारण है, सब के प्रति,अनादर से भर जाओ।

आम तौर पर हमने, इनको, जीवन का लक्ष्य माना है। पुरुषार्थी के लिये, प्राप्य माना है: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। माना यह गया है कि अर्थ रहेगा, काम रहेगा और धर्म रहेगा, तो अंततः मोक्ष उतरेगा। एक यात्रा बना दिया गया है जीवन को, जिसमें कामनाओं की पूर्ति होनी चाहिये, जिसमें अर्थ का संचय होना चाहिये, और जिसमें, धर्म के नाम पर, ऐसा एक मार्ग होना चाहिये, जिसमें अर्थ और काम के लिये स्थान हो। यह भ्रम है, और ये आदमी के मन की चाल है। अष्टावक्र सीधे-सीधे इसी झूठ का पर्दा फ़ाश कर रहे हैं।

वो कह रहे हैं कि पहली बात तो यह कि काम की प्राप्ति, का मोक्ष से कोई लेना-देना हो नहीं सकता। तो काम किसी भी तरीके से, पुरुषार्थो में शामिल किया नहीं जा सकता। साफ-साफ कह रहे हैं, कि काम वैरी है तुम्हारा, समस्त कामना, मानसिक, दैहिक, सब।

काम में और अर्थ में कोई विशेष अंतर है नहीं, क्योंकि मन के लिये, ‘अर्थ’ वही है जिसकी पहले उसे कामना उठी हो। एक ही हैं दोनों, काम और अर्थ। एक थोड़ा स्थूल, एक थोड़ा सूक्ष्म लग सकता है, पर मूलतः दोनों एक ही हैं, ‘काम और अर्थ।’

हमने बड़ी से बड़ी गलती ये की है कि हमने, ‘धर्म’ को, काम और अर्थ को प्राप्त करने का साधन बना लिया। मन, समाज, तो ये चाहता ही था, पुरोहितों ने तो इसमें सहायता की ही, कुछ शास्त्र भी ऐसे उभर कर आ गए, जिन्होंने, यह मिथ्या प्रचार बनाए रखा कि धर्म वो, जिससे अर्थ, और काम की सिद्धि होती हो।

अष्टावक्र वही कह रहे हैं कि यदि धर्म वो है, जो अर्थ की और काम की सेवा में लगा हुआ है, तो अर्थ को, और काम को ही नहीं, ‘धर्म’ को भी त्याग दो। अर्थ को और काम को ही नहीं, ‘धर्म’ को भी त्याग दो। क्योंकि जिस ‘धर्म’ को हम जानते हैं, वो और कुछ नहीं है, वो कमाना पूर्ति का हेतु भर है।

हम मंदिरों में जाते हैं, अपनी इच्छाएँ तृप्त करने। हमारी प्रार्थनाओं में हमारी वासनाएँ बैठी होती हैं। अपनी इच्छा अनुरूप ही, हम अमूर्त की मूर्तियां भी गढ़ लेते हैं।

आज यदि यह स्पष्ट कर दिया जाए, कि हमारी इच्छाएँ, तो सिर्फ हमारे, पूरे संस्कारों से, कंडीशनिंग से निकलती हैं, वही हमारा बोझ हैं, वही हमारी बीमारी हैं, और ‘धर्म’ के जगत में, हमारी इच्छाओं के लिये, कोई स्थान नहीं है। यह बात साफ़-साफ़ स्पष्ट कर दी जाए। धर्मगुरुओं के यहां जितनी भीड़ लगती है, वो पूरी की पूरी छट जाएगी। हमारे मंदिर खाली हो जाएगे। हमारे त्योहारों को कोई नहीं पूछेगा।

आप ध्यान दीजिये, हर त्यौहार के साथ इच्छापूर्ति जुड़ी हुई है। आप ध्यान दीजिये कि हर प्रार्थना में कामना बैठी हुई है। आप ध्यान दीजिये, हर जप, हर तप, साधना के हर अंग के पीछे, बैठा तो अहंकार ही है, जो किसी तरह अपने आप को, तृप्त करना चाहता है। यह झूठा ‘धर्म’ है। अष्टावक्र कह रहें हैं, तुरंत त्यागो इसको।

जो ‘धर्म,’ अर्थ की और काम की चाकरी बजाता हो, उसको तुरंत त्याग दो, और यह अच्छा संदेस है हम सब के लिये, क्योंकि इससे पता चलता है कि आज ही नहीं,सदा से, आदमी के मन ने, ‘धर्म’ के साथ खिलवाड़ ही किया है। कोई यह न सोचे कि आज का समय, कोई विशेषतया भ्रष्ट समय है। बात समय की है ही नहीं, बात आदमी के मन की संरचना की है। मन हमेशा से ऐसा ही रहा है। आप उसे कुछ भी देंगे, आप उसे धर्म देंगे, आप उसे शास्त्र देंगे, आप उसे ऊंचे से ऊंचे सूत्र देंगे, वो उन सब का उपयोग, करेगा एक ही दिशा में। जो मुझे वाँछित है, वो मुझे चाहिये। यही एक मात्र दिशा है, जिसमें मन अपने समस्त संसाधनों का उपयोग करेगा। आप उसे जो कुछ भी देंगे, भले ही आप, वो उसे, उसकी सफाई के लिये दे रहें हों, पर वो उसको, अपना एक संसाधन, अपना एक हेतु ही बना लेगा। इंसान ने हमेशा यही किया है।

धर्मग्रंथो का दुरुपयोग कर के, जीतनी लड़ाइयाँ लड़ी गई हैं, और जितने नारकीय काम किये गए हैं, उतने अन्यथा नहीं किये जा सकते थें। एक बार आप ये कहने लग जाएँ की, आपका कर्म शास्त्र सम्मत है। उसके बाद, आपके मन के विस्तार की कोई सीमा नहीं रहती। उसके बाद, आपके कर्म पर कोई पाबन्दी नहीं रहती। शास्त्र सम्मत हो गया है न ? और इंसान ने यही किया है।

हिटलर के एक अधिकारी को, भगवत गीता बहुत पसंद थी। वो कहता था कि *दी गीता इज अ फैंटास्टिक डॉक्यूमेंट इन कोल्ड ब्लडेड किल्लिंग (गीता क्रूर-हत्या में शानदार दस्तावेज है)* उसको मारने हैं, लाखों यहूदी मारने हैं। नृशंसता से हत्या करनी है। उसको गीता बहुत भाती थी। “दी फैंटास्टिक डॉक्यूमेंट इन कोल्ड ब्लडेड किल्लिंग।”

‘अष्टावक्र’ कह रहे हैं त्याग दो, यदि धर्म का ये अर्थ है, तो धर्म के इस रूप को, तुरंत त्यागो। ये मोक्ष तक नहीं ले जा पाएगा। ध्यान दीजिये, जो कुछ त्याज्य है,उसकी उन्होंने बात करी, काम, अर्थ, और वो धर्म, जो उन दोनों की सेवा में लगा हुआ है। मोक्ष की बात ही नहीं करी ‘अष्टावक्र’ ने। इनको त्यागना ही मोक्ष है। उसके अलावा वो और कुछ नहीं है। इनको त्याग दिया, तो उसके बाद, अब किसी और मोक्ष की साधना की जरुरत नहीं है। अब कुछ और पाने नहीं निकलना पड़ेगा। इसके बाद तो जो उपलब्ध ही है, वो स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। जीवन उसी में बीतेगा। उसी का नाम मोक्ष है।

मोक्ष प्राप्ति नहीं है, मुक्ति है; उससे, जिसका आपने संचय कर रखा है। प्राप्त तो बहुत कुछ हम करे बैठे हैं। मोक्ष प्राप्ति नहीं है, प्राप्ति से मुक्ति है।

और यही कह रहे हैं ‘अष्टावक्र,’ मुक्त हो जाओ उससे, जो प्राप्त करे बैठे हो। काम अर्थ और उनका साधन रूपी धर्म।

क्या है वास्तविक धर्म? इतना तो साफ़ है कि हमारी इच्छाओं की पूर्ति का नाम धर्म नहीं हो सकता। मुझे और रूपया चाहिये, और पैसा चाहिये, मुझे बच्चा चाहिये, मुझे बड़प्पन चाहिये, मुझे पद-प्रतिष्ठा चाहिये। जो कुछ ये दिलाने का वादा करे, वो तो ‘धर्म’ नहीं हो सकता। वो तो कोई दुकान होगी। हाँ, ये सब दिलाने का, जो ‘धर्म’ वादा करे, उस ‘धर्म’ की दुकान पर, भीड़ खूब लगेगी। तो अगर आपको अपने अनुयायियों की, मतावलंबियों की, संख्या बढ़ानी हो, तो फिर आपको ये दावा करना ही पड़ेगा।

हमारे यहाँ आइये, आप मालामाल हो जाएँगे। हमारे यहाँ आइये, आपका वैभव खूब बढ़ेगा, इज्जत बढ़ेगी, हमारे यहाँ आइये, हमारे पास इच्छापूर्ति मन्त्र है। ये सब दुकानदारी में बातें बहुत सहायक होंगी, पर ये धर्म की भाषा नहीं है।

धर्म फिर है क्या? धर्म का पर्याय है ‘औचित्य’। क्या धर्म है, ये प्रश्न बिलकुल यही है कि ‘क्या उचित है?’

क्या उचित है? कभी भी, किसी भी स्थिति में, मन के लिये, वही उचित है, जो उसे, उसके केंद्र की ओर ले जाता हो। मन यदि केंद्र पर अवस्थित ही हो, तो ये सवाल ही अर्थहीन हो जाएगा, कि क्या उचित है, या क्या अनुचित है। ये सवाल उठेगा ही नहीं।

आत्मा के रस में डूबे हुए मन में, इस प्रश्न के लिये, कोई जगह नहीं होती। क्या उचित है? क्या अनुचित है? जिस मन में ये प्रश्न अभी उठ रहा है, निश्चित रूप से, वो थोड़ा बिखरा हुआ है,थोड़ा भटका हुआ है, केंद्र से, अपने घर से, जरा दूर है। उसी के लिये ये प्रश्न मायने रखता है, क्या उचित है? क्या अनुचित है? क्या धर्म? क्या अधर्म?

एक ही ‘धर्म है’, वो, जो वापस आपको आपके घर तक ले जाए। जो मन को आत्मा तक ले जाए। जो अहंकार को परमात्मा तक ले जाए, वही ‘धर्म’ है, उसके अलावा ‘धर्म’ नहीं।

इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति, तो उठती है, अपूर्णता के भाव से। आप कब कहते हो कि मुझे अपनी कामनाएँ पूरी करनी हैं, मुझे अर्थ चाहिये, ये आप कब कहते हो? ये आप तब कहते हो, सर्वप्रथम आपको यह भाव उठता है कि कोई कमी रह गई।

अनन्त पूर्णता है ‘परमात्मा,’ और अनन्त पूर्णता का भाव ही है ‘परमात्मा’ में स्थित होना। क्या है केंद्र से भटकना? किसको हम कहते हैं कि मन, अभी घर में नहीं है अपने? ज्यों ही कोई अपूर्णता का भाव उठता है, त्यों ही आप अपना केंद्र छोड़ कर के, संसार में स्थित हो जाते हैं।

काम और अर्थ, जब उठे ही, अपूर्णता, के एक भ्रामक एहसास से हैं, तो उनके पीछे कैसे जाया जा सकता है?

भ्रम का पीछा करने से भ्रम नहीं मिटता। भ्रम मिटता है, भ्रम को भ्रम जानने से।

रेगिस्तान में होते हैं आप, और मृग-मरीचिका के भ्रम में फँसे हुए हैं। जहाँ पानी नहीं है, उस दिशा में भागने से, न तो पानी मिलेगा, न प्यास बुझेगी। जो है ही नहीं, उसकी प्राप्ति के लिये यत्न करने से फायदा क्या? बल्कि यत्न कर-कर के ही, आप यह और सिद्ध किये जाते हो कि वो है। झूठी बीमारी का इलाज कर-कर के, आप उसे सच्चा बनाए जाते हो। जो कमी है नहीं जीवन में, उस कमी की पूर्ति की कोशिश कर-कर के, आप उस कमी को मान्यता दिये जाते हो। समझो बात को। जो कमी है नहीं, आप निरंतर लगे हुए हो, यही जीवन का उद्देश्य बना हुआ है, कुछ पा लूँ, कुछ पा लूँ। पाने के पीछे भाव है कि कुछ कमी है। अब कमी नहीं है, लेकिन आपका पूरा श्रम, उस कमी को मान्यता दे दे कर, उसको स्थापित किये हुए है।

आप कमी को पूरा करने की कोशिश छोड़ो, कमी ही खत्म जो जाएगी।

ये वो कमी नहीं है, जो मिटती है, कुछ पा कर के। ये वो कमी है, जो मिटती है, कमी के भाव को ही मिटा कर के। तो धर्म कभी वो हो नहीं सकता, जो आपके अन्दर के अपूर्णता के भाव को, प्रोत्साहन दे, मान्यता दे। जो धर्म आपसे कहता हो कि बच्चा, जो तुझे चाहिये, वो मिलेगा। उस ‘धर्म’ से बचें।

‘धर्म’ वो है, जो मन को, उस दिशा ले चले, जहाँ मन को, सहज ही दिखने लगे कि क्या पाना है? मन गहरे में कृतज्ञता के भाव से भर जाए। मन देखे कि अनुग्रह की ही वर्षा है, और कहे, जो कुछ मिलने लायक था, सब तो मिला हुआ है। अब और क्या पाना है! कहाँ कोई कमी है! मन से एक धन्यवाद उठे, माँग नहीं, ‘धर्म’ वो है।

‘धर्म’ वो नहीं है, जो अपूर्णताओं को पूर्ण करता हो। धर्म वो है, जो अपूर्णताओं को विसर्जित कर देता हो|

‘धर्म’ वो है जो आपसे कहे कि हँसों, अपने ही मन पर हँसों कि मुझे जो चाहिये नहीं, मैं वही मांग रहा था। हँसों अपने ऊपर कि अमूल्य राशि तुम्हारे पास थी, लेकिन तुम दो रुपए, चार रुपए के लिये भटक रहे थे। ‘धर्म’ वो है। ऐसा धर्म, साधनों, के उपयोग पर निर्भर नहीं रहता।

अष्टावक्र उनमें से नहीं हैं जो आपको तरीके बताएँगे, जो साधन बताएँगे। ‘अष्टावक्र’ आपसे सीधे कहेंगे आँखें खोलो और देख लो, क्योंकि साधनों के उपयोग में भी एक भ्रम को मान्यता दी जा रही है। वो भ्रम ये है कि देखना बड़ा मुश्किल है। वो भ्रम ये है कि हम इतनी दूर आ गए हैं कि समय लगेगा। ‘साधन’ का अर्थ है समय। ‘साधन’ का अर्थ है, अभी कोशिश करो, कल मिलेगा। ये भी भ्रम है। इतनी दूर आप कभी नहीं आ गए होते कि बहुत समय लगे।

जो मन छिटका है, संकल्प भर कर ले वो, तो बोध अभी है, क्योंकि आप कहीं पर भी हैं, ध्यान की शक्ति कभी आपसे नहीं छिनी।

कैसी भी आपने अपनी अवस्था, मान रखी हो, बना रखी हो। लेकिन प्रत्येक अवस्था में, ध्यान की ताकत तो आपको उपलब्ध है ही। जीवन को आपको ध्यान से और ईमानदारी से, देखना ही है, और देख कर जो दिखे, उसको अस्वीकार नहीं कर देना है फिर। यही ‘मोक्ष’ है।

सच्चाई की ताकत से, सच्चाई को देखो, और फिर सच्चाई की ताकत से, सच्चाई में जियो। यही ‘मोक्ष’ है।

उसी की ताकत है, जो आपको सामर्थ्य देगी कि आप उसे देख सकें। अपनी ताकत से आप उसे नहीं देखते हैं। तो फिर साधन कैसा चाहिये? उसको देखना है, उसी की ताकत से देखना है, तो इसमें आपके हेतु की, जरुरत कहाँ पड़ गई?

क्या ‘सत्य’ ने शर्त रखी है कि मुझ तक आने के लिये, तुम्हें इन-इन बाधाओं को पार करना पड़ेगा? नहीं, ये शर्त, अगर है भी, तो सत्य ने तो नहीं रखी है। ये शर्त तो आपके अपने मन से उद्भूत है। ‘ये शर्त ही भ्रामक है’। ‘सत्य’ ने तो अपने दरवाजे कभी नहीं बंद किये। आपने बड़ी कल्पनाएँ कर रखी हैं कि रास्ता टेढ़ा है, लम्बा है, दुविधाएँ हैं, अभी ज़िम्मेदारियाँ हैं, अभी समय नहीं आया है। यह सब आपनेकल्पनाएँ रची हैं न? आपने रची हैं न? आपने जैसे रचीं, वैसे ही उन्हें छोड़ भी दीजिये। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है।

‘मोक्ष’ सहज है, अति उपलब्ध है। ‘मोक्ष’ की कल्पना जटिल है। आप कल्पना जब करेंगे, तो फँसेंगे, और मन, सब कुछ कल्पना में बाँध लेना चाहता है। मोक्ष की भी वो कल्पना ही करता है, ऐसा होगा, वैसा होगा, ये हो जाएगा, वो हो जाएगा, और निश्चित सी बात है, सत्य, मुक्ति, मोक्ष, नहीं आपकी कल्पना में समाएँगे। वो इतने सहज, इतने सरल, कि आपकी मन की जटिलता, में उनके लिये कोई स्थान नहीं हो सकता। वो समाएँगे ही नहीं। इसलिए नहीं समाएँगे कि वहाँ कोई गुत्थी है,जो आपकी समझ में नहीं आएगी। वो इसलिए नहीं समाएँगे , क्योंकि वहाँ इतनी सरलता है कि आपकी जटिलता की पकड़ में नहीं आएगी। वो बात इतनी सीधी है, और इतनी साफ़ है कि हम उसे देख कर भी, अनदेखा कर जाएँगे। हमें तो गुत्थियों की तलाश है, जटिलता की तलाश है, कठिनाई की तलाश है, साधना की तलाश है। जो उपलब्ध ही है, जो स्पष्ट ही है, जो समीप से समीपतर है, वो हमें कब दिखा है?

काम को समझें, अर्थ को समझें, और जो ‘धर्म’, इन दोनों की पूर्ति, का साधन मात्र हो, ऐसे ‘धर्म’ को त्याग दें। यही संदेस है।

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