आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
'मोटिवेशन' और 'पॉज़िटिव थिंकिंग' - पूरी बात
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने आपके पॉज़िटिव थिंकिंग को लेकर काफी वीडिओज़ देखे हैं और हमेशा आप पॉज़िटिव थिंकिंग को लेकर आलोचनात्मक ही रहे हैं। ये बात मुझे समझ में भी आती है कि पॉज़िटिव थिंकिंग की जगह समझ ज़्यादा ज़रूरी है लेकिन मैंने अपने स्वयं के जीवन में देखा है कि मुझे पॉजिटिव थिंकिंग की ज़रूरत पड़ती है। कई बार निराश हो जाता हूँ तो उस समय ये ज्ञान काम नहीं आता। उस समय यही काम आता है कि पॉज़िटिव रहो, आशा रखो। तो मैं दोनों चीज़ों में फँसा हुआ हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा कि किस तरफ जाऊँ। कृपया इसे समझाइए।

आचार्य प्रशांत: देखो, पॉज़िटिव थिंकिंग का संबंध इच्छा से है न? जब आपको किसी चीज़ की इच्छा उठती है और वो चीज़ आपको मिल नहीं रही होती है, तकलीफ़ होती है, निराशा होती है कि कुछ चाहिए वो मिल नहीं रहा है। तो आगे के लिए हौसला बनाए रखने को फिर इंसान पॉज़िटिव थिंकिंग का सहारा लेता है, आशावादी दृष्टिकोण या आशावादी चित्त, सोच।

लेकिन जब आप आशा रखना चाहते हो कि भविष्य में आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी तो उस वक़्त क्या ये ज़रूरी नहीं है पूछना कि आप जिस इच्छा को पूरा करना चाहते हो वो आपमें कहाँ से आ गई? वो इच्छा आपके भीतर आ ही कहाँ से गई? क्योंकि आप उस इच्छा के साथ पैदा तो नहीं हुए थे। आज हो सकता है आपको वो इच्छा हो, छह महीने पहले तो नहीं थी या दो साल पहले या पाँच साल पहले तो नहीं थी। तो इच्छा आप में कहाँ से आ गई?

तो पॉज़िटिव थिंकिंग की बात बाद में आती है, पहले सवाल ये आता है कि हममें इच्छा कहाँ से आ जाती है। क्योंकि हमारी जब इच्छाएँ आती हैं और वो इच्छाएँ जब पूरी नहीं होती हैं तभी हम पॉज़िटिव थिंकिंग वगैरह की बात करते हैं। तो इच्छा ही कहाँ से आती हैं?

अगर आप थोड़े भी सजग हैं तो आपको दिखाई देगा कि, किसी भी इंसान में इच्छा जागृत कर देना कोई मुश्किल काम नहीं है। एक बार किसी इंसान में आप किसी चीज़ की इच्छा जागृत कर दें तो उसको यही लगने लगता है कि उसमें जो इच्छा उठी है वो उसकी अपनी व्यक्तिगत या मौलिक इच्छा है। उसको ये बिलकुल ध्यान नहीं रहता, वो बिलकुल भूल जाता है कि उसकी इच्छा उसकी अपनी है ही नहीं।

ये कहना भी ठीक नहीं है कि उसमें इच्छा किसी और ने जागृत कराई थी। ऐसे कह लीजिए कि उसमें इच्छा किसी और ने प्रविष्ट करा दी है। उसके मन में घुसेड़ दी है, खामखा ठूस दी है। तो मैं यही बार-बार समझाने की कोशिश करता हूँ कि हमारी ज़्यादातर इच्छाएँ, शायद हमारी सभी इच्छाएँ, हमारी हैं ही नहीं। कोई दूसरा है जो हमारे मन में इच्छाएँ लेकर आ रहा है, घुसेड़ रहा है, प्रविष्ट करा रहा है, ज़बरदस्ती। जैसे कोई वायरस आपके भीतर घुस जाता है बिना आपकी अनुमति के। वायरस आपसे पूछता तो नहीं है न कि, "तुम्हारे भीतर आ जाऊँ क्या?" पर वो आ जाता है। वैसे ही इच्छा होती है, एक बाहरी चीज़ जो आपके भीतर घुस जाती है। घुस इसलिए जाती है क्योंकि आप असावधान हो। घुस इसलिए जाती है क्योंकि आपने बिलकुल भी सतर्कता नहीं रखी है, पहरा नहीं रखा है कि आपके मन में कौन सी चीज़ कहाँ से आ रही है।

अब कोई अगर चाहता है कि आप उसका माल ख़रीदो, कुछ भी माल हो सकता है, एक मोबाइल फ़ोन, कपड़ा, जूता, टीवी, कार, मकान कुछ भी — कोई अगर चाहता है कि आप ये सब चीज़ें ख़रीदो क्योंकि उसको मुनाफ़ा बनाना है आपसे तो वो आपके मन में पहले इच्छा जागृत करेगा। लूट-खसोंट तो कर सकता नहीं। आपको पिस्तौल दिखाकर, धमका कर पैसे तो लूट सकता नहीं तो वो आपसे पैसे कैसे निकलवाता है? वो पहले आपमें विज्ञापन के माध्यम से या किसी और तरीके से इच्छा पैदा करता है। और जब इच्छा पैदा हो जाती है तो आप कहते हो कि ये तो मेरी इच्छा है और आप उसी व्यक्ति के पीछे चले जाते हो। वो मुस्कुराता है और आपसे पैसे ले लेता है।

तो ये बहुत जानी हुई बात है कि हमारी इच्छाएँ, हमारी नहीं होती हैं। हमारी इच्छाएँ हममें सामाजिक प्रभाव से आती हैं, दोस्तों-यारों के प्रभाव से आती हैं। आँखे जो इधर-उधर देख रही हैं, कानों में जो इधर-उधर से आवाज़ें पड़ रही हैं, उन सब चीज़ों से हमारे भीतर इच्छाएँ उठ जाती हैं। अब ये इच्छाएँ तो हमारी अपनी तो हैं नहीं, बाहरी हैं। तो इनका हमारे हृदय से कोई ताल्लुक नहीं होता। हृदय माने? हमारे भीतर जो सच्चाई का बिंदु है, हमारा केंद्र।

तो हमारी सच्चाई से तो इन इच्छाओं का कोई संबंध होता नहीं। ये तो बाहरी हैं। किसी और ने जैसे आपको मजबूर कर दिया हो कुछ चाहने के लिए और आप इस बात को समझ भी नहीं रहे हैं कि आप मजबूर करे जा रहे हैं। तो चूँकि ये हमारी अपनी नहीं है तो इसीलिए इनका हमसे कोई जीवंत संबंध नहीं होता। हमारे दिल से इनका कोई वास्तविक नाता नहीं होता। भले ही हम कितना ही कहते रहें कि ये मेरी दिली-ख्वाहिश है, मेरी हार्दिक इच्छा है लेकिन उसका हमारे हृदय से, हमारी सच्चाई से, हमारे केंद्र से कोई ताल्लुक होता नहीं है।

चूँकि नहीं होता इसीलिए कुछ दिनों तक हम उस इच्छा के पीछे भागते हैं और फिर पाते हैं कि अब कोई उत्साह बच नहीं रहा है। दो-चार दिन इच्छा के पीछे भागे, कोई चीज़ ऐसी लगी कि पाने लायक है, उसके पीछे भागे, वो दो-चार दिन में नहीं मिली तो सारा जोश ठंडा पड़ जाता है।

जैसे आपने देखा कि कोई किसी नौकरी में है और उस नौकरी में खूब चमक-धमक है, पैसा है, रुतबा है और आपके घरवाले भी कह रहे हैं कि फलानी नौकरी ही करनी चाहिए, उस नौकरी में ऐसा है वैसा है। तो कुल मिलाकर के वो जो नौकरीशुदा आदमी था, उसकी ख्याति ने और पैसे ने और घरवालों के दबाव ने, इन सब ने मिलकर के आपको मजबूर कर दिया था किसी नौकरी को चाहने के लिए। अब वो नौकरी आपको बैठे-बिठाए मिल नहीं जानी है, उसके लिए कोई प्रवेश-परीक्षा है। उसकी आप तैयारी करने बैठे। हफ्ते भर तैयारी की और फिर जोश ठंडा पड़ गया। अब जब जोश ठंडा पड़ जाएगा तो आप कहेंगे, "अरे मुझे अब पॉज़िटिव थिंकिंग चाहिए।"

या आपने उस नौकरी का मान लीजिए एक प्रयास किया, एक अटेम्प्ट दिया और आप असफल हो गए जैसे ज़्यादातर लोग होते हैं। तो एक बार असफल हो गए, मान लीजिए दो बार असफल हो गए अब तीसरी बार के लिए जोश ही नहीं उठ रहा, उत्साह नहीं। तो फिर आप कहते हैं कि, "मुझे पॉज़िटिव-थिंकिंग चाहिए।"

ये पॉज़िटिव थिंकिंग आपको चाहिए ही इसीलिए है क्योंकि आप जो काम करने निकले थे उस काम से आपका कोई हार्दिक नाता कभी था ही नहीं, तभी तो आपका जोश ठंडा पड़ गया वरना आपको किसी पॉज़िटिव थिंकिंग वगैरह की ज़रुरत क्यों पड़ती? सोच, समझ, सच्चाई, काफ़ी होते हैं न आपको काम पर लगाए रखने के लिए। लेकिन न सोच थी, न समझ थी, न सच्चाई थी, सिर्फ बाहर से किसी ने पम्प मार दिया था। तो इसीलिए उत्साह ठंडा पड़ गया फिर आपको मोटिवेशन चाहिए फिर आपको पॉज़िटिव थिंकिंग चाहिए।

तो इसीलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि ये पॉज़िटिव थिंकिंग और पॉजिटिविटी के खेल में कम पड़ो। सच्चाई बहुत बड़ी बात है, ये पॉज़िटिव थिंकिंग वगैरह बहुत ओछी बातें हैं। अब आप तर्क कर सकते हैं कि ये भी तो हो सकता है कि कोई बिलकुल दिली काम कर रहा हो, सच्चा काम कर रहा हो और फिर भी उसको पॉज़िटिव थिंकिंग की ज़रूरत पड़े तो मैं कहूँगा थोड़ा समझना होगा।

पहली बात तो जब आप कोई सच्चा काम कर रहे होते हो तो सच्चाई के साथ समझ अनिवार्य रूप से चलती है। और जहाँ आप समझते हो कि चीज़ कितनी ज़रूरी है वहाँ आप अगर चाहो भी तो वो काम अपने आप को करने से रोक नहीं पाओगे।

पॉज़िटिव थिंकिंग की तलाश में जो लोग रहते हैं वो चाहते हैं कि काम करे पर काम कर नहीं पाते क्योंकि जोश नहीं आता और जो लोग सही काम कर रहे हैं ज़िन्दगी में कभी-कभार उनका मन करे भी कि ये काम नहीं करना है क्योंकि तकलीफ बहुत आ रही है, चुनौतियाँ बहुत आ रही हैं और अड़चनें बहुत आ रही हैं तो ये काम करने का अब मन नहीं कर रहा — भीतर से कई बार आलसी होता है न जब चुनौतियाँ, असफलताएँ आती हैं, तो बोलने लगता है कि अब नहीं करना है। लेकिन अगर आप सही काम कर रहे हो तो मन कुछ भी बोलता रहे आप रुक ही नहीं पाओगे। उल्टा है, पॉज़िटिव थिंकिंग वाला चाहता है करना लेकिन फिर भी नहीं कर पाता और सच्चा आदमी अगर नहीं भी चाहे काम करना तो भी उसे करना पड़ता है। उसका दिल उसे मजबूर करके उससे काम करा ले जाता है।

प्र: पर जैसे सच्चा काम भी, जैसे आपके काम में भी मैंने देखा है। जैसे कई बार हताशा ही रहता है कि इतने सारे लोग हैं, कुछ बदलाव नहीं आ पा रहा। लेकिन तभी कई बार ऐसा होता है कि कुछ एक-दो लोगों का ऐसा कमेंट आता है कि उसके जीवन में परिवर्तन आया है, तब हमको अंदर से बहुत अच्छा लगता है।

आचार्य: हाँ-हाँ, बिलकुल सहमत हूँ।

प्र: तो क्या ये पॉज़िटिव थिंकिंग है?

आचार्य: सहमत हूँ इस बात से। मेरी पिछली जो बात थी वो पूरी नहीं हुई थी। मैंने कहा था जो लोग सही काम कर रहे हैं, पहली बात तो उन्हें पॉज़िटिव थिंकिंग वगैरह की ज़रूरत बहुत कम पड़ेगी।

दूसरी बात, जब पड़ेगी तो उनको ये मंत्र नहीं चाहिए कि तुम अगर जीत गए तो देखो तुम्हें क्या-क्या सुख हाँसिल होगा। ये पॉज़िटिव थिंकिंग वाले जो होते हैं, जब ये अपने आप को मोटिवेट करना चाहते हैं, जब अपने आप को उत्साहित करना चाहते हैं तो अपने आप को क्या बताते हैं? कहते हैं, "लगे रहो, लगे रहो, जीत तुम्हारी होगी और जीत अपने साथ बहुत सारा सुख लेकर के आएगी, प्लेज़र लेकर आएगी।"

प्र: स्वर्ग का सपना दिखाया जाता है।

आचार्य: हाँ, "स्वर्ग मिल जाएगा। लगे रहो लगे रहो स्वर्ग मिलेगा", नहीं। सही आदमी जब अपने-आपको कभी कभार उत्साहित करना चाहता है, तो वो अपने आप को ये नहीं बोलता कि परिणाम बहुत अच्छा आएगा, जीत बहुत अच्छी मिलेगी। वो अपने-आपको ये याद दिलाता है कि जो काम कर रहे हो, वो काम कितना ज़रूरी है।

इन दोनों बातों में अंतर समझिए। एक आदमी होता है जो अपने-आपको ये बोलकर के प्रोत्साहित करता है कि अगर जीत गए तो क्या ज़बरदस्त खज़ाने मिलेंगे। और दूसरा आदमी है जो अपने-आपको ये बोल के प्रोत्साहन देता है कि लड़ते रहो, लड़ते रहो क्योंकि ये लड़ाई बहुत ज़रूरी है। जीत मिलेगी या हार मिलेगी परवाह नहीं, लड़ना ज़रूरी है। इन दोनों बातों में ज़मीन आसमान का अंतर है।

लोग इन बातों को समझते नहीं है। हम कोशिश पूरी करते हैं समझाने की, लेकिन वे पॉज़ीटिविटी के खेल में लगे रहते हैं, पॉज़िटिव रहो और ये सब। और उसमें ज़्यादातर जो आपको निरुत्साह खड़ा हो रहा है, जो आपमें जोश नहीं रहता, जो आपका संकल्प फ़ीका पड़ जाता है, आप संकल्प लेते हो, आप कसम लेते हो इस बार ये कर दूँगा, इस बार वो कर दूँगा, बहुत कुछ करूँगा और कर कुछ नहीं पाते। उसकी वजह ही यही है कि आप काम ही गलत कर रहे हो। आप जिस लक्ष्य के पीछे हो उस लक्ष्य के पीछे आपको होना ही नहीं चाहिए था। जब होना ही नहीं चाहिए उस लक्ष्य के पीछे तो आपमें दम कहाँ से आएगा, आपमें ऊर्जा ही नहीं उठती।

प्र: मुझे याद है एक बार आपने रात को तीन बजे उठा के एक वीडियो प्रकाशित कराया था। उसमें किसी में कुछ अशुद्ध अर्थ कहीं पर था तो आपने कहा था कि इसका सही जवाब जाना बहुत ज़रूरी है। इसमें ये परवाह नहीं थी कि इसको कितने दर्शक देखेंगे या कुछ होगा। पर ये एक अनिवार्यता थी कि इसको करना ही है।

आचार्य: देखिए, यही एकमात्र तरीका है, ये अपनी छोटी सी ज़िन्दगी सही तरीके से जीने का। जो सही है वो करना है। हथियार डाल दो, मजबूर हो जाओ। बिलकुल समर्पण कर दो कि जो सही काम है वो तो करना ही है। अंजाम क्या होगा, न हम जानते हैं, न हमें परवाह करनी है। परवाह हम करते हैं पूरी-पूरी बस एक चीज़ की, ये समझने की कि ये जो काम है, ये ठीक है या नहीं है। ये जानने, ये समझने में हम पूरी ताकत झोंक देते हैं। ये समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है कि ये जो काम हम कर रहे हैं ये सही है या नहीं, ये ज़रूरी है या नहीं।

जितने तरीके से, जितने कोणों से जाँच-परख सकेंगे, परखेंगे। एक बार जान गए कि सही काम में हैं, उसके बाद आगे क्या होगा इसकी परवाह नहीं करनी है। जो इस तरीके से जिएगा उसे न कभी प्रोत्साहन की ज़रुरत पड़ेगी न पॉज़िटिव थिंकिंग की। और मैं आगाह किए देता हूँ कि जिन लोगों को पॉज़िटिव थिंकिंग की और प्रोत्साहन की ज़रूरत ज़्यादा पड़ती है, ये वो लोग हैं जो ज़िन्दगी ही गलत जी रहे हैं।

प्र: यहाँ पर ये बात तो समझ में आ गई कि आपकी जो इच्छाएँ हैं, आप जो चाहते हो पाना, वो सही में पाने लायक है कि नहीं ये अच्छी तरह जाँचना है। क्योंकि वो चीज़ नहीं मिल रही तो हमलोग फिर हताश होकर पॉज़िटिव थिकिंग की तरफ़ भागते हैं। ये साधारण तरीका है इस चीज़ को समझने का। पर कई जगह मैंने ऐसा भी देखा है कि मान लो किसी को जानलेवा बीमारी हो गई, किसी को कैंसर हो गया। अगर वो पॉज़िटिव थिंकिंग न रखे, तो फिर वो उससे लड़ेगा कैसे?

आचार्य: नहीं, उसके पास लड़ने की कोई वजह होनी चाहिए न। देखिए, जीना अपने-आपमें कोई बड़ी बात नहीं होती है। साँस लेना, चलना, उठना, बैठना, फिरना, इसका नाम जीवन नहीं है कि आप खा रहे हो तो आप जीवित हो। इसको जीवित होना तो नहीं कहते न?

अगर मुझे कैंसर हो गया है और मेरे पास छह महीने ही हैं। तो मैं सबसे पहले तो ये देखूँगा कि इन छह महीनों में मेरे पास कौन-कौन से ज़रूरी काम हैं। कौन से काम हैं जो करने बहुत-बहुत ज़रूरी हैं, जो मौत से भी ज़्यादा अनिवार्य काम हैं। ठीक है? ऐसे काम जिनकी खातिर मौत से भी लड़ा जा सकता है। फिर अगर मुझे दिखाई देगा कि मेरे पास कुछ ऐसा है जो करने के लिए मुझे कम-से-कम दो साल चाहिए, छह महीने में काम चलेगा नहीं। तो मैं, सिर्फ तब मैं कहूँगा कि मुझे कैंसर से लड़ना है, मुझे दो साल जीना है क्योंकि मेरे पास जीने के लिए एक बहुत माकूल वजह है। मेरे पास जीने के लिए एक बहुत ऊँचा और आवश्यक कारण है। सिर्फ तब मैं अपनी उम्र बढ़ाना चाहूँगा। नहीं तो छह महीने और दो साल में अंतर क्या होता है? और दो साल और बीस साल, और बीस साल और दो हज़ार साल, ये तो समय के आँकड़ें हैं।

प्र: अब समझ में आया कि जीने की इच्छा क्यों होती है।

आचार्य: आप कह रहे थे न कि कोई क्यों और जीना चाहे। और जीना तब चाहो जब जीने से तुम्हारे कोई सार्थक प्रयोजन सिद्ध होता हो। नहीं तो बिलकुल सही बात है, मैं सहमत हूँ कि ये ज़बरदस्ती के जिए जाने में क्या रखा है। आप क्या सिर्फ इसलिए जी रहे हो कि इतनी बड़ी दुनिया की आबादी है, उस आबादी के आँकड़ें में एक संख्या और एक नाम आपका भी है। ऐसे जीने में क्या रखा है!

और अगर मेरी जान ज़रूरी है किसी ऊँचे मकसद के लिए तो मैं अपने जान की परवाह ज़रूर करूँगा, तब मैं अपनी जान बचाने की ख़ातिर मौत से भी लड़ जाऊँगा। तब मैं यमराज से कहूँगा कि वापस लौट जाओ, मेरा अभी छह महीने जीना और ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ तब। ये नहीं कि मैं निठल्ला बैठा हूँ, धरती पर बोझ। ऐसे में अगर यमराज आएँगे तो मैं कहूँगा कि ले चलो मुझको।

प्र: तो सामान्यतः पॉज़िटिव थिंकिंग ज़रूरी नहीं है, ये जाँचना ज़रूरी है कि आप जो भी चाह रहे हैं वो सही है या नहीं।

आचार्य: ये जाँचना ज़रूरी है कि तुम कर क्या रहे हो। तुम्हारे होने से कौन सी चीज़ है जो बन रही है। तुम्हारे इस पृथ्वी पर जीवित होने का उद्देश्य क्या है। कुछ लोग कहेंगे कि, "नहीं साहब जीवन तो निरूद्देश्य होना चाहिए और आपने कई बार खुद भी बोला है कि निरूद्देश्य…" निरुद्देश्यता आखिरी मकसद होता है। ठीक है? वो बिलकुल आखिरी बिंदु है कि जब आप निष्प्रयोजन, निरुद्देश्य हो गए। उससे पहले तो उद्देश्य होना ही चाहिए न।

तो जो सही उद्देश्य के लिए जी रहा है, सिर्फ उसी का जीना, जीना है। बाकी तो सब ऐसे ही है। वो साँस ले रहे हैं, चल-फिर रहे हैं, खाना खा रहे हैं और गंदगी फैला रहे हैं, बच्चे पैदा कर रहे हैं। उनके जीने का कोई मतलब नहीं है।

सही लक्ष्य की ख़ातिर जियो। दिल में एक सही उद्देश्य होना चाहिए। उसके बाद किसी पॉज़िटिव थिंकिंग की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

प्र: उसमें सिर्फ एक ही निर्विकल्पता रहती है।

आचार्य: फिर आप निर्विकल्प हो जाते हो। आप कहते हो कि ये चीज़ इतनी ज़बरदस्त मिल गई है, प्यार हो गया है इससे। अब मजबूर हैं इसके सामने। अब चाहें भी पीछे हटना तो हट नहीं सकते। जब ऐसा हो जाता है न योद्धा कि कहे कि, "अब मैं चाहूँ भी कि पीछे हट जाऊँ तो हट नहीं पाऊँगा। ये लड़ाई बड़ी शानदार है। ये लड़ाई तो लड़नी ही लड़नी है।" तब समझ लीजिए कि ये लड़ेगा-लड़ेगा और जीत की परवाह किए बिना लड़ेगा और जान की परवाह किए बिना लड़ेगा।

प्र: पॉज़िटिव-नेगेटिव की कोई बात ही नहीं।

आचार्य: पॉज़िटिव-नेगेटिव बहुत बच्चों वाली बातें हो जाती हैं, ओछी बातें।

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