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लेख
पैसा, नाम, ताकत - कमाएँ कि नहीं?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: बाहर की दुनिया में सबसे ज़्यादा मूल्य ताकत को और नाम-पहचान को दिया जाता है तो ऐसे में सत्य के साधक का ताकत, पावर , और पहचान, प्रसिद्धि या ख्याति के प्रति क्या रवैया होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: आपको एक मंज़िल तक पहुँचना है और जिस मंज़िल तक आप पहुँचना चाहते हैं, उसी की राह में धीरे-धीरे आपको ये भी पता लगने लगता है कि वहाँ अकेले पहुँचा जा नहीं सकता। तो फिर आपको समझ में आता है कि जीवन का उद्देश्य होता है: अपनी मुक्ति और दूसरों का कल्याण, ये जीवन का उद्देश्य है। इसलिए हम लगातार चल रहे हैं और क्रिया कर रहे हैं, गति कर रहे हैं, इसीलिए हम साँस ले रहे हैं और जी रहे हैं।

हाँ, हम इस उद्देश्य से अगर अनभिज्ञ हों तो हम इधर-उधर के तमाम, छोटे-मोटे विविध लाभहीन उद्देश्य बना लेंगे, जिनसे न हमें कुछ मिलना है न दूसरों का कुछ भला है।

पर आपने बात करी है सत्य के साधक की। तो मैं समझता हूँ सत्य के साधक को तो ये छोटी-सी बात पता ही है कि वो जी किसलिए रहा है। वो जी रहा है—दोहराते हैं: अपनी मुक्ति के लिए और दूसरों के कल्याण के लिए। और ये दोनों बातें एकदम अन्तर्सम्बन्धित हैं: अपनी मुक्ति दूसरों के कल्याण बिना हो नहीं सकती और दूसरों का कुछ भला करोगे तो अपनी मुक्ति में सहायता मिलेगी।

अब ये आपको करना है। कैसे करोगे आप? काम छोटा नहीं है। ये करने के लिए आपको तमाम तरह के उपकरणों का, युक्तियों का, संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। है न? बल्कि काम इतना बड़ा है—चाहे अपनी मुक्ति की बात करो चाहे दूसरों की भलाई की—काम इतना बड़ा है कि जितने संसाधन आपको मिल जाएँ कम ही पड़ने हैं। जितनी आपको इधर-उधर से सहायता मिल जाए कम ही पड़नी है।

दूसरों की संख्या देखिए कितनी ज़्यादा है और ख़ुद को ही जीतना आदमी को इतना मुश्किल पड़ता है। दूसरों की मदद करे कि वो स्वयं को जीत ले, ये तो सोचिए कितना मुश्किल काम होगा। तो लगभग असंभव काम है। विराट उपक्रम है। तो इसमें तो जहाँ कहीं से भी और जिस भी प्रकार की सहायता मिलती हो, संसाधन मिलते हो तत्काल झपट लेने चाहिए न?

इसमें हम यह ख्याल तो कर ही नहीं सकते कि उन संसाधन के ऊपर तमगा क्या लगा हुआ है कि सामाजिक दृष्टि से या नैतिक दृष्टि से वो संसाधन अच्छा माना जाता है कि बुरा माना जाता है। वो तरकीब, वो युक्ति, वो तरीका ऊँचा माना जाता है कि नीचा माना जाता है। ये ऊँचा-नीचा का ख्याल करने का वक्त ही नहीं है क्योंकि आपात स्थिति है, इमरजेंसी सिचुएशन और मरीज बहुत सारे हैं और हर मरीज की हालत बहुत ख़राब है। आप भी उन मरीज़ों में से एक हैं। तो जहाँ से जो बन पड़े सब कुछ करो।

अब अगर आपको अपनी सहायता के लिए या दूसरों की सहायता के लिए ताकत की, नाम-पहचान की और प्रसिद्धि की ज़रूरत पड़ती है तो ज़रूर-ज़रूर आप ताकत अर्जित करें। दुनिया में कुछ भी करने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य हो सकता है। दुनिया में कुछ भी कमाने का, अर्जित करने का सिर्फ और सिर्फ यही उचित प्रयोजन हो सकता है। क्या? कि, "अगर ये चीज़ मेरे पास होगी तो मुझे अपनी मुक्ति की मंजिल तक पहुँचने में मदद मिलेगी, अगर ये चीज़ मेरे पास होगी तो इससे मैं दूसरों की बेहतर सहायता कर पाऊँगा।"

तो अपने उपक्रम की ख़ातिर अगर आपको पैसा इकट्ठा करना पड़े, ज़रूर करिए, ताकत इकट्ठी करनी पड़े, ज़रूर करिए, दुनिया में अपनी नाम पहचान बनानी पड़े, बढ़ानी पड़े, ज़रूर बढ़ाइए। यहाँ कुछ भी वर्जित नहीं है। यहाँ पर छोटे-बड़े का ख्याल नहीं किया जा सकता।

आप कह रहे हैं कि दुनिया बहुत मूल्य देती है ताकत को और प्रसिद्धि को। दुनिया इन उपकरणों को मूल्य तो देती है पर उनका इस्तेमाल करना नहीं जानती। उनका वो इस्तेमाल करती है मंजिल तक पहुँचने के लिए नहीं, मंजिल से और दूर जाने के लिए। पैसा दुनिया भी कमाती है; मैं कह रहा हूँ पैसा आप भी कमाइए, उद्देश्य-उपक्रम अलग होना चाहिए।

दुनिया पैसा कमा रही है ताकि अपने अहंकार को और घना कर सके। दुनिया पैसा कमा रही है ताकि उन्हीं पैसों से अपने लिए और मोटी-मजबूत बेड़ियाँ गढ़ सके। आप पैसा कमाइए ताकि उन पैसों से आप बेड़ियों को काटने वाले औज़ार गढ़ सकें।

इन दोनों बातों में अंतर समझिएगा। बेड़ियाँ गढ़ने के लिए भी पैसा चाहिए और आरा बनाने के लिए भी पैसा चाहिए। आरा जानते हो न? बेड़ी काटने का औजार। लोग पैसा कमा रहे हैं, उससे वो बेड़ियाँ खरीद कर ला रहे हैं; आप पैसा कमाइए उससे आप आरा खरीद कर लाइए।

यह मत कह दीजिएगा कि “साहब! हम तो आध्यात्मिक आदमी हैं हमें पैसे से क्या ताल्लुक?" नहीं नहीं, पैसा बहुत ज़रूरी है। पैसा नहीं होगा तो आरा कहाँ से लाओगे?

और मैं नहीं कह रहा कि हमेशा जो बेड़ी है सामने वो किसी आरे से ही कटेगी। हो सकता है कि जो संसाधन चाहिए हों, वो सूक्ष्म हो, धन से खरीदा न जा सकता हो। अगर वो संसाधन सूक्ष्म हो तो आप सूक्ष्म साधना करें। कोई दिक्कत नहीं। आपके सामने जो चुनौती है, जो बेड़ी है, अगर वो सूक्ष्म है, ऐसी जो किसी सूक्ष्म आरे से कटेगी, जो बाजार में नहीं बिकता पैसे से, तो आप सूक्ष्म साधना करिए और सूक्ष्म आरे से काट दीजिए उस बेड़ी को।

पर बहुदा बेड़ियाँ बहुत ही स्थूल होती हैं और स्थूल चीज़ तो दूसरी किसी स्थूल चीज़ से ही कटती है न। जो सबसे अकाट्य धातु होती है उसको काटने के लिए भी आपको क्या चाहिए होता है मालूम है? हीरा। हीरा तो महंगा आता है बाजार में भाई।

और हो सकता है कोई आपके इर्द-गिर्द, जिसने जबरदस्त प्लेटिनम की बेड़ियाँ धारण कर ली हों। क्यों प्लैटिनम की ज्वेलरी नहीं देखी क्या? है कोई आपके परिवेश में जो प्लैटिनम की आभूषण-गहने धारण करके बैठ गई है, जो है वास्तव में जंजीरे ही, हथकड़ियाँ ही हैं, पर उसके हिसाब से आभूषण है। तो उस प्लेटिनम को काटने के लिए तो सिर्फ-और-सिर्फ हीरा ही उपयोग में आएगा। हीरा तो महंगा आता है। आपको हीरा खरीदना पड़ेगा। अब कमाइए न पैसा! ये हुआ पैसे का सार्थक उपयोग।

उसने पैसे का क्या इस्तेमाल करा है? अपने लिए बेड़ियाँ खरीदने के लिए। आपके पास भी पैसा होना चाहिए ताकि आप वो हीरा खरीद सको जिससे उसकी बेड़ी काटी जा सकती है। बात समझ में आ रही है?

तो इस तरह की बात तो करिएगा ही नहीं कि “अरे, अध्यात्म में पैसे का क्या काम?" अति मूर्खतापूर्ण बात है ये। अरे एक आध्यात्मिक विश्वविद्यालय भी खड़ा करना है तो वो स्वर्ग से थोड़े ही उतरेगा। इसी जमीन पर खड़ा करना पड़ेगा, संसाधन लगेंगे, धन लगेगा। अभी मैं आपसे बात भी कर रहा हूँ तो ये बात करने-करने में बहुत सारे संसाधन लग रहे हैं और उनके पीछे बहुत सारे धन का व्यय हो रहा है। इस धन का व्यय हो रहा है आपकी बेड़ियाँ काटने के लिए, सबको आध्यात्मिक मंजिल तक पहुँचाने के लिए।

अब यही बात प्रसिद्धि और ताकत पर भी लागू होती है। आप कह रहे हैं कि जीवन का उद्देश्य है, दूसरे का भला करना है। ठीक? आपकी होगी बड़ी कामना, बड़ी तमन्ना दूसरों का भला करने की। अरे, आप दूसरों का भला करोगे कैसे जब आपकी आवाज ही नहीं पहुँचेगी दूसरों तक? आज से चार सौ साल पहले का युग तो है नहीं कि फ़कीर बाबा निकल गए और पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए किसी गाँव में, और चालीस लोग जमा हो गए और कुछ चर्चा वगैरह हो गई, सत्संग हो गया, भजन हो गया और बाबा आगे बढ़ गए दूसरे गाँव की तरफ। और ऐसे करके भगवत प्रचार हो गया।

अब तो ऐसे होगा नहीं भगवत प्रचार। अब तो एक ही तरीका है प्रचार का। क्या? जिसमें धन लगता है, तमाम तरह का मीडिया होता है और जो लोग मीडिया चला रहे हैं वो तो आध्यात्मिक नहीं है न। उन्होंने तो समाज सेवा नहीं करनी है न। मीडिया चलाने के पीछे उनका उद्देश्य तो धन कमाना है, तो वो आपको मुफ्त में ही प्रसिद्धि तो दिला नहीं देंगे। वो आपको मुफ्त में कुछ नहीं दिला देंगे।

वो किसी को भी मुफ्त में कुछ नहीं दिला देंगे क्योंकि वो बाज़ार में बैठे ही हैं मुनाफा अर्जित करने के लिए। तो वो क्यों आपको यूँही प्रसिद्ध कर देंगे और आपका संदेश सब तक पहुँचा देंगे?

आप कहेंगे “पर मेरा संदेश बहुत उच्च कोटि का है, मेरा संदेश कोई व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं है। मेरा संदेश तो पूरे समाज के उत्थान के लिए है, तो मेरा संदेश तो सब तक पहुँचना चाहिए न।"

साहब आपकी नजर में आपका संदेश बहुत कीमती होगा, फेसबुक की नजर में नहीं है। फेसबुक तो प्रसिद्धि दे देगा किसी अधनंगी तस्वीर को। वो वायरल हो जाएगी और आपने ऊँची-से-ऊँची बात कह दी होगी, उसको देखेंगे कुल छप्पन जन, छ लाइक एक कमेंट। बात समझ में आ रही है?

और जितनी आप कोई वाहियात बात कर दें, कोई जादू-टोने की बात कर दें, कोई अंधविश्वास से भरी हुई बात कर दे, कोई कामनाओं को उत्तेजित करने वाली बात कर दें। वो बातें तुरंत आगे बढ़ जाएँगी।

आध्यात्मिक बातें भी बहुत बढ़ जाती हैं आगे। वो इस तरीके की हों कि तुम कौन-सी क्रिया कर लो जिससे तुम्हारे भीतर दिव्य शक्ति जागृत हो जाएगी, वो बात आगे बढ़ जाएगी। ऐसी हर बात आगे बढ़ जाएगी जिससे आप भी डूबते हों और पूरा ज़माना भी डूबता हो।

आपको अगर अपनी बात आगे बढ़ानी है, आपको अगर प्रसिद्ध होना है, आपको अगर पहचान चाहिए तो उसके लिए तो आपको पैसा खर्च करना पड़ेगा। सोशल मीडिया पैसा माँगेगा। पहचान बनाइए, ज़रूर बनाइए, बिना पहचान बनाए आप दूसरों का भला कैसा करेंगे? पहचान बनाइए! पहचान बनाने के लिए भी कमाइए।

यही पहचान का सार्थक उपयोग है कि किसी तक आपका नाम पहुँचा, तो नाम के साथ-साथ ऊपर वाले का फरमान भी पहुँचा। आपका नाम उस तक इसलिए नहीं पहुँचा है कि वो आपका मुरीद हो जाए। आपका नाम उस तक इसलिए पहुँचा है ताकि आपके माध्यम से वो उस पार निकल जाए, तर जाए, मुक्त हो जाए। ये प्रसिद्धि का सार्थक उपयोग है।

और बिलकुल जैसे मैंने पैसे के मामले में सावधान करा था कि कह मत दीजिएगा कि, "अरे आध्यात्मिक आदमी पैसा क्या करेगा", वैसे ही ये कह मत दीजिएगा कि, "आध्यात्मिक आदमी प्रसिद्धि का क्या करेगा? आध्यात्मिक आदमी को नाम से, ख्याति से क्या लेना-देना?" मूर्खों वाली बात है।

या तो अघोरी हो जाए, अवधूत हो जाए, जाकर किसी श्मशान में बस जाए या पहाड़ों में किसी गुफा में वास करें। कह दे कि, "मुझे इस समाज से, इस दुनिया से कुछ लेना-देना ही नहीं, मुझे दिख गया है सब मिथ्या है।"

पर अगर वो समाज के बीच रह रहा है, अगर उसे जन-सामान्य से अभी कोई वास्ता है तो वो एक ही रिश्ता रख सकता है न दुनिया से। क्या? कि, "मैं दुनिया के बीच में हूँ दुनिया के उत्थान के लिए। और दुनिया का अगर उत्थान करना है तो दुनिया तक अपनी आवाज तो पहुँचानी पड़ेगी न। उसके लिए ताकत भी चाहिए, नाम भी चाहिए, प्रसिद्धि चाहिए, पैसा चाहिए सब चाहिए।" तो आप ये सब बेशक अर्जित करें।

पर ये सब जब आप अर्जित करें तो याद रखें कि ये सब संसाधन आप कमा रहे हैं अपने लिए नहीं, परमार्थ के लिए। अपने छुद्र संकीर्ण स्वार्थ के लिए न पैसा कमाइए, न प्रसिद्धि। ये सब आप अर्जित करें और परमार्थ के लिए ही करें।

बल्कि पैसे की शोभा ही किसी ऐसे के हाथों में है, जो पैसे का पारमार्थिक उपयोग करना जानता हो। प्रसिद्धि होनी ही उसकी चाहिए जिसके नाम के साथ-साथ, उसका नाम सब तक पहुँच जाए जिसका कोई नाम ही नहीं।

आज की दुनिया उल्टी चल रही है। किनका नाम फैला हुआ है? जिनके नाम के साथ-साथ सब तरह की बेहूदगियाँ आप तक पहुँच जाती हैं। उनका नाम सबसे ज़्यादा प्रचलित है।

और जिनका नाम आपको पता ही होना चाहिए, उनके नाम से आप बिलकुल परिचित-वाकिफ नहीं। तो सही आदमी का न सिर्फ अधिकार है ये, बल्कि उसका फ़र्ज़ है, ज़िम्मेदारी है, उत्तरदायित्व है कि वो अपने-आपको प्रसिद्ध बनाए।

अगर आप जानते हो कि आप कोई सही काम कर रहे हो और उसके बाद भी आप प्रसिद्धि नहीं अर्जित करते, तो आप अपने ही आराध्य के प्रति गुनहगार हो गए। वो आपसे पूछेगा कि अगर तुम सेवा कर रहे थे मेरी, आराधना कर रहे थे मेरी, तो तुमने अपने-आपको प्रसिद्ध क्यों नहीं किया? आप कहेंगे “वो प्रसिद्धि के लिए पैसा चाहिए था, मेरे पास था नहीं।" तो आपका गला पकड़ कर पूछेगा वो कि, "पैसा कमाया क्यों नहीं तुमने?"

"एक-से-एक गलीच लोग पैसा कमा लेते हैं अपनी अंधी कामनाएँ-वासनाएँ पूरी करने के लिए। उनकी कामनाओं में इतना दम होता है कि वो कामनाओं के लिए पैसा कमा ले जाते हैं। और तुम्हारी तो कामना ‘मैं' था, सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च और तुम मेरे लिए भी कमा नहीं पाए? तुम्हें क्या माफी दे?"

किसी को अपनी बीवी के लिए गहने बनवाने हैं, वो लाखों-करोड़ों कमा लेता है। किसी को विदेश में बंगला खरीदना है और जीवन भर दुनिया घूमनी है, वो भी कमा लेता है। कोई दुनिया पर अपनी ठसक जमाना चाहता है वो भी कमा लेता है। और तुम्हारे सामने उद्देश्य था दुनिया भर की मुक्ति, तुम तब भी नहीं कमा पाए। तुम्हें कैसे माफ करें? बात समझ में आ रही है?

तो कमाना, मैंने कहा, सही आदमी का अधिकार ही नहीं है उसका फ़र्ज़ है, कर्तव्य है। एक घटिया आदमी नहीं कमा रहा है, उसे माफ किया जा सकता है। पर एक सही आदमी के पास अगर संसाधन नहीं है, ताकत नहीं है, प्रसिद्धि नहीं है तो मैं कह रहा हूँ कि वो अपने ही उद्देश्य के सामने अपराधी, गुनहगार हो गया।

या तो तुम बहुत बड़ा उद्देश्य रखते नहीं। तुम कहते “मुझे भी एक आम मध्यमवर्गीय जिंदगी बितानी है। मैं नहीं हूँ सत्य का साधक वगैरह। मुझे भी एक छोटी-मोटी जिंदगी बितानी है।" छोटी-मोटी जिंदगी बितानी है तो ठीक है। उस छोटी जिंदगी के लिए छोटे साधन पर्याप्त हैं, तो तुम अपनी छोटी-मोटी कुछ कमाई कर लेते।

जिनके पास बड़ा लक्ष्य हो वो कैसे दिखाई दे सकते हैं छोटे साधनों में लिप्त? कि, "लक्ष्य तो मेरे पास बहुत बड़ा है, और पैसे हैं कुल पाँच हज़ार।" ये तुम क्या कर रहे हो? तुम असीम को चवन्नी चढ़ा रहे हो। उसका नाम है असीम। जब वो असीम है तो खासकर इस काल में उसकी सेवा करने के लिए संसाधन भी असीम चाहिए और तुम चवन्नी लेकर खड़े हो जाते हो, कि ये मेरी ओर से भेंट है। तुम्हें लाज नहीं आती? तुम अपराधी नहीं हो गए?

भई कोई छोटा-सा आपका लक्ष्य हो तो चवन्नियाँ चल जाएँगी। बूट पॉलिश करानी है, ठीक है, पाँच रुपए चल जाएँगे, शायद पाँच रुपए में वह भी नहीं होता आजकल। पर अनंत आपका कोई लक्ष्य हो। और सत्य के साधक का लक्ष्य तो देखो अनंत ही होता है।

आप ये नहीं कह सकते, "मैं तो सत्य का साधक हूँ, मैं तो एकांत साधना करता हूँ।" एकांत साधना जो सत्य का साधक कर रहा है उसे सत्य का कुछ पता नहीं है। सत्य की ओर बढ़ना तो सदा एक सार्वजनिक उपक्रम होगा।

ये काम अकेले-अकेले नहीं होता, व्यक्तिगत तौर पर, प्राइवेटली , कि “साहब! हम वो एक कोने में छुपकर के, अंधेरे में आधे घंटे ध्यान कर लेते हैं इससे हमें मुक्ति मिल जाएगी।" ये काम तो सार्वजनिक तौर पर होगा और सार्वजनिक तौर पर होगा तो संसाधन लगेंगे न भैया? उन संसाधनों को जुटाने में शर्म कैसी? उन संसाधनों को जुटाने में आलस कैसा?

शर्म आनी चाहिए उनको जो संसाधन इकट्ठा कर रहे हैं स्विट्जरलैंड में हनीमून बनाने के लिए। उनको कतई शर्म नहीं आती। वो गड्डी पर गड्डी इकट्ठी कर लेते हैं और खुलेआम बताते हैं: "ये जो मैंने इकट्ठा करा है इससे अब मैं पहाड़ के ऊपर अपनी वासना ठंडी करूँगा, बहुत गर्म हो रखा हूँ। एकदम पहाड़ पर चढ़ जाऊँगा हनीमून में, कुछ ठंड मिलेगी।" उनको लाज नहीं आती।

आध्यात्मिक आदमी लाज से मरा रहता है कि “अरे, मैं तो आध्यात्मिक आदमी हूँ, मैं रुपए पैसे की बात कैसे करूँ? मैं इकट्ठा कैसे करूँ? मैं अपनी प्रसिद्धि कैसे बढाऊँ?" और उसको लाज आ रही हो न आ रही हो, दुनिया उसके ऊपर चढ़ जाती है, कि “ये देखो ये अपने-आपको आध्यात्मिक बोलते हैं और देखो पैसे का कितना लेन-देन है इनके यहाँ। देखो ये अपने आपको आध्यात्मिक बोलते हैं और अपना प्रचार कर रहे हैं, अपना विज्ञापन दे रहे हैं, प्रसिद्धि बढ़ाना चाहते हैं, अपना नाम चमकाना चाहते हैं।"

एक-से-एक मूर्ख अपना प्रचार, अपना विज्ञापन करे आपको कोई आपत्ति नहीं होती। पर ‘सच का संदेशवाहक' उस संदेश का प्रचार करे तो आपको आपत्ति हो जाती है, आप ग्लानि से भर जाते हो और आपको आपत्ति हो जाती है तो अक्सर संदेशवाहक भी लज्जित हो जाता है।

आज के प्रश्नकर्ता भी कुछ ऐसे ही लज्जा से और संशय से भरे हुए हैं। वो कह रहे हैं, "बाहर की दुनिया में तो यही सब चलता है: पैसा, पहचान, ताकत, ख्याति तो मैं क्या करूँ?" अरे मैं करूँ क्या, अगर यही हथियार हैं तो इन हथियारों को कमाओ भी और चलाना भी सीखो। लड़ाई में उतरे हो तो बिना हथियार के जीत लोगे क्या?

और बात तुम्हारी व्यक्तिगत नहीं है कि तुम कह दो “नहीं साहब, हमें कोई हथियार वगैरह नहीं चाहिए। हम तो बस जा करके अपनी कुर्बानी दे देंगे। बिना हथियार के ही दुश्मन से भिड़ जाएँगे, दो मिनट में गला कटा कर खत्म कर देंगे खेल अपना।"

बात कोई तुम्हारी अकेले अपने की है? तुम्हारे अकेले अपने की बात होती तो मैं कहता “हाँ, ठीक है जाओ, भिड़ जाओ, दो मिनट में अपना गला कटा दो। खेल खत्म पैसा हजम।"

तुम पर जिम्मेदारी कितने लोगों की है? तुम पर जिम्मेदारी सबकी है। तुम्हें अधिकार ही नहीं है हारने का क्योंकि तुम्हारी हार सिर्फ तुम्हारी नहीं है। तुम्हारी हार उन सबकी हार हो जाएगी जिनकी तुमने जिम्मेदारी उठाई है। तुम्हें हक किसने दिया हारने का? तुम्हें हक किसने दिया कि तुम कहो कि मैं तो बस जाकर के दो मिनट में गला कटा करके आ जाऊँगा।

तुम्हें जीतना पड़ेगा। तुम्हारा धर्म है जीतना क्योंकि यह लड़ाई तुम्हारे अपने लिए नहीं है, यह लड़ाई सबके लिए है। तुमने हारना बर्दाश्त कैसे कर लिया? लजा क्या रहे हो। लड़ो! और जीत कर दिखाओ। हार यहाँ कोई विकल्प है ही नहीं।

दुनिया अगर ताकत की भाषा समझती है तो ताकत अर्जित करो, दुनिया अगर पैसे की बात सुनती है तो पैसा होना चाहिए तुम्हारे पास। हाँ, शर्त बस एक है कि तुम्हारी बात सदा सच्ची रहे। ये न हो कि पैसा आ गया तो बात में झूठ आ गया।

जितना तुम्हारी बात में सच्चाई हो ईश्वर करे उतना ही तुम्हारे हाथों में पैसा हो, उतना ही तुम्हारे नाम का प्रचार हो, उतनी ही तुम्हारी वाणी में ओज हो। सच चाहता है ये सब कुछ, सच माँगता है ये सबकुछ। सच का अधिकार है ये।

ऊँची से ऊँची लड़ाई के लिए महँगे-से-महँगे अस्त्र और आयुध चाहिए होते हैं, हाँ या ना? गली में दो छोकरे भिड़ रहे हैं, तो रामपुरी भी चल जाता है कोई दिक्कत नहीं। रामपुरी भी नहीं तो सड़क पर जो गिट्टी पड़ी हुई है वही उठा कर दे मारी, वही मिसाइल बन गई, चल जाता है। क्योंकि टुच्चे स्तर की लड़ाई है न।

और जब तुम ऊँची-से-ऊँची लड़ाई लड़ रहे हो, तो तुम्हारे पास आयुध भी ऊँचे-से-ऊँचे किस्म के, गुणवत्ता के होने चाहिए। और वो सस्ते नहीं आएँगे, उनके लिए बड़ा मूल्य चुकाना पड़ेगा। वो मूल्य चुकाओ, अर्जित करो।

दुनिया की हालत देखो। अभी वो अध्यात्म नहीं चल सकता जिसमें तुम्हें दुनिया से कोई लेना-देना नहीं। एकदम नहीं चल सकता। वैसे अध्यात्म को मैं गैर-ज़िम्मेदाराना मानता हूँ। प्रजातियाँ खत्म हो रही हैं, पृथ्वी डूब रही है, देख ही रहे हो अभी किस तरह से महामारी फैली हुई है और ये कोई आखिरी महामारी नहीं है।

इस काल में तुम कहो कि “नहीं, मुझे तो दुनिया से कोई लेना देना नहीं, समाज से कोई संपर्क नहीं, कोई संबंध नहीं, मेरी अकेले की व्यक्तिगत मुक्ति हो जाए, बहुत है।" तो तुम पगले हो। पहली बात तो तुम्हें अध्यात्म पता नहीं और दूसरी बात तुम्हारी जो मंशा है वो पूरी होने से रही।

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