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लेख
मुझे बच्चे पैदा करने हैं - इसमें आपको क्या तकलीफ़ है? || (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आप बताते हैं कि माँ की ममता नवजात बच्चे की सुरक्षा के लिए होती है और जानवरों में दिखता भी है कि जैसे-जैसे नवजात बच्चे बड़े होने लगते हैं माँ के भीतर से ममत्व खत्म होने लगता है लेकिन इंसान के साथ ऐसा नहीं दिखता। मेरी माँ तो काफी मोह में नज़र आती है जबकि मुझे अब उनसे कोई शारीरिक सुरक्षा नहीं मिलती। इस ममता का क्या कारण है?

आचार्य प्रशांत: इस ममता का कारण यह है कि हमें जो चीज़ मन की ऊँचाइयों से मिलनी चाहिए, चेतना की ऊँचाइयों से मिलनी चाहिए उसे हम वहीं खोजते रह जाते हैं जहाँ से मन की शुरुआत हुई थी। मन की शुरुआत होती है शरीर से।

शरीर ना हो तो चेतना होने वाली नहीं। पर चेतना जैसे-जैसे सशक्त होती है, आगे बढ़ती है, उसे शरीर को छोड़ कर के अपना असली ठिकाना तलाशना होता है। यह छोड़ने में लगता है डर। तो नतीजा यह निकलता है कि उम्र बढ़ती जाती है लेकिन चेतना फिर भी शरीर से ही लिपटी रह जाती है।

जैसे छोटा बच्चा हो कोई, वह अपने पाँव का अंगूठा चूसे कोई बात नहीं। लेकिन वह बड़ा होकर के भी अपने पाँव का अंगूठा चूसे तो बड़ी भद्दी बात है न। हम में से ज़्यादातर लोग ऐसा ही भद्दा जीवन बिताते हैं।

कुछ काम शरीर की कुछ अवस्थाओं में ठीक होते हैं बल्कि शोभा देते हैं। वह काम शरीर की उम्र बढ़ने के साथ, माने चेतना की उम्र बढ़ने के साथ पीछे छूट जाने चाहिए। लेकिन मैंने अभी बड़ी भारी माँग रख दी, मैंने कहा शरीर की उम्र बढ़ने के साथ माने चेतना की उम्र बढ़ने के साथ। मैंने मान ही लिया कि शरीर की उम्र बढ़ने के साथ चेतना की उम्र भी बढ़ती ही है।

ज़्यादातर लोगों में ऐसा होता नहीं। तो उनके शरीर की उम्र बढ़ती जाती है, चेतना की उम्र बच्चों जैसे ही रह जाती है। तो फिर वह बढ़ी हुई उम्र में भी हरकतें वही कर रहे होते हैं जो हरकतें उन्हें बहुत पीछे छोड़ देनी चाहिए थी समय में।

माँ अगर चैतन्य होगी तो जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे वो उससे शारीरिक मोह कम करती जाएगी और बच्चे की आंतरिक उन्नति के लिए तत्पर होती जाएगी। पर माएँ ज़्यादातर चैतन्य होती नहीं, तो जो काम पशुपत होता है वह तो सब माएँ कर लेती हैं क्योंकि वह करने के लिए आपको कोई योग्यता नहीं चाहिए, वह तो आपके पास एक महिला का शरीर है तो वह काम अपने-आप हो जाएगा क्योंकि वह काम बिना मेहनत के हो जाता है।

आपके पास महिला का शरीर है तो आपमें ममता अपने-आप उठेगी; लेकिन आप ममता से आगे जाकर के अपने बच्चे के लिए एक पथ प्रदर्शक बन सके उसके लिए माँ को मेहनत करनी पड़ती है। वह मेहनत माँ करती नहीं आमतौर पर, राजी नहीं होती। तो वह कहाँ अटकी रह जाती है फिर? ममता में ही अटकी रह जाती है।

नए तल पर माताएँ आमतौर पर प्रवेश करती ही नहीं क्योंकि नए तल पर प्रवेश करना श्रम का और साधना का काम है। तो वह जो पिछला तल है जो उन्हें बहुत पीछे छोड़ देना चाहिए था, वह पिछला तल ही घसीटता आगे बढ़ता रहता है।

पाँच की उम्र में आप अपने बच्चे के लिए कुछ खाने-पीने को लेकर उसके पीछे-पीछे दौड़ रही हैं, यह बात बिलकुल ठीक है। हमारे यहाँ पर गौरैया है अभी, उसका एक छोटा सा बच्चा हुआ है। गौरैया उसका बड़ा ख्याल रख रही है। खाना-वाना भी उसको खिला देती है। उसे भी आजकल उड़ने की ट्रेनिंग (प्रशिक्षण) दी जा रही है। बड़ा प्रशिक्षण रहता है उसका, ऐसे उड़ो, ऐसे उड़ो, यह सब चल रहा है। यह ठीक है। लेकिन इंसान में और पशु या पक्षी में अंतर होता है न।

गौरैया का काम अपने बच्चे के साथ बस दो हफ्ते का है, उसके बाद बच्चा अलग गौरैया अलग। दोनों एक दूसरे की कोई खबर नहीं लेंगे। इंसान में नाता लंबा चलना है। अभी जो नाता लंबा चलना है वह तो चलना ही है, सवाल यह है कि वह लंबा कैसे चलना है? उसको लंबा ऐसे चलना होता है कि आरंभिक चरण में वह जो रिश्ता है इंसानी माँ और इंसानी बच्चे का उसको वैसे ही होना होगा जैसे पशुओं में होता है। क्यों? क्योंकि बच्चे को वही चीज़ चाहिए। पशुओं में भी माँ बच्चे को पकड़े अपना घूमती रहती है, जब बच्चा बहुत छोटा रहता है। बिल्ली को देख लो, चाहे चिड़िया को देख लो। किसी को देख लो। तो इंसानों में भी वह करना ही पड़ेगा क्योंकि बच्चे को भी शारीरिक सुरक्षा की ज़रूरत है तो माँ उसको अपना साथ में लेकर के घूमेगी जैसे बंदरिया घूमती है। वह आवश्यक है। वह ठीक है।

लेकिन उसके बाद जो रिश्ता रहना है उसमें माँ को बंदरिया समान बच्चे को लपेटकर नहीं घूमना है, बल्कि बच्चे के लिए प्रकाश बनना है, बच्चे के लिए लगभग गुरु बनना है। अब यहाँ पर गड़बड़ हो जाती है क्योंकि ज़्यादातर माँओं ने गुरु बनने की योग्यता अपनी ज़िंदगी में हासिल ही नहीं की होती है, उन्होंने बस बच्चा पैदा कर दिया। अभी उनमें गुरु बनने की या मार्गदर्शक बनने की कोई योग्यता ही नहीं थी। बच्चा बस पैदा हो गया, यूँही अंधेरे में, अज्ञान में। कई बार तो संयोग से ही पैदा हो गया, बस ऐसे ही पैदा हो गया बच्चा।

अब बच्चा पैदा हो जाता है, वहाँ तक तो फिर भी सब ठीक चलता है जहाँ तक माँ को बच्चे का पालन-पोषण पशुवत ही करना था, जो कि लगभग पाँच साल, सात साल की बात है, वहाँ तक तो फिर भी ठीक चलेगा। फिर भी ठीक, एकदम ठीक नहीं। लेकिन अब उसके बाद माँ को बच्चे का — मैं दोहरा कर कह रहा हूँ — माँ को बच्चे का प्रकाश बनना होता है, वह माएँ बन ही नहीं पातीं।

तो प्रकाश की कमी को कौन सी चीज़ भरे रहती है फिर? ममता। वो रिश्ता जो रौशनी का होना चाहिए था, वो रिश्ता बना रह जाता है ममत्त्व का। बच्चे को रौशनी नहीं मिल पाती माँ से, तो फिर बच्चा बड़ा भी नहीं हो पाता। वह पच्चीस साल का हो गया है, वह पैंतीस साल का हो गया है और माँ उसके पीछे दूध का गिलास लिए ही घूम रही है। यह कौन सा रिश्ता है? और यह कैसा पूत जना है जिसके पीछे आज तक दूध का गिलास लेकर घूम रही हो?

प्र२: आपको मेटरनिटी वार्ड (प्रसूति गृह) से क्या समस्या है?

आचार्य: यही समस्या है कि आप बहुत जल्दी से पहुँच जाती हैं वहाँ पर, बिना तैयारी के। मैं शारीरिक तैयारी की बात नहीं कर रहा, शारीरिक तैयारी में तो इतना काफी होता है कि आपकी उम्र अट्ठारह या इक्कीस साल हो, इतना चल जाता है।

कानून आकर आपको नहीं रोकेगा। आप अगर अट्ठारह वर्ष की हैं और आप अगर मेटरनिटी वॉर्ड पहुँच गई तो कानून में कुछ ग़लत नहीं हो गया। धर्म भी आकर आपको नहीं रोकेगा अगर आप वहाँ प्रसुति गृह में पहुँची हैं और कहती हैं कि, "बच्चा तो मेरे पति का ही है", तो धर्म को कोई आपत्ति नहीं होगी, समाज को भी कोई आपत्ति नहीं होगी।

कानून बस ये देखता है कि अट्ठारह की है या नहीं, धर्म या समाज बस यह देखते हैं कि आपका बच्चा आपके पतिदेव का है या नहीं; लेकिन अध्यात्म कुछ और पूछता है। अध्यात्म पूछता है कि, "अभी तुमने कोई आंतरिक योग्यता भी अर्जित करी थी माँ बनने की या बस यूँही गर्भ खड़ा कर लिया?" मज़ाक है क्या?

अज्ञान में किसी को जन्म दे देना किसी की हत्या करने बराबर अपराध है। और आज दुनिया जितनी पीड़ा से गुज़र रही है उसकी बहुत बड़ी वजह ही यही है कि हममें से ज़्यादातर लोगों का जन्म ही अज्ञान में होता है। सुनने में पता नहीं ये कैसा लगेगा लेकिन सच्चाई है तो कहे देता हूँ — हममें से ज़्यादातर लोगों को पैदा ही नहीं होना चाहिए था, ज़्यादातर लोगों को। हम बस यूँ ही पैदा हो गए हैं और यूँ ही पैदा हो कर के बस यूँ ही भुगते जा रहे हैं।

बंगलोर मैं शिविर था, वहाँ से मैं वापस आया तो हवाई अड्डे पर रुके। सुबह-सुबह वहाँ पर कॉफी पीने लगे, उसके ठीक सामने एक खिलौनों की दुकान थी, एयरपोर्ट की ही बात कर रहा हूँ। और वहाँ पर तीन-चार जवान लड़के-लड़कियाँ थे, ऐसे ही बीस-बाइस, अट्ठारह-पच्चीस के, ऐसे ही रहे होंगे और वह क्या कर रहे थे - मेरे पास समय बहुत था तो मैं आराम से बैठ कर के वहाँ पर देख रहा था उनको - वो बच्चों के खिलौने लेकर खेल रहे थे। क्यों खेल रहे थे? ताकि आते-जाते लोग उन्हें उन खिलौनों से खेलते देखें तो आकर्षित हो जाएँ। मैं उन्हें घण्टे भर देखता रहा, वो घण्टे भर यही करते रहे। और उन्होंने एक यूनिफार्म पहन रखी थी उस स्टोर की, तो वो चारों-पाँचों जो खेल रहे थे उन खिलौनों से वो एक जैसे लग रहे थे।

एक था जो एक घण्टे तक मेंढक उछालता रहा बस। यह एक जवान आदमी है जिसको पैदा करके इस हालत में छोड़ दिया गया है कि वह मेंढक उछाल रहा है। एक लड़की थी उसने एक प्लास्टिक का बैट पकड़ रखा था। उस बैट से एक बॉल बंधी हुई थी, लंबी सी डोरी से। वह उसको ऐसे-ऐसे उछाल रही थी और उछालती ही गई, उछालती ही गई। आप इसलिए पैदा करते हैं बच्चे? क्या करेंगे यह पैदा हो करके और बड़े होकर के?

इतनों के लिए रोज़गार तो छोड़ दो, हवा-पानी, अन्न भी है इस दुनिया में? इसलिए मुझे मेटरनिटी वार्ड से समस्या है। और मैंने यह बिलकुल भी नहीं कहा है कि बच्चे बिलकुल भी पैदा न हों। अगर एक जोड़ा एक बच्चा पैदा करे तो चलेगा। लेकिन एक में आपका मन कहाँ भरता है, दो-चार।

और वह जो एक है जिसको मैं कह रहा हूँ चलेगा, वह भी तब आना चाहिए जब पहले माँ और बाप दोनों आंतरिक रुप से बिलकुल तैयार हों, सक्षम हों उस बच्चे को दुनिया में लाने के लिए। और जब तक आप पूरी तरीके से तैयार नहीं हैं, तब तक एक बच्चा भी ले करके मत आइए। यहाँ अपने खाने को होता नहीं है और बच्चा पैदा कर देते हो। ये हुई बाहरी योग्यता की बात। और जहाँ तक आंतरिक योग्यता की बात है, अपना जीवन अंधेरे में डूबा हुआ है, आदतों में डूबा हुआ है, कोई आंतरिक मजबूती अपने भीतर है नहीं, छोटी-छोटी बात पर डर जाते हैं। अच्छे-बुरे, सही-गलत की कोई समझ नहीं है जीवन में। आंतरिक तौर पर ऐसा हाल है, जो चाहता है वो प्रभावित कर लेता है और ऐसी आंतरिक स्थिति के साथ आप बच्चा पैदा कर देते हो। ये आप गुनाह कर रहे हो उस बच्चे के साथ।

जो भी लोग गृहस्थी बसाने और फिर गृहस्थी बढ़ाने की तैयारी में हों, हाथ जोड़कर निवेदन करता हूँ — अपने-आपसे ईमानदारी से एक बार पूछ लीजिएगा, क्या आपने काबिलियत पैदा कर ली है? आप सक्षम हैं, तैयार हैं? दोनों तरीके से; बाहरी तरीके से भी और भीतरी तरीके से भी?

बाहरी तरीके से आपके पास कम-से-कम कुछ न्यूनतम आर्थिक संसाधन होने चाहिए, बच्चे का पोषण करने के लिए उसको शिक्षा देने के लिए वगैरह-वगैरह। यह बाहरी पात्रता हुई। और आंतरिक योग्यता ये हुई कि - आपको यकीन है कि आप जीवन को समझते हो? आपको यकीन है कि आप जन्म और मृत्यु को समझते हो? आप जानते भी हो कि दो शरीरों में क्यों इतनी चाहत रहती है एक तीसरा शरीर उत्पन्न कर देने की? क्या आप ये सब बातें समझते हो? दुनिया में जो पढ़ने लायक किताबें हैं उनमें से कुछ भी किताबें आपने पढ़ी हैं? अध्यात्म का अ भी जानते हो? ये बातें आंतरिक योग्यता प्रदर्शित करती हैं।

जब आप एकदम निश्चित हो जाओ कि आपने बाहरी योगिता भी है और आंतरिक योग्यता भी है तब बच्चा पैदा कर लेना और तब भी पैदा करना तो मैं सुझाव यह दूँगा कि एक ही करना।

इस पृथ्वी पर अब गुंजाइश नहीं है भाई, और आप नहीं समझ रहे हो बात को। हम आठ-सौ-करोड़ हो चुके हैं। कितने लोगों के खाने को खाना नहीं है, साँस लेने को हवा नहीं है, पीने को पानी नहीं है, रहने को जगह नहीं है, चलने को सड़क नहीं है। उस बच्चे को अगर खाना देना है तो उसे खाना भर देने के लिए जंगल काटने पड़ेंगे। न जाने कितनी प्रजातियाँ खत्म करनी पड़ेंगी।

उस बच्चे को अगर कहीं बसाना है, उसे घर देना है तो उसे घर देने के लिए भी जितने संसाधन चाहिए उतने अब इस पृथ्वी पर हैं ही नहीं। तो मैं कई दृष्टिओं से बात करके बोला करता हूँ। मैंने कहा माँ-बाप की बाहरी तैयारी, मैंने कहा माँ-बाप की आंतरिक तैयारी और फिर मैंने चर्चा करी पृथ्वी की और संसाधनों की और पर्यावरण की।

प्र३: आचार्य जी, क्या बच्चा पैदा करने का भी कोई ऊँचा उद्देश्य संभव है?

आचार्य: देखिए ऊँचा उद्देश्य तो संभव हो सकता है कि अगर आप कहें कि, "मैं बच्चा जो पैदा कर रहा हूँ वह मेरा एक महत अभियान होगा, मेरा एक ग्रैंड प्रोजेक्ट होगा और उस बच्चे को मैं लाइट ऑफ द वर्ल्ड , विश्व के प्रकाश के रूप में बड़ा करूँगा।" यह सब हो तो सकता है सैद्धांतिक रूप से, थ्योरिटिकली ; पर ऐसा कर पाने के लिए माँ-बाप में उतनी योग्यता, समझ और संघर्षशीलता होनी चाहिए न।

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