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लेख
हमारी असली पहचान क्या? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वांल्लोकानीशतः ईशनीभिः। य एवैक उद्भवे सम्भवे च य एताद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥

जो एक मायापति अपनी प्रभुतासंपन्न शक्तियों द्वारा संपूर्ण लोकों पर शासन करता है, जो अकेला ही सृष्टि की उत्पत्ति-विकास में समर्थ है, उस परम पुरुष को जो विद्वान जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १)

आचार्य प्रशांत: तीन बातें हैं यहाँ जिन्हें समझना जरूरी है। पहली बात, परमात्मा को या सत्य को 'मायापति' कहा गया है। दूसरी बात, उसे सब लोकों का शासक कहा गया है। और तीसरी बात, मात्र उसे ही सृष्टि की उत्पत्ति, विकास का कारण व नियंता माना गया है। संपूर्ण उपनिषद् वार्तामाला के दौरान हमने बार-बार कहा कि उपनिषद् संबोधित कर रहे हैं मन को, कि उनका प्रमुख उद्देश्य मन का उपचार करना है।

सत्य हाथ में आने वाली कोई वस्तु नहीं, सत्य ज्ञान के क्षेत्र का कोई सिद्धांत नहीं जो मन को सौंपा जा सके। तो निश्चित रूप से उपनिषदों का आशय सत्य को मन तक लाना नहीं हो सकता। सत्य और मन दो बहुत भिन्न आयाम में होते हैं। सत्य, सत्य है; मन सत्य नहीं है। जो सत्य नहीं है उस तक सत्य कैसे लाया जा सकता है? क्योंकि जो सत्य नहीं है वास्तव में उसका अस्तित्व ही नहीं है। जो है ही नहीं उस तक क्या उसको लाओगे जो है, जिसके अलावा कुछ और नहीं है।

तो यह धारणा हम बिलकुल अस्वीकृत कर दें कि उपनिषद् सत्य की बात कर रहे हैं। हम ऐसा अगर कभी कहें भी तो वह बात बस कामचलाऊ होगी, बहुत सटीक नहीं। ज़्यादा उचित होगा यह कहना कि उपनिषद् मन के उपचार के लिए हैं।

तो मन की बीमारी क्या है?

मन की बीमारी है मन की धारणा। ऐसी ही तीन धारणाओं को उपर्युक्त श्लोक में चुनौती दी गई है। कौनसी हैं वो तीन धारणाएँ? हमने कहा पहली, 'मायापति'; सत्य को मायापति कहा गया है। समझते हैं। माया क्या? वो जो हमें प्रतीत होता है, जिसकी हस्ती के बारे में हमें पूरा विश्वास हो जाता है, पर कुछ ही देर बाद या किसी और जगह पर, किसी और स्थिति में हम पाते हैं कि वो जो बड़ा सच्चा मालूम पड़ता था, या तो रहा नहीं, या बदल गया। ऐसे को माया कहते हैं।

ग़लत केंद्र से, अनुपयुक्त उपकरणों के द्वारा छद्म विषयों को देखना और उनमें आस्था बैठा लेना ही माया है।

तीन तरफ़ा ग़लती होती है, जो देख रहा है वो ग़लत है, दृष्टा या कर्ता। वो ग़लत क्यों है? क्योंकि देखते समय, देखने के बिंदु पर उसका इरादा सत्य देखना नहीं है। उसका इरादा है इस प्रकार देखना कि देखने वाले की हस्ती बची रह जाए, कि देखने वाले का अस्तित्व अक्षुण्ण सुरक्षित रह जाए। ये बेईमानी के साथ देखना हुआ। इस प्रकार के देखने में सत्यता, सत्यनिष्ठा बिलकुल नहीं।

जो ऐसे देख रहा है वो देखना चाह कहाँ रहा है? वो तो दिखाई देती चीज़ को भी अनदेखा करना चाह रहा है, झुठला देना चाह रहा है। हम कह भी नहीं सकते कि वो देखने का इच्छुक है। वो तो अपने-आपको धोखा देने का इच्छुक है। तो पहली ग़लती हमसे यह होती है कि देखने वाला ही ग़लत है।

दूसरी ग़लती होती है कि जो देखने का हमारा उपकरण है वह अनुपयुक्त है। हमारे देखने का उपकरण, सब अनुभवों को ग्रहण करने का हमारा उपकरण हैं हमारी इंद्रियाँ। और इन्द्रियाँ बहुत सीमित क्षेत्र में और बहुत बँधे-बँधाए तरीके से काम करती हैं। सत्य पूरा है और इन्द्रियाँ कभी पूरी चीज़ जान नहीं सकती।

कान पूरी बात नहीं सुन सकते, आँख सब कुछ देख नहीं सकती, मन सब कुछ याद नहीं रख सकता, बुद्धि कभी पूर्ण विवेचना नहीं कर सकती। तन हर जगह मौजूद नहीं हो सकता, तन हर समय मौजूद नहीं हो सकता। तो शरीर के जितने भी उपकरण हैं संसार को देखने, परखने और संसारगत अनुभवों को ग्रहण करने के, वो ज़बरदस्त तरीके से सीमित और अपूर्ण हैं।

तो देखने वाला ग़लत, देखने का उसका उपकरण सीमित, अनुपयुक्त। और जिस विषय को वो देख रहा है उस विषय को, मैं कह रहा हूँ, छलावा है, छद्म है, क्योंकि जो विषय देखा जा रहा है वो विषय भी देखने वाले से ही संबंधित है। आप सब कुछ तो नहीं देखते न? आपको क्या देखना है इसका आप पूरा चुनाव करके देखते हैं। कभी आपको अनायास, संयोगवश, कुछ अनचाहा, अनियोजित, दिखाई भी दे जाए तो उसको अर्थ तो आप अपने अनुसार ही देते हैं न? तो जो दिखाई दे रहा है वो आपकी प्रतिछवि है। आप ही ग़लत हैं तो आपकी छवि ठीक कैसे हो सकती है?

तो तीनों तलों पर ग़लती होती है। इन तीनों ग़लतियों को मिला करके जो निकलता है उसको माया कहते हैं। तो हम तो पूरे तरीके से माया के शिकंजे में रहते हैं, हम माया के दास हैं। और सत्य को यहाँ कहा जा रहा है मायापति। आशय क्या है? आशय है बीमार मन को यह बताना कि 'तेरा सिद्धांत ग़लत है, तेरा सिद्धांत है कि तू ही बड़ा होशियार है, तेरा सिद्धांत है कि तुझसे ऊपर कोई नहीं।'

मन ऐसा है कि अगर वो झुकता भी है तो ये वो स्वयं ही चुनता है कि किसके सामने झुकना है। ये झुकना भी कोई झुकना हुआ? मन अगर किसी ईश्वर को सर्वोपरि और सार्वभौम भी मानता है तो उस ईश्वर की रचना वह स्वयं करता है। अभी ईश्वर बड़ा हुआ या मन? मन अपने-आपको सबसे बड़ा ही मानता है, प्रमाण इसका यह है कि मन जिस किसी को, बाहर वाले को, अपने से किसी अलग इकाई को बहुत बड़ा माने भी, तो उस इकाई का चयन वह स्वयं ही करता है।

मन कहेगा 'मैं अपने देवता के सामने या अपने नेता के सामने झुकता हूँ, पर मेरा नेता कैसा होगा यह तो मैं तय करूँगा और नेता मेरी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, मेरा देवता अगर मेरी प्रार्थनाएँ नहीं सुन रहा, मेरी माँगे पूरी नहीं कर रहा, तो मैं उससे विमुख हो जाऊँगा।' मन जब किसी को अपने-आपसे बड़ा भी कहता है तो भी पीछे-पीछे, चोरी छुपे मन की धारणा यही होती है कि 'मैं सबसे ऊपर हूँ'। उसी धारणा को उपनिषद् चुनौती दे रहा है।

उपनिषद् कहता है, 'मन से तुम अपने-आपको सबसे ऊपर मानते हो लेकिन वास्तविकता देखो। तुम जिसके ग़ुलाम हो, कोई और है जो उससे ऊपर है।' कौन है जो उससे ऊपर है? वो कोई व्यक्ति, कोई इकाई, कोई वस्तु तो हो नहीं सकती। मन को फिर बताया क्या जा रहा है? मन को बताया यह जा रहा है कि तुम जहाँ पर हो, तुम वहीं बैठे-बैठे अपने-आपको बड़ा सूरमा माने बैठे हो लेकिन तुम्हारी संभावना, तुम्हारी सत्यता, कुछ और है।

एक तल है माया, अनंत ऊँचाई नहीं है माया। एक सीमित तल है माया, तुम उससे नीचे हो। उससे ऊपर जाया जा सकता है, माया का दास होने की जगह माया का स्वामी हुआ जा सकता है। और माया का स्वामी जो हो गया मात्र वही है नमन करने योग्य। उसी का नाम सत्य, उसी का नाम परमात्मा है और वो तुम नहीं हो, क्योंकि तुम अपनी वास्तविकता देखो, तुम तो दिन रात माया से मार खाते हो। तो तुम्हारे लिए करने को अभी बहुत कुछ शेष है।

उपनिषद् चुनौती दे रहा है, उपनिषद् कह रहा है, 'बहुत नीचे बैठे हो तुम, पर बहुत ऊपर हो सकते हो।' पहली बात, मानो कि तुम नीचे हो, यह मानना ही तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल है। तुम्हारी धारणा यह है कि तुम ही तीस-मार-ख़ाँ हो। ना, तुम तो बहुत सीमित, संकुचित, क्षुद्र इकाई हो एक। लेकिन सीमित, संकुचित, क्षुद्र रह जाना तुम्हारी नियती नहीं है।

जो आज माया का बंधक है, वो कल मायापति हो सकता है। जो माया का बंधक है, ठीक उसी के भीतर संभावना बैठी हुई है मायापति हो जाने की। लेकिन वह संभावना तब तक साकार नहीं होगी जब तक तुम अपनी झूठी धारणा को पीछे नहीं छोड़ देते, यह पहली बात हुई।

दूसरी बात, "वो अपनी शक्तियों द्वारा संपूर्ण लोकों पर शासन करता है।" तुम अपनी हालत देखो। जिसे संबोधित कर रहे हैं उपनिषद्, उससे कह रहे हैं 'तुम अपनी हालत देखो।' तुम लगातार शासित-ही-शासित हो। कुछ भी होता है, कोई भी आता है और वो तुम पर हावी हो जाता है, कम-से-कम तुम्हें प्रभावित तो कर ही देता है। लेकिन क्या तुम इस स्थिति से संतुष्ट हो? अगर संतुष्ट होते तुम, तो तुम्हें उपनिषदों के पास आने की ज़रूरत पड़ती नहीं। यह स्थिति तुम्हें कुछ भा तो नहीं रही।

शासित बने बैठे हो तुम, जबकि शासक हो जाने की योग्यता है तुम्हारी। शासक हो जाना मात्र योग्यता ही नहीं है तुम्हारी, अधिकार है तुम्हारा, नियति है तुम्हारी। तुम्हें शासक होना ही चाहिए, प्रमाण यह, कारण यह, कि शासक हुए बिना तुम चैन तो पाओगे नहीं।

लेकिन अभी देखो, जितने भी लोक हैं, सिर्फ पृथ्वीलोक ही नहीं, जितने मानसिक लोक भी हैं, उनकी कोई भी घटना, छोटी-बड़ी, तुम्हें विचलित कर जाती है। और ठीक उसके विपरीत कहा जा रहा है कि कोई है ऐसा जो त्रिभुवन का स्वामी है, जो त्रिलोक का स्वामी है, जो सब लोकों का शासक है। जैसे मन को जगाया जा रहा हो, जैसे मन को बहुत भूली-बिसरी पुरानी बात याद दिलाई जा रही हो। मन की यह धारणा तोड़ी जा रही है कि 'मैं क्या करूँ, मुझे तो ऐसे ही रहना है और मेरा ऊँचा-से-ऊँचा काम यह हो सकता है, आकांक्षा यह हो सकती है, प्राप्ति यह हो सकती है, कि मैं अपने सीमित घेरे में ही कोई छोटी-मोटी उपलब्धियाँ अर्जित कर लूँ।' ना।

मन से कहा जा रहा है यह छोटी-मोटी उपलब्धियाँ जिनके पीछे तुम भागते रहते हो, तुम इनके लिए नहीं बने हो, इनसे तुमको चैन नहीं मिल जाना है। तुम तब तक शांत नहीं हो पाओगे, तुम्हें भीतर की खलबली से मुक्ति तब तक नहीं मिलेगी, जब तक तुम तीनों ही लोकों के शासक नहीं हो जाते।

तात्पर्य क्या है? तीनों ही लोकों का कोई शासक कैसे हो सकता है?

तात्पर्य यह है कि तुम भीतर से ऐसे हो जाओ जिसको कहीं घटती कोई भी घटना, किसी भी तल की घटना, किसी भी तरह की घटना, तुम्हारे केंद्र से कम्पित ना कर पाए। जिसको कोई उसके सिंहासन से उतार नहीं सकता वो कौन हुआ? वो शासक ही तो हुआ।

कुछ होता रहे दुनिया में, तुम्हारे पास कुछ ऐसा है जो हिलेगा-डुलेगा नहीं, जिसमें किसी भी तरह के विचलन का, आलोड़न का, कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। जिसके इर्द-गिर्द तमाम गतिविधियाँ चल रही हैं, लेकिन जिसके पास कुछ ऐसा है जो किसी भी गतिविधि से, किसी भी लालच से, किसी भी डर से, किसी भी जन्म से, किसी भी मृत्यु से, किसी भी प्राप्ति से, किसी भी हानि से, ज़रा भी शंकित नहीं होता, कंपित नहीं होता। जिसको अपना मौन इतना प्यारा है कि वो आँख खोलना ही नहीं चाहता, आवाज़ करना ही नहीं चाहता, वो हो तुम।

और जो ऐसा है वो शासक है सब जगहों का क्योंकि सब जगह मिलकर भी असमर्थ हैं उसे उसके केंद्र से विमुख करने में। आध्यात्मिक अर्थ में राजा होने का, स्वामी होने का, या शासक होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम अपनी सत्ता, अपनी आज्ञा, अपनी हुकूमत चलाओगे। वो अर्थ बहुत सांसारिक होता है। संसार में जब कोई राजा होता है तो उसको पहचाना जाता है इस बात से कि कितने लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। यह बहुत सक्रिय तरह का सत्ता प्रदर्शन हो गया।

आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन ऐसे नहीं होता। अध्यात्मिक शक्ति चुपचाप, शांत, निष्क्रिय, मौन में अपने-आपको अभिव्यक्त करती है। आध्यात्मिक शक्ति अभिव्यक्त होती है अकंप रह जाने में, अटूट रह जाने में, अविचलित रह जाने में, अस्पर्शित रह जाने में। यह सारे शब्द देख रहे हो? यह सब नकार के हैं।

संसार यह सब कुछ करना चाहता है तुम्हारे साथ। तुम पर दाग-धब्बे लगा देना चाहता है। तो आध्यात्मिक शक्ति होती है निरंजन रह जाने में; संसार चाहता है तुमको रंजित कर दे, तुम स्वच्छ, निर्मल, निरंजन रह गए। संसार चाहता है कि तुम जहाँ केंद्रित हो वहाँ से उठा करके तुमको कहीं और बैठा दे। ना, तुम अपनी जगह पर स्थिर रह गए, हिले-डुले नहीं। संसार चाहता है कि तुम्हारी जो डोर है आस्था की, तुम्हारी जो तंद्रा है ध्यान की, उसको तोड़ दे, तुम अटूट रह गए।

यह सब लक्षण होते हैं आध्यात्मिक शासक के। वह सच्चा शासक है। उसे इसमें रुचि नहीं है कि दूसरे उसकी आज्ञा का पालन करें। दूसरों का यथार्थ वह कब का समझ चुका। वह भली-भाँति जान गया है कि जिन्हें अपने को लेकर शंका होती है, वही दूसरों पर सत्ता चलाने के बड़े आकांक्षी होते हैं। दूसरों पर किसी तरह का अनुशासन करने की उसकी अब अभिलाषा नहीं। वह तो बस अपने भीतर की गुफा में अटूट ध्यान में बैठ गया है। उसका दम, उसकी शक्ति, प्रदर्शित होती है उसके अविचलित रह जाने में। अविरल है उसका मौन।

तुमसे कहा जा रहा है उपनिषद् के द्वारा कि ऐसे हो सकते हो तुम और कितने खेद की बात है कि ऐसे नहीं हो तुम, और उससे भी ज़्यादा खेद की बात है कि जैसे बने बैठे हो तुम, उससे तुमने एक तरह की झूठी संतुष्टि भी पाल ली है। यह जो झूठी संतुष्टि है इस पर आक्रमण कर रहा है उपनिषद्। उपनिषद् कह रहा है 'ऐसे नहीं रह जाना है।'

अर्थ का अनर्थ मत कर लेना। यह श्लोक हमें यह बताने के लिए नहीं है कि कोई और है जो मायापति है, कि कोई और है जो शासक है। कोई और है जो मायापति है, कोई और है जो शासक है, तो फिर हमें तो बड़ी सुविधा हो गई। हम माया के बंधक, हमें पता चल गया, उपनिषद् द्वारा सत्यापित हो गया कि हमें तो ऐसे ही रह जाना है, यही भाग्य है हमारा। हम दुनिया भर से प्रताड़ित, हम हर छोटी-बड़ी चीज़ से प्रभावित, और हमें पता चल गया कि दुनिया पर राज करने वाला कोई और है, फिर हमें बड़ी सुविधा हो गई, हमने कहा, 'यह तो हम जानते ही थे! हम तो जो अधिक-से-अधिक, ऊँचे-से-ऊँचे हो सकते हैं वह तो हम पहले ही है।'

तुम समझ रहे हो यह कितने दुर्भाग्य की बात होती है जब तुम अपनी एक निम्न स्तरीय अवस्था में भी संतुष्ट हो जाते हो? जब तुम कहना शुरू कर देते हो 'मैं जैसा हूँ बड़ी मेहनत से पहुँचा हूँ यहाँ; मैं जैसा हूँ यहाँ पहुँचना भी कोई बच्चों का खेल नहीं। मैं जैसा हूँ, सम्मान का अधिकारी हूँ।'

उपनिषद् तुमसे कह रहा है कि तुम सम्मान के अधिकारी ज़रूर हो पर इसलिए नहीं कि अभी तुम किसी बहुत अच्छी हालत में हो। तुम सम्मान के अधिकारी इसलिए हो क्योंकि तुम उच्चतम स्थान के अधिकारी हो। सिर्फ़ वह जो उच्चतम स्थान है, उसी पर सम्मान है। उससे नीचे अगर तुम कहीं हो, और नीचे होते हुए भी अपने-आपको सम्मानित माने बैठे हो, तो यह तुम्हारा बड़ा अभाग है।

तो यह दोनों बातें साथ समझना। तुम्हें ऊँचे-से-ऊँचा सम्मान भी दिया जा रहा है और साथ-ही-साथ यह भी बताया जा रहा है कि क्यों व्यर्थ अपने-आपको सम्मानित किए बैठे हो। इन दोनों ही बातों को एक साथ समझना होता है। अध्यात्म हमें उच्चतम सम्मान भी देता है और कटुतम अपमान भी करता है हमारा। अध्यात्म हमारे प्रति यह दो तरफ़ा रवैया क्यों रखता है? क्योंकि भाई, हम दो हैं। हम दो हैं, तो जो दो हम हैं उन दोनों को अलग-अलग तरीके से संबोधित किया जाता है।

पशु-से-पशुतर हम हैं, न्यून-से-न्यूनतर हम हैं, क्षुद्र-से-क्षुद्रतर हम हैं, और उच्च-से-उच्चतर भी हम ही हैं, शुद्ध-से-शुद्धतर भी हम ही हैं, बुद्ध-से-बुद्धतर भी हम ही हैं। अजीब संगम है मनुष्य, बार-बार मैं कहा करता हूँ न, मिट्टी और आकाश जब एक हो जाते हैं किसी जादू से, तो जो प्रकट होता है उसे मनुष्य कहते हैं। तन उसका मिट्टी का है, चेतना उसकी आकाश से प्रेम करती है। वह चेतना जब मानने लग जाती है कि मिट्टी बने रहना ही उसकी क़िस्मत है, तो उपनिषद् धिक्कारते हैं उसको।

उपनिषदों से ज़्यादा कटु तरीके से, कठोर तरीके से, तिक्त तरीके से हमें कोई नहीं धिक्कारता। और उपनिषदों से ज़्यादा गरिमा हमें कोई नहीं देता। उपनिषदों से ज़्यादा कोई नहीं बताता हमें कि कितनी ऊँची महिमा है हमारी। हम दो हैं, दोनों तरह का संबोधन हमारे लिए ज़रूरी है।

अब प्रश्न यह है कि हम दो हैं तो, पर इन दो में से साधारणतया, आमतौर पर, हम अपने-आपको माने क्या बैठे होते हैं? नीचे वाला ही। तो फिर उपनिषदों का काम हो जाता है कि वो जो हम अपने-आपको माने बैठे हैं, उस पर सवाल उठाएँ, उस पर आघात करें, हमें मजबूर करें, कि हम अपनी धारणाओं का पुनर्विश्लेषण करें। वही काम इस श्लोक में भी हो रहा है।

तीसरी बात क्या कहता है श्लोक? "वो अकेला ही है जो सृष्टि के उत्पत्ति विकास में समर्थ है।" यहाँ भी हमारी धारणा तोड़ी जा रही है। हम तो मानते हैं कि हमारी उत्पत्ति हुई है एक नर से और एक मादा से। हम तो मानते हैं कि पेड़ उठा है ज़मीन से। हम तो मानते हैं कि यह चादर आयी है किसी फैक्ट्री से। हम मानते हैं कि अनंत वस्तुएँ हैं जो अनंत वस्तुओं को जन्म दे रही हैं। ऐसी ही हमारी धारणा है न? लेकिन फिर यह जो अनंत वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं, इनमें से कोई ऐसी भी तो नहीं है न जो हमें अनंत सुख और गहरा चैन दे पाए।

तो उपनिषद् चाह क्या रहे हैं यह समझिए। उपनिषद् कह रहे हैं, 'कब तक तुम फँसे रहोगे उन्हीं वस्तुओं में जो तुम्हें अन्य वस्तुओं से उत्पन्न प्रतीत होती हैं?' तुम्हें अगर सिखाया पढ़ाया ना जाए, तुम्हें अगर ज्ञान ना प्रदान किया जाए, तो तुम तो सुविधापूर्वक अपनी दुनिया इसी धारणा से और ऐसी ही चीज़ों से भरे रहोगे जो कभी जन्म लेती हैं और कभी ख़त्म हो जाती हैं। उन्हीं चीज़ों में से एक चीज़ तुम स्वयं को भी मानते हो। उपनिषद् कह रहा है, 'ना, ना, ना, ये सब कुछ झूठ है।'

जिस हद तक एक चीज़ किसी दूसरी चीज़ से आ रही है, उस चीज़ की तुम्हारे लिए कोई उपयोगिता ही नहीं है। जिस हद तक तुम किन्हीं दो शरीरों से आ रहे हो या जिस हद तक तुम्हारे सामने कोई व्यक्ति किन्हीं दो शरीरों से आया हुआ ही प्रतीत हो रहा है, उस व्यक्ति की तुम्हारे लिए कोई उपयोगिता नहीं।

ग़ौर कीजिए इन शब्दों पर − "वो अकेला ही उत्पत्ति विकास में समर्थ है।" वो अकेला ही। अगर मात्र उसी से उत्पत्ति होनी है, अगर मात्र उसी से विकास होना है, तो इसका मतलब हमारी जो धारणा है कि हमारी उत्पत्ति होती है दो व्यक्तियों के शारीरिक मिलन से और हमारा विकास होता है अन्न, जल और वायु ग्रहण करके, यह बात झूठी हो गई न।

फिर हमारी जो पूरी धारणा है कि वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं दूसरी वस्तुओं से, वह धारणा झूठी हो गई न? उस धारणा को क्यों झुठलाया जा रहा है? क्योंकि यह तो व्यावहारिक सत्य है ही कि बच्चा माता-पिता के संयोग से आता है, कि फल पेड़ पर लगते हैं, पेड़ मिट्टी से उठता है, मिट्टी में बीज पड़ा होता है। यह बात तो बिलकुल प्रकट सत्य है।

उपनिषद् उस बात को नकारना क्यों चाहते हैं? नकारना इसलिए चाहते हैं क्योंकि यह बात व्यावहारिक रूप से तथ्यात्मक होते हुए भी तुम्हारे लिए शुभ नहीं है, उपयोगी नहीं है। तुम बिलकुल तर्क देकर के सिद्ध कर सकते हो कि व्यक्ति की उत्पत्ति दूसरे व्यक्तियों से ही होती है। लेकिन जैसे ही तुमने माना कि तुम्हारी पहचान यह है कि तुम अपने पीछे के इंसानों से आ रहे हो, वैसे ही तुम्हारे जीवन में हाड़-माँस और प्रकृति के चक्रीय सिलसिले के अलावा फिर कुछ बचेगा नहीं।

उपनिषद् तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम्हारा शरीर ज़रूर एक अतीत से, एक परंपरा से आया है। अतीत तुम्हारा शारीरिक पिता हो सकता है पर तुम्हारा मानसिक पिता कोई नहीं होना चाहिए। शारीरिक रूप से निश्चित रूप से अतीत और प्रकृति तुम्हारे जन्मदाता हैं, पर मानस पुत्र तुम सत्य के ही हो। मानसिक रूप से तुम अपने-आपको देह से प्रजात मत मान लेना।

यह 'जात' शब्द समझते हो, जहाँ से जाति भी आया है? 'जात' माने होता है उत्पन्न। जो जहाँ से उत्पन्न अपने-आपको मान ले, वही उसकी जात हो जाती है, वही उसकी जाति हो जाती है। तुमने अपने-आपको अगर दो शरीरों से उत्पन्न मान लिया, तो जो निम्नतम जाति हो सकती है वह तुम्हारी है। और अगर सत्य के अभिलाषी हो तुम और जान गए कि शरीर आया होगा अन्य शरीरों से, मैं वह हूँ जो किसी शरीर से नहीं आता। तो फिर तुम उच्च जातीय कहलाने के अधिकारी हो गए।

देखो, अगर तुम्हारी धारणा यही रहेगी कि जगत से ही उठता है सब कुछ, तो फिर जगत ही तुम्हारा मालिक हो गया न, तुम उसी को पूजना शुरु कर दोगे। अब जगत को पूजने में बुराई क्या है? जगत को पूजने में बस छोटी सी एक हानि यह है कि जगत को पूज-पूज कर, जगत में संतुष्टि खोज-खोज कर आज तक किसी को कुछ मिला नहीं है। यह ग़लती बहुतों ने की, यह ग़लती तुम ना दोहराओ, इसलिए उपनिषद् तुमसे कह रहे हैं 'वहाँ मत जीवन का सार खोजने लग जाना, वहाँ मत संतुष्टि खोजने लग जाना जहाँ उसकी प्राप्ति की कोई संभावना नहीं है।'

दूसरी बात, जगत से जो उत्पन्न होगा, वह ख़त्म होकर, मर कर, गल कर, अंततः फिर जगत में ही विनष्ट हो जाना है। और विनष्टि से तुमको बड़ा डर लगता है। कोई ऐसा नहीं है जो समाप्त हो जाना चाहता हो। बड़ी अजीब बात है ये। कोई आयु हो, कोई वर्ण हो, कोई रंग हो, कोई लिंग हो, कोई देश हो, कोई काल हो, जैसे हम सबके भीतर बने रहने की एक निरंतर अभीप्सा रहती है। कोई बात तो होगी?

बात यह है कि मिट जाना हमारा नैसर्गिक स्वभाव है ही नहीं। मिट जाना एक झूठ है जो हमें प्रतीत होने लग जाता है। उस झूठ का कोई मेल नहीं बैठता हमारी आत्मा से, तो फिर भीतर खलबलाहट उठती है। मौत इसीलिए किसी को भाती नहीं। मौत वास्तव में इसलिए नहीं भाती क्योंकि मौत एक असंभावना है, मौत घटित हो नहीं सकती लेकिन लग ऐसा रहा है कि मौत आ रही है।

यह जो असमायोजन है, यह जो बेमेल घटना है, यह जो अनहोनी है, यह हमको विचलित कर जाती है। भीतर-ही-भीतर हम जानते हैं कि मिट तो हम सकते नहीं, लेकिन बाहर-बाहर जो कुछ है, वह हमको पूरे तरीके से यही प्रमाणित कर रहा है कि तुम तो मिटोगे। अब भीतर वाले की बात झुठलाई नहीं जा सकती और बाहर वाली की बात अनसुनी नहीं की जा सकती। हम फँस जाते हैं, भीतर एक घर्षण शुरू हो जाता है। इसीलिए मौत इतना बड़ा मुद्दा है हमारे लिए।

श्लोक कहता है, "उस परम पुरुष को जो विद्वान जान लेते हैं वो अमर हो जाते हैं।" जब तक जगत से संबंधित कर रखी है तुमने अपनी केंद्रीय, मूल, आत्यंतिक हस्ती, तब तक तुम मिट जाने के, मौत के भय में ही जीयोगे। मृत्यु के पार जाने का सिर्फ़ एक तरीका है कि तुम उन सब चीज़ों की अनित्यता देख लो, अनात्मिकता देख लो जो इस जगत की हैं।

खेल है जगत, एक चक्र है जगत, बच्चों का खिलौना जैसे एक लट्टू है जगत। बच्चा उठाता है उसे ज़मीन से, घुमा देता है, फिरने लगता है लट्टू; या कोई फिरकी है जगत, कितनी देर तक अपनी धुरी पर नाचेगा लट्टू? एक समय आएगा जब गिर ही जाएगा। जब तक नाच रहा है लट्टू, ताली बजाकर हँस लो। पर यह उम्मीद क्यों कि नाचता ही रहेगा लट्टू? लट्टू के नाचने को आधार बनाकर तुमने एक दुनिया रचा ली। तुमने जैसे लट्टू पर घर ही बना लिया। थोड़ी देर में लट्टू लुढ़क जाएगा, साथ में घर भी।

इसका क्या अर्थ है, कोई रिश्ता ही ना रखें दुनिया से? नहीं। वही रिश्ता रखो जो बच्चा लट्टू के साथ रखता है। जब तक खिलौना है, खेल लो, लेकिन पता रहे कि खिलौना है और पता रहे कि सदा तुम्हें बच्चा नहीं रहना है। अभी बच्चे हो, खिलौना मन बहलाव के लिए है। तुम्हें आगे जाना है, तुम्हें बड़ा होना है, तुम्हें विशाल वृहद होना है, तुम्हें ब्रह्म ही हो जाना है, तुम्हें खिलौनों से ऊपर उठ जाना है। खिलौनों में कोई बुराई नहीं, पर खिलौनों से ही खेलते रह जाने में जीवन की व्यर्थता ज़रूर है।

कोई बच्चा खिलौने से खेल रहा हो, सुंदर लगता है, मीठी बात है, बच्चा खिलौने से खेल रहा है। और बीस साल बाद आप आएँ, वह अभी भी खिलौनों से ही खेल रहा है, और इतना ही नहीं उसने अपने खिलौने को खूब सजा लिया है, खिलौने को बड़ा कर लिया है, अपने आकार के अनुपात में एक बड़ा लट्टू ले आया है, या लट्टुओं की पूरी एक फौज खड़ी कर ली है, तो यह बात ना मीठी है ना प्यारी है, यह बात अब विक्षिप्तता का द्योतक है।

आगे बढ़ना है, अतिक्रमण करना है, लाँघ जाना है। वह सब कुछ जो तुम्हें अभी तक प्रतीत होता रहा है, वह सिर्फ़ इसलिए है ताकि उसका उपयोग करके आगे बढ़ सको। वो इसलिए नहीं है कि तुम उसी के साथ अपनी एक शाश्वत पहचान बना लो।

मृत्यु उन्हीं को आती है जो समय का सदुपयोग नहीं करते। यह जो समय है न जो मार देता है, इस समय में ही अमरता के द्वार भी हैं। उन द्वारों को लेकिन तुम्हें ठीक मौके पर खोल देना होगा। मौत, काल, समय, पर्याय होते हैं एक दूसरे के, पर इसी काल में अमृत की कुंजी भी है। अब काल को भयानक मान लो, डरावना, या काल को अपना सहायक मान लो, है तो काल तुम्हारी सहायता के लिए ही। तुम उसको व्यर्थ जाने दो, तुम निरर्थक कामों में काल को गुज़ार दो तो यह तुम्हारा चुनाव है।

हम जीते ऐसे हैं जैसे मौत के सामने घुटने टेक चुके हैं। हमने तो जैसे आशा भी छोड़ दी है। हमने मान ही लिया है कि ख़त्म तो हमें हो ही जाना है और इस धारणा, इस भ्रांतिपूर्ण धारणा के ऊपर फिर हम अपने कर्मों का, अपने इरादों का, अपने संबंधों का, अपने जीवन का पूरा महल खड़ा करते हैं। इस महल की बुनियाद में जो धारणा है वही भ्रांतिपूर्ण है, तो यह महल स्थायी और स्थिर कैसे हो सकता है?

हमारी हालत ऐसी है जैसे किसी किले को, किसी गढ़ को लगे कि दुश्मन ने घेर लिया चारों तरफ़ से और अब हार पक्की है। तुम्हारा एक किला है जिसको किसी बहुत ताक़तवर शत्रु ने चारों तरफ़ से घेर लिया है और तुम्हें भरोसा हो गया है कि बच तो सकते नहीं। हाँ, कुछ समय बाद हार होगी क्योंकि दुर्ग की दीवारें ऊँची हैं, कुछ सुरक्षा व्यवस्था भी है। तो दुश्मन आकर के तुम पर विजय करेगा, तुम्हें मार ही देगा, इसमें थोड़ा समय लगेगा। तो उस समय को तुम मुझे बताओ कैसे व्यतीत करोगे?

जब तुमने धारणा यह बना ही ली है, कि दुर्ग के बाहर दुश्मन है जो तुम्हारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा। तो अब क्या तुम इस दुर्ग के भीतर जो तुम्हारा समय है, उसको आनंद में, उल्लास में, बोध में, प्रकाश में बिताओगे? क्या रहेगी तुम्हारी मनोस्थिति? तुम निरंतर घबराए हुए रहोगे। हो सकता है कि तुमने गणित किया हो कि दुश्मन को दुर्ग फतह करने में अभी चार महीने लग जाएँगे, हो सकता है आकलन यह भी हो कि चार साल लग जाएँगे। तुम्हें पता है तुम्हारे पास अभी सालों बाकी हैं, लेकिन फिर भी भीतर-ही-भीतर कैसे रहोगे? लगातार बेचैन।

मस्त हो कर के सो पाओगे क्या? दीवार के पार काल खड़ा हुआ है हाथ में तलवार लेकर के नंगी, और तुम्हें पता है कि तुम्हारी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं है। आज नहीं तो कल वो आएगा ही, तुम पर चढ़ बैठेगा और तुम्हें पूरा मिटा देगा। ऐसे जीता है यह पूरा संसार, ऐसे जीता है आम आदमी, वह घुटने ही टेक चुका है। इस बात से तो हम जैसे पूरी तरह सहमत हो ही चुके हैं कि कीड़े-मकोड़ों जैसी हस्ती है हमारी।

बरसाती कीड़े देखे हैं? क्या हस्ती होती है बेचारों की? उनमें से कई तो ऐसे होते हैं जिनका कुल जीवनकाल ही मात्र कुछ घण्टों का होता है, जानते हो? वो संध्या समय अण्डों से बाहर आते हैं और अगली सुबह होने से पहले उनका अंत हो जाता है। उनको तो फिर भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उनकी चेतना किसी भी प्रकार की ऊँचाई के लिए लालायित ही नहीं है। वो तो प्रकृति मात्र हैं, उनके लिए वो आठ घण्टे का समय ही पर्याप्त है। पर जब मनुष्य कीड़े-मकोड़ों सा जीवन जीने लग जाता है, तो उस जीवन से ज़्यादा विकृत और वीभत्स कुछ होता नहीं।

अब किले के भीतर, तुम्हारे पास, मान लो, कई महीनों का, सालों का, समय है। इन महीनों में, सालों में, बीच में होली-दिवाली भी आएँगे। तो ऐसा तो नहीं, कि तुम त्यौहार मनाओगे नहीं, मनाओगे तो। ऊपर-ऊपर उत्सव रहेगा, अंदर-अंदर शोक। भले ही जैसे एक आपसी समझौता हो और कोई किसी दूसरे से शोक की बात ना कर रहा हो, लेकिन आँखों में डर की डोर सारी कहानी बयान कर देगी।

ऊपर-ऊपर सब चल रहा है, शादी-ब्याह भी चल रहा है। अब एक लड़का, एक लड़की दुर्ग के भीतर एक-दूसरे से आकर्षित थे, तय किया गया कि चलो भाई इनका ब्याह कर दो। ब्याह भी चल रहा है, और ब्याह में नाच-गाना भी चल रहा है। ढोलक बज रही है, ढोल बज रहा है, बाँसुरी, शहनाई, सब बज रहे हैं, भीतर-ही-भीतर मातमी धुन, ऐसा है यह संसार। और संसारी ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने-आपको संसार से ही प्रजात मानते हैं। हम अपने-आपको मृत्युधर्मा मानते हैं।

जो अपने-आपको मृत्युधर्मा मान लेगा, वो जिएगा भी ऐसे जैसे मरा हुआ है। ऊपर-ऊपर से जी रहे हैं, अंदर-अंदर मरे हुए हैं।

जैसे कि प्राण घातक बीमारी का कोई मरीज़, जिसको बहुत अल्प आयु में ही सूचना दे दी गई है कि तुम ज़्यादा जीयोगे नहीं, तुम्हारे पास पाँच साल और हैं बस। अब वह पाँच साल जीयेगा तो ऊपर-ऊपर से हो सकता है कि वो सामान्य दिखने का प्रदर्शन भी करें, भीतर-भीतर सहमा हुआ है, आशंकित है। एक आँख से वैभव को देख रहा है, उत्सव को देख रहा है, कामना के तमाम विषयों को देख रहा है, और दूसरी आँख से वो दुर्ग के बाहर जो दुश्मन का परचम लहरा रहा है उसको देख रहा है। यह आदमी पूरे तरीके से सुख को भी कहाँ भोग पाएगा? इसकी एक नज़र तो मृत्यु पर है। हम सब ऐसे ही हैं।

लेकिन जब एक पूरे समाज के साथ, पूरी पृथ्वी के साथ ये स्थिति बन जाती है, तो थोड़ी देर पहले जैसा कहा गया, एक मूक समझौता कर लेते हैं सब आपस में। वो क्या होता है? कोई मौत का नाम नहीं लेगा। दुश्मन बाहर है, अब ये बात तो सर्वविदित है कि हम सब को मारा जाना है, पर हम अब इतना डर गए हैं कि हम उसकी चर्चा भी नहीं कर सकते। चर्चा करने का लाभ भी तब होता जब चर्चा करने से दुश्मन को परास्त करने की, मौत के पार जाने की कोई विधि निकलती, कोई संभावना बनती। पर बात करके क्या करेंगे?

हमने बिलकुल आशा तोड़ दी है। हमने बिलकुल सर झुका दिया है, हमने बिलकुल घुटने टेक दिए हैं। ऊपर-ऊपर से हम कितने भी जाँबाज़ बनते रहें, दिलखुश बनते रहें, दिलदार बनते रहें, स्फूर्तिवान दिखें, उमंगित दिखें, प्रफुल्लित, प्रमुदित दिखें, भीतर-ही-भीतर धारणा यही है कि 'मैं इधर से आया था, इधर को चला जाऊँगा।' इस धारणा के साथ कौन आनंदित रह सकता है? इस धारणा के साथ कैसा जीवन?

इसलिए उपनिषद् हमारी इस धारणा को बहुत ज़ोर से झकझोर देना चाहते हैं। कह रहे हैं, 'तुम क्यों मानते हो कि तुम मात्र प्रकृति का उत्पाद हो, शरीरों की, भूतों की निर्मित्ती हो? तुममें ऐसा क्या डर बैठ गया है कि तुम अपने भीतर की दैवीयता को और चेतना को अपनी पहली पहचान नहीं मान सकते?' और जितना, याद रखो, तुम अपने-आपको भौतिक उत्पत्ति मानोगे, उतना ज़्यादा भौतिक वस्तुओं के प्रति तुम्हारा आकर्षण भी रहेगा और उन पर निर्भरता भी, क्योंकि भौतिक संसार का तो नियम ही यही है। कोई मुझे भौतिक वस्तु दिखा दो जो दूसरी वस्तुओं पर निर्भर ना करती हो। दिखा दो।

यह तौलिया कहाँ रखा है? (मेज़ पर बिछी चादर के ऊपर पडे़ तौलिये की तरफ़ इशारा करते हुए) चादर पर। चादर कहाँ रखी है? मेज़ पर। मेज़ कहाँ रखी है? मंच पर। मंच कहाँ पर है? फ़र्श पर। फ़र्श किस पर है? धरती पर। धरती किसके इर्द-गिर्द घूम रही है? सूर्य के। सूर्य को उसके स्थान पर, उसकी कक्षा में कौन रखे हुए हैं? बाकी सब तारे। यहाँ कुछ भी है जो अनाश्रित हो? यहाँ कुछ भी है जो अपनी सत्ता से मुक्त घूमता हो?

किसी की अपनी कोई सत्ता ही नहीं है यहाँ। किसी को कोई मुक्ति ही नहीं यहाँ। तुमने भी अपने-आपको ऐसा ही मान लिया तौलिया जैसा, तो तुम भी क्या हो गए? एक के नहीं, सबके ग़ुलाम। ये तौलिया सिर्फ़ इस चादर पर ही आश्रित थोड़े ही है, श्रंखला लंबी है। तुमने भी अगर अपने-आपको इसी की तरह पार्थिव मान लिया, तो तुम भी हर एक पर निर्भर हो गए। देखो अपनी ग़ुलामी। क्या करोगे?

इसलिए तो हम इतनी आशंका में जीते हैं। दुनिया में कहीं कुछ भी हो रहा हो, हमारे कान खड़े हो जाते हैं, क्योंकि तुम हर चीज़ पर आश्रित हो। दुनिया में कहीं भी, कुछ भी, अगर ज़रा सा अपनी जगह से विस्थापित हुआ, तो उससे तुम्हारी भलाई पर आँच आ जाती है। अब कहने को तो ये तौलिया रखा हुआ है चादर पर। पर अगर भूकंप आ जाए तो तौलिए की हालत खराब होगी कि नहीं होगी? तौलिया क्या कह सकता है कि 'मैं तो सिर्फ़ निर्भर हूँ चादर पर'? नहीं।

इसी तरीके से कोई उल्कापिंड आकर के पृथ्वी से टकरा जाए, तो इस तौलिए की हालत खराब होगी कि नहीं होगी? सूर्य की सतह से भी ऊष्मा की बड़ी-बड़ी लपटें उठती हैं, उनमें तापमान भी होता है और उनका अपना एक चुंबकीय क्षेत्र भी होता है, सोलर फ्लेयर्स होते हैं। वो भी जब हो जाते हैं तो पृथ्वी की सेहत पर असर पड़ने लग जाता है।

अब देखो बेचारे तौलिए की मजबूरी, इस पूरे ब्रह्मांड में कहीं कुछ भी हो रहा हो, इसकी जान पर आफ़त आ जाती है। हमने भी अपने-आपको बना रखा है इस तौलिए जैसा, तो बताओ तुम चैन की नींद कैसे सोओगे? दुनिया में कहीं कुछ भी हो रहा होगा, तुम्हारा दिल धक से रह जाएगा।

बाहर खरगोशों को देखा है न, इधर वाला किवाड़ (दरवाज़ा) खोलते हो, खरगोश क्या करते हैं? (आचार्य जी हाथ से कान खड़े होने का इशारा करते हुए)। उधर वाला किवाड़ खोलते हो, खरगोश फिर से क्या करते हैं? (पुनः हाथ से कान खड़े होने का इशारा करते हुए)। जबकि उनको पूरी सुरक्षा से उनके घर में रखा हुआ है। दीवार के पार भी कोई बिल्ली कर देती है म्याऊँ, तो खरगोश क्या करते हैं? फिर एक कान नहीं, दोनों कान (दोनों हाथों से कान खड़े होने का इशारा करते हुए)। ऐसी ही हमारी हालत है।

अब समझ में आ रहा है, कि बहुत सारे लोग समाचार पत्र इतना क्यों चाटते हैं? क्योंकि कनाडा में भी किसी बिल्ली ने म्याऊँ कर दी तो यहाँ के खरगोश की सेहत पर असर पड़ेगा। हम इतने आश्रित हैं।

इसमें कुछ मज़ा नहीं है। उपनिषद् तो आनंद के पुजारी हैं। यह सारा उपक्रम ही किसके लिए किया जा रहा है? आनंद के लिए। इसमें क्या आनंद, निर्भरता, पराश्रयता? तो बड़ा नायाब रास्ता निकाला गया है। कहा, 'एक काम करते हैं, ये सब जो दूसरों पर निर्भर ही रहता है, इसका विसर्जन ही कर देते हैं। इससे नाता ही ज़रा दूर का रखते हैं।'

जैसे कि तुमने किसी के कपड़े ले रखे हों, ठीक है? तुम कपड़े पहनकर सो रहे थे। और तुमको उसने बोला हुआ है कि 'कभी भी आऊँगा और जो कुछ मेरा है, वह लेकर जाऊँगा', और तुम उसके कपड़े पहन कर सो रहे हो। और ज़रा से खटके पर नींद जाती है उचट। तो अगर तुममें सत्य और आनंद के प्रति ज़रा भी अनुराग है तो तुम क्या करोगे? तुम कहोगे "होंगे बड़े शानदार, बड़े महँगे कपड़े। अजी! हम नंगे ही भले।"

तुम सारे कपड़े उतार दोगे और वहाँ द्वार के पास रख दोगे। फेंक नहीं आओगे, बस उससे ज़रा दूरी बना लोगे। और कपड़ों पर एक ज़रा सी पर्ची रख दोगे कि 'भैया! भैंसे वाले भैया! आना, चुपचाप ये वस्त्र हैं तुम्हारे, इनको उठा ले जाना। हम मौज की नींद में हैं, हमारी नींद में ख़लल मत डालना।'

जो तुम्हारा है, उस पर तुम्हारा अधिकार है, ले जाना। लेकिन जो तुम्हारा है उससे हमने अब ज़रा दूर का रिश्ता कर लिया। हम अंदर वाले कमरे में हैं, जिसको उपनिषद् कहते हैं 'ह्रदय की गुहा'। हम अपने अंदर वाले कमरे में सो रहे हैं। कपड़े हमने ज़रा दूर रख लिए। तुम जब आना, कपड़े लेकर चले जाना, हमें परेशान मत करना। तुम्हारे कपड़े अगर हम पहने हुए हैं तो सो नहीं पाएँगे। और सोना हमें बहुत प्रिय है, सारा खेल ही विश्राम का है। अगर विश्रांति नहीं मिली तो जी किस लिए रहे हैं?'

ये सही रिश्ता है तुम्हारे और जगत के बीच का। दो हाथ की दूरी बना कर रखो। त्याग माने यह नहीं होता कि कपड़े फेंक आए। फेंक कहाँ आओगे? ज़रा दूरी बना लो, इतनी दूरी बना लो कि वो जब कपड़े ले जा रहा हो तो तुम्हारी नींद ना खराब हो। वह आया, कपड़े ले गया, तुम मस्त सोते रहे। या ये चाहते हो कि नींद भी कच्ची रहे और जब वो आए तब तुम्हें झंझोड़ कर उठाए, और थप्पड़ मार कर नंगा करे? इससे अच्छा ख़ुद ही नंगे हो जाओ न।

पर हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं, जब जी रहे होते हैं तब चैन नहीं, कि कोई कपड़े उतार ले जाएगा। और कपड़े उतारने वाला जब आता है तब हम कपड़े ऐसे सहेज कर पकड़ लेते हैं, कि 'नहीं, नहीं, नहीं, यह मेरे कपड़े थोड़े ही हैं, यह तो मैं ही हूँ। ये कोई बाहरी परिधान भर थोड़े ही है, यह तो मैं ही हूँ। इसे ले मत जाना, इसे ले मत जाना!' वो काहे को छोड़ेगा अपना माल? वो लगाता है एक सीधे हाथ का, एक उल्टे हाथ का। नंगे हुए तो हुए, बेइज़्ज़ती और हुई। ऐसे जीते हैं हम और ऐसे मरते हैं। कोई फ़ायदा?

उपनिषद् कह रहे हैं, 'अपनी गरिमा वापस पाओ। तुम ऊँची-से-ऊँची गरिमा के अधिकारी हो, तुमसे ज़्यादा सम्मान का कोई पात्र नहीं।' मंदिरों में, जिन मूर्तियों के सामने तुम सर झुकाते हो, वो आदर तुम वास्तव में अपनी ही आंतरिक संभावना को दे रहे हो। और अगर तुमने देवताओं को और ईश्वर को आदर दिया और अपनी ही संभावना के प्रति बेहोश रहे, तो तुम पर सारे मंदिर व्यर्थ ही गए।

उपनिषदों के प्रति अगर तुम सम्मान भाव से भरे रहे और अपने जीवन के प्रति तुममें कोई सम्मान नहीं, तुम्हारा जीवन ऐसे ही बीत रहा है, लतियाये जा रहे हो, गरियाये जा रहे हो, कभी भैंसे वाला, कभी बकरी वाला, कभी बिल्ली वाला, कभी गधा वाला, जो आ रहा है वही तुमको दुलत्ती लगा रहा है, तो क्या खाक जी रहे हो?

उपनिषद् बार-बार कह रहे हैं "अमृतस्य पुत्र:" अमृत के बेटे हो। अरे, उसकी तो लाज रख लो, जो बाप है तुम्हारा। क्यों भूल गए कौन हो तुम? जैसे कोई युवराज अपने महल से घूमने निकल पड़ा हो और किसी संयोग से, संयोग भी नहीं कहूँगा, भई युवराज है, अपना ही शासन है, तो पहुँचे किसी जगह पर, एकदम ताज़ी ताड़ी छानी जा रही थी। बोले, 'लाओ!' अब युवराज को कौन इनकार करेगा, तो उनको दे दी गई। अब युवराजों के युवराजों जैसा ही चलन। आम आदमी लेगा तो थोड़ा आदमी जैसी मात्रा में लेगा। युवराज है तो घड़ा भर कर अंदर। और ऐसा झटका लगा कि सब भूल ही गए। अब छः महीने हो गए हैं और इधर-उधर घूम रहे हैं हाथ में कटोरा लेकर के कि 'मैं तो भिखारी हूँ, मैं तो भिखारी हूँ।' हँस क्या रहे हो? वो हम हैं।

उपनिषद् तुम्हें झंझोड़ कर जगा रहे हैं, कह रहे हैं, 'युवराज उठो! तुम्हारा राज्य, तुम्हारा बाप, तुम्हारी गरिमा, तुम्हारी शान, सब तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं। तुम ये क्या भिखारी बने घूम रहे हो? तुमने कैसे अपनी इस गई-गुज़री हालत को ही अपना यथार्थ मान लिया?' कई मौकों पर तो ऐसा लगता है जैसे ऋषि क्रोधित हैं, तुम्हारी दुर्दशा पर क्रोधित हैं तुमसे। तुमसे पूछ रहे हो जैसे कि 'हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी अपने-आपको इतना बर्बाद कर लेने की?'

पर मन, अहंकार; एक क्षण को भी तुमको यह कौंधता ही नहीं कि 'शायद मैं जो बना बैठा हूँ, वो मेरी एक भूल है। वो मेरा ही एक निर्णय है, वो मेरी तक़दीर नहीं, नियति नहीं। वो मेरा ही एक भ्रान्तिपूर्ण चुनाव है।' तुमको ये बात ज़रा भी चमकती ही नहीं है; तुम आश्वस्त हो पूरी तरह से 'मैं तो ऐसा ही हूँ।'

जब कहते हैं ऋषि तुमसे कि देह नहीं हो तुम, तो वो तुम्हें तोड़ देना चाहते हैं तुम्हारी हर मान्यता से, क्योंकि तुम्हारी हर मान्यता उठ तो तुम्हारी देह से ही रही है न। कह रहे हैं, 'कुछ नहीं हो तुम; जितना तुमने ख़ुद को मान रखा है और जैसा तुमने दुनिया को मान रखा है, वो सब बातें ही झूठी हैं।' और फिर देहधारी के लिए एक सीमा तक मान्यताएँ आवश्यक भी हैं। पर कैसी मान्यताएँ? वैसी मान्यताएँ जो जीवन के लिए विष समान हों? ऐसी मान्यताएँ जो तुम्हारे जीवन के पौधे को बड़ा ही ना होने दें, हरा ही ना होने दें? मान्यता और मान्यता में भी भेद होता है न? मान्यता ही रखनी है तो जीवनमुखी मान्यता रखो न।

"असतो मा सद्गमय।" अरे! असत् की मान्यता क्यों रख रहे हो? सत् की भी तो रख सकते हो? "मृत्योर्मा अमृतं गमय।" मान्यता रखनी ही है तो मृत्यु समर्थक मान्यता क्यों रख रहे हो? मृत्यु माने समझते हो? मृत्यु समर्थक मान्यता माने ये नहीं कि देह मरेगी। मृत्यु समर्थक मान्यता माने भय समर्थक मान्यता, विनाश समर्थक मान्यता, देह समर्थक मान्यता।

देह तुम्हारी पशु की ही है, कृपा करो, ये बात समझो। तुम्हें लाभ क्या मिल रहा है देह-देह करके? अगर सिर्फ़ देह की बात करोगे तो तुम्हारी देह में और बंदर की देह में बहुत कम अंतर है। किसी वैज्ञानिक से पूछोगे तो वो कहेगा ९९.५ % डी.एन.ए समान है, शायद और ज़्यादा। शेर के सामने ले जाकर आदमी का माँस डाल दो, चिंपांज़ी का माँस डाल दो, वो भेद नहीं करेगा, वह कहेगा 'बढ़िया! माँस-माँस एक जैसा।'

शरीर के तल पर वास्तव में बताना कितना अंतर है तुममें और पशुओं में? तुम जो दवाइयाँ खाते हो पहले उनका परीक्षण भी पशुओं पर कर दिया जाता है। बेचारे! क्यों कर देते हैं पशुओं पर परीक्षण? क्योंकि तुम्हारी और पशुओं की देह बहुत हद तक एक जैसी है। जो दवाई पशु के लिए ठीक है, तुम पर भी ठीक होगी। और जो घातक दवाई होती है, जो पशु को मार देती है वो तुम तक पहुँचने नहीं दी जाती, तुम्हें भी मार देगी वो।

वैसे तो हम बड़े आहत हो जाते हैं कोई हमारा अपमान कर दे, और दिन-रात जो हम स्वयं अपना अपमान करते हैं एक पूर्णतया भौतिक जीवन जीकर! भौतिक जीवन माने देह-केंद्रित जीवन, जो देह-केंद्रित जीवन जी रहा है उसने अपने-आपको जानवर घोषित कर दिया कि नहीं कर दिया? क्योंकि देह तुम्हारी बराबर देह जानवर की। सबसे बड़ा अपमान हम स्वयं नहीं करते अपना?

ऋषि पिता हैं, उन्हें नहीं भाता हमारा अनादर। तो सब उपनिषदों में, सब श्लोकों में, भिन्न-भिन्न विधियों से उनका उद्देश्य एक ही है − तुम्हें सही रास्ते पर लाना, तुम्हें तुम्हारे यथार्थ से अवगत कराना।

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