आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
बाहर की चूड़ी ही हटाएँगी, या भीतर की हथकड़ी भी? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
38 मिनट
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आचार्य प्रशांत: मैं तो सब समाप्त करके सोने ही चला गया था, फिर एक, दो, तीन संदेश आने लगे कि "आचार्य जी, बहुत लोग आज के एक मुद्दे पर सवाल पूछ रहे हैं, कुछ बोलिए।" तो मैंने मुद्दा देखा और फिर उठकर आ गया हूँ बोलने।

मुद्दा क्या है?

मुद्दा ये है कि कुछ दिनों पहले गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया है जिसमें कहा है कि अगर विवाहिता स्त्री सिंदूर, चूड़ियाँ, मंगलसूत्र वगैरह धारण नहीं कर रही, तो ये पर्याप्त कारण है कि इसके आधार पर पति की तलाक की अर्ज़ी स्वीकार कर ली जाए।

और न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में 'क्रूरता' शब्द का कहीं पर प्रयोग कर दिया है। कहा है कि अगर स्त्री ऐसा कर रही है तो ये पति के प्रति क्रूरता है।

तो उसके बाद से दो पक्ष हैं, उनमें घमासान मचा हुआ है। एक पक्ष वो है जो कह रहा है कि "हाँ, बिलकुल आवश्यक है कि विवाहिता इन सब प्रतीकों को निश्चित रूप से धारण करे।" और दूसरा पक्ष, जिसमें अधिकांश स्त्रियाँ ही हैं, वो अपनी तस्वीरें डाल रही हैं सोशल मीडिया पर जिसमें उन्होंनें चूड़ी, सिंदूर वगैरह कुछ नहीं पहन रखा है और कह रही हैं कि कोई ज़रूरत ही नहीं है।

न्यायालय पर भी मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर काफी आक्रमण किया जा रहा है। अभी एक-दो पोस्ट तो मैंने ऐसी देखी जहाँ पर स्त्रियाँ कह रही हैं कि "हमने तो विवाह भी बस संविधान पर हाथ रखकर किया था, हमें कोई धार्मिक प्रतीक चाहिए ही नहीं है। हमारे लिए संविधान ही काफी है।"

तो ये मुद्दा है जिसपर मुझसे कहा गया है कि आज बोलूँ इस समय पर (रात के दो बजे)।

तो अभी बैठा हूँ आपके सामने, इस पर बोलना है, तो मुझे बचपन की घटना याद आ रही है (वो घटना भी नहीं थी, वो घटनाओं की श्रृंखला थी)।

सातवीं-आठवीं की बात है. मेरी कक्षा में एक लड़की हुआ करती थी। ठीक से याद नहीं पर प्राची शायद उसका नाम था। प्राची की जितनी कॉपियाँ-किताबें थीं, उनपर पहले एक भूरा कवर चढ़ा रहे। उस भूरे कवर पर वह अपनी छोटी-सी एक नाम-पट्टिका लगाती थी और फिर उसके ऊपर वो पॉलीथीन की जिल्द चढ़ाती थी।

ताकि उसने जो भूरी जिल्द चढ़ाई है, उसपर कभी पानी या तेल वगैरह का स्पर्श ना हो जाए। तो ऐसे करके वो बड़ा ख्याल रखती थी। इतना ही नहीं, वो जब कोई नया पाठ शुरू करती थी, तो ऊपर बड़ी सुंदर हस्तलिपि में एक कोटेशन (उद्धरण/सुविचार) लिखा करती थी। और उसकी हैंडराइटिंग (हस्तलिपि) तो ऐसी थी कि जैसे कागज़ पर किसी ने हीरे-मोती जड़ दिए हों।

एक दफ़े उसकी कॉपी मेरे हाथ में थी, और इंटरवल (मध्यांतर) जो खाना खाने के लिए ब्रेक मिलता है बच्चों को, उसके ठीक बाद का समय था। उस दिन मेरे टिफिन में कुछ पूड़ियाँ वगैरह रही होंगी। तो मैंने खाया, और थोड़ा-सा अचार मेरी टेबल पर गिरा हुआ था। उसी समय पर मैंने प्राची से कॉपी ली कि ज़रा दिखाना, कोई चीज़ देखनी रही होगी।

कॉपी ली, टेबल पर रखी, तो वो जो अचार का तेल था वो थोड़ा-सा उसकी पॉलीथीन पर लग गया। अब प्राची लाल-पीली, लगी चिल्लाने, कह रही है, "तुमने ये क्या कर दिया? ये क्या कर दिया?"

मैंने पोंछ भी दिया, कहा, "पॉलीथीन है, पुछ जाएगा।" बोली, "नहीं, कर कैसे दिया तुमने?" मैंने माफी माँग ली, कहा, "बात तो सही है।" कॉपियाँ मेरी भी साफ-सुथरी रहती थीं थोड़ी तो सफाई का मोल समझता था। मैंने माफी माँग ली।

प्राची अपना पाँव पटककर थोड़ा पीछे हो गई। उसके बाद मैंने अंदर खोला कि जो अध्याय मुझे इससे देखना है—या सवाल रहा होगा देखने वाला, ठीक से याद नहीं—वो देख लूँ। पर इतना याद है कि जब अंदर खोला, तो सन्नाटा...

अंदर कुछ है ही नहीं। जिस सवाल का जवाब लिखना था, वहाँ मामला सफाचट।

अंदर कुछ नहीं है, लेकिन उस अध्याय में भी जहाँ सवाल लिखने थे वहाँ प्राची ने ऊपर एक बड़ी सुंदर कोटेशन लिख रखी थी। अहा, वही हीरे-मोती-जवाहरात कागज़ पर जड़े हुए थे।

अब मैं उसका अंदर का अध्याय देख रहा हूँ और बाहर का कवर देख रहा हूँ और फिर अपनी शक्ल देख रहा हूँ और उसकी शक्ल देख रहा हूँ।

मैं कह रहा हूँ, "ये है क्या? ये मुझे अभी पूरे पाँच मिनट तक खूब खरी-खोटी सुना कर गई है इस कॉपी को लेकर जिस कॉपी के भीतर कुछ है ही नहीं।"

मुद्दा ये होना चाहिए था कि ये मुझसे पूछती, "प्रशांत, जिस सबमिशन के लिए तुम मेरी कॉपी देख रहे हो, वो सबमिशन तुम्हें ही नहीं करना है, मुझे भी करना है।"

और मैं पढ़ने में थोड़ा अच्छा था। अगर दस सवाल जमा करने थे, तो उनमें से आठ-नौ तो मैं कर ही चुका होऊँगा, मैंने तो दसवाँ देखने के लिए उसकी कॉपी ली थी।

उसने एक भी नहीं कर रखा था। उसने मुझसे ये नहीं बात करी कि जो सवाल है असली, उनका क्या जवाब होगा—और उसके पास दस में से किसी सवाल का कोई जवाब था नहीं—वो मुझसे इस बात पर बहस कर रही थी कि, "कॉपी के ऊपर ज़रा-सा तेल लग कैसे गया, और तुमने तेल पोछ भी दिया है तो पॉलिथीन में उसकी ज़रा-सी गंध बाकी रह जाएगी।"

बड़ी हैरत हुई मुझे। मैंने उसकी कॉपी उसको धन्यवाद के साथ लौटा दी।

वाकया नंबर दो; पता नहीं इन दोनों वाकयों में जो साझा सूत्र है वो आप पकड़ पाएँगे या नहीं।

अब मैं एम.बी.ए. कर चुका था। आई.आई.एम. से निकलने के बाद ये मेरा दूसरा या तीसरा साल रहा होगा। इंजन बनाने वाली भारत की एक बड़ी कंपनी में मेरा एक कंसल्टेंसी (परामर्शदात्री) प्रोजेक्ट था। वहाँ पर एक विभाग था जो इंजन बनाता था और फिर एक दूसरा विभाग था जो सप्लाई (आपूर्ति) के लिए उन इंजिन्स को अपने पास ले लेता था।

अब इंजन बनाने की प्रक्रिया में जब मैं ऑडिट (परीक्षण) कर रहा हूँ, तो मैंने पाया कि कई तरीके की कमियाँ हैं, भूल हो रही हैं। जो स्टैण्डर्ड प्रोसेस (आदर्श प्रक्रिया) है, उसका पालन नहीं हो रहा निर्माण में। मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) की बेस्ट प्रैक्टिसस (उत्तम रीतियों) से कई जगह पर डेविएशन (विचलन) पाया। फिर एक दिन मैं देखता हूँ कि जो मैन्युफैक्चरिंग का इंचार्ज (प्रभारी) है लाइन का, उसकी उसके ग्राहक से बहस हो रही है। लाइन से जो इंजन निकल रहे हैं, वो कहाँ जा रहे हैं आगे? पैकेजिंग में, सप्लाई में, कि उनको वहाँ से अलग-अलग जगह पर भेजा जाना है।

इन दोनों विभागों के अध्यक्षों में बहस चल रही है। बहस ये चल रही है कि इंजन पर किसी तरह का निशान नहीं होना चाहिए। लेकिन जो लाइन के कर्मचारी हैं, वो इंजन पर कभी ओके लिख दे रहे थे, कभी टेस्टेड लिख दे रहे थे, कभी सही का निशान बना दे रहे थे, कभी गलत का निशान बना दे रहे थे। ये सब कर दे रहे थे।

उस विभाग का जो इंचार्ज है, अध्यक्ष है, वो बहस कर रहा कि "ये निशान क्यों बने हुए हैं?" ये कह रहा है, "मैं कितनी बार इन लोगों को बोल चुका हूँ, पर ये लोग अपना कर देते हैं। दूसरा, लोहे पर निशान बना दिया, तो उससे क्या फ़र्क़ पड़ जाना है? इंजन के अंदर क्या है वो चीज़ तो नहीं बदल जाएगी।"

मुझे पता था कि इंजन के अंदर खोट है, और मुझे पता था कि इन दोनों में से कोई भी इंजन के भीतर की खोट की चर्चा भी नहीं कर रहा है। ये चर्चा ये कर रहे हैं कि इंजन पर ओके , टेस्टेड , क्लियर्ड क्यों लिख दिया या क्यों नहीं लिख दिया।

इंजन की जो बॉडी है, उस पर किसी ने लिख दिया ओके , किसी ने लिख दिया टेस्टेड , इस बात पर बहस चल रही है। और मैं वहाँ खड़ा हुआ हूँ एक स्पेशलिस्ट (विशेषज्ञ) की तरह। मुझे अंदर का हाल पता है। मुझे पता है कि इस इंजन की बॉडी पर क्या लिखा हुआ है ये बात तो छोड़ो, इस इंजन में तो अंदर-ही-अंदर बहुत सारे दोष हैं, लेकिन तुम दोनों में से कोई भी उसकी बात नहीं कर रहा है।

तो प्राची भी याद आ गई और शॉप फ्लोर का अपना अनुभव भी याद आ गया आज रात। जब मैं ये तमाशेबाज़ी देखता हूँ कि चूड़ी पहनेंगे या नहीं पहनेंगे, सिंदूर लगाएँगे कि नहीं लगाएँगे, ये मुद्दा ही मूर्खतापूर्ण है न?

दो लोग एक दूसरे के साथ इसलिए थोड़े ही रहने के लिए आते हैं कि उन दोनों में से कोई एक या दोनों, साथ रहने की निशानियाँ पहनकर घूमना शुरू कर देंगे।

तुम्हें भला लगता हो तो पहन लो कोई निशानी, तुम्हें भला नहीं लगता, ना पहनो कोई निशानी। बात निशानी पहनने या ना पहनने की है ही नहीं। मूल मुद्दा ये है ही नहीं।

मूल मुद्दा ये है कि तुम दोनों साथ हो ही क्यों? मूल मुद्दा ये है कि तुम जानते भी हो कि प्रकृति क्या होती है, पुरुष क्या होता है, स्त्री क्या होती है, प्रेम क्या होता है?

तुम ये जानते नहीं और ये जानने की तुम्हारी कोई इच्छा भी नहीं है। और तुम्हारी इच्छा नहीं है, ये इसी से प्रदर्शित हो जाता है कि तुम बिलकुल ग़लत बहस में उलझे हुए हो। तुम ऐसी व्यर्थ की बहस में उलझे हुए हो, जो व्यर्थ की ही नहीं है बल्कि जो सोचा-समझा आंतरिक षड़यंत्र है। तुम ये सब बातें इसलिए कर रहे हो ताकि असली बात तुम्हें करनी ना पड़े। और ये बातें करनी आसान हैं क्योंकि ये बातें बाहरी हैं।

एक देवीजी मंगलसूत्र और सिंदूर के साथ अपनी फोटो डाल कर कह रही हैं, "मुझे देखो, मैं ये सब पहनती हूँ।"

मंगलसूत्र की या कंगन की मौजूदगी क्या प्रेम की मौजूदगी का प्रमाण है?

नहीं, पर मंगलसूत्र दिखाई देता है, चूड़ियाँ दिखाई देती हैं, उनका प्रदर्शन आसान है, वो स्थूल हैं। इसीलिए हम उनकी बात कर लेते हैं, ताकि जो सूक्ष्म चीज़ भीतर ग़ैरमौजूद है, अनुपस्थित है, उसकी हमें बात ना करना पड़े।

इसी तरीके से दूसरी देवीजी अपना चेहरा और कलाइयाँ दिखा रही हैं। "देखो, मैंने माँग में भी कुछ नहीं भर रखा, कलाईयों में चूड़ियाँ भी नहीं पहन रखी, और इससे पता चलता है कि मैं कितनी आज़ाद ख्याल हूँ। इससे पता चलता है कि हमारे रिश्ते को इन संकेतों, प्रतीकों की कोई ज़रूरत नहीं है।"

तुमने ये तो दिखा दिया कि तुम्हारी कलाइयों पर चूड़ियाँ नहीं हैं या तुम्हारी माँग में सिंदूर नहीं है—और ये दिखाना आसान है क्योंकि ये बात शारीरिक है, बाहरी है, आँखों की पकड़ में आ जाएगी—पर क्या तुमने ये भी दिखा दिया कि तुम्हारे मन में द्वेष नहीं है, हिंसा नहीं है, ईर्ष्या नहीं है, अज्ञान और अंधकार नहीं हैं?

ये तो तुमने नहीं दिखा दिया न?

कलाई पर चूड़ियाँ नहीं हैं, ये दिखाना आसान है। कलाई की फोटो ले लो। अब ये भी तो दिखा दो कि तुम्हारे दिमाग में हिंसा, परायापन और मूर्खता नहीं है। वो तुम दिखाओगे नहीं, उसकी फोटो ली नहीं जा सकती, इसीलिए मज़े आ गए।

जो असली चीज़ है, भीतर की है, उसकी बात करो ही मत। सब बाहरी-बाहरी चीज़ों की बात कर लो। और भीतर की असली चीज़ की बात नहीं कर रहे तो तुम्हें कोई दोष भी नहीं देगा क्योंकि वो भीतर की असली चीज़, जैसा हमने कहा, दिखाई नहीं देती। ना तो कोई ये सिद्ध कर सकता है कि मेरे पास प्रेम है और ना कोई ये सिद्ध कर सकता है, कोई फोटो दिखा करके, कि मेरे पास प्रेम नहीं है।

बाहरी चीज़ें हैं, जो फोटो इत्यादि से सिद्ध हो जाती हैं, उसपर खूब हल्ला मचाओ, खूब बवाल उठाओ। यही मुद्दा बना दो कि चूड़ी पहननी है या नहीं पहननी है।

मैं चूड़ी पहनने, ना पहनने पर कोई पक्ष लेना ही नहीं चाहता। जिन लोगों ने आज सवाल भेजे हैं अपने, वो लोग शायद चाह रहे हैं कि मैं कोई पक्ष लूँ कि ये सब प्रतीक धारण करने चाहिए या नहीं धारण करने चाहिए। मैं इस पर कोई पक्ष नहीं लेना चाहता।

"प्राची की कॉपी का कवर कैसा होगा?" मैं क्या बोलूँ?

कवर बाद की बात है, मैं पहले तो ये देखूँगा न कि प्राची की कॉपी के दिल में क्या है?

जब इंजन डिलीवर हो रहा है, तो उसपर थोड़ी धूल पड़ गई है कि नहीं पड़ गई है, या किसी ने उस पर कुछ लिख दिया है या नहीं लिख दिया है, या कोई स्टीकर चिपका दिया है या नहीं चिपका दिया है, ये मेरे लिए बड़े मुद्दे की बात ही नहीं है।

मैं अगर इस मुद्दे पर आऊँगा भी तो ये देखने के बाद कि इंजन में जान कितनी है, इंजन का निर्माण कैसे हुआ है, सही चलेगा इंजन, लंबा चलेगा कि नहीं।

उन मुद्दों की हम चर्चा ही नहीं करना चाहते। उन मुद्दों की हम चर्चा इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि एक व्यक्ति से आपका संबंध बस एक इकलौता, अलग, पृथक संबंध नहीं होता। आपका आपके पति या आपकी पत्नी से जो संबंध है, वो आपके जीवन की पूरी कहानी होता है।

अगर आपने गहराई से और गंभीरता से इस प्रश्न पर विचार कर लिया कि वाकई आपका संबंध कैसा है, अपने पति, पत्नी के साथ, तो आपके जीवन की आधारशिला हट जाएगी।

आपने ये जो अपना ज़िंदगी का घर या महल खड़ा कर रखा है, वो पूरा गिर जाएगा क्योंकि रिश्ता बनाने वाले तो आप ही हैं न? 'मैं' है जो रिश्ता बनाता है, चाहे किसी आदमी से, चाहे किसी औरत से, चाहे किसी जानवर से, चाहे किसी पेड़ से, चाहे किसी कुर्सी से और चाहे किसी मोबाइल फोन से।

मेरा ही तो रिश्ता होता है न? यही तो कहते हैं न, "मेरी कुर्सी, मेरी पत्नी"? दोनों में साझी बात क्या है? "मेरी है"। "मेरी है"- इस 'मेरी' में भी कौन बैठा हुआ है केंद्र पर? "मैं"।

तो उस रिश्ते की बात करना हमें बहुत अखरता है, हम बिलकुल डर जाते हैं। उस मुद्दे को हम बिलकुल दबाए रखना चाहते हैं क्योंकि एक मुद्दे को अगर हमनें परत-दर-परत उघाड़ दिया, तो जीवन में हमनें जिन-जिन चीज़ों को जगह दे रखी है, जिन-जिन चीज़ों से रिश्ता बना रखा है, हमें उन सबको उघाड़ना पड़ेगा और वहाँ पता चलेगा कि मामला तो गड़बड़ है।

एक आदमी है जिसको ज़िन्दगी भर पता ही नहीं चला कि वो कौन है, उसकी ज़रूरतें क्या हैं, उसे चाहिए क्या, अपने मन को लेकर वह पूरी तरह अंधेरे में जिया है। बात समझ में आ रही है?

छठवीं में, आठवीं में था, उसको ये नहीं पता था कि संगति किन दोस्तों की करनी है। उसे दोस्तों का चुनाव करना नहीं आया। माँ-बाप ने चाँटे मारे, बोले, "लड़का बुरी संगत में फँस गया है। इतनी कम उम्र का है और छोटी-छोटी चीज़ें इसने चुरानी शुरू कर दी। आठवीं-नवीं में आया है, और इसके चाचा ने इसको उधर सिगरेट पीते पकड़ा है।"

इसको ये पता ही नहीं चला कि संगति कैसे चुनी जाती है। बात समझ में आ रही है?

ये दसवीं से ग्यारहवीं में आया, इसे पता नहीं चला कि ग्यारहवीं में अब विषय कैसे चुने जाते हैं क्योंकि 'चुनने वाला कौन है' इसकी इसको कोई शिक्षा ही नहीं दी गई कभी।

हमारी शिक्षा में खुद को जानने के लिए, आत्मज्ञान के लिए कोई स्थान है ही नहीं। अब ये साहब ग्यारहवीं में आए हैं। इनको नहीं पता कि विषय कैसे चुनने हैं।

गणित में मामला बहुत हल्का था, लेकिन देखा कि इधर-उधर सब इंजीनियर ही बने जा रहे हैं। उधर वाले बब्बन भईया की इंफोसिस में लगी है। ताज़ा खबर ये है कि बब्बन भईया की अभी तक लगी ही हुई है… इंफोसिस में। तो वे बोले, "हम भी गणित ही लेंगें।" और जैसे ये, वैसे ही इनके आस-पास वाले, उन्होंने भी कहा, "हाँ बेटा, तू भी ले ले, तेरी भी लगेगी।"

इन्हें विषय चुनना नहीं आया।

और हम भारतीय संदर्भ में जानते हैं कि अगर तुमने पढ़ाई का विषय ग्यारहवीं में ग़लत चुन लिया तो बात कितनी दूर तक जाती है। सुधार किया जा सकता है, पर सुधार आसान नहीं होता, फिर कीमत देनी पड़ती है। बारहवीं में बड़ी मुश्किल से पास हुए। दसवीं में तो कुछ कर-कुरा के आ गए थे छियासी-प्रतिशत। ग्यारहवीं में सीधे छियालीस हुए थे। हाथ-पाँव फूल गए। बारहवीं में कुछ करके सत्तर नंबर आ गए इनके।

अब इन्हें ये समझ नहीं आया कि, "ये जो मैंने कर लिया वो मेरे लिए ठीक नहीं है।" तो अब इन्होंने अपने लिए एक और चुनाव किया, कॉलेज का। वहाँ घूस, डोनेशन (दान), जो भी उसको बोला जाता है, वो देकर किसी तरीके से इनको इंजीनियरिंग कराई गई।

उसके बाद चार साल बी.टेक में क्या करना है, इनको ये समझ नहीं आया कि यहाँ क्या चुनें, क्या ना चुनें। वैकल्पिक विषय कौन-से चुनने हैं, इन्हें समझ में नहीं आए। दिन में कौन-कौन-सी गतिविधियाँ, क्रियाएँ चुननी हैं, इन्हें समझ में नहीं आया। होस्टल में पूरी आज़ादी थी, पिक्चर देखो, कुछ भी करो। अपना समय कैसे बिताना है, इन्हें समझ में नहीं आया। कॉलेज का बहुत बड़ा डेटाबेस था फिल्मों का, हज़ारों उसमें, उनमें से कौन-कौन-सी चुननी हैं देखने के लिए, इन्हें कभी समझ में नहीं आया। ये बस वही देखते रहे जिसमें अश्लीलता, नंगापन, उत्तेजना…

इन्हें कभी कुछ चुनना नहीं आया। उसके बाद चौथे साल में जब प्लेसमेंट की बारी आई तो उन्हें ये नहीं पता था कि कंपनी कैसे चुननी है। एक इंटरव्यू (साक्षात्कार) देने गए तो वहाँ पर वो बोल रहे हैं कि तुम्हें शर्ट पहननी नहीं आई। भाई के मुँह से निकल गया, "ये तो कल रात को ही मैंने चुनकर खरीदी है।" ऐसी चुनकर खरीदी कि उस शर्ट के कारण ही रिजेक्ट (अस्वीकृत) हो गए। इन्हें ज़िंदगी में कभी कुछ चुनना नहीं आया।

हाँ, अपनी ओर से ये जो चुनाव करते थे उसको लेकर बड़े विश्वासी रहते थे कि, "मैंने तो सही ही चुना है!" क्योंकि ये जो चुनाव कर रहे थे वैसा ही चुनाव इनके इर्द-गिर्द के सारे लोग करते थे। इन्हें अगर गाँजा फूँकना है, तो इन्हें क्यों लगेगा कि ये ग़लत है जब इनके आसपास के सब लोग गाँजा फूँक रहे हैं? इनकी नौकरी नहीं लगी तो कुछ बड़ी बात हो नहीं गई क्योंकि इनके पूरे बैच में निन्यानवे प्रतिशत लोगों की नौकरी नहीं लगी।

तो अगर ये कह रहे हैं कि "मैं सही हूँ" तो चारों तरफ से एक गूँज उठती थी कि "हाँ, तुम सही हो" क्योंकि सौ में से निन्यानवे लोग तो इन्हीं के जैसे हैं। बात समझ में आ रही हैं?

फिर ये बाहर निकले, कुछ जोड़-तोड़ करके, इधर-उधर भागे, बैंगलोर गए, दो-चार साल बहुत चप्पल घिसी, और कुछ कर-कुरा कर कहीं इनकी नौकरी लग गई। तुम्हें क्या लग रहा है, इन्हें चुनना आया है कि कहाँ नौकरी करनी है, कहाँ नहीं करनी है?

नौकरी लगने के बाद फिर दो साल ऐसे ही ज़िंदगी लाल-लाल करते हुए इन्होंने अपने लिए दुल्हनियाँ चुन ली।

अब एक बात बताओ, जिस आदमी की ज़िंदगी की ये कहानी रही हो, जिसे आज तक ज़िंदगी में ना अपना पता है, ना अपनी ज़रूरतों का, ना अपनी दिशा का पता है, ना अपने निर्णयों का पता है, वो आदमी अगर अपने लिए एक पति या पत्नी का चुनाव कर भी रहा है, तो वो चुनाव कैसा होगा? क्या फ़र्क़ पड़ता है अब कि तुम्हारी पत्नी सिंदूर लगाती है कि नहीं लगाती है? क्या फर्क पड़ता है अब कि तुम्हारी पत्नी मंगलसूत्र या चूड़ियाँ पहनती है या नहीं पहनती है? बताओ न मुझे।

हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग ना खुद को जानते हैं, ना अपने रिश्तों को जानते हैं, ना उन्हें यही पता है कि वो किसी व्यक्ति की उम्र भर के लिए संगत कर क्यों रहे हैं।

अब मुद्दा क्या होना चाहिए? ये पूछना कि, "बता, तूने शादी वाली अँगूठी अपनी तीसरी उंगली में पहनी कि नहीं पहनी?" या ये मुद्दा होना चाहिए कि, "यहाँ बैठ, सामने आ बहन, हम दोनों साथ क्यों हैं? बात तो ये है हम दोनों एक-दूसरे से सर्वथा अनजाने हैं। हम दोनों एक छत के नीचे रहते क्यों हैं? हम दोनों एक बिस्तर पर सोते क्यों हैं? बता न! और मेरा अतीत गवाह है, मेरा वर्तमान गवाह है, और आगे के लिए मैंने जो योजनाएँ-आशाएँ बनाई हैं, वो भी गवाह हैं कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ। दिनभर ज़िंदगी जो मुझे ठोकरें देती है, वो ठोकरें, उन ठोकरों से मिले घाव गवाह हैं कि कुछ नहीं जानता, ना स्वयं के बारे में, ना जीवन के बारे में। जब मैं कुछ नहीं जानता तो मैं ये कैसे जानता हूँ कि मुझे किसी के साथ रहना चाहिए भी कि नहीं? और यदि किसी के साथ रहना है तो किसके साथ रहना है? बताओ, मुझे कैसे पता?"

लेकिन हम इन मुद्दों पर विचार नहीं करेंगें। हमारे लिए ये बहुत बड़ा मुद्दा है कि "मैं सिंदूर पहनूँगी कि नहीं पहनूँगी?"

अगर तुम पहनो चाहे ना पहनो, क्या फ़र्क़ पड़ता है? प्राणहीन जीवन है। मुर्दे को तुम नाक में नथनी पहना भी दो, तो क्या वो ज़िंदा हो जाएगा?

और जीवन, सौ दफे कह चुका हूँ, इसी का नाम नहीं होता कि चल-फिर रहे हो, खा रहे हो, पी रहे हो, साँस ले रहे हो। जीवन चीज़ कुछ और है। वो जीवन अगर तुम्हारे पास है नहीं, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि तुमने आँख में काजल किया कि नहीं किया? आँख में ज्योति तो है नहीं। जीवन प्राणहीन है, क्या फ़र्क़ पड़ता है कि तुमने बाल रंगे कि नहीं रंगे?

लेकिन इन्हीं मुद्दों की बात करनी है, जो मुद्दे मूर्खता के हैं। प्राची लड़ रही है मुझसे कि किताब की जिल्द पर तेल क्यों लग गया ज़रा-सा; किताब के भीतर मामला सफा-चट है।

किताब के भीतर क्या है, दिल के भीतर क्या है, उसकी बात नहीं करोंगे क्योंकि दिल किसका है तुम्हें यही नहीं पता, भाई। अभी तो 'मैं' ही पैदा नहीं हुआ, 'मैं' का दिल तो बहुत दूर की चीज़ है। वो तो चलो अंधेरे में हैं ही जिनको लग रहा है कि "अगर मैंने सिंदूर वगैरह पहन लिया तो गृहस्थी में बल आ जाता है।" उनसे ज़्यादा वो अंधेरे में हैं जो सोच रहे हैं कि "हम सिंदूर नहीं लगाती हैं, चूड़ियाँ नहीं पहनते हैं, अंगूठी नहीं पहनते हैं, इस कारण हम लिबरल (उदारवादी) हो गए, हम आज़ाद हो गए, हम बहुत आधुनिक और बहुत मुक्त हो गए।" ये महामूर्ख हैं।

अरे, तुम मुक्ति का मतलब जानती हो? मुक्ति इतनी सस्ती होती कि बालों में सिंदूर लगा है, उसको धो दिया तो मुक्ति मिल गई, फिर तो दुनिया के आठ-सौ-करोड़ में से नौ सौ करोड़ लोग मुक्त हो गए होते।

इतनी सस्ती होती है क्या मुक्ति कि तुम चूड़ियाँ उतार दोगी, तो तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी? और क्या इतनी कमज़ोर होती है क्या मुक्ति कि तुम चूड़ियाँ पहन लोगी तो मुक्ति छिन जाएगी?

पर बहुत सारी स्त्रियाँ इसी ग़ुमान में घूम रही हैं। ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की भूल है। ये खोखला लिबरल प्रोपेगेंडा (उदारवादी प्रचार) है, जिसमें बताया जा रहा है कि तुम अगर प्रतीकों का त्याग कर दो तो तुमने ग़ुलामी भी त्याग दी।

कुछ प्रतीकों को कह दिया गया है कि "साहब, ये ग़ुलामी के प्रतीक हैं।" और कहा गया है, "देखो, ग़ुलामी आती इन्हीं प्रतीकों से है।" पहले तो आपके सामने एक समीकरण रखा गया है। समीकरण क्या है? कि ग़ुलामी बराबर ये जो कुछ प्रतीक हैं। और वो प्रतीक आमतौर पर धार्मिक ही होते हैं जिन्हें चुना जाता है वार करने के लिए।

तो कोई धार्मिक प्रतीक उठा लो या सांस्कृतिक प्रतीक और कह दो कि, "ये जो प्रतीक हैं न, यही ग़ुलामी हैं आपकी। तो अगर आपको ग़ुलामी छोड़नी है तो इस प्रतीक को छोड़ दो।"

आप बहुत खुश हो जाते हो, कहते हो, "अरे वाह! ये तो आज़ादी बड़े सस्ते में मिल गई। बस इस प्रतीक का त्याग ही तो करना है।"

ग़ुलामी के क्या प्रतीक हैं? अगर तुमने पूरे कपड़े पहन रखे हैं तो तुम ग़ुलाम हो। "तो चलो, जल्दी से कुर्ता उतार दो। कुर्ते की जगह कुछ ऐसा पहन लो जो कुर्ते के दस प्रतिशत कपड़े में बन जाता हो। साड़ी, ये तो महाग़ुलामी की प्रतीक है। एक साड़ी से तो कम-से-कम दो-सौ स्रियों के कपड़े बन सकते हैं।"

ग़ुलाम औरत साड़ी पहनती है और एक ग़ुलाम औरत की उस साड़ी से दो-सौ आज़ाद औरतों के वस्त्र बन जाते हैं। और वो बड़ी खुश हैं दो-सौ, कि "देखो, आज़ादी मिल गई, आज़ादी मिल गई!"

पूछा गया, "कैसे?"

बोलीं, "वो सब जो ऋषियों ने और बुद्धों ने बात कही, उसी का पालन किया।"

"किस बात का पालन किया?"

बोलीं, "उन्होंने बोला था, जस्ट ड्रॉप इट (बस त्याग दो)। आचार्य जी, आप भी तो बोलते हैं न, लिबरेशन इज़ नॉट टू बी अटेंड। बॉन्डज इज़ टू बी ड्रॉप्ड मुक्ति प्राप्त नहीं करनी है, बंधन गिराने हैं।"

"तुमने क्या गिराया?"

"हमने अपने सारे कपड़े गिरा दिए। एकदम चुआ दिए, पट्ट से गिरा दिए नीचे। जो कुछ पहन रखा था सब गिरा दिया। और उससे हमको आज़ादी मिल गई।"

आज़ादी प्यारी चीज़ है, बहुत बढ़िया बात है कि आपको आज़ादी चाहिए। लेकिन महोदया, आज़ादी इतनी नहीं सस्ती है न, कि आप कह दें, "मैं तो शादी संविधान पर हाथ रखकर करती हूँ। ये जो वेद हैं और उपनिषद हैं, यही सब ग़ुलामी के कारण हैं, और जितने धार्मिक ग्रंथ हैं, तो मेरे विवाह में किसी धार्मिक पुस्तक से मंत्रोच्चार नहीं होगा।"

ये सोच रही हैं कि आज़ादी मिल जाएगी ऐसे, और बड़ी प्रसन्नता छाई हुई है। जो लोग गुवाहाटी उच्च न्यायालय का मज़ाक बना रहे हैं, वो अपने-आपको मोरली सुपीरियर (नैतिक रूप से श्रेष्ठ) भी मान रहे हैं। उनमें बड़ी भावना है नैतिक श्रेष्ठता की। वो कह रहे हैं, "देखो, ये तो न्यायालय में ऐसे ही बैठे हुए हैं न्यायाधीश। इनको तो कुछ पता है नहीं। इस देश का कानून भी अब हमारे हिसाब से चलना चाहिए।"

तो ये लोग न्यायालयों पर भी दबाव बनाते हैं खूब। अगर न्यायालय ने कोई ऐसा निर्णय दिया है जो इनके संस्कारों से मेल खाता है, तब तो ठीक है। पर अगर न्यायालय ने कोई ऐसी बात बोल दी जो इनकी विचारधारा के विरुद्ध जाती है—और इनकी विचारधारा इनकी नहीं है, इनकी विचारधारा उस शिक्षा व्यवस्था की है जिसकी किताबें इन्होंने पढ़ ली हैं, उन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की हैं, जहाँ धर्म के विरुद्ध, और अध्यात्म के विरुद्ध और हर उस चीज़ के विरुद्ध जो पुरानी है, युवाओं के मन में जहर घोला जाता है, वहाँ से आती है इनकी विचारधारा। तो इनकी विचारधारा के ख़िलाफ अगर उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय ने कुछ बोल दिया, तो ये शीर्ष न्यायाधीशों का मज़ाक बनाने से परहेज़ नहीं करते।

अरे भाई, अगर आप भीतर से आज़ाद हो, तो मैं बिलकुल समर्थन करुँगा कि बाहर आप कुछ करो या ना करो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अक्का महादेवी को, लल्लेश्वरी को कोई मूर्ख ही होगा जो जाकर पूछेगा, “तुम धार्मिक चिन्ह धारण करती हो या नहीं करती हो?” उनसे क्या पूछें? उनको तो असली चीज़ मिल गई। बात समझ में आ रही है?

पर जिनको असली चीज़ मिली नहीं है, वो स्त्रियाँ अगर इस बात को लेकर विजय उत्सव मना रही हैं कि “देखो, हमने तो कुछ चिन्ह अब त्याग दिए और ये हमारी बड़ी विजय है", तो ये कोई विजय नहीं है। मैं बहुत आदर के साथ निवेदन करके कह रहा हूँ, बात समझिएगा। आप जिस व्यक्ति के साथ रह रहे हैं या रह रही हैं, उस व्यक्ति के साथ आपका नाता क्या है, ये बात आपको साफ-साफ नहीं पता। उस व्यक्ति को लेकर आपके मन में असुरक्षा भी है, संदेह भी है, दिल पर हाथ रखकर अपने-आपसे पूछिएगा।

"फोन का पासवर्ड?" (ना में गर्दन हिलाते हैं)

मैं नहीं कह रहा कि दे देना चाहिए फोन का पासवर्ड, पर दिल धक से हो जाता है कि नहीं हो जाता जब अपना फोन किसी और के हाथ में देख लें तो? और भीतर-ही-भीतर इच्छा रहती है कि नहीं रहती कि दूसरे का फोन हमें मिल जाए?

और कई जोड़ों में तो ये समझौता देखा जाता है कि तेरा फोन मैं एक्सेस (इस्तेमाल) करूँगी और मेरा फोन तू एक्सेस करेगा, तभी हमारा रिश्ता चल सकता है, भाई। कई दफ़े तो साझी ईमेल-आईडी भी होती है, कि "तुझे क्या मेल आ रही, मुझे क्या मेल आ रही, वो एक ही आईडी पर आएँ। तू मेरी देख ले मैं तेरी देख लूँ।" (व्यंगात्मक तरीके से) यही तो प्यार कहलाता है न। दोनो एक-दूसरे पर जासूसी करेंगे। आहा! कितना प्यार है!

अब इस प्यार में तुम सिंदूर पहनो, नहीं पहनो, फ़र्क़ क्या पड़ता है? आपस में कोई रिश्ता ही नहीं है। सिंदूर तो यही दिखाता है न कि पत्नी हो। पत्नी तो है कहाँ? रिश्ता पहनो चाहे ना पहनो। किन आधार पर हो रही हैं शादियाँ? प्रेम के आधार पर हो रही हैं? मैं तो कहता हूँ कि भली बात है। तुम चूड़ी पहनो तो ये चूड़ी का अपमान है, तुम सिंदूर लगाओ तो ये सिंदूर का अपमान है।

जिन आधारों पर लोग अपने साथियों का चयन करते हैं, उन आधारों के बारे में थोड़े ही सोचा होगा उन्होंने जिन्होंने विवाह की संस्था बनाई थी। बीते दिनों में दो वीडियो आए मेरे। उनका ताल्लुक युवाओं में सरकारी नौकरियों को लेकर के जो डर, जो ज़िद, जो आग्रह रहता है, उससे था।

और सैकड़ों की तादाद में संदेश आए हैं उसके बाद, जहाँ पर लड़के कह रहे हैं कि "आपकी बात बिलकुल ठीक है, लेकिन लड़की शादी ही नौकरी देखकर ही करती है। अगर सरकारी नौकरी नहीं हुई मेरे पास, तो मुझे लड़की मिलेगी नहीं जन्मभर।"

उनकी बात से मैं सहमत बिलकुल नहीं हूँ क्योंकि मुझे मालूम है कि ये जो लड़के इस तरह की बात कर रहे हैं, ये सिर्फ अपने भीतर की कमज़ोरी को छुपाने के लिए ऐसे तर्क दे रहे हैं। लेकिन अगर उनकी बात में आंशिक सच्चाई भी है, तो इससे क्या पता चलता है?

आप लड़के का पद देख करके, ओहदा देख करके शादी कर रही हैं। उसके बाद आप कहें कि "मैं बड़ी विवाहिता हूँ, सुहागन हूँ, मंगलसूत्र धारण करती हूँ।" क्या हो जाना है? ये जो करवा-चौथ के नाम पर होता है, उससे क्या हो जाना है?

प्रेम नहीं तो कुछ नहीं। और प्रेम बहुत सस्ती चीज़ नहीं होता, और प्रेम ऐसी चीज़ नहीं होता है कि आप कहें कि, “नहीं-नहीं, मुझे तो अपने पति से प्रेम है।“

आपका कार्बन फुटप्रिंट कितना है, आपको पता नहीं। माँस खाने से, जानवर कटवाने से आपको परहेज़ नहीं। मैं अभी देश की गरीबी के आकड़ों के बारे में दो-चार सवाल करूँ, आपको पता नहीं होगा। आप कैसे कह सकते हैं कि आपको एक व्यक्ति से भी प्रेम है?

प्रेम ऐसी चीज़ नहीं होती कि टॉर्च जैसा है, कि किसी एक व्यक्ति पर रौशनी मार दी। प्रेम बारिश जैसा होता है—बरसेगा तो सब पर बरसेगा। हाँ, अगर कोई खुद जाकर कहीं छुप जाए तो अलग बात है। प्रेम सूरज जैसा होता है। सूरज उगेगा, तो रौशनी सबपर पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि किसी के मुँह पर टॉर्च मार दी और कहा, "यही तो है मेरा लोलु।"

आपको दुनिया से कोई वास्ता नहीं। आपसे अभी पूछा जाए कि "बताइए, रोज़ जानवरों की कितनी प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं?" आपको पता नहीं। और आप कह रही हैं कि अपने पति से प्रेम है या आपके पतिदेव कह रहे है कि उन्हें अपनी पत्नी से प्रेम है!

दोनों झूठ बोल रहे हैं। दोनो में से कोई प्रेम नहीं जानता। स्वार्थ का रिश्ता है सीधा-सीधा। फिर तो भला यही है कि स्वार्थ के रिश्ते का कोई प्रतीक धारण ही ना किया जाए। मैंने कहा कि वो प्रतीक का अपमान होगा। लोलो-लोली दोनों बैठे हुए हैं, और ताज़ा कटा हुआ मेमना बीच में रखा हुआ है। और लोलो-लोली दोनों एक-दूसरे के प्रति अपने प्रेम का इज़हार कर रहे हैं, कह रहे हैं, “देख, मैं तेरे लिए अपनी जान दे सकता हूँ।" लोली बोल रही है कि, "अरे! तुम मरोगे सैया, उससे पहले तो मैं कहीं चले जइयाँ।" और मेमना कह रहा, “ना तू मरने वाला है ना ये मरने वाली है; मैं मर चुका। तुम दोनों की नौटंकी है मरने की, कटा तो मैं हूँ।"

शादी का ही उत्सव ऐसा करा था जिसमें ना जाने कितना प्रदूषण फैला दिया। और प्रदूषण फैलाने को नहीं मिल रहा आजकल, कोरोना के कारण बंदिश लगी हुई है, तो बड़े दिल टूट रहे हैं, कह रहें हैं कि, "सिर्फ पचास ही लोग आएँगे क्या? हमें वातावरण तबाह करने का मौका नहीं दोगे क्या? प्लीज़-प्लीज-प्लीज़! सब नाले गन्दे कर रहे हैं, सब हवा गन्दी कर रहे हैं, सब पेड़ काट रहे हैं, सब पहाड़ों पर जाकर पहाड़ों का बलात्कार कर रहे हैं, हम भी अपने विवाह में थोड़ा तो पहाड़ों की दुर्गति करेंगे न? प्लीज़-प्लीज-प्लीज़!” और फिर तुम कह रहे हो कि ये रिश्ता तुम्हारा प्रेम का है। कैसे प्रेम का है बताओ?

इन्होंने विवाह में सिल्क की शेरवानी पहनी थी, उन्होंने सिल्क की बहुत महँगी-महँगी—हज़ारों ही नहीं लाखों की—साड़ियाँ मंगवाई। सिल्क कहाँ से आता है, जानते हो? कहाँ से आता है सिल्क?

श्रोता: सिल्क का कीड़ा।

आचार्य जी: हाँ, और तुम बोल रहे हो कि तुम्हें प्रेम है? सिर्फ तुम्हारी शादी-शादी के लिए तुमने हज़ारों कीड़े उबलते हुए पानी में डलवाकर मारे ताकि तुम्हारी जो फोटो आए—और वो तुमने फ़ोटो लेने वाला नमूना दो लाख रुपये देकर के नियुक्त करा है, और वो कूद रहा है ऐसे (अभिनय करते हुए), तो जब वो तुम पर लाइट मारेगा—तो सिल्क रहेगा, तो लाइट ज़्यादा पलट कर आएगी। आहा, क्या चमकता है सिल्क! और इस तरह की शादी के बाद तुम दोनों बोल रहे हो कि तुममें आपस में प्रेम है, सही में?

उस लड़के के पास नौकरी नहीं होती तो तुम शादी कर लेतीं? इस लड़की के पास आकर्षक देह ना होती, सीधे बोलूँ तो सेक्सी ना होती, तो तुम शादी कर लेते? अरे, तुम तो जात-पात भी देखकर शादी करते हो, कुल-गोत्र का भी मिलान करते हो। ये कौन-सा प्रेम है जो पहले पूछता है कि “आपकी जात क्या है?”

ये सब भी पिक्चरों में होता है कि वहाँ जाकर के पूछा जाता है, कि " टी और कॉफी, योर प्लेस और माई प्लेस (चाय या कॉफ़ी, तुम्हारे यहाँ कि मेरे यहाँ)"। हिंदुस्तान में तो ऐसे पूछते हैं, "जात बताएगी?" फिर जैसे ही जात मिली नहीं कि वो पूछ रही इधर से, "गोत्र बता, गोत्र।" और मैचिंग- मैचिंग हो गया तो लगे फिर दोनों उछलने, अचानक से प्रेम बद-बदाकर फूट पड़ा। और मैचिंग- मैचिंग नहीं हुआ तो फिर...

और ये प्रेम विवाह में होती हैं चीज़ें। अधिकांश प्रेम विवाह भी जात, कुल, गोत्र देखने के बाद होते हैं। मुझे बड़ा ताज्जुब होता था। कैम्पस में बहुत सारे जोड़े बनते थे। मैं देखता था कि ये जोड़े बन ही ऐसे रहे हैं कि इनमें कुल-गोत्र वगैरह की कोई समस्या ही नहीं आने वाली। ये तो सब पहले से ही मैचिंग-मैचिंग है।

फिर मैंने एक को पकड़ा, मैनें कहा, “कैसे किया?” वो बोले, "पहले तो वो सब चेक किया न। जब उधर पर सारे बॉक्स टिक हो रहे थे, सब मैचिंग-मैचिंग था, तो फिर मैंने कहा कि ये लड़की सेक्सी है।"

पहले उधर मैचिंग-मैचिंग किया जाता है, और फिर तुम बोल रहे हो कि तुम्हें प्रेम है एक-दूसरे से? और तुम सोच रहे हो कि चूड़ी नहीं पहनोगे और ये सब नहीं करोगे, तो बड़े आज़ाद ख्याल के कहलाओगे?

आज़ाद ख्याली क्या होती है, मुक्त विचारणा क्या होती है, इसका कुछ पता भी है तुमको? मुक्ति का कुछ पता हो, उसके लिए पहले अपने बंधनों का एहसास होना चाहिए, पहले भीतर से बड़ी पीड़ा उठनी चाहिए कि “मैं कितने बंधन में हूँ।"

वो पीड़ा तुम्हें उठती नहीं है। पीड़ा की जगह हँसते हो। जब देखो तब दाँत दिखाते बत्तीसी चमकाते घूम रहे हैं। आहा, कितनी खुशी छाई हुई है! खुशी क्यों छाई हुई है? नया सोफ़ा खरीद लिया। खुशी क्यों छाई हुई है? ताज़ा बकरा कटवाया। खुशी क्यों छाई हुई है? कहीं बीस रुपये का फायदा हो गया। खुशी क्यों छाई हुई है? कल रात बिस्तर पर बहुत धूम-धड़ाका मचाया।

इन बातों पर तो तुम्हें खुशी छा जाती है। तुम्हारे जीवन में बंधनों की पीड़ा है कहाँ, बताओ मुझे? पीड़ा छोड़ दो, तुम्हारे जीवन में तो गंभीरता भी नहीं है। और जिसके जीवन में कोई पीड़ा नहीं, कोई गंभीरता नहीं, वो आज़ाद कैसे हो जाएगा, भाई?

तुम क्या सोच रहे हो, फिर पूछ रहा हूँ, कि चूड़ी, सिंदूर त्यागने से तुम आज़ाद हो जाओगे? बंधन का पता नहीं, आज़ादी तुम्हें कैसे मिल जाएगी? जिस आदमी को यही नहीं पता कि वो किन-किन तरीकों से और किन-किन जगहों से बंधन में है, जिसको यही नहीं पता कि वो है कौन, वो आज़ाद कैसे हो जाएगा इतनी आसानी से?

पर यही खेल चल रहा है। कोई ये बात नहीं करना चाहता कि हमारे बंधन कहाँ-कहाँ पर हैं और हमारा मूल बंधन क्या है। बिना ये बात करे लोग आज़ादी के गुब्बारे उड़ा रहे हैं। "मैं भी आज़ाद हूँ, मैं भी आज़ाद हूँ, मी टू (मैं भी), हम सब आज़ाद हैं।"

पहले ये तो देख लो कि बंधन कितने गहरे हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक बंधनों का एक पिंड मात्र हैं हम; उनकी बात नहीं करेंगे। और उनकी बात जो विज्ञान करता है, उसको हम अपने जूतों की ठोकर पर रखेंगे। किसको? अध्यात्म को।

उसकी तो हम बात ही नहीं करना चाहते। तो हम बताएँगे, "साहब, हमने तो शादी भी संविधान पर हाथ रख कर की थी।"

क्यों भाई? ईशावास्य उपनिषद से कोई दुश्मनी थी? और संविधान कहाँ प्रेम की बात करता है, बताना मुझे? संविधान कहाँ कहता है कि दो लोगों को आपस में प्रेम से रहना चाहिए और सहृदयता होनी चाहिए, करुणा कहाँ है संविधान में, बताओ? मातृत्व का क्या अर्थ है, पिता होना किसको कहते हैं, बताओ कहाँ लिखा है संविधान में? जहाँ लिखा है, उनकी ओर ना जाना पड़े इसलिए तुम संविधान की झूठी आड़ ले रहे हो। ये है तुम्हारी हकीक़त।

तुम्हें संविधान से भी प्रेम नहीं है। अभी अगर संविधान के अनुच्छेद एक के बाद एक खोलकर रख दूँ, तो पता चलेगा कि संविधान की कितनी ही बातों का तुम सरेआम उल्लंघन करते हो। तो ऐसा नहीं है कि तुम संविधान के बड़े प्रेमी हो, बात बस इतनी है कि संविधान की ओर जा रहे हो ताकि गीता की ओर ना जाना पड़े, उपनिषदों की ओर ना जाना पड़े।

ये तुम्हारी आज़ादी है? इसी को तुम बोलते हो कि, "मैं तो बहुत आज़ादी में अपने चुनाव करता हूँ"? ये चुनाव कर रहे हो तुम?

अध्यात्म नहीं कहता कि तुम बहुत सारी चीज़ें शरीर पर धारण करो। अध्यात्म तो कहता है कि तुमने ये शरीर भी धारण कर रखा है न, इसमें ही बहुत सारे भ्रम हैं। तो ये तो भूल ही जाइए कि धर्म का काम है औरतों को ज़बरदस्ती सिंदूर पहनवाना। बिलकुल भी नहीं।

सिंदूर तो तुम किस चीज़ के ऊपर लगाते हो? शरीर के ऊपर। अध्यात्म तो कहता है, धर्म तो कहता है कि ये जो शरीर है, ये भी तुमने व्यर्थ ही ओढ़ रखा है। लोगों को बड़ा भ्रम है। उन्हें लगता है कि धर्म का तो मतलब होता है कि शरीर को ढ़ककर रखो, शरीर के ऊपर वस्त्रों की एक परत और पहन लो। और वो सोचते हैं कि, "हमने शरीर के ऊपर के वस्त्र उतार दिए, तब हम लिबरल कहलाएँगे। हमने शरीर के ऊपर के वस्त्र उतार दिए तो कितना मज़ा आएगा। देखो, हम धर्म का उल्लंघन करेंगे, आहा! और जितने धार्मिक लोग हैं, उनको हम बड़ी चिकोटी काटेंगे। बड़ा मज़ा आएगा। उन्हीं के सामने हम सारे वस्त्र उतार देंगे, तो धार्मिक लोगों को बड़ा बुरा लगेगा।"

तुम पागल हो। तुम तो अधिक-से-अधिक यही कर सकते हो न कि शरीर के ऊपर के वस्त्र उतार दो। अध्यात्म तो कहता है कि ये जो शरीर है, ये भी एक वस्त्र मात्र है। जाओ, पढ़ो गीता।

तुम शरीर के ऊपर के क्या कपड़े उतार रहे हो? कभी तुम्हें होश होता किसी कृष्ण से मिलने का, तो वो तुम्हें बताते कि शरीर खुद एक वस्त्र है। अरे, उतार ही रही हो तो फिर इस वस्त्र को भी उतार ही दो न।

और शरीर के ऊपर के वस्त्र उतारना आसान होता है। कुछ नहीं करना है। बटन खोले, उतार दिया। ये जो शरीर नाम का वस्त्र है, इसको उतारने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि इसको तुम ऐसे भी नहीं उतार सकते कि खाल नोंच दी। खाल नोंच दोगे, तो उसके नीचे माँस है, फिर उसके नीचे हड्डी है। तुम क्या-क्या उतारोगे? मूर्खतापूर्ण काम हो जाएगा।

इसको उतारने के लिए मानसिक रूप से अपने ऊपर काम करना पड़ता है। बड़ा अनुशासन चाहिए, बड़ी ईमानदारी चाहिए। ना ईमानदारी है, ना अनुशासन है, ना होश है, तुम क्या किसी कृष्ण से जाकर मिलोगे?

मुक्ति तुमको देते हैं कोई कृष्ण, कोई अष्टावक्र, कोई कबीर, इनसे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे लिए मुक्ति बस इसी में निहित है कि, “हमने तो जी चूड़ियाँ उतार दी, हम मुक्त हो गए।" और भीतर वाली हथकड़ियाँ कब उतारोगी?

बाहर वाली चूड़ियाँ तो उतार दी, उनकी बात कौन करेगा? और मैं फिर कह रहा हूँ - मुझे बाहर की चूड़ियाँ कोई पहने ना पहने इस बात से दो धेले का कोई मतलब नहीं है। जिसके भीतर हथकड़ियाँ बज रही हों, उसने बाहर चूड़ियाँ पहनी या नहीं पहनी, फ़र्क़ क्या पड़ता है।

पर फ़र्क़ तब जरूर पड़ता है जब चूड़ियों का मुद्दा ही इसलिए उठाया जा रहा हो ताकि अंदर की हथकड़ियों की बात ना करनी पड़े। जितना मेरा बस चलेगा थोड़ा बहुत, मैं तो बहुत ज़ोर से बोलूँगा कि तुम बाहर की चूड़ी की नहीं, भीतर की हथकड़ी की बात करो। समझ में आ रही है बात?

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