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लेख
दस जगहों पर भटक रहा है मन?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मन सही समय पर सही निर्णय ले पाने में अक्षम है और तरह-तरह के लक्ष्यों में भटकता रहता है।

आचार्य प्रशांत: मन बाहर तरह-तरह के लक्ष्यों में इसीलिए भटकता रहता है क्योंकि मन को भीतर यह नहीं पता कि कौन सी एक चीज़ है जो उसको चाहिए। बाहर जितने भी लक्ष्य बनाते हो, बाहर जितनी भी चीज़ें आकर्षित करती हैं वह भीतर बैठे किसी चीज़ का प्रतिबिंब होती हैं।

अगर भीतरी तौर पर यह नहीं पता है कि कौन सी चीज़ जीवन में कीमती है तो बाहर भी कौन सी चीज़ कीमती है, क्या पाना चाहिए, किस लक्ष्य के पीछे समय, जीवन, ऊर्जा लगानी चाहिए यह स्पष्ट नहीं होगा। पर कुछ-न-कुछ तो करना ही है। मन, शरीर, ज़िंदगी यह सब गति के ही नाम हैं तो फिर उल-जलूल और अस्थाई लक्ष्यों के पीछे आदमी भागने लग जाता है। समझ में आ रही है बात?

पता नहीं है कि बाहर क्या चाहिए, किसकी तरफ बढ़े और चूँकि जीवन है तो एक जगह खड़े भी नहीं रह सकते तो फिर व्यक्ति किसी भी उटपटांग दिशा में बढ़ने लग जाता है और दिशा चूँकि मूल्यहीन है, व्यर्थ है तो उसकी तरफ बहुत देर तक चल भी नहीं पाता है। थोड़ी देर में रास्ते बदल कर, लक्ष्य बदल कर, मन बदल कर किसी और तरफ देखने लग जाता है, उधर को बड़ लेता है। और सवाल हम यही पूछते हैं कि हमें अपना लक्ष्य बाहर का पता नहीं चल रहा।

इसमें जो मूल सिद्धांत हैं उस पर ध्यान दो। बाहर तुम क्या लक्ष्य बनाते हो यह इस पर निर्भर करता है कि भीतर तुम किस चीज़ को मूल्य देते हो। सीधी सपाट बात है। और बाहर अगर तुम्हारे पास तीस-चालीस-पचास लक्ष्य हैं जो बनते बिगड़ते रहते हैं तो इसका अर्थ यह है कि भीतर भी तुम पचास चीज़ों को मूल्य देते हो और उन पचासों चीज़ों में से किसी भी एक चीज़ को बहुत मूल्य नहीं देते, पूरा मूल्य नहीं देते।

ज़िंदगी में कोई भी ऐसी बात नहीं है जो तुम्हें प्राणों से ज़्यादा प्यारी हो, जो तुम्हारे लिए इतनी कीमती हो कि उसके पीछे तुम सब कुछ छोड़ सकते हो। जिसकी ऐसी हालत होती है वह थाली का बैंगन हो जाता है, जिधर को थोड़ा सा लालच दिखा उधर को बड़ लिए, जिधर गए थोड़ा घाटा हुआ, थोड़ी तकलीफ, थोड़ी चुनौती मिली उधर से भग लिए। और ऐसे ही ज़िंदगी उसकी चलती रहती है।

उसके पास कुछ नहीं होता, जीने के लिए केंद्रीय आधार। उसके पास कुछ नहीं होता जो उसे लगातार ही याद बना रहता हो। फिर उसका मन बिलकुल सड़क के यातायात जैसा होता है, गाड़ियाँ आ रही हैं जा रही हैं, किसी भी गाड़ी का किसी दूसरी गाड़ी से कोई विशेष संबंध नहीं है। कभी यातायात ट्रैफिक बहुत बढ़ गया, कभी कम हो गया, रात के वक्त थोड़ा कम हो गया, सो लिए और सब जो गाड़ियाँ हैं वह एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी जा एक ही दिशा में रही हैं, आ भी एक ही दिशा से रही हैं।

ऐसा होता है आम व्यक्ति का मन, कि जैसे कोई यह न जानता हो कि उसको चाहिए क्या और किसी बाज़ार में पहुँच जाए और वहाँ जो कुछ भी है वही उसको कभी इधर खींचता है, कभी उधर खींचता है।

आंतरिक स्पष्टता ज़रूरी है। आंतरिक रूप से अगर तुम्हारे पास कुछ ऐसा नहीं है जो तुम्हारे ज़हन पर लगातार छाया रहता हो, जिसकी याद तुम कभी भूल ना पाते हो तो ज़िंदगी में बड़ी दुर्गति रहेगी क्योंकि मन में कुछ-न-कुछ तो चलते ही रहना है। फिर कुछ ही चलता रहेगा, कुछ भी चलता रहेगा।

कोई एक मूल सशक्त केंद्रीय भाव तो है नहीं, तो फिर क्या है मन में? टूटे-छितराए फुटकर विचार। और जिस वक्त जो विचार है ऐसा लग रहा है कि उस वक्त वही सबसे बड़ी चीज़ है। जैसे कोई बच्चा हो नासमझ उसको बैठा दिया गया है सिनेमा के पर्दे के सामने, और दृश्य आ रहे हैं एक के बाद एक। और बहुत परिवर्तनशील होते हैं उसमें दृश्य। सिनेमा में भी एक सेकंड में तुम्हारे सामने कुछ नहीं तो बीस दृश्य आ जाते हैं। तभी तो लगता है जो हो रहा है वह लगातार हो रहा है।

तो जो भी दृश्य आ रहे हों उस बच्चे के सामने, उसको वही दृश्य बिलकुल पकड़ ले रहे हैं। उसको लग रहा है यही तो असली चीज़ है। अभी सामने से घोड़ा दौड़ रहा है पर्दे पर, बच्चा उसी में बिलकुल खो गया, लिप्त हो गया, और खट से दृश्य बदल जाता है जैसे संसार में दृश्य बदलते हैं। एक नदी दिखाई देने लगती है, एक पहाड़ दिखाई देने लगता है, कहीं गोलियाँ चलने लगती हैं, कहीं कुछ नाचने-गाने का हँसने का कार्यक्रम होने लगता है, कहीं कोई बीमार हो जाता है, कहीं कोई बिछड़ जाता है, मर जाता है।

और सामने जो भी दृश्य आ रहा है बच्चा उसी में पूरे तरीके से घिर जा रहा है। उसके पास जैसे कोई आंतरिकता नहीं है कुछ, अपना नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है जो पर्दे से आते दृश्यों से बिलकुल बड़ा हो, इतना बड़ा हो कि परदे से जो कुछ भी उसके पास आ रहा है उससे वह बड़ी चीज़ अस्पर्शित रहे। वह इतना बड़ा मुद्दा, इतना बड़ा मुद्दा कि सिनेमा पर जो भी चल रहा है वो मुद्दा एकदम छोटा, महत्वहीन पता चले।

तो जब वह इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण चीज़ जो सदा याद रहे, जो सदा ज़हन पर छाई रहे, जो ज़िंदगी का एक सतत और केंद्रीय मुद्दा हो, वह नहीं है आपके पास तो फिर यही होगा — जब जो चीज़ सामने होगी वही चीज़ आपके लिए सब कुछ हो जाएगी। कुल मिला-जुला कर लेकिन ज़िंदगी का निष्कर्ष निकलेगा एक बर्बादी, व्यर्थता।

तो बाहर के लक्ष्यों में से किसको चुने यह मत पूछिए या बाद में पूछिएगा, पहले यह पूछिए कि भीतर जो कुछ चल रहा है उसमें से कितना, महत्वपूर्ण है मूल्य देने लायक है, और कितना है जो कचरा है।

शुरू में ही हमने कहा था कि बाहर आपको जो भी कुछ आकर्षित करता है, वह भीतर का ही प्रतिबिम्ब है। भीतर की सफाई कर ली तो बाहर की पचास चीज़ें आपको खींचना ही बंद कर देंगी।

और भीतर कैसे पता चले कि क्या महत्वपूर्ण है? उसके लिए विशेष कोशिश करनी पड़ती है क्योंकि आदमी और आदमी के मन की संरचना ऐसी है ही नहीं कि वह प्राकृतिक तौर पर योग्य हो या ज़रूरत अनुभव करे खुद को देखने की, भीतर जाने की, अंतर-गमन की।

आदमी में प्राकृतिक तौर पर वह योग्यता विकसित है ही नहीं तो इसीलिए बाहर की कोई चीज़ हो उसको हम आसानी से देख लेते हैं, उसके बारे में चर्चा कर लेते हैं, अनुसंधान भी कर लेते हैं, खोज-बीन कर लेते हैं लेकिन मन क्या चीज़ है, कहाँ से आती है कहाँ को जाती है, क्यों उसको कुछ कीमती लगता है, क्यों किसी चीज़ को वो भूल जाती है यह जानने-समझने की हमको कोई पैदाइशी, प्राकृतिक या सामाजिक शक्ति उपलब्ध नहीं है। इस मामले में इंसान बड़ा लाचार बेसहारा है।

उसका निर्माण कुछ इस तरह से हुआ है कि बाहर-बाहर जो चीज़ें दिखवानी हों दिखवा लो। बुद्धि खूब चलती है बाहर की तरफ। विज्ञान है, टेक्नोलॉजी है, बताओ बाहर का क्या पता करना है, मन लग जाएगा उधर को देखने में और उधर को देखने में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो गई क्योंकि प्रकृति ने आपको रचा ही ऐसा है कि आप बाहर देखे ही लोगे।

तो कोई बाहर देख रहा है, कोई दूसरा है जो बाहर उससे और दूर तक देख ले रहा है। इसमें यह दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति से बेहतर तो है पर है उसी के तल का। जैसे कि एक सड़क हो, एक सड़क पर दो व्यक्ति खड़े हैं, एक आदमी उस सड़क पर देख ले रहा है आगे पाँच-सौ मीटर तक, दूसरा देख ले रहा है पाँच किलोमीटर तक। दूसरा पहले से बेहतर तो है लेकिन ले-दे कर देख तो वह भी उसी सड़क पर रहा है, थोड़ा और आगे तक। उसका रास्ता अलग नहीं हो गया, उसकी दृष्टि अलग नहीं हो गई।

अलग वह व्यक्ति है जो कुछ ऐसा कर ले जाए जिसके लिए हमें शारीरिक-प्राकृतिक तौर पर, जन्मगत तौर पर तैयार किया ही नहीं गया है। सोचने को आप ऐसे भी सोच सकते हैं कि आदमी के निर्माण में ही कुछ खोट है।

असली आदमी वह है जो अपनी शरीरगत और मानसिक दुर्बलताओं को चुनौती दे करके वह कर डाले जो उससे उसका शरीर कभी करवाना चाहता ही नहीं था। अब यह बात सुनने में ही अजीब लगती है न, यह कैसे हो जाएगा! भाई एक मशीन है वह, वो काम कैसे करना शुरू कर देगी जिस काम के लिए उसको रचा ही नहीं गया है? उसका डिज़ाइन, उसकी अभिकल्पना ही ऐसी नहीं है कि मशीन वह काम करे। वह कैसे वह काम शुरू कर देगी?

और नहीं कर सकती, कोई मशीन ऐसी नहीं है जो अपने उद्देश्य से अलग हटकर बल्कि अपने उद्देश्य के विपरीत, अपने उद्देश्य से ऊँचे किसी तल में कोई और काम करना शुरू कर दे। कोई मशीन ऐसा नहीं कर सकती। वह तो वही करती है जिस चीज़ के लिए उसका निर्माण हुआ है। पर आदमी चैतन्य जीव है न। अजीब सी उसकी चेतना है, आधा चैतन्य है आधा वह जड़ है, यांत्रिक है। और हम जब अभी बात कर रहे हैं तो इस बातचीत का पूरा उद्देश्य चेतना को राहत और शांति पहुँचाना है।

जिस हद तक हम मशीनें हैं उस हद तक यह बातचीत आपके किसी काम नहीं आ सकती। उदाहरण के लिए अगर आपके शरीर की कोई हड्डी छोटी है तो बिलकुल ऐसा नहीं होने वाला कि आप यह चर्चा सुनेंगे और उस हड्डी की लंबाई बढ़ जाएगी। लेकिन अपने शरीर की किसी छोटी हड्डी को लेकर के आपकी चेतना अगर परेशान रहती है तो ज़रूर इस बातचीत से कुछ लाभ हो सकता है।

तो यह सारी बातचीत आदमी के उस हिस्से के लिए की जा रही है जो मशीनें नहीं है, जो चैतन्य है। और उस हिस्से को संबोधित करके अभी कहा जा रहा है कि जब तक तुम मशीन के क्रियाकलापों को चुनौती नहीं दोगे, हिम्मत नहीं दिखाओगे, कुछ ताक़त नहीं बढ़ाओगे अपनी, तब तक तुम परेशान रहोगे ही।

यह बातचीत इसीलिए हो रही है न, किसी को राहत देने की ज़रूरत तब पड़ती है न, जब वह परेशान हो। यह सारी बातचीत अगर इसलिए है, सारा अध्यात्म अगर इसलिए है कि लोगों को शांति मिले, राहत मिले तो प्रकट बात है कि लोग परेशान हैं। परेशान इसीलिए है क्योंकि हमें जैसे रचा गया है तो हम पर ज़िम्मेदारी आ गई है कि हम वह कर डालें जो करने के लिए शायद हमें रचा ही नहीं गया है। मुश्किल लग रहा है न? पर करना पड़ेगा।

अध्यात्म इसीलिए ईश्वर की प्राप्ति वगैरह का काम नहीं है, अध्यात्म सीधे-सीधे एक कमज़ोर आदमी को ताकतवर बनाने का काम है। और हम कुछ ऐसे अजीब लोग हैं कि हमें यह लक्ष्य दे दिया जाए कि सात आसमानों पार जो ईश्वर बैठा है उसे हासिल करना है तो हम तैयार हो जाएँगे, कहेंगे, "बढ़िया है!" हमें ऐसा लक्ष्य दे दिया जाए कि तुम्हें अपने शरीर से ही बाहर छलांग मार कर के तीन लोकों का भ्रमण करना है तो हम कहेंगे, "बिलकुल हम ये काम करना चाहते हैं।"

लेकिन अगर हमसे कह दिया जाए कि, "तुम भीतर से कमज़ोर हो, बीमार हो, तुम्हें ताक़तवर बनना है।" तो हम कहेंगे, "नहीं यह काम नहीं करना है हमको!" यह काम मुश्किल तो है ही और चूँकि यह काम मुश्किल है इसीलिए इसमें अधिकांश लोगों को सहारा चाहिए, उसी सहारे का नाम है आध्यात्मिक ग्रंथ।

मैं इसलिए बार-बार कहता हूँ कि ज़िंदगी आप नहीं जी पाओगे सशक्त तौर पर अगर आप आध्यात्मिक ग्रंथों के पास नहीं हो। बहुत लोगों को बात समझ में नहीं आ रही है मेरी। वह कहते हैं — नहीं साहब क्या ज़रूरत है? हमें तो कोई खास तकलीफ नहीं है। जिन्हें कोई ख़ास तकलीफ नहीं है उनसे मैं कहता हूँ — मौज मारो, बाद में बात करेंगे। और एक फिर दूसरी कोटि के आते हैं वह कहते हैं — तकलीफ तो है लेकिन हम इलाज खुद ही कर लेंगे। या वह कहते हैं कि, "हाँ तकलीफ तो है पर हमें बहुत ज़्यादा भी इस बात पर भरोसा नहीं है कि तकलीफ दूर करने के लिए ग्रंथ पढ़ना ज़रूरी है।" उनको समझा रहा हूँ।

काम बहुत मुश्किल है, अकेले नहीं कर पाओगे इसलिए ग्रन्थ चाहिए भाई। इस मशीन को अपने खिलाफ जाना है, नहीं हो पाएगा। और कभी किसी ने कर लिया होगा तो करोड़ों-अरबों में एक होगा न। किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व का या किसी विशेष संत या ऋषि का नाम लेकर के तुम सिद्ध करोगे कि, "उन्होंने तो कर लिया था, वह तो अपने भीतर प्रवेश कर गए थे, अपने मन को समझ गए थे, अपने मन का कूड़ा कचरा साफ कर लिया था।"

"जो चीज़ आप कह रहे हैं कि जीवन में एक केंद्रीय मूल्य होना चाहिए, उन्होंने उस केंद्रीय मूल्य की पहचान कर ली थी और वो उसी में लगातार डूबे रहते थे, वही चीज़ उनके मानस पर हमेशा छाई रहती थी, तो उन्होंने तो कर लिया था बिना ग्रंथों के।" वो कोई करोड़ों-अरबों में एक होता है न।

आपको यह विनम्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए कि करोड़ों-अरबों में आप शायद नहीं हैं। और फिर जो आदमी परेशान है उसको तो जो भी सहारा मिल रहा हो उसे स्वीकार करना चाहिए, कम-से-कम आज़माना चाहिए। प्रयोग ही करके देख लो, मानो नहीं पर जाँच तो सकते हो।

इतनी तुम किताबें पढ़ते हो दुनिया भर की, उनकी भी किताबें पढ़ते हो जो कहते हैं कोई किताब नहीं पढ़नी चाहिए, तो कम-से-कम उन किताबों को भी पढ़ कर देख लो जिसमें वह बात कही गई है, वह माहौल रचा गया है जो इस मिट्टी की मशीन को मिट्टी से आगे देखने की दृष्टि देता है। वह जब करोगे तभी भीतर सफाई आएगी। और भीतर जब सफाई आ गई तो फिर बाहर कौन-सा लक्ष्य ठीक है, कौन-सा नहीं है ये बात अपने आप स्पष्ट हो जाएगी।

जितने भी लोग इस सवाल से जूझ रहे हैं कि, "ज़िंदगी में किधर को चलें? क्या लक्ष्य बनाएँ? क्या पाने लायक है क्या नहीं? तीन-चार तरह के विकल्प हैं, कौन-सा चुनें?" इस तरह के सवाल सब लोगों के पास होते हैं चाहे वो जवान हों, प्रौढ़ हों, वृद्ध हों, बल्कि बच्चों तक के पास अब ऐसे सवाल होते हैं कि, "निर्णय कैसे लें? डिसीजन मेकिंग !"

उन सभी से मैं कह रहा हूँ — बाहर तुम नहीं उलझे हुए हो। ये भ्रम मत पाल लेना कि तुम्हें बाहर क्या निर्णय लें ये बात नहीं समझ में आ रही, तुम भीतर उलझे हुए हो, तुम भीतर फँसे हुए हो। तुम्हें ये नहीं पता है कि भीतर कौन-सी चीज़ महत्वपूर्ण है। यह ललचाता है, ये लुभाता है, ये चीज़ आकर्षित करती है, वो चीज़ वादा करती है, इसमें से क्या है जो असली है, तुम्हें ये नहीं पता भीतरी तौर पर।

और भीतरी तौर पर वो पता करने के लिए तुम्हें उनकी संगति करनी ही पड़ेगी जिन्होंने अपना पूरा जीवन यही जानने में निकाल दिया। जिन्होंने खुद भी जाना, जिन्होंने दूसरे जानकारों से, ज्ञानियों से भी जाना-सुना, सीखा और जिन्होंने फिर आपके लिए पीछे अपने शब्दों की विरासत छोड़ दी। उनकी संगत करनी पड़ेगी। उनकी संगति किए बिना अगर तुम सोच रहे हो कि भ्रमजाल से खुद ही तुम निपट लोगे, बाहर आ जाओगे तो मुझे यही कहना होगा कि इसकी संभावना लगभग शून्य है, नहीं हो पाएगा।

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