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देह - हमारी साथी या बंधन? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। स वेति वेद्यं न च तस्यारित वेता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥

वह पुरम पुरुष हाथ-पैरों से रहित होकर भी वेगपूर्वक गमन करने वाला है। आँखों से रहित होकर भी देखता और कानों से रहित होकर भी सब सुनता है। वह जानने वाली चीज़ों को जानता है। उसे जानने वाला अन्य कोई नहीं है, उसे ज्ञानी जन महान, श्रेष्ठ आदि कहते हैं।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १९)

आचार्य प्रशांत: हाथ पाँव नहीं है, वेग पूर्वक गमन करता है। आँख नहीं है, सब देखता है। कान नहीं है, सब सुनता है; सब जानता भी है। यह बात क्या है? हाथ पाँव नहीं है, वेगपूर्वक गमन करता है, कैसे? हमारी सोच को चुनौती दी जा रही है, हमारे ढर्रे को ललकारा जा रहा है। हम मानते हैं कि गति करने के लिए अगर हमारे पास हाथ-पाँव हैं तो वो गति करने में सहायक हो रहे हैं, ठीक है न? यही है न सोच हमारी?

हम कहते हैं, "हमें गति करनी है और हाथ-पाँव हैं, इन्हीं के बूते तो हम यहाँ से वहाँ कहीं पहुँच पाते हैं।" यह सामान्य सोच है। इस सामान्य सोच के केंद्र में अहम् बैठा है, वो अहम् कह रहा है, "मेरा शरीर से तादात्म्य है और मैंने बहुत बढ़िया निर्णय किया है शरीर से तादात्म्य करके, क्योंकि देखो शरीर से तादात्म्य किया है तो अब मैं कह पाता हूँ 'मेरे हाथ, मेरे पाँव' और यह हाथ-पाँव उपयोगी हैं न। मुझे यहाँ से वहाँ पहुँचना होता है, हाथ-पाँव मेरे काम आते हैं। तो मैं बिलकुल सही हूँ, मैं बिलकुल सच हूँ।" और यही तो अहम् की अभिलाषा रहती है कि वो अपने-आपको बोल दे कि 'मैं सत्य हूँ'।

तो यह हमारा सामान्य ढर्रा है सोचने का। उसको यहाँ पर चुनौती दी जा रही है, कैसे? यह जो हाथ-पाँव हैं, इन्हीं के कारण तो आप एक स्थान पर बँधे हो न? हाथ-पाँव माने शरीर। आपको आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है एक जगह से दूसरी जगह जाने की? एकदम ज़रा मूलभूत सवाल को देखो। क्यों ज़रूरत पड़ रही है आपको यहाँ से वहाँ जाने की? क्योंकि शरीर एक समय पर एक ही जगह पर हो सकता है, ठीक है न? तो तभी फिर आपको समय का इस्तेमाल करके और हाथ-पाँव का श्रम लगाकर के एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है।

अब आप इसी बात पर बड़े प्रसन्न हो रहे हो कि 'मेरे पास हाथ-पाँव हैं तो देखो मैं गति करके यहाँ से वहाँ पहुँच जाता हूँ'। आप यह पूछ ही नहीं रहे कि गति करने की ज़रूरत क्यों पड़ी। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि तुम किसी एक स्थान पर बंधक रहो ही नहीं? हम बंधक ही तो हैं। आप किसी जगह पर हैं और वहाँ से हिलडुल नहीं सकते, इसको बंधक होना ही कहते हैं न? एक तरह का कारागृह ही है न यह?

शरीर और क्या करता है आपके साथ? कि तुम यहाँ पर हो तो तुम वहाँ नहीं हो सकते। शरीर भी तो आपके ऊपर सीमा लगा रहा है न और कारागृह भी आपके ऊपर सीमा लगाता है। हम लेकिन इसको ऐसे नहीं देखते हैं, हम सोचते हैं कि शरीर हमारी इच्छाएँ पूरी करने का माध्यम है। हम सोचते हैं हाथ-पाँव वो उपकरण हैं जिनका इस्तेमाल करके हम यहाँ से वहाँ पहुँच जाते हैं।

ऋषि कह रहे हैं, 'ऐसे नहीं देखो, तुम यह देखो कि शरीर ही तुम्हारे लिए यह आवश्यक बना देता है कि तुम समय खर्च करो एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने पर, और जब दूसरी जगह पहुँच गए तुम तो पहली जगह पर शेष नहीं रह गए।' तुम माध्यम का प्रयोग करके बहुत प्रसन्न हो रहे हो लेकिन तुम भूल रहे हो कि वो माध्यम ही तुम्हारी राह का रोड़ा है। क्या है माध्यम? शरीर माध्यम है।

तुम प्रसन्न हो रहे हो कि तुम्हें माध्यम मिल गया अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। जहाँ से ऋषि देख रहे हैं वो कह रहे हैं कि यह माध्यम तुम्हें लक्ष्य तक ले नहीं जा रहा, यह माध्यम ही लक्ष्य को तुमसे दूर किए दे रहा है। देहभाव में अहम् क्यों लंबे समय तक स्थापित रह पाता है? इसलिए रह पाता है क्योंकि वो देह को अपने लिए बड़ा लाभप्रद समझता है। वो सोचता है 'देखो, देह है तभी तो पचास तरह के काम हो पा रहे हैं, यह हो पा रहा है, वह हो पा रहा है, देख पा रहा हूँ, अनुभव ले पा रहा हूँ, संबंध बना पा रहा हूँ।'

ऋषि कह रहे हैं कि बात बिलकुल उलट है; देह के कारण तुम पहुँच नहीं पा रहे, देह के कारण ही पहुँचने की आवश्यकता खड़ी हुई है। देह नहीं होती तो ऐसा भी नहीं होता न कि तुम एक ही जगह पर सीमित हो या क़ैद हो। तुम होते ही नहीं अगर, तो कौन सी जगह होती जहाँ तुम नहीं होते?

ऋषि की दृष्टि समझो, वो कह रहे हैं, 'चूँकि तुम हो, इसीलिए एक जगह है जहाँ तुम हो और एक जगह है जहाँ तुम नहीं हो।' तो माने एक जगह पर तुम्हारा होना ही यह सुनिश्चित कर देता है कि तुम बाकी किसी भी दूसरी जगह पर नहीं हो सकते। बात समझो। तो दुनिया भर की जगहें जहाँ तुम नहीं हो वहाँ तुम इसीलिए नहीं हो क्योंकि तुम हो कहाँ पर? जहाँ पर हो तुम।

तो ऋषि पूछ रहे हैं, 'अगर तुम होते ही नहीं, तो मुझे बताओ, कोई जगह ऐसी होती जहाँ तुम नहीं होते?' अगर तुम होते ही नहीं तो क्या कोई ऐसी जगह होती जहाँ तुम नहीं होते? इसी बात को थोड़ा और आगे बढ़ाओगे तो समझ में आएगा कि ऋषि कह रहे हैं कि तुम होते ही नहीं तो यह अलग-अलग जगहें होती भी क्या? यह जो 'स्थान' या 'जगह' शब्द है, फिर तो यही निरर्थक हो जाता न। चूँकि तुम एक जगह पर हो इसीलिए तुम स्थान के पूरे विस्तार को अलग-अलग जगहों का नाम दे देते हो, है न?

तुम कहते हो, 'देखो, मैं यहाँ बैठा हूँ, तुम मेरे दाएँ बैठे हो और उधर तुम, तुम मेरे बाएँ बैठे हो।' यह दाएँ और बाएँ का चक्कर आया कहाँ से? क्योंकि तुम दाएँ और बाएँ के केंद्र में बैठे हो। तुम अगर होते ही नहीं तो यह जितना विस्तार है स्थान का, अंतरिक्ष का, आकाश का, जगह का, यह पूरा अर्थहीन हो जाता, कोई मतलब नहीं रह जाता इसका। मुझे यह बताओ अगर दो चीज़ें ना हो, कहीं भी, कोई भी दो चीज़ें ना हो तो क्या स्थान, स्पेस भी बचेगा?

हम सोचते हैं कि स्पेस खाली जगह का नाम है। नहीं, स्पेस खाली जगह का नाम नहीं है। स्पेस दो वस्तुओं के बीच की खाली जगह का नाम है। आप जब स्पेस की कल्पना भी करते हो तो आप की कल्पना ऐसी होती है कि सब कुछ खाली है। नहीं, सब कुछ अगर खाली हो, अगर वस्तुएँ बिलकुल ना हों, ऑब्जेक्ट्स बिलकुल ना हों, तो ऑब्जेक्ट्स के साथ-साथ स्पेस भी विलुप्त हो जाएगा।

और पहला ऑब्जेक्ट कौन है जो इतने सारे दूसरे ऑब्जेक्ट्स बना देता है? वो हम हैं, हमारी देह। तो तुम ना हो अगर तो दूसरी वस्तुएँ या दूसरे ऑब्जेक्ट्स भी नहीं हो सकते। और जब दूसरी वस्तुएँ, दूसरे ऑब्जेक्ट्स नहीं हैं तो स्पेस कहाँ बचा? सब गया न? और यही तो तुम चाहते हो कि कोई जगह ऐसी ना बचे जहाँ तुम नहीं हो, और यही तो तुमको अफ़सोस है कि बहुत जगहें हैं जहाँ तुम नहीं हो।

ज़िंदगी भर आदमी क्या करता है? दौड़ता है, भागता है, उसको यहाँ पहुँचना है, उसको वहाँ पहुँचना है। यही करते हो न? तुमको यहाँ-वहाँ पहुँचना ही इसीलिए है क्योंकि तुम अभी इस जगह बैठे हो। चूँकि तुम अभी यहाँ हो इसीलिए कल तुम्हें ज़रूरत पड़ेगी कहीं और होने की, फिर कहीं और होने की, फिर कहीं और होने की। और जहाँ भी जाते हो वहाँ हो करके इच्छा तो पूरी होती नहीं, तो फिर अगले दिन कहीं और जाना पड़ता है। ले-दे कर के तुम्हारी इच्छा यह है कि जितना भी विस्तार है स्थान का, स्पेस का, तुम वो पूरा ही छान मारो।

देखते नहीं हो बहुत सारे पर्यटक होते हैं, उनको यह बताने में बहुत अद्भुत आनंद रहता है कि 'अब तक हम १०२ देशों की यात्रा कर चुके हैं'। वो बड़े मज़े में दिखाते हैं अपना पासपोर्ट कि 'देखो इसमें कितने ठप्पे हैं, गिनो।'

यह हम क्या कर रहे हैं? यह हम अपने कष्ट का प्रदर्शन कर रहे हैं कि 'देखो, मैं होना तो सर्वव्यापक चाहता हूँ, मैं वो हो जाना चाहता हूँ जो हर जगह है, पर मैं बँधा हुआ हूँ एक जगह से। इसीलिए मैं लगातार कोशिश करता रहता हूँ कभी इधर उड़ने की, कभी उधर उड़ने की, कभी यहाँ जाने की, कभी वहाँ जाने की। और जब मैं स्थूल शरीर से नहीं जा पाता, वीज़ा नहीं मिला, फ्लाइट नहीं मिली, कोई बात हो गई, तो फिर मैं कैसे जाता हूँ? सूक्ष्म शरीर से। क्या करता हूँ मैं फिर? आँख बंद करके कल्पना करता हूँ।'

यह जो मन इतनी कल्पना करता है कभी यहाँ होने की, कभी वहाँ होने की, वो वास्तव में यही कह रहा है कि 'मुझे हर जगह होना है क्योंकि मैं जहाँ भी नहीं हूँ मुझे वहीं की याद आती है। मैं जहाँ ही नहीं हूँ मुझे वहीं की कमी अखरती है।' तो मन की फिर इच्छा क्या है? मन की इच्छा है हर जगह होने की। हर जगह होने का मतलब है कहीं भी ना होना। अगर कोई ऐसा है जो हर जगह है, तो वह वास्तव में क्या कहीं भी है? नहीं, लेकिन तुम्हें कहीं होना पड़ता है क्योंकि तुममें देहभाव है।

ऋषि कह रहे हैं, 'सत्य वह जिसकी कोई छोटी, सीमित, संकुचित, परिभाषित देह नहीं हो।' फिर वह बिना हाथ-पाँव के चलता है और बड़ी द्रुत गति से चलता है फिर वह। वास्तव में काव्य है यहाँ पर जब कहाँ जा रहा है कि द्रुत गति से चलता है। वो द्रुतगति से नहीं चलता, फिर वह अनंत गति से चलता है क्योंकि उसे अब चलने की ज़रूरत ही नहीं। क्यों चलने की ज़रूरत ही नहीं? क्योंकि वह मौजूद ही है हर जगह। हर जगह कैसे मौजूद है? क्योंकि अब कोई जगह ही नहीं बची। बहुत सारी जगह होती तो बहुत जगहों पर अलग-अलग होना पड़ता। बहुत जगहें हैं ही नहीं, जब तुम नहीं तो बहुत सारी जगह भी नहीं।

तो यह जो हमने अपने लिए इतना बड़ा विस्तार खड़ा कर रखा है वह विस्तार ही हमारा कष्ट है। और उस विस्तार से निपटने के लिए हम जिन चीज़ों को अपना सहायक समझते हैं वह चीज़ें हमारी सहायक नहीं हैं। उन्हीं चीज़ों के कारण तो वो विस्तार खड़ा है। हम सोचते हैं यह देह हमारी हितैषी है, 'इस देह का ही तो इस्तेमाल करके मैं यहाँ से वहाँ पहुँचूँगा'। नहीं, यह देह हितैषी नहीं है, इस देह का इस्तेमाल करके तुम यहाँ से वहाँ नहीं पहुँचोगे। इसी देह के कारण सर्वप्रथम तुमने वहाँ से दूरी बनाई है।

हम सोचते हैं मन हमारा उपकरण है, 'मन वह माध्यम है जिसका इस्तेमाल करके मैं सच तक पहुँचूँगा।' नहीं, मन उपकरण नहीं है, माध्यम नहीं है, मन पुल नहीं है। मन ही अड़चन है, मन के कारण ही दूरी है। जिसके कारण दूरी है तुम उसको अगर पुल बोलो या सहायक बोलो या माध्यम बोलो, तो यह बहुत सही बात तो नहीं हुई न, या हुई?

एक खाली जगह हो, वहाँ बीच में दीवार खड़ी कर दी जाए, बिलकुल खाली जगह थी और बीच में बिलकुल भारी दीवार खड़ी कर दी गई। और फिर तुमसे कहा जाए कि 'देखो, यह जो दीवार है, यह तुम्हारी मदद के लिए है। इस पर चढ़ोगे तो उस पार पहुँच जाओगे। देखो, कितनी मददगार दीवार है। अगर तुम इस दीवार पर चढ़ गए तो तुम्हें बहुत बढ़िया फल मिलेगा। यह दीवार तो तुम्हारी मदद के लिए है।' मन वही दीवार है।

खाली आकाश है, रिक्त, शून्य जहाँ कोई बाधा, कोई व्यवधान नहीं, वहाँ बीच में व्यर्थ ही मन की दीवार खड़ी है और तुर्रा यह कि हम ख़ुद को बताते रहते हैं कि 'यह दीवार नहीं है, पुल है। चढ़ जाओ, सब लोग चढ़ो। ना होती दीवार तो उस पार कैसे पहुँचते, बताओ?' क्या तर्क दिया है!

इसी तरीके से यह बात कि आँखों के बिना सत्य देखता है और कानों के बिना सुनता है। हम सोचते हैं कि आँखें हमें दिखा रही हैं। ऋषि जहाँ से देख रहे हैं, वो कह रहे हैं 'आँखें दिखा नहीं रहीं, छुपा रही हैं।' हम बड़े प्रसन्न रहते हैं कि आँखें तो हमारी सहायक हैं, उन के माध्यम से हम जगत को देख पाते हैं। ऋषि कह रहे हैं, 'आँखें सहायक नहीं हैं, आँखें तो सत्य को छुपा रही हैं और संसार को दिखा रही हैं, तो सहायक कैसे हो गईं?'

आँखें स्वयं भी सीमित हैं और तुमको बस वही दिखाती हैं जो सीमित चीज़ें हैं। तो तुम सीमित में ही फँस कर रह जाते हो, असीम छुप गया न। बताओ आँखें दिखा रही हैं या छुपा रही हैं? तो इसलिए फिर वो यहाँ पर कहते हैं कि सत्य या ब्रह्म वह है जो बिना आँखों के देखता है। वो वास्तव में हमें चुनौती दे कर कह रहे हैं कि 'बेटा शिष्य, तुम समझो कि तुम्हारा जो विश्वास है तुम्हारी देह पर, तुम्हारी इंद्रियों पर, वह झूठा है'।

उदाहरण के लिए तुमसे कोई पूछता है 'तुम्हें कैसे पता कि यह बात सच है?'—तुम आए मुझे कोई खबर सुनाने और मैं तुमसे पूछूँ, 'तुम्हें कैसे पता कि यह बात सच है?' तुम तुरंत पलट कर बोलते हो, 'अरे! सच है, मैंने अपनी आँखों से देखा है।' देखो तुमने क्या किया है, क्या किया? तुम कहते हो न, 'अरे! सच तो है ही, मैंने अपनी आँखों से देखा है, कानों से सुना है।' तुमने आँख और कान को सच का प्रमाण बना लिया।

ऋषि कह रहे हैं, "बचो!" तुम्हारे भीतर ये जो कूट-कूट कर आत्मविश्वास भरा हुआ है अपनी देह के प्रति, ऋषि उसको चुनौती दे रहे हैं। कह रहे हैं, 'आँख दिखा नहीं रही है। तुम इतने भरोसे के साथ क्या बोलते हो कि 'मैंने अपनी आँखों से देखा है तो सच ही होगा? आँख क्या दिखाएगी, कान क्या सुनाएँगे? जो आँखों से देखता हो वह तो देहाभिमानी है। जो कानों से सुनता हो वह अपने-आपको शरीर के अतिरिक्त कुछ जानता ही नहीं।'

बहुत ध्यान से सुनना पड़ेगा, बहुत साथ-साथ चलना पड़ेगा। कुतर्क करना चाहोगे तो कुतर्क असंख्य हैं। तुम तुरंत कह सकते हो, "आँख से नहीं देखेंगे तो कहाँ से देखेंगे, नाक से देखेंगे क्या? और कान से नहीं सुनेंगे तो क्या करेंगे?" तो इस तरह के कुतर्क करने हों तो उपनिषद् तुम्हारे लिए नहीं हैं। ऋषि जो बात कह रहे हैं वह बहुत बारीक़ है। उनके लिए नहीं है जो भद्दे तर्कों की कुश्ती खेलना चाहते हों।

तो कान तुम तक कुछ सूचना पहुँचाते हैं, और जो सूचना तुम तक पहुँचती है तुम तत्काल उसको क्या मान लेते हो? सच। अगर सूचना को सूचना ही माना होता तो कोई दिक़्क़त नहीं थी। पर कान हमारे लिए बाधा और अवरोध तब बन जाते हैं जब हम उस सूचना को सच मान लेते हैं। समझना होगा हमें कि इंद्रियगत हमें जो भी अनुभव हो रहे हैं वो हैं; उनको अधिक-से-अधिक तुम कह सकते हो तथ्य हैं, वह सच नहीं हैं, सच कुछ और है। इंद्रियगत तो तुम्हें जो अनुभव हो रहे हैं वो द्वेत का खेल हैं, एक डुअलिस्टिक फिनोमिना है। सच्चाई बिलकुल दूसरी चीज़ है, एकदम अलग।

ऋषि हमारे देहाभिमान पर चोट कर रहे हैं। जैसा कि मैंने पहले भी अन्य कई श्लोकों के प्रसंग में कहा है कि यह ना समझ लेना कि उपनिषदों की विषय वस्तु यहाँ सत्य है, उपनिषदों की वास्तविक विषय वस्तु अहम् है। अहम् को चुनौती देना ही उपनिषदों का काम है। और यह करतूत तो कर ही मत डालना कि तुम कल्पना करने लग जाओ किसी ऐसे ब्रह्म की जिसके आँख नहीं है, कान नहीं है, हाथ नहीं है, पाँव नहीं है और वह बड़ी तेज़ी से इधर-उधर जाता है और सब देख लेता है, सब सुन लेता है। हमारी कल्पना का जवाब नहीं।

कोई चित्रकार, कोई कवि, किसी भी तरह का कोई कलाकार आ करके ऐसी कहानी लिख सकता है या चित्र बना सकता है या गीत बना सकता है जिसमें एक किरदार ऐसा हो, और वो कह सकता है कि, "देखो, श्वेताश्वतर उपनिषद् में यही कहा गया है न, कि यह रहा ब्रह्म और बिलकुल गोल-गोल पिंड जैसा है ब्रह्म, उसके हाथ नहीं, पाँव नहीं, कोई इंद्रियाँ नहीं; और सन्न से भागता है एकदम, खट्ट से यहाँ से वहाँ पहुँच जाता है।" और तुमसे कहा जा रहा है, "देखो, श्लोक में यह लिखा था – 'बिना हाथ-पाँव के वह तीव्र वेग से गति करता है', तो यह देखो यह रहा मेरा ब्रह्म।" यह ना समझ लेना।

यहाँ विषय वस्तु ब्रह्म है ही नहीं, तो व्यर्थ में समय मत खराब करो ब्रह्म के बारे में कल्पना करके। वह उद्देश्य ही नहीं है। ब्रह्म के बारे में नहीं कल्पना करनी है, अपने यथार्थ को देखना है। दो अंतर समझो – ब्रह्म नहीं अहम्, और कल्पना नहीं यथार्थ।

ब्रह्म विषय ही नहीं है, तुम क्या सोच रहे हो ब्रह्म के बारे में! विषय क्या है? अहम्। और कल्पना माध्यम नहीं है, तुम यह क्या मन को दौड़ा रहे हो घोड़े की तरह! हमें चाहिए यथार्थ। मन के यथार्थ को जो देखेगा वो मन के झूठ को पकड़ लेगा। मन के यथार्थ को जो देखेगा वो मन के झूठ की जड़ तक पहुँच जाएगा। मन के झूठ की जड़ तक पहुँचने को ही मुक्ति कहते हैं, वही सत्य है। तो बहुत सावधानी चाहिए इन सुंदर और मूल्यवान श्लोकों को समझने में, नहीं तो बहुत गड़बड़ हो सकती है।

अकारण ही नहीं है कि उपनिषद् शताब्दियों से उपलब्ध रहे हैं, उपस्थित रहे हैं, और उसके बाद भी लगभग पूरी जनसंख्या एक आंतरिक अंधेरे में डूबी रही; कुछ अपवादों को छोड़कर के, वह अपवाद मुट्ठी भर हैं, ०.००१ प्रतिशत। तो ऐसा तो नहीं था कि लोगों के मन में उपनिषदों के लिए सम्मान नहीं था, ऐसा भी नहीं था कि लोग पढ़ नहीं रहे थे। जो पढ़ नहीं रहे थे उनको किसी दूसरे तरीके से सुनाया जा रहा था। उनको संस्कृत में नहीं बताया जा सकता था तो उनको किसी और तरीके से बताया जा रहा था, कभी कहानी के माध्यम से, कभी जन भाषा में दोहों इत्यादि के माध्यम से।

तो उपनिषदों का जो सार था वह तो लोगों तक पहुँचाया ही जा रहा था न, फिर भी फायदा क्यों नहीं हुआ लोगों को? फायदा इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि मन सामने आने वाले हर विषय को विषय की तरह ही ले लेता है। विषय माने 'मैं हूँ' और वह सामने मेरे अनुभव का, मेरे भोग का विषय है। तो मैं उसकी ओर देख रहा हूँ, मैं तो हूँ ही, मैं उसकी ओर देख रहा हूँ। यह अभी उपनिषद् आए हैं, ब्रह्म की बात कर रहे हैं तो मैं ब्रह्म की ओर देख रहा हूँ।

तो उपनिषद् मिले हमें, हमने किस के बारे में अनुमान लगाना, कल्पना करना, स्पेक्युलेट करना शुरू कर दिया? ब्रह्म के बारे में। उद्देश्य सारा क्या था? स्वयं को देखो। और बैठ गए विद्वान और चर्चा कर रहे हैं, "अच्छा बताओ, ब्रह्म का वाकई अगर अंगुष्ठ बराबर आकार है तो वह शरीर में कहाँ पर होता होगा? क्योंकि उपनिषद् ने कहा है अंगुष्ठ मात्र आकार है उसका।" तो बैठी हुई है विद्वानों की टोली और चल रही है गरमा-गरम चर्चा। कोई कह रहा है, "नहीं यहाँ होता है!" कोई, "यहाँ होता है, यहाँ होता है।" यूँ ही उड़ाना ही है तो कुछ भी उड़ाओ, कुछ प्रमाणित तो किया नहीं जा सकता।

इस तरह की चर्चाओं के साथ एक बहुत बड़ी विडंबना ये होती है कि इसमें किसी भी चीज़ को प्रमाणित, प्रदर्शित नहीं किया जा सकता कि झूठी है, थोथी है, खोखली है। फॉल्सीफिकेशन का विकल्प ही उपलब्ध नहीं होता तो कोई कुछ भी बोल सकता है। सदा ऐसी चर्चा से बचना जहाँ पर जो कहा जा रहा है उसको झूठा प्रमाणित ना किया जा सके, क्योंकि अगर कोई ऐसा वक्तव्य दे दिया गया है जिसको ग़लत या सही जाँचने का कोई तरीका ही नहीं है, जिसके पीछे कोई प्रमाण ही नहीं है, तो या तो वो पूर्ण सत्य होगा या वो पूरी तरीके से खोखली, झूठी और काल्पनिक बात होगी।

अगर वह पूर्ण सत्य होता तो उसको कहना बड़ा मुश्किल होता। पूर्ण सत्य तो मुखरित हो उससे पहले मन मौन हो जाता है, तो निःसंदेह फिर कोई बहुत झूठी ही बात होगी जिसके पक्ष में या विपक्ष में कोई प्रमाण हो ही नहीं सकता। तो ऐसी चर्चाएँ खूब चल रही हैं और उन सारी चर्चाओं में क्या चीज़ बिलकुल अनुपस्थित है? ऐसी दृष्टि जो ख़ुद को देखती हो।

इसलिए उपनिषद् भी हम पर विफल हो गए। ऋषियों ने हमें यह अमूल्य उपहार दिए थे, हमने उनको भी अपने ऊपर विफल कर दिया। हम ब्रह्म के बारे में, या सत्य, या आत्मा के बारे में अनुमान ना लगाने लगें, कल्पना की पतंगे ना उड़ाने लगें, इसके लिए कितनी मेहनत करी ऋषियों ने। कम-से-कम दो दर्जन, चार दर्जन तरीके हैं जिसके द्वारा उन्होंने तुम्हें यह बताया कि 'बेटा, यहाँ बुद्धि मत लगाना'। जितने तरीकों से तुम्हें समझाया जा सकता था कि तुमसे ना हो पाएगा, सब किया गया। तुम्हारी पहुँच से, तुम्हारी पकड़ से बाहर की बात है।

कह दिया गया 'आँखें उस तक जा नहीं सकती, मन उसको सोच नहीं सकता', ठीक? कान उसको सुन नहीं सकते, शब्दों में वह समा नहीं सकता, स्पर्श उसको किया नहीं जा सकता, टुकड़े उसके हो नहीं सकते; ना वो सत् है, ना वो असत् है; घर उसका होता नहीं, नाम उसका होता नहीं, उपमा उसकी होती नहीं, उपाधि उसकी होती नहीं; तुलना उसकी होती नहीं, संगी उसका नहीं, साथी उसके नहीं; पिता उसका नहीं, पुत्र उसका नहीं; ना वो कल था, ना वो आज है; ना वो काला है, ना वो गोरा है; ना वो स्त्री है, ना वो पुरुष है; ना उसको बुलाया जा सकता है, ना हटाया जा सकता है; ना वो भरा हुआ है, ना वो खाली है।

इतने तरीकों से तुम्हें क्यों बोला गया ब्रह्म के बारे में? ताकि तुम ब्रह्म के बारे में कोई कल्पना ना कर पाओ। यह पचासों तरीके से यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही थी कि तुम यह अनर्थ ना कर डालो कहीं कि 'मैंने तो ब्रह्म को सोच लिया'। तो सोच जितने रास्तों से ब्रह्म की ओर बढ़ने की धृष्टता कर सकती थी, उन सब रास्तों पर ऋषियों ने अवरोध खड़े करे।

'उसका कोई रंग नहीं होता और वो बेरंग भी नहीं होता। निर्गुण है वो, सब गुण उसी से हैं। क्या वो यहाँ है? है भी और नहीं भी, क्या वो है? है भी और नहीं भी।' यह क्या पहेलियाँ बुझायी जा रही हैं? नहीं, यह बड़े प्रयत्न से और बड़े प्रेम से तुम्हारी कल्पना को अनुशासन में रखने की कोशिश की जा रही है। यह बार-बार तुमको जताया जा रहा है कि अहम् बहुत छोटा है। हालाँकि छोटा बना रहना उसकी नियति नहीं है, पर है वह बहुत छोटा। उसकी यह जो क्षुद्रता है यही उसका कष्ट है।

तो कृपा करके इस क्षुद्रता को इतनी अहमियत मत दो कि क्षुद्रता के माध्यम से तुम अनंत तक पहुँचने का प्रयास करने लगे। क्षुद्र के माध्यम से तुमने कह दिया कि 'मैं अनंत तक पहुँच जाऊँगा', तो तुमने क्षुद्र को ही क्या बना दिया? अनंत के समतुल्य। तुमने कह दिया 'मन के माध्यम से ही मैं सत्य को सोच लूँगा', तो तुमने मन को ही क्या बना दिया? सत्य के समतुल्य। और मन में तो तुम्हारे ही विचार वगैरह भरे हुए हैं। अगर मन सत्य के समतुल्य हो गया तो तुम्हारे विचार ही सत्य हो गए, अब सत्य तक पहुँचकर करोगे क्या? और सामान्यता हम ऐसे ही तो जीते हैं – 'मुझे सच पता है, भाई। मुझे सच पता है।'

आत्मज्ञान इसीलिए तो नहीं होने पाता न। आत्मज्ञान से पहले आत्मशंका, आत्म जिज्ञासा चाहिए। आत्मज्ञान तो आख़िरी चीज़ है। सबसे पहले उठती है आत्मशंका, फिर आत्मजिज्ञासा और फिर आता है आत्मज्ञान। और आत्मज्ञान के बाद क्या होता है? आत्मसमर्पण। जिसको तुम 'आत्म' बोलते हो, वो फिर समर्पित कर दिया जाता है। तो आत्मशंका से आत्मसमर्पण तक की यात्रा होती है, लेकिन आत्मविश्वास अगर बहुत है तो आत्मशंका आने ही नहीं पाएगी न भाई! आत्मसमर्पण तक की यात्रा शुरू किससे होती है? आत्मशंका से; कुछ गड़बड़ पता तो चले जीवन में। लेकिन अगर आत्मविश्वास से भरे हुए हो तो आत्मशंका ही उदित नहीं होगी।

तुममें आत्मशंका आ सके इसीलिए ऋषि इस भाषा में बात कर रहे हैं कि 'बिना हाथ-पाँव के चलता है वो'। अब यह पढ़कर हम ज़रा चौंके, थोड़ा काँपे, थोड़ा क्रोध भी आया कि 'ऐसा कैसे हो सकता है?' पर भीतर-ही-भीतर हम थोड़ा डर भी गए 'कहीं ऐसा होता ही हो तो?' बहुत आश्वस्ति तो कभी हमें अपने बारे में रहती नहीं। जब ये बात हमारे सामने आयी तो भीतर सवालिया निशान भी खड़ा हो गया कि 'यह क्या बात है? बिना आँख के देखता है, बिना पाँव के चलता है, बिना मन के जानता है। यह क्या बात है?'

वो यही चाहते थे, तुम्हारे भीतर थोड़ी कंपन उठे, मामला ज़रा हिले-डुले। तुमने धारणाओं की पूरी इमारत खड़ी कर रखी है मन के धरातल पर, ऋषि उसमें भूचाल ले आते हैं; इमारत तुम्हारी हिलने लगती है, यही वो चाहते हैं। इस इमारत को गिराना ज़रूरी है, इसमें कोई शांति नहीं।

"उसे जानने वाला अन्य कोई नहीं है, ज्ञानी जन उसे महान, श्रेष्ठ आदि कहते हैं।"

उसे जानने वाला अन्य कोई नहीं है। अरे! रे रे रे, बड़ी चोट लगी अहंकार को फिर से। अहंकार की प्रबलतम अभिलाषा ही यही है कि 'मैं जान जाऊँ उसको'।और देखो नटखट कितने हैं ऋषि, यह नहीं कह रहे हैं कि उसे जानने वाला कोई नहीं है, क्या कह रहे हैं? ध्यान दो! क्या कह रहे हैं? उसे जानने वाला अन्य कोई नहीं है। जाना तो जा सकता है पर अन्य किसी के द्वारा नहीं, स्वयं उसी के द्वारा उसको जाना जा सकता है।

तो भाई देखो, ऐसी बात नहीं है कि ब्रह्म को जाना नहीं जा सकता, लेकिन जब तक तुम अहम् बने हुए हो तब तक नहीं जाना जा सकता। और अहम् क्या कहता है? 'मुझे जानना है'। इच्छा भी उसकी है 'मुझे जानना है' और दावा भी आगे चलकर यही करेगा 'मैं जान गया'। वह रास्ता ही बंद कर दिया गया है, कह दिया गया है, 'उसको अन्य कोई नहीं जान सकता। तो बेटा, तुम तो नहीं जान सकते!'

अब बिफर रहा है अहंकार, कह रहा है 'हम नहीं जान सके तो कौन जानेगा?'

कह रहे हैं 'वही स्वयं ख़ुद को जानता है, उसके अलावा कोई उसको नहीं जानता।'

'अरे! यह क्या बात है? क्या, चीज़ क्या है? हमें बताओ न, हम कोशिश तो करें जानने की।'

'वो चीज़ ही नहीं है।'

'नहीं, चीज़ नहीं है, ऐसी क्या बात है?'

'नहीं, वो चीज़ नहीं है।'

बोला, 'चीज़ें-ही-चीज़ें तो होती हैं।' अहंकार बोल रहा है, 'चीज़ें-ही-चीज़ें तो होती हैं।'

ऋषि बोले, 'हाँ, चीज़ें-ही-चीज़ें तो होती हैं और उन सब चीज़ों के बीच में तुम रोते हो।'

चीज़ें-ही-चीज़ें होती हैं और जब तक चीज़ें-ही-चीज़ें, वस्तुएँ-ही-वस्तुएँ हैं, विषय-ही-विषय हैं, उनके साथ में आँसू-ही-आँसू हैं। इसीलिए ज़रूरी है उसको जानना, उसको समझना जो कोई चीज़ नहीं, जो कोई वस्तु नहीं, जो संसार के पार का है, क्योंकि संसार में तो जो कुछ भी है वो तुम्हें रुलाएगा ही। तुम कह लो लाख कि संसार ही स्वर्ग है, संसार में ही प्रेम मिलता है, यह होता है, वह होता है। तुम ख़ुद को मूर्ख बनाना चाहते हो, बना लो।

संसार की अधिक-से-अधिक उपयोगिता यह है कि वह संसार के पार जाने में तुम्हारी मदद कर दे। व्यर्थ नहीं है संसार, उपकरण की तरह महत्वपूर्ण है, अंत और लक्ष्य की तरह नहीं। यह भेद करना बहुत ज़रूरी है।

जो सच जानने का साधक है उसके साथ अकसर हम शब्द जोड़ते हैं 'बैरागी'; हम कहते हैं उसको वैराग्य हो गया। और फिर हमें यह डर हो जाता है कि उसने दुनिया ही छोड़ दी। उसने दुनिया नहीं छोड़ दी, उसने दुनिया को लक्ष्य बनाना छोड़ दिया। दुनिया से सरोकार तो उसे अभी भी है, दुनिया से बिलकुल अभी भी उसको खूब लेना-देना है, क्या लेना-देना है? वो दुनिया का अब प्रयोग करता है, और बड़ा विवेकपूर्ण और ज़बरदस्त प्रयोग करता है। वो कहता है 'दुनिया का तो पूरा इस्तेमाल करना है और मेरा जो समय है इस दुनिया में सीमित, उसका भी पूरा इस्तेमाल करना है।'

दुनिया के पार जाने का और कोई तरीका ही नहीं है, दुनिया में ही डूब कर दुनिया के पार जाना पड़ेगा, जैसे नदी में डूब कर ही नदी के पार जा सकते हो। मुझे तरीका बताओ कोई और? तट पर खड़े हो तुम, नदी पार करनी है। कैसे पार करोगे नदी को नदी को बिना छुए? वैसे ही जीवन है और जगत है, इनमें डूबे बिना इनको पार नहीं कर सकते, लेकिन इनमें प्रवेश करो पार करने की नियत से ही, नहीं तो बहुत संभव है कि तुम डूबते उतराते ही रह जाओ; अठखेलियाँ कर रहे हो, समय खराब कर दिया, या कि डूब ही गए पूरा, वह भी संभव है।

तो यह जो 'डूबना' शब्द है, इसमें बड़ी सतर्कता चाहिए। ऐसे भी लोग होते हैं जो कहते हैं दुनिया है ही इसीलिए कि इसमें डूब कर जीना है। नहीं, इसमें डूब कर जीना नहीं है, इसे डूब कर पार करना है। डूबने तक मैं सहमत हूँ, डूबने तक उपनिषदों के ऋषि भी सहमत हैं, पर वो कह रहे हैं जो तुम्हारा डूबना है वह बहुत सौद्देश्य होना चाहिए। सौद्देश्य माने *पर्पसफुल*। यूँ ही नहीं डूबना है कि मज़े ले रहे हैं, यहाँ मज़े लेने को क्या है? जिस भी चीज़ से ज़्यादा मज़े लेने लगोगे वही तुम्हारे लिए कष्ट का कारण बन जाएगी तुरंत।

अपने कष्टों में से कोई बता दो ऐसा जो कभी तुम्हारे लिए मज़ा नहीं था, या जिसकी ओर तुम सुख और मज़े की उम्मीद से नहीं बढ़े थे। तो डूबना इसलिए नहीं है कि छप-छप खेलेंगे। छः फीट वाला तरणताल नहीं है यह, गहरा दरिया है। इसमें जो छप-छप बहुत करते हैं वो दो-चार मिनट छपछपियाते आते हैं और उसके बाद हाय-हाय! बहुत कुशल तैराक होना पड़ता है, पार करना है। पार करने की शिक्षा भी लेनी पड़ती है, हौसला भी चाहिए, साधना भी चाहिए, धैर्य चाहिए, और पार से अपार प्यार चाहिए।

तुम तो इस पार के हो, यही दुनिया देखी है। उस पार से अपार प्यार चाहिए। और वह पार अभी तक देखा नहीं है फिर भी उससे प्यार चाहिए। उससे प्यार कैसे होगा? बस ऐसे होगा कि तुम्हें इस पार से ज़रा वैराग्य हो जाए। तुम कहो, 'इतना काफी है कि वह पार इस पार जैसा नहीं है। अब वहाँ क्या है इससे हमें बहुत मतलब नहीं है।'

और ऐसा कुछ नहीं है कि वहाँ से किसी बाँसुरी का गीत बुलाता है हमें इत्यादि। यह सब रूमानी बातें हैं, इनमें हम नहीं फँस रहे हैं। हमें उस पार का क्या पता? वह पार तो वैसे भी अकथ्य है, अचिंत्य है। वहाँ से कुछ नहीं है जो हमें बुला रहा है, वहाँ से कुछ नहीं है जो हमारे सपनों में आ रहा है। हमें तो बस यह पता है कि हमारे सपनों में भी इसी पार का संसार है, और हमारे सपने बहुत डरावने हैं। मुझे इन सपनों से दूर जाना है। क्या मिलेगा इन सपनों से दूर जाकर? कुछ मिले-न-मिले, इन सपनों से तो मुक्ति मिलेगी, यही बहुत है।

प्राप्ति और मुक्ति बहुत अलग-अलग बातें हैं। अध्यात्म में प्राप्ति की नहीं मुक्ति की दृष्टि चलती है। कोई तुमसे पूछे, 'क्या मिला?' तो वह सांसारिक उपक्रम और सांसारिक उपलब्धि की बात कर रहा है। अध्यात्म में प्रश्न सिर्फ यह होता है कि, 'क्या खोया? क्या गँवाया? क्या छोड़ आए पीछे? कौनसी चीज़ से आज़ाद हो गए? मुक्ति।"

तो दुनिया में भी बहुत श्रम लगता है और वहाँ श्रमपूर्वक तुम क्या चाहते हो? प्राप्ति। और अध्यात्म में दूना श्रम लगता है और यहाँ इतना ज़बरदस्त श्रम लगाकर तुम क्या चाहते हो? मुक्ति। यह बहुत मूलभूत अंतर है यह समझना होगा।

कोई अपने-आप को आध्यात्मिक बोलता हो, साधना इत्यादि की बातें करता हो लेकिन भाषा उसकी अभी भी प्राप्ति की ही हो कि 'मुझे यह मिल गया, या ऐसा मेरा अनुभव हो गया, या मेरे भीतर ऐसी चीज़ अब नहीं प्रकट हो गई', तो समझ लेना अभी यह संसार का बाज़ारू आदमी ही है; आध्यात्मिक प्रेम, उत्कंठा अभी उसमें जागृत ही नहीं हुई है। अध्यात्मिक आदमी की भाषा ऐसी होती है – 'यह था, अब नहीं है। यह था, अब नहीं है। और यह भी था, यह भी अब नहीं है।' वो यह नहीं बताएगा कि क्या नया है।

तो उसे जानने वाला कोई अन्य नहीं, वो स्वयं ही स्वयं को जानेगा। इस बात को तुम ऐसे भी ले सकते हो कि तुम्हें हतोत्साहित किया जा रहा है और ऐसे भी ले सकते हो कि अगर तुम वाकई उसको जान गए तो तुम वही हो जाओगे, क्योंकि कोई अन्य तो उसको जान नहीं सकता न। तो उसको जानने की साधना का ऊँचे-से-ऊँचा फल, परिणाम यह मिलता है कि तुम उसको सिर्फ जानते ही भर नहीं हो, तुम वो ही जाते हो। जो ब्रह्म को जानता है वो ब्रह्म ही हो गया। ब्रह्मज्ञानी में और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह जाता। लेकिन अगर ब्रह्मज्ञानी अभी भी ब्रह्म की बात ही कर रहा है जैसे ब्रह्म कोई खास आसमानी चिड़िया हो, तो बहुत भेद है, वह अभी ब्रह्मज्ञानी ही नहीं है।

यह आपके ऊपर है आप इसको कैसे देखेंगे। जब कहा जा रहा है ब्रह्म को कोई अन्य नहीं जान सकता, तो या तो निराश होकर के अपने प्रयत्न रोक दो, कह दो 'मैं तो अन्य ही हूँ, मैं तो ब्रह्म हूँ नहीं, अगर कोई अन्य नहीं जान सकता ब्रह्म को, तो मैं भी नहीं जान सकता, तो कोशिश ही क्यों करूँ?' या यह कह सकते हो कि 'इसका अर्थ हुआ कि उस को जानने निकलूँगा, वही हो जाऊँगा'।

अब यहाँ पर भक्ति के, प्रेम के फिर बड़े गीत खिलते हैं। भक्त कहता है कि, 'जिसको देखने गए थे, जिसको पाने गए थे, वह इतना मोहक, इतना सुंदर था कि उसी में समा गए, उसी जैसे हो गए। ज़रा सी भी दूरी उसके और अपने बीच रखने का मन ही नहीं हुआ। उसकी सुंदरता ऐसी अनुपम थी, क्या दूरी बनाते! तो पास आते आते-आते-आते एक ही हो गए। हम थे तो दूरियाँ थी, दूरियाँ मिटाने का ऐसा आवेग चढ़ा कि हम ही मिट गए।'

"उसे ज्ञानी जन महान, श्रेष्ठ आदि कहते हैं।"

वो महान है, वो श्रेष्ठ है क्योंकि अगर वो नहीं महान, वो नहीं श्रेष्ठ तो इन शब्दों का प्रयोग मन के ही भीतर की किसी वस्तु के लिए होगा, और अगर कोई वस्तु महान हो गई, श्रेष्ठ हो गई तो फिर वह वस्तु ही तुम्हारा अभीष्ट हो गई न, उसी के पीछे चले जाओ। तो ब्रह्म महान, ब्रह्म श्रेष्ठ, अपितु ब्रह्म मात्र महान, मात्र ब्रह्म श्रेष्ठ; अन्य किसी के लिए इन उपाधियों का प्रयोग फिर कर मत देना। वो अपूर्व है, वो असंग है, वो अद्वितीय है। जो बात उसके लिए कही जा सकती है किसी और के लिए कही जा नहीं सकती। जो बात किसी और के लिए कह दी गई उसको ब्रह्म के लिए उपयुक्त किया नहीं जा सकता।

उसके समान कोई दूसरा नहीं तो वो फिर अनुपम है, अतुल्य है। महान इसलिए, श्रेष्ठ इसलिए क्योंकि हम अपने भीतर तुलना में जीते हैं और हमारे भीतर की तुलना में कुछ भी अतुल्य होता नहीं। कुछ छोटा होता है कुछ बड़ा होता है, जो कुछ भी तुलनात्मक रूप से बड़ा होता है, हम उसी को बोलने लग जाते हैं महान और श्रेष्ठ।

ऋषि हमें सावधान कर रहे हैं, वो कह रहे हैं, "देखो, तुम्हारे भीतर कुछ छोटा, कुछ बड़ा, इसका यह नहीं मतलब कि जो तुम्हें बड़ा लग रहा है वह बड़ा ही है। वह कितना भी बड़ा है, तुम्हारे ही भीतर है न? तो उससे बड़े तो तुम ही हो, और जितने बड़े तुम हो उससे तुम्हें कोई संतुष्टि है नहीं। तो तुमसे भी छोटी जो चीज़ है तुम्हारे भीतर वह तुम्हें क्या खाक संतुष्टि देगी। क्यों उसके पीछे जा रहे हो?'

यह छोटी सी बात है, समझनी बहुत ज़रूरी है। हम स्वयं से परेशान हैं, हम स्वयं से असंतुष्ट हैं, ठीक? फिर हमारे पास कोई आता है, उसकी बहुत ऊँची बातें हमें बहुत आकर्षित कर लेती हैं और हमें लगता है कि यही तो है जो हमें मुक्ति दिला देगा। यही तो है जिसकी संगति कर लें या मित्रता कर लें तो न जाने कहाँ पहुँच जाएँगे हम। इसी तरीके से कोई और आता है, वह हमें बहुत सुंदर लगता है, हम कहते हैं 'देखो, कितना सुंदर है, कितना सुंदर है। ये अगर जीवन में आ जाए तो बसंत है फिर जीवन में।'

अब यह सब किसको लग रहा है? कोई बहुत बुद्धिमान है, विद्वान है, यह किसको लग रहा है? तुम्हें ही लग रहा है न? कोई बहुत सुंदर है और उसका जीवन में आना शुभ होगा, यह भी किसको लग रहा है? तुमको ही लग रहा है न? और तुम्हारी मूलभूत असंतुष्टि ही किसके प्रति है? अपने ही प्रति। अपने ही प्रति है न? तुम ख़ुद को ही लेकर यह कह रहे हो कि तुम्हें ज़िन्दगी समझ नहीं आती, शांत नहीं रह पाते, सही निर्णय नहीं ले पाते, और फिर अपनी ही उसी चेतना से तुम निर्णय ले लेते हो कि कौन महान है और कौन श्रेष्ठ है और कौन सुंदर है। यह कैसे ठीक काम किया यह बताओ?

यह ऐसी सी बात है कि तुम्हारे पास एक फ़ोन है, करामाती फ़ोन * । उसकी खूबी यह है कि उसमें जो भी नंबर मिलाओ, कोई और नंबर मिलता है। तुम कुछ भी * डायल करो, वह उससे हटकर ही कोई और नंबर जोड़ देगा। अब तुम इस फ़ोन को ठीक करना चाहते हो। इस फ़ोन की खासियत क्या है? इसमें तुम कुछ भी डायल करो यह कुछ भी, कहीं और ही कनेक्ट कर लेता है। तो तुम उसी फ़ोन का इस्तेमाल करके फ़ोन के इंजीनियर से बात करते हो। इंजीनियर का नंबर तुमने लिख रखा था। तुम डायल करते हो झटपट और मिला देते हो, और उधर से आवाज़ आती है, "क्या है?"

तुम बोलते हो " फ़ोन खराब है, कैसे ठीक करना है बता दो।"

बोलता है, "हाँ, हाँ बिलकुल बता देते हैं।" और वह बता भी देता है। वो कहता है "आरी लाना, एक आरी लाओ। स्क्रुड्राइवर (पेचकस) लाओ बड़ा वाला। और गाड़ी है तुम्हारे पास घर में?"

"हाँ।"

बोले, " जैक है उसमें जैक ?"

"हाँ।"

"वह भी ले आओ। और एक बड़ा हथौड़ा, स्लेज हैमर , वो लेकर आओ।"

और तुम यह सब कुछ कर रहे हो, क्योंकि भाई तुमने मैकेनिक को बल्कि इंजीनियर को फ़ोन मिलाया है न, और वो वहाँ से बता रहा है तुमको और तुम उसकी आज्ञा का पालन कर रहे हो। ऐसी हमारी ज़िंदगी है। उदाहरण कुछ स्पष्ट हुआ है? जो फ़ोन खराब है, जिससे हम दुखी हैं, जिससे हम परेशान हैं, हम उसी का इस्तेमाल करके उसकी मरम्मत कराना चाहते हैं और मरम्मत कर भी लेते हैं, गजब!

तुम अपने जीवन में सौंदर्य की कमी से परेशान हो और फिर तुम किसी को पकड़ लाते हो कि 'यह बहुत सुंदर है, इससे मेरे जीवन में सौंदर्य आ जाएगा।' पागल! तुम्हें सौंदर्य अगर पता ही होता तो पहली बात यह कि तुम्हारे जीवन में सौंदर्य की कमी क्यों होती? पहला सुंदर व्यक्ति कौन होता फिर तुम्हारे जीवन में? तुम ख़ुद होते। ख़ुद सुंदर नहीं हो इसका यह मतलब है न कि तुम्हें सौंदर्य का कुछ पता नहीं। और चूँकि तुम्हें सौंदर्य का पता नहीं इसीलिए तुम सुंदर नहीं हो, और इसीलिए तुम्हें और इच्छा उठती है कि कोई और मिल जाए सुंदर जिसको जीवन में ले आएँ तो सुंदरता की कमी पूरी हो जाए।

तुम ख़ुद नासमझ हो इसीलिए तुम्हें इच्छा उठती है कि कोई समझदार हो उसको ले आएँ। पर वह जो समझदार है जिसको तुम जीवन में ला रहे हो अपनी समझ बढ़ाने के लिए, उसको तुम अपनी ही समझ से चुन रहे हो, उसको तुम अपनी उसी नासमझ बुद्धि और अपने उन्हीं नासमझ पैमानों से चुन रहे हो जिनसे तुम पहले ही परेशान हो।

ऐसे तो हम चयन करते हैं गुरु का और प्रेमी का, प्रेमिका का, जीवन साथी का। इन्हीं को हम कह देते हैं, 'यह महान है, यह श्रेष्ठ है।' तो ऋषि कह रहे हैं 'बेटा, बचो! तुम जान नहीं पाओगे कौन महान है, कौन श्रेष्ठ है, लेकिन तुम्हें इतना बताए देते हैं कि जो भी तुम्हें लग रहा है महान वो महान नहीं। जो भी तुम्हें लग रहा है श्रेष्ठ, वो श्रेष्ठ नहीं। जो कुछ भी तुम्हें लग रहा है सुंदर, वो सुंदर नहीं।' पूरी प्रक्रिया नकार की है, नेति-नेति का काम चल रहा है।

मात्र वही है जो महान है, श्रेष्ठ है। अरे! उसको तो तुम जानते नहीं, तो उसको छोड़ो। इतना ही जान लो कि जिसको तुमने कह दिया है 'आहाहा! कितना अच्छा', वह नहीं अच्छा। जो तुम्हें भाए, ज़्यादा संभावना यही है कि तुम्हारे लिए शुभ नहीं होगा।

और अगर कुछ शुभ है तुम्हारे लिए और फिर भी तुम्हें भा रहा है, तो दो बातें हो सकती हैं। पहली बात तो यह कि जो तुम्हें शुभ लग रहा है, वह भी तुमसे ज़रा दूर-दूर का है। दूर है तुमसे इसीलिए तुम्हें अभी भा रहा है, वो तुम्हारे निकट आएगा जब तो अच्छा लगना बंद हो जाएगा। दूर का है इसीलिए बढ़िया है। 'आहाहा! क्या बातें हैं, क्या सुंदरता है, क्या मोहक शब्द हैं।' लेकिन अगर तुम्हारे जीवन में यह आ गया तो मुश्किल हो जानी है। एक तो यह हो सकता है।

या फिर जो शुभ है वह तुम्हें पसंद भी आ रहा है तो दूसरी बात यह हो सकती है कि अब तुम साधना के बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँचने वाले हो। तुम्हारी उत्कंठा अब प्रेम में बदल रही है। प्रेम का मतलब ही यही होता है, जिससे प्रेम है वो तलवार सा ही चला रहा है अपने ऊपर; ख़त्म कर रहा है, मार रहा है, लेकिन फिर भी उसके प्रति खिंचाव बढ़ता ही जा रहा है।

लेकिन यह दोनों ही बहुत अपवाद की स्थितियाँ हैं। ज़्यादा संभावना यही है कि जो कुछ भी हमें अच्छा लगेगा वो हमारे लिए अच्छा होगा नहीं। जो कुछ भी हमने अपने जीवन में भर रखा हो उसके प्रति सतर्क रहना होगा।

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