Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
डिप्रेशन या अवसाद का कारण || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
15 min
239 reads

प्रश्न: आज से पचास-साठ साल पहले एक मानसिक रोगी को जितनी एंग्जायटी(उत्कंठा) महसूस होती थी, उतनी आज एक सामान्य युवा को महसूस होती है। आचार्य जी, मेरा सवाल ये है कि आपके अनुसार इसके कारण क्या हैं। और अगर हम इस समस्या का हल नहीं निकाल पाते हैं, तो हमारा भविष्य कैसा होगा?

आचार्य प्रशांत जी: बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। नाम क्या है तुम्हारा?

प्रश्नकर्ता: मोहित शर्मा।

आचार्य प्रशांत जी: मोहित ने कहा, “आज से पाँच दशक पहले जितनी एंग्जायटी एक मानसिक रोगी को होती थी, उतनी एंग्जायटी आज आम है – स्कूलों में, कॉलेजों में। और ये बात अनुमान के आधार पर नहीं है, ये आँकड़े हैं, ये नम्बर्स हैं, ये रिसर्च (अनुसंधान) है, ये डेटा(तथ्य) हैं। हम सब किसी-न-किसी तरीके से परेशान हैं, निराश हैं। कोई चिंता है, दिमाग पर बोझ है। ये बात कहने की नहीं है, ऐसा हो रहा है। परीक्षण करके अगर नापा जाए, तो हम सबका यही हाल निकलेगा। यहाँ भी यही हाल निकलेगा। कोई चीज़ है जो परेशान करे ही जा रही है, करे ही जा रही है। तो पूछा है कि – बात क्या है?

बात क्या है? दो पक्ष हैं उसके। दोनों को समझ लेंगे।

पहली चीज़ ये है कि वैज्ञानिक क्रांति के बाद जितने विषय हो सकते हैं पाने के लिए, उनमें बेतरतीब वृद्धि आ गई है। आज से पचास साल पहले, जितनी चीज़ें हो सकती थीं, कि जिन्हें पाया जा सकता था, आज उससे सौ-गुना चीज़ें मौजूद हैं। न सिर्फ़ वो मौजूद हैं, वो तुम्हें हर समय अपने आप को प्रदर्शित कर रही हैं। तो उपभोग करने की जितनी वस्तुएँ उपलब्ध हैं, उनमें बड़ी तेज़ी से वृद्धि हुई है।

समझ रहे हो?

एक आदमी जिन चीज़ों को हासिल कर सकता था, वो पचास साल पहले की अपेक्षा आज सौ गुनी हैं। और न सिर्फ़ वो सौ गुनी हैं, वो तुम्हारे पास हर तरीके के माध्यम से पहुँच रही हैं, प्रदर्शित हो रही हैं, विज्ञापित हो रही हैं। इसका क्या मतलब है?

अब एक इंसान है, वो इस कुर्सी पर बैठा हुआ है। उसको बार-बार दिख रहा है कि दुनिया में हासिल करने के लिए, उपभोग करने के लिए, भोगने के लिए इतनी चीज़ें हैं। और वो चीज़ें बार-बार, बार-बार उसके दिमाग पर लाई जा रही हैं, एक तरह से उसके दिमाग पर हमला किया जा रहा है। और ये जो इतनी चीज़ें हो गई हैं दुनिया में जो विज्ञान और तकनीक का उत्पादन हैं, जो बाज़ार का उत्पादन हैं, क्या तुम उन सबको पा सकते हो, और उनका उपभोग कर सकते हो?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

आचार्य प्रशांत जी: चीज़ें बढ़ती जाएँगी, पर उनके भोग की तुम्हारी क्षमता तो नहीं बढ़ रही। या बढ़ रही है? न तुम्हारे पास उतना ज़्यादा पैसा है, हर किसी के पास नहीं हो सकता। और न तुम्हारे पास उतना समय है। तो बढ़ क्या रहा है फ़िर? तुम्हारा फ़्रस्ट्रेशन बढ़ रहा है, तुम्हारी निराशा बढ़ रही है, कि -“इतनी चीज़ें हैं, मुझे तो मिल ही नहीं। इतना कुछ है, हर चीज़ के नए-नए मॉडल निकल रहे हैं। दुकानों में नए-नए आविष्कार पहुँचते जा रहे हैं। खाने, पहनने, रहने, घूमने-फिरने, हर जगह के नए-नए ज़रिए खुलते जा रहे हैं। और मैं चूकता जा रहा हूँ। आई एम मिसिंग आउट, आई एम मिसिंग आउट। और न सिर्फ़ मैं चूकता जा रहा हूँ, कोई और है जो मज़े ले रहा है।”

कैसे पता कि कोई और है जो मज़े ले रहा है?

“मैंने फेसबुक पर उसकी फोटो देखी।”

क्योंकि जो मज़े ले रहा होता है, वो मज़े लेते हुए फेसबुक पर अपनी फोटो ज़रूर डालेगा। वो ये फोटो कभी नहीं डालेगा कि मज़े लेने के बाद क्या हुआ। कभी किसी को देखा है कि वो हँसने के बाद की भी फोटो फेसबुक पर डाले? पर जब हँस रहे होते हैं, तो फोटो आ जाती है फेसबुक पर। वो फोटो देखी हज़ार लोगों ने, और हज़ार लोगों उस फोटो को देखकर ऐसे हो गए – “ये भी हँस रहा है। मैं ही रह गया बस। मैं ही पीछे रह गया, पूरी दुनिया मज़े कर रही है।”

(हँसी)

किसी ने नई गाड़ी खरीदी, उसने फेसबुक पर डाल दिया। और तुम देख रहे हो अपनी पुरानी आल्टो को। और अब तुम्हारा मन कर रहा है कि – “आग लगा दूँ इसमें अभी।”

(हँसी)

अब भले ही वो जो गाड़ी की फोटो डली हो, भले ही वो नकली हो। कितनी दफे मैंने देखा है, जवान लोग होते हैं, जहाँ देखते हैं कि कोई इम्पोर्टेड गाड़ी सामने खड़ी है, इधर-उधर देखते हैं, और जल्दी से सेल्फी ले लेते हैं। कपड़ों की दुकानों के ट्रायल-रूम में लिखा देखा है मैंने – ‘सेल्फीज़ नॉट अलाउड (सेल्फी लेने की अनुमति नहीं है)’।

लड़के-लड़कियाँ हैं वहाँ, देखते हैं कोई महँगी ड्रेस जिसको वो खरीद नहीं सकते, उसका ट्रायल तो कर सकते हैं। वहाँ ट्रायल करने जाएँगे, ट्रायल-रूम में सेल्फी लेंगे, और वो फोटो फेसबुक पर दाल दी जाएगी। अब दस का दिल जला दिया, धुआँ ही धुआँ उठ रहा है। बाकी काम फोटोशॉप कर देती है। बैकग्राउंड ब्लर्र कर देती है, तो पता भी नहीं चला कि ट्रायल रूम में ली है ये फोटो।

तो ये जो वस्तुओं की तीव्र वृद्धि है, ये जो चीज़ों का फैलाव है, इसने हमको डिप्रेशन में डाल दिया है, क्योंकि हमारी कामनाएँ, हमारी अधूरी इच्छाएँ, हमारे सामने और बेबस होकर के, और निराश होकर के प्रकट हो जाती हैं – “मुझे भी चाहिए, मुझे मिल नहीं रहा।” और हकीकत ये है कि तुम्हें उतना चाहिए नहीं।

इस बात को समझना। तुम्हें गुस्सा बहुत आएगा।

वो सब चीज़ें तुम्हें चाहिए नहीं, वो सब चीज़ें चाहने पर तुम्हें मजबूर किया जा रहा है। कुछ बैठे हैं शातिर, चालाक लोग, जो तुम्हें उन चीज़ों को चाहने पर भी मजबूर कर रहे हैं जिन चीज़ों की कोई अहमियत नहीं है, जिन चीज़ों को तुम कभी न चाहते। पर तुम्हें बड़ी होशियारी से, बड़ी चालाकी से मजबूर कर रहे हैं कि तुम उन चीज़ों को चाहो, और खरीदो, और उनकी जेब भरती रहे। और अधिकांशतः हम थोड़े कम समझदार लोग होते हैं। ये भी कह सकते हो, भोले लोग होते हैं। हमें उन शातिर लोगों की चलें नहीं समझ में आतीं।

वो चीज़ें सिर्फ़ बनाते नहीं हैं, वो उन चीज़ों का बाज़ार भी बनाते हैं।

बात को समझना।

चीज़ बनाना काफी नहीं होता, चीज़ों का बाजार भी बनाना पड़ता है। ‘बाज़ार’ समझ रहे हो? उसके लिये एक मांग तैयार करनी पड़ती है। आप एक फैक्ट्री में कोई चीज़ बनाएँ, इतना ही काफी नहीं है। जब आप कोई चीज़ बना रहे हो, तो आपको उसके साथ-साथ उसकी मांग भी बनानी पड़ेगी न, तभी तो उसे खरीदा जाएगा। और तभी तो आपको पैसे मिलेंगे। और वो मांग किसके मन में तैयार की जाती है? तुम्हारे। और हम शिकार हो जाते हैं।

हर चीज़ की मांग हमारे मन में तैयार की जा रही है, हर चीज़ हम पा नहीं सकते। तो हम बहुत-बहुत निराश हो जाते हैं। वही निराशा फ़िर एंग्जायटी और डिप्रेशन के तौर पर सामने आती है।

“मुझे ये भी चाहिए, वो भी चाहिए। मुझे भी ऐसा पार्टनर चाहिए, मुझे भी ऐसा घर चाहिए। अरे! उसको ये मिल गया, मुझे नहीं मिला। अरे! उसकी शादी हुई है, इतनी बड़ी शादी हुई है। इतने करोड़ की शादी हुई है।” और मीडिया पर फोटो ही फोटो। तुम्हें क्या लग रहा है, वो सब फोटो अनायास ही आ जाती हैं? नहीं। वो पूरा एक ओर्केस्ट्रेटेड कैंपेन (तैयार किया हुआ अभियान) होता है, क्योंकि पूरी वेडिंग इंडस्ट्री काम कर रही है। हमें लगता है कि हमें किसी की शादी दिखाई जा रही है।

फलाने एक्ट्रेस ने फलाने एक्टर से शादी कर ली, और तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास खबरें आ रही हैं। नहीं, नहीं, नहीं। उन ख़बरों के पीछे पूरी ज्वेलरी इंडस्ट्री है, उन ख़बरों के पीछे पूरी इवेंट-मैनेजमेंट इंडस्ट्री है। वो तुम्हें ये सब दिखा रहे हैं, ताकि तुम भी उस तरह की वेडिंग करो, और किसी की जेब भरो।

और ये बात हमें समझ में नहीं आती।

(तालियों की गड़गड़ाहट)

और जब हम वैसी शादी नहीं कर पाते, तो हम अपनी ही नज़रों में गिर जाते हैं। कितने घरों में कितनी लड़ाईयाँ होती हैं, क्योंकि शादी जिस तरह से करनी थी, वो अरमान पूरे नहीं हो पाए। और शादी कैसे करनी थी? शादी वैसे करनी थी, जैसे अभी मीडिया में देखा है। “मुझे भी वैसी ही शादी करनी है। वैसी ड्रेस पहननी है, उसी तरह का शोशा होना चाहिए। उसी तरह के चार-पाँच इवेंट होने चाहिए।” चार-पाँच इवेंट होने चाहिए, ये तुम्हें सिखाया किसने? उसने। पर हम ये बात देख ही नहीं पाते। और हमने किसको अपना गुरु बना लिया?

अब ‘गुरु’ शब्द आ गया है, तो अब मैं दूसरे कारण पे आता हूँ।

हमने कहा, “डिप्रेशन का पहला कारण है – फोर्स्ड कन्सुमेरिस्म (कृत्रिम उपभोक्तावाद)। हमें मजबूर किया जा रहा है उपभोग करने के लिएए ये डिप्रेशन का पहला कारण है। और डिप्रेशन का दूसरा कारण है – डिक्लाइन इन विजडम ( बोध का पतन)। किसी ने कहा अभी, “वी आर इन द पोस्ट-रिलिजन ऐज (हम धर्म-आगामी समय में जी रहे हैं)।”

तो सच्चाई की कुछ कीमत है, ईमानदारी की कुछ कीमत है, प्यार की कुछ कीमत है – इन बातों को अब मज़ाक समझा जाने लगा है। और यही वो बातें हैं, जो दिमाग को सेहत और संतुलन देती हैं।

पर हमें बता दिया गया है कि – “नहीं साहब। अब तो कीमत बस एक चीज़ की है – संपन्नता की। कुछ भी करके बस पैसा कमाओ।” नतीजा उसका सामने आ रहा है – तमाम तरह के व्यसन, डिप्रेशन, अवसाद, हिंसक व्यवहार, और इस ग्रह के इकोसिस्टम (परितंत्र) का पूरा विनाश। तुम सब तो व्यवसाय-सम्बंधित पाठ्यक्रम के पढ़ने वाले छात्र हो।

अच्छे से जानते होंगे कि धरती का हमने क्या हाल कर दिया है। उसका सीधा सम्बन्ध इन्हीं दोनों चीज़ों से है। पहला – उपभोक्तावाद में वृद्धि। दूसरा – बोध का पतन।

हमारे विद्यालयों में सबकुछ पढ़ा दिया जा रहा है, आधारभूत बोध-साहित्य नहीं पढ़ाया जा रहा है। तो लड़का-लड़की, ये जब जवान हो रहे हैं, तो इन्हें इधर- बहुत सारी बातें पता हैं, इन्हें ज़िंदगी कैसे जीनी है, ये नहीं पता है। और इसमें से बहुत कुछ ‘बुद्धिवाद’ के नाम पर हो रहा है।

*इस बात से कैसे इन्कार करोगे कि अगर तुम्हारी ज़िंदगी में ये सब मूल्य नहीं हैं –* *धैर्य, प्रेम, समझ, कर्मठता, ईमानदारी – तो तुम चैन से नहीं रह सकते।*

इस बात से कोई इन्कार कर सकता है?

लेकिन इन सब बातों को स्कूलों के, कॉलेजों के पाठ्यक्रम में कोई जगह नहीं दी जा रही है। तो जो होना है, वो हो ही रहा है। अमेरिका में सामूहिक गोलीकाण्ड होते हैं, और अक्सर स्कूलों में होते हैं। और अक्सर जब स्कूलों में होते हैं, तो जो बंदूक चलाने वाला होता है, वो कोई स्कूल का ही छात्र होता है। जिस ‘उपभोक्तावाद’ की हम बात कर रहे हैं, उसका शिखर, उसका प्रतिमान, तो पश्चिम ही है न। तो ये सब वहाँ होता है, और ये सब अब हमारे सामने भी आ रहा है।

हमारे सामने भी आ रहा है, ये और ज़्यादा दुःख की बात है।

हमारे पास समझ थी, बोध था। हमारे पुराने लोग भले ही हमें और कुछ न दे पाए हों, उनके पास बहुत पैसे वगैहरा न रहें हों, लेकिन एक चीज़ बेशक़ीमती वो हमारे लिए छोड़कर गए थे – विज़डम(समझ, बोध)। हमने उसका बड़ा अपमान किया। हम उसको पढ़ना ही नहीं चाहते। हमें लगता है उसकी कोई कीमत ही नहीं है।

हम कहते हैं, “ये सब पुराने लोगों की दकियानूसी बातें हैं, हटाओ। के.एफ.सी. चलते हैं।” हम किसी को देख लें कि वो बोध-साहित्य पढ़ रहा है, तो हम उस पर हँसने लग जाते हैं। हम कहते हैं, “देखो, ये आज के ज़माने में कैसी बातें कर रहे हैं।” तुम ये नहीं समझते कि ये जो वो कर रहा है, वो छोटी-मोटी बात नहीं है, वो मनोविज्ञान के अग्रणी अनुसंधान की चीज़ है।

पर वो हम जानते भी नहीं। हम कहते हैं कि पुरानी बातें हैं, सब बेकार की चीज़ हैं। वो बेकार नहीं हैं। उन्हीं बातों की तरफ़ आज भौतिक-शास्त्र भी बढ़ रहा है, उन्हीं बातों की तरफ़ आज न्यूरोलॉजी और मनोविज्ञान भी बढ़ रहे हैं। और वो नहीं है जिसके पास, उसकी ज़िंदगी बहकी-बहकी रहेगी, जैसे कोई कोहरा छाया हो, जैसे कोई नशा हो।

जो दुनिया के सर्वोच्च सफल व्यक्ति भी हैं, अगर तुम उनके वृत्तान्त भी पढ़ोगे, उनकी जीवनी या आत्मकथा भी पढ़ोगे, तो तुम पाओगे, उनमें से सौ मैं से नब्बे लोग ऐसे हैं जो बोध-साहित्य के बड़े पारखी थे। गहन पाठक थे। उनमें से बहुत तो ऐसे थे, जो पश्चिम से भारत आए, क्योंकि वो अपने मन को सुलझाना चाहते थे, इससे पहले कि वो कोई व्यवसाय या उद्योग शुरु करें।

पश्चिम इस बात को सराहता है, और ये बड़े खेद की बात है कि ऐसा भारतीय नहीं कर रहे। अभी जिसकी तुमने बात की, हर तरह के मनोविकार, उत्कंठा, अवसाद, यहाँ तक की जिसको तुम स्पष्टतः ‘मनोरोग-सम्बन्धी विकार’ कहते हो, बाइपोलर वगैरह, उनका भी बहुत सम्बन्ध उन्हीं चीज़ों से है जिनकी मैंने बात की।

तो इन दोनों बातों के प्रति बेहद सावधान रहना।

गौर से देखो कि क्या तुमको आकर्षित कर रहा है। क्या चीज़ उपभोग करने को चालाकी से मजबूर किया जा रहा है। किसी को चालाकी मत करने दो अपने साथ। तुम्हारी ज़िंदगी कीमती है। तुम्हारी ज़िंदगी इसीलिए नहीं है कि है कि किसी ने कोई उत्पाद बनाया है, और तुम उसे उपभोग करते चलो। और उपभोग कर-करके उसको पैसा खिलाते चलो।

इसलिए है तुम्हारी ज़िंदगी?

इस बात पर बहुत सावधान रहो, बहुत-बहुत सावधान कि – “मुझमें क्या इच्छा जागृत कर रहा है, और कौन? कहीं मैं किसी के लालच का शिकार तो नहीं हो रहा।” और दूसरी चीज़ जिसकी मैं सलाह दूँगा वो ये है कि – पढ़ो, और अच्छा पढ़ो।

जब मैंने कॉर्पोरेट के आगे की अपनी यात्रा शुरु की थी, तो शिक्षण संस्थाओं से ही की थी, आज से पंद्रह वर्ष पहले। और शुरुआती चीज़ ही जो मेरी संस्थान किया करती थी, वो ये थी कि शिक्षण-संस्थाओं में जाकर पहले वहाँ एक लाइब्रेरी स्थापित करना। युवाओं को ये तो पता चले कि पढ़ने के लिए ये भी मौजूद है। दुनिया का ऊँचे-से-ऊँचा साहित्य, हर देश से, हर जगह से, हर धारा से लाकर उनके सामने रखो तो। और फ़िर उसी साहित्य पर आधारित आधारभूत कोर्सेज, जो छात्र पढ़ें, समझें।

और उससे प्रमाणतः बहुत मदद भी मिलती थी। और यही आपको भी करना चाहिये, भले ही इसका कोई कोर्स उपलब्ध हो, या न उपलब्ध हो। कोर्स अगर नहीं मिल रहा, तो खुद करो। और आज ज़्यादा आसान है, क्योंकि इंटरनेट आज ज़्यादा सुलभ है पहले की अपेक्षा। बहुत कुछ है जो तुम ऑनलाइन ही पढ़ सकते हो, किंडल पर पढ़ लो, या किताब मंगा लो। ऑर्डर कर लो।

‘पढ़ने’ का मतलब समझते हो क्या है? ‘पढ़ने’ का मतलब ये है कि – कोई बहुत ऊँचा आदमी जो तुमसे आमने-सामने नहीं मिल सकता, वो क्या कह गया है, वो तुमको पता चल गया है। तुम उससे मिल नहीं सकते, हो सकता है वो अब तक मर गया हो। लेकिन उसकी बात तुम तक पहुँच गई।

ये अपने आप में कितनी खूबसूरत बात है। है या नहीं?

तो पढ़ो, और सही पढ़ो। और ये सब जो शिकारी घूम रहे हैं, तुम्हारा, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारे समय और तुम्हारे पैसे का शिकार करने के लिए, इनके विरुद्ध सावधान रहो। हमारी ज़िंदगी हमारी है। हमारी जिन्दागी इसीलिए नहीं है कि हम किसी फैक्ट्री के उत्पाद का उपभोग करते रहें, ताकि जिसकी वो फैक्ट्री है, वो वैसी पाँच फैक्ट्रियाँ और डाल सके। तुम्हारी ज़िंदगी क्या इसीलिए है?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य प्रशांत जी: तो होशियार रहो।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles