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वो ही चुनेगा कि कौन उसे चुनता है
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता:

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्वाम।।

आत्मा प्रवचन सुनने से नहीं मिलेगी, ना ही तुम्हारी बुद्धि से, ना ही सुनी सुनाई बातों से। आत्मा उसी को मिलती है जिसे वह स्वयं चुनती है।

~ कठ उपनिषद् (1.2.23)

यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती, ना ही बौद्धिक क्षमता से और ना ही शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से। आगे है कि जो इसकी इच्छा करता है उसे यह प्राप्त होती है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है।

बिना आत्मा के प्रकाश से क्या मन आत्मा की इच्छा भी कर सकता है?

आचार्य प्रशांत: जो भी बात की जाएगी वो हमेशा मन के बारे में ही की जाएगी। आत्मा का कोई प्रकाश होता नहीं वास्तव में, आत्मा भी कुछ होती नहीं वास्तव में; क्योंकि अगर कह दिया गया कि आत्मा है तो मन हो नहीं सकता। हम दोनों को एक साथ नहीं कह सकते कि हैं, कि आत्मा भी है और मन भी है।

परम और आत्यंतिक सत्य तो यही है कि मात्र आत्मा है, पर अगर कहा कि मात्र आत्मा है, तो ये चर्चा यहीं रुक जानी चाहिए—इसके आगे कुछ कह नहीं जाना चाहिए; क्योंकि यदि आत्मा है, तो मात्र मौन है। फिर ना मैं हूँ, ना आप हैं, ना ये बैठक है और ना इसमें कहे जाने वाले शब्द हैं। तो हम तो अभी यही कहें कि मन है और मात्र मन है।

मन क्या आत्मा की इच्छा कर सकता है?

सिर्फ मन ही है जो आत्मा की इच्छा कर सकता है। और मन के पास पूरी मुक्ति है आत्मा की इच्छा करने की या ना करने की। रही आत्मा के सहयोग की बात, रही ये बात कि क्या आत्मा का प्रकाश उपलब्ध है, क्या सत्य मन को बुला रहा है, तो सत्य तो हमेशा ही बुलाता रहता है। और जो कुछ सदा, सर्वदा, और बेशर्त मौजूद हो, उसकी बात ही नहीं करनी चाहिए; क्योंकि उसकी बात करके क्या होगा, वो तो है ही। बात उसकी करनी चाहिए जो कभी होता है और कभी नहीं होता है, वो मन है। कभी हाँ करने का और कभी ना करने का विकल्प मन के पास होता है; आत्मा तो निर्विकल्प है। आत्मा के पास ये विकल्प ही नहीं है कि वह ना कह दे।

आप कह रहे हैं, "आत्मा के प्रकाश के बिना।" ये वक्तव्य ही असंभाव्य है; ऐसा कभी होता ही नहीं कि आत्मा का प्रकाश न हो। आत्मा तो चिरप्रकाशित है, आत्मा का स्वभाव ही प्रकाश है। तो "आत्मा के प्रकाश के बिना" जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है। बात उसकी करें जहाँ कभी प्रकाश होता है कभी अंधेरा; बात उसकी करें जो कभी आत्मा की इच्छा करता है और कभी आत्मा की इच्छा नहीं करता, वो मन है। वो कभी तो आत्मा की इच्छा करता है और कभी आत्मा की इच्छा नहीं करता।

अब सवाल ये है कि क्या मन आत्मा की इच्छा कर सकता है?

हमने पहली बात तो यह कही कि आत्मा की ओर से कभी कोई कमी होती नहीं। सत्य का बुलावा निरंतर है, सत्य की मौजूदगी लगातार है। तो हम उसकी बात ही नहीं करेंगे, उससे ये कहना कि कभी है, कभी नहीं है, कभी कम है, कभी ज़्यादा है, ये बात ही उचित नहीं होगी। तो हम अपनी दृष्टि मन पर केन्द्रित करते हैं। मन है जो कभी सत्य को हाँ तो कभी ना बोलता है। उसमें भी अगर ज़रा और गौर से देखेंगे, तो क्या मन कभी सत्य को हाँ बोल सकता है?

मन सत्य को हाँ नहीं बोल सकता; क्योंकि मन वास्तव में सत्य को कभी जान नहीं सकता। मन सीमित को जान सकता है, मन अपने तल की वस्तुओं को जान सकता है; मन सत्य को तो नहीं जान सकता। तो मन कभी सत्य को हाँ नहीं बोल सकता, और कभी वो सत्य को ना भी नहीं बोल सकता; क्योंकि किसको हाँ या ना बोलेगा, किसको हाँ या ना बोलना है, उसके विषय का उसे कुछ पता ही नहीं।

तो फिर मन क्या करता है?

मुण्डकोपनिषद् का एक श्लोक है जिसकी पूरी विषयवस्तु ही यही है कि आत्मा किसे मिलती है। हमने कहा कि आत्मा किसे मिलती है, किसे नहीं मिलती है, इसमें आत्मा का कोई योगदान नहीं; क्योंकि वो तो सदा मिली हुई है। फिर हमने कहा कि आत्मा मन को मिलती है या नहीं मिलती है, इसमें मन का आत्मा को हाँ कहना कोई अर्थ नहीं रखता; क्योंकि मन आत्मा को जानता ही नहीं तो हाँ कैसे बोलेगा या ना भी कैसे बोलेगा। अपनी ओर से वो बोल सकता है, पर वो बात निरर्थक होगी।

तो फिर ऐसा कैसे हो जाता है कि मन को आत्मा उपलब्ध नहीं होती, मन को सत्य उपलब्ध नहीं होता। कुछ तो होता होगा। वो ऐसे होता है कि मन अनात्मा को हाँ बोले रहता है। मन आत्मा को हाँ या ना नहीं बोल सकता, लेकिन मन हर उस चीज़ को हाँ या ना बोल सकता है जो आत्मा नहीं है, जो सत्य नहीं है। आपने जब भी कभी किसी ऐसी चीज़ को हाँ बोला जो आत्मा नहीं है, जो बाहरी है, जो सत्य नहीं है, उसी क्षण आप आत्मा से दूर हो गए। बात बहुत सीधी है।

ये मत देखिए कि आप आत्मा को हाँ या ना बोल रहे हैं या नहीं बोल रहे हैं; उसको आप हाँ या नहीं बोल नहीं पाएँगे। और ये तो सोचिए ही मत कि अभी आत्मा का बुलावा आया कि नहीं आया; उसका बुलावा लगातार है। आप ये देखिए कि आप हाँ बोलते किसको हैं, आपकी ज़िंदगी में महत्वपूर्ण क्या है, और जो कुछ आपकी ज़िंदगी में महत्त्वपूर्ण है, वही आत्मा नहीं है; क्योंकि आत्मा कभी महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकती।

इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ ये हुआ कि आपकी ज़िंदगी में अगर कुछ भी महत्त्वपूर्ण है, तो आप आत्मा से सदा दूर-दूर रहेंगे। आत्मा की उपलब्धि फिर किसको है? आत्मा की उपलब्धि उसको है जिसके जीवन में जो कुछ है वो महत्वहीन है, जिसके जीवन में जो कुछ भी है वो होकर भी नहीं है। कैसे जानें आप कि आपके जीवन में कुछ महत्त्वपूर्ण है कि नहीं है?

क्या कुछ ऐसा है जो आपके लिए करना बहुत ज़रूरी है, क्या कुछ ऐसा है जो आपके लिए ना करना बहुत ज़रूरी है, क्या कुछ ऐसा है जिसको आप बताए ही चले जाते हो, और क्या कुछ ऐसा है जिसको आप छुपाए ही चले जाते हो?

ये सब इशारे हैं इस बात के कि तुम्हारे जीवन में क्या महत्त्वपूर्ण है, और ये सब इशारे हैं इस बात के कि तुम आत्मा से दूर रहे ही आओगे। आप किसी को कुछ बार-बार उद्घाटित करते देखें, आप किसी को कुछ बार-बार दुनिया को जताते हुए देखें, तो साधारण-सी बात है कि वो सब उस व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण है ही। और चूंकि उसके लिए वो महत्त्वपूर्ण है, इसीलिए उसके लिए आत्मा महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकती। और उससे भी ज़्यादा फँसा हुआ और गर्हित वो मन है जिसे बार-बार आप कुछ छुपाते देखें।

तुम जानना चाहते हो तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है? वो जिसका तुम नाम भी नहीं लेते, वो जो तुमने दस पर्दों में छुपाकर रखा है। वही है जो तुम्हें कभी आत्मा से नहीं मिलने देगा। तुम खेले जाओ बाकी सारे अपने खेल, जो सबसे बड़ा खेल है वो तो तुम हारे बैठे हो। जो तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण ना होता, वो तुमने इतने पर्दों में छुपाया कैसे होता। और जब तुम्हारे लिए वही महत्त्वपूर्ण है, तो आत्मा का प्रश्न ही कहाँ उठता है।

क्या कह रहें है ऋषि? ऋषि कह रहें है, "आत्मा सिर्फ उनको ही प्राप्त होती है जो बाकी सबकुछ छोड़कर मात्र इसे ही चुनता है।" आत्मा को चुना नहीं जा सकता, लेकिन ये ज़रूर देखा जा सकता है कि बाकी सबकुछ जो तुमने चुन रखा है वो क्या है। और भली-भाँति जानते हो तुम कि तुमने क्या चुन रखा है, और भली-भाँति जानते हो तुम जो तुमने चुन रखा है उसपर सत्य का प्रकाश पड़ेगा तो जल जाएगा, इसीलिए तुम उसे सत्य से इतना छुपाकर रखते हो।

अपने चुनावों की ओर गौर कर लें। वो सबकुछ जो आप अपने दिल के गहरे अंधेरे में दबाकर रखते हैं, उस पर गौर कर लें। आपके वो सारे हीरे-जवाहरात, जो आपके मानस की तिजोरी में दस तालों से कैद करे हुएँ हैं, आप उनकी ओर ज़रा गौर कर लें। वो सबकुछ जिसे आप दुनिया और समाज की नज़र से बिल्कुल बचाकर रखना चाहते हैं, जिसे आप अपना व्यक्तिगत मसला कहते हैं, उस पर गौर कर लें।

दिखाना भी महत्व बताता है, छुपाना भी महत्व बताता है। पर दिखाने में इतना तो पता है कि आप इस बात के लिए तैयार हो कि "दिखाऊँ, तो हो सकता है कि कोई छीन ले।" कम-से-कम इतनी अनासक्ति तो आपमें आ गई है कि आप तैयार हो कि "अगर बता दूँ, तो कोई छीन ले; मैं तैयार हूँ।" पर जो बता भी नहीं रहा, उसका मोह, उसका आकर्षण, और उसकी वासना तो इतनी गहरी है कि "बताऊँगा ही नहीं। कहीं छिनने की स्थिति ना आ जाए। छिना, तो मेरी वासना का क्या होगा, मेरी आसक्ति का क्या होगा?" और फिर तुम प्रश्न करते हो, "आत्मा किसे मिलती है, किसे नहीं?"

ऋषि तुमसे कह रहें हैं कि आत्मा उसे मिलती है जो मात्र आत्मा का वरण करता है। और तुमने तो वरण कर ही रखा है, वर तो तुम बने ही बैठे हो। जहाँ आत्मा नहीं होती, वहाँ तमाम तरह की व्याधियाँ औेर उन व्याधियों की दुर्गंध होती है; फिर वहाँ क्लेश भी होता है, कलह भी होता है, ईर्ष्या भी होती है, संताप भी होते हैं। क्या इनकी मौजूदगी तुम्हें बता नहीं रही है कि आत्मा से दूर हो—आत्मा तुमसे दूर नहीं है, तुम आत्मा से दूर हो। जहाँ आत्मा नहीं होती, वहाँ शोषण होता है; जहाँ आत्मा नहीं होती, वहाँ असत्य होता है और बहाने होते हैं; और ये सब मौजूद रहेंगे, शोषण भी और बहाने भी; और ये तो भूल ही जाओ कि जहाँ आत्मा नहीं होती वहाँ प्रेम हो सकता है, असंभव।

छोड़ो प्रार्थना कि "हे प्रभु, आप मेरा वरण करें। हे प्रभु, आप मुझे आशीर्वाद दें, अनुग्रहित करें।" क्या इल्ज़ाम लगा रहे हो कि परम ने तुम्हारे साथ ज़्यादती करी है, और वो तुमको आशीर्वाद देने में ज़रा ढील रख रहा है, कुताही बर्त रहा है? ये तो तुमने अभियोग ही लगा दिया ना कि "मालिक, आपसे देने में कमी हो गई, तो हम प्रार्थना करने आएँ हैं कि थोड़ा ज़्यादा दीजिए।" मालिक से देने में कोई कमी नहीं हुई है; तुम्हें मालिक के अलावा कहीं और से बहुत कुछ चाहिए। तुमने पीठ कर रखी है मालिक की ओर। तुम कह रहे हो, "मालिक, ज़रा ठहरो। हम ज़रा अपने दूसरे वाले काम निपटा के आते हैं।" फिर पूछते हो, "आत्मा…"

जब तुम्हारे पास दिखाने के लिए कुछ होगा, तुम सदा आत्मा से दूर भागोगे। तुम्हें प्रदर्शन करना है, तुम्हें आडंबर करना है, तुम्हें नुमाइश करनी है, तुम सदा दूर भागोगे आत्मा से। और जब तुम्हारे पास छुपाने के लिए कुछ होगा तब तुम और ज़्यादा दूर भागोगे आत्मा से; क्योंकि छुपाने के लिए तो अंधेरा ही सुविधाजनक होता है। आत्मा तो प्रकाशरूप है, जिन्हें छुपाना होता है वो अक्सर अंधेरी गुफ़ाओं की तलाश करते हैं। अगर तुम्हारी अंधेरी गुफ़ा में आत्मा का प्रकाश आ गया, तो तुम डर जाओगे; तुम्हें तो छुपाना है। तो कोई आत्मा पर इल्ज़ाम ना दे। पर भरोसा नहीं हमारा, हम परमात्मा की नियत पर भी शंका कर सकते हैं।

ये माया का बड़ा अद्भुत खेल है कि जब तुम्हें सत्य की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, ठीक वो मौका होता है जब तुम सत्य के पास आने से सबसे ज़्यादा घबराते हो। जब तुम गहरे अंधेरे की ओर खिंचे जा रहे होते हो, ठीक वो मौका होता है जब तुम प्रकाश को दुश्मन भी मानने लगते हो। अभी आप यूँ ही सुनेंगे, तो आपको लगेगा कि मूर्खता है, ऐसा कोई क्यों करेगा? पर यही तो हम दिन-रात करते हैं। आप कहोगे कि डूबता आदमी सहायता के लिए पुकारेगा, पर खेल इससे बिल्कुल उल्टा है।

आप अस्तित्व में चारों ओर देखें, जो डूब रहा होता है वो सहायता को ठुकराता है। मैं नदी में डूबने वालों की बात नही कर रहा; मैं भवसागर में डूबने वालों की बात कर रहा हूँ। आप उम्मीद करोगे कि आप बीमार हो, आपको चिकित्सक मिलेगा, तो आप सबसे पहले उसे बीमारी बताओगे, लेकिन अस्तित्व में उल्टा होता दिखाई देता है। और जब मैं अस्तित्व कह रहा हूँ, तो मेरा इशारा सिर्फ इंसान के मन से है, ना पेड़ से, ना पौधे से, ना जानवर से। आदमी कुछ उल्टा ही करता दिखाई देता है। वो जब मिलता है तो बाकी सबकुछ बता देता है, वही छुपा जाता है जो उसकी बीमारी है, और बाकी सारी बातें लिख देगा। "आज मैंने सब्ज़ी खरीदी, आज मैंने रोटी खाई, फिर मैंने कपड़े बदले, फिर मैं सो गया," और ये नहीं लिखेगा कि बीच में दो कत्ल भी किए थे; वो छुपा जाएगा।

ना छुपाए, तो माया कहाँ जाए? तुम्हारे दम पर तो माया का पूरा खेल चल रहा है। जो जितना ज़्यादा परेशान होगा वो उतना ज़्यादा सत्र में नहीं आएगा, मेरे सामने नहीं बैठेगा। उससे पूछा जाए कि क्यों नहीं आए, "आज ज़रा परेशान था इसलिए नहीं आया।" शाबाश! तो कब आओगे, जब परेशानी नहीं रहेगी? बहुत बढ़िया!

आये क्यों नहीं? "वो घर में थोड़ा शादी-ब्याह था, इसलिए नहीं आए।" ठीक यही मौका था जब तुम्हें यहाँ होना चाहिए था ताकि उस ज़हर से बच सको, और ठीक इसी मौके पर तुमने दिखा दी ना बुद्धि, लगा दी अक्ल।

पत्नी अद्वैत से नाराज़ है; पति नहीं आया। क्यों नहीं आए? "वो ज़रा घर का माहौल ठीक नहीं था।" ठीक इसीलिए तुम्हें यहाँ होना चाहिए था, पर देखो क्या अक्ल लगाई तुमने।

आमतौर पर नियमों की कोई कीमत नहीं होती, पर तुम्हें एक नियम दिए देता हूँ: जो छुपाने का मन करे, वो सबसे पहले बताना; और जब ना आने का मन करे, तब बिल्कुल भाग कर आना। जब आने का मन ही कर रहा हो, तब ना भी आओ, तो कोई बात नहीं: जब बताने का मन ही कर रहा हो, तो मैं वैसे भी सुनूँगा नहीं तुम्हारी।

आप लोग यहाँ बैठे हुए हो, आपको क्या लगता है, आप कौन हो? आप वो लोग हो जो आज यहाँ ना भी बैठते, तो काम चल जाता; क्योंकि यहाँ बैठने के लिए सद्बुद्धि चाहिए। वो सद्बुद्धि आ गई थी ना, तभी तो यहाँ आए। तो आज के दिन सद्बुद्धि थी, तो तुम्हें यहाँ बैठने कि ज़रूरत कल पड़ेगी जब कल तुम्हारी बैठने की इच्छा नहीं रहेगी। तब कोई चाहिए जो तुम्हें उठा करके यहाँ रख सके। और आज जिन्हें वास्तव में यहाँ होना चाहिए था वो, वो वो हैं जो यहाँ नहीं हैं। इसका अर्थ जानते हो क्या? इसका अर्थ ये है कि मैं हमेशा उनसे बोल रहा होता हूँ जिन्हें सुनने की ज़रूरत नहीं, और जिन्हें सुनना चाहिए, मैं उनसे कभी भी बोल नहीं रहा होता हूँ।

देखो, एक बात ये होती है कि कोई चीज़ बिना कीमत की लग रही थी, तो हमने सोचा कि क्या ज़िक्र करें, क्यों परेशान करें, वो एक बात है। पर ईमानदारी से अपने आप से पूछो, जो तुम छुपाए बैठे हो, वो तुम्हारे लिए बिना कीमत का है? सही बात तो ये है कि वो तुम्हारे लिए जान से ज़्यादा कीमती है। तुम मुझसे फ़िज़ूल चीज़ें आकर ना बताओ, बहुत अच्छी बात होगी। क्यों मेरा समय बर्बाद करते हो और अपना भी? पर मुझसे जो तुम छुपा रहे हो, वो तुम्हारे लिए फ़िज़ूल नहीं है, और ये तुम अच्छे से जानते हो; वो तुम्हारे लिए बहुत कीमती है। तुम्हारे प्राण अटके हुए हैं उसके साथ। वो तुमसे छिन जाए, तो तुम विद्रोह कर दोगे। और जब लगता है कि छिन रहा है तो देखा है कैसा प्रतिरोध उठता है तुम्हारे भीतर से?

तो अपने आपको ये झाँसा मत दे देना कि "ये तो छोटी-मोटी बातें हैं, हमने इसलिए आपको नहीं बताई।" मैं कह भी नहीं रहा हूँ कि छोटी-मोटी बातें बताओ, कि आज किस रंग का कच्छा पहना है। पर तुम जो छुपा रहे हो वो कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। तुम वो बातें छुपा रहे हो जो तुम्हारे जीवन की धुरी बन चुकी है। और फिर कहते हो "आत्मा का प्रकाश!"

ये सबकुछ अपने लिए कष्ट का और दूसरों के शोषण का कारण बनता है। तुम सोचते यही रह जाओगे कि ये बातें प्रेम की हैं, तुम देख भी नहीं पाओगे कि तुमने दूसरों का कितना शोषण कर दिया है, उन्हें कितना कष्ट दे दिया है। पाप लगेगा, और कुछ नहीं होगा।

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