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लेख
बंधन भी, मुक्ति भी - जो तुम चाहो! || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने प्रकृति का संबंध बताया जहाँ पर एक संबंध पत्नी का संबंध है और एक संबंध माँ का संबंध है, तो मुझे रामकृष्ण परमहंस याद आ रहे हैं। तो वहाँ पर जो संबंध था, जो वे देवी की तरह, माँ की तरह पूजते थे तो यह वही संबंध है?

आचार्य प्रशांत: वही बात है, बिल्कुल वही बात है। माँ से आपको पोषण मिलता है, समझिएगा, पर माँ को आप भोगते नहीं हो। माँ से जीवन मिलता है, माँ से सब कुछ मिलता है। जन्म भी देती हैं माँ, पोषण भी देती हैं, उसके बाद परवरिश, संस्कार, लालन-पालन, सब मिलता है, लेकिन भोगते नहीं न माँ को। माँ से बच्चे की तरह लेते हो, पत्नी से संबंध दूसरा होता है।

रामकृष्ण जो शारदा माँ को ‘माँ’ कहकर संबोधित करते थे, उसमें सीख यही थी कि अगर संबंध बनाने ही हैं स्त्रियों से तो भोग के तो मत ही बनाओ। पत्नी भी है, अगर माँ स्वरूप उसको देख सकते हो तो फिर ठीक है, पर पत्नी से संबंध यही है चीरा-फाड़ी का, भोग का, एक दूसरे के शोषण का, उसके प्रति दृष्टि सदा यही है कि उसको किस तरीके से अधिक-से-अधिक नोंच-खसोंट लूँ। और यह बात सिर्फ़ पुरुषों पर ही नहीं लागू होती है, स्त्रियों पर भी लागू होती है कि उनका पति की ओर या तमाम पुरुषों की ओर क्या नज़रिया है।

वास्तव में प्रकृति में जो कुछ भी हो, चाहे स्त्री, चाहे पुरुष, चाहे चूहा, चाहे बिल्ली, चाहे फर्श, चाहे दीवार, उसके शोषण का, उसके दोहन का रुख तो न ही रखा जाए। आध्यात्मिक दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, वो इस तरह से नहीं चलती कि मुझे दूसरे से क्या मिल जाएगा। मिल उसे बहुत कुछ जाता है, जैसे बच्चे को माँ से। बच्चे को तो कई बार पता भी नहीं होता कि उसे क्या चाहिए, माँ को पता होता है। समझ रहे हो?

प्र: आचार्य जी, अभी आपने कहा कि सब कुछ देवी का है या प्राकृतिक है, तो सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी की बात क्या होती है, और साथ ही सत्वगुण को रजस से ऊपर और रजस को तमस से ऊपर फिर क्यों कहा है?

आचार्य: तुम्हें अगर मुक्ति चाहिए हो तो सिर्फ़ तभी सतोगुण बाकी दो गुणों की अपेक्षा प्रधान है। और जब तुम सतोगुणी भी हो जाओ, और तब भी यह अहंकार कर लिया कि मैं तो सतोगुणी हूँ, कि सतोगुण मेरा है तो फँसे रह जाओगे सतोगुण में। सतोगुण का महत्व सिर्फ़ इसमें है कि जिसे गुणातीत जाना हो, उसके लिए अच्छा है सतोगुण। बात समझ रहे हो? तमोगुण में अगर तुम हो, तो गुणातीत नहीं जा पाओगे। गुणातीत जाने का मतलब होता है प्रकृति से ही मुक्ति।

प्रकृति में तीन गुण हैं, गुणातीत जाना माने प्रकृति से ही मुक्त हो गए। तो जो मुक्ति के साधक हों, सिर्फ़ उनके लिए सतोगुण बाकी दो गुणों से श्रेष्ठ है। इसीलिए यह कहा जाता है कि तुम तमोगुण से ऊपर उठकर सतोगुण की तरफ बढ़ो। लेकिन जैसे तमोगुण का अभिमान बुरा है, यह मानना कि तमोगुण मेरा है, बुरा है, वैसे ही बराबर का बुरा है यह मानना कि मैं सतोगुणी हूँ। सतोगुण से भी आपको तादात्म्य नहीं कर लेना है। सत्व भी सत्य नहीं होता, सत्य में जाना है तो सत्व को भी पीछे छोड़ना होता है। समझ में आ रही बात?

तो प्रकृति के भीतर ये तीन गुण हैं। निरपेक्ष दृष्टि से देखो तो ये तीनों गुण बराबर हैं, लेकिन अगर मुक्ति के साधक की दृष्टि से देखोगे तो सतोगुण श्रेष्ठ है, बस।

प्र: आचार्य जी, इसी से जुड़ा हुआ सवाल था कि अगर कारण भी वहीं हैं, निवारण भी वहीं हैं तो फिर ज़िम्मेदारी किसकी है?

आचार्य: दु:ख तुम्हें है। कारण भी देवी हैं, निवारण भी देवी हैं, पर बीच में तुमने स्वयं को कर्ता बनाकर, कारण बनाकर दु:ख खूब भोग लिया न? तो कारण देवी तब हैं जब देवी की ही माया के वशीभूत होकर तुम देवी को भूल जाओ। निवारण देवी तब है जब तुम देवी का स्मरण करो, देवी की स्तुति करो तो देवी निवारण बन जाएँगी। दृष्टि पर है तुम्हारी।

तुम्हें जो प्रथम बंधन है, यह देह, यह प्रथम बंधन भी तुम्हें प्रकृति से मिला है, तो चाहो तो प्रकृति को बंधन की तरह देख लो, जीवन भर रोओ, एक यह तरीका है जीवन का। एक यह है कि यह जो देह मिली है, यह बंधन है ही नहीं, यह तो बड़ी संपदा है। मुझे सुख लूटना है, तो देह के माध्यम से मैं संसार को भोगूँगा, एक यह दृष्टि है जीवन को देखने की, जीने की, चाहो तो ऐसे जिओ। और एक तीसरी है जो कहती है कि देह को ही माध्यम बना करके देह से ही मुक्ति पानी है। तीनों ही दृष्टियों में खेल तो देवी का ही है, क्योंकि बंधन भी किसने दिया? देवी ने। भोगने को भी तुम किसको तैयार बैठे हो? देवी को ही। और देह को माध्यम बना करके जब तुम मुक्ति पा रहे हो तो मुक्ति भी किसने दी? देवी ने दी। अब यह निर्भर तुम पर करता है कि तुमको क्या चाहिए जीवन में, यह तुम तय करो।

प्र: आचार्य जी, आपने कहा कि भक्त जो होता है, वह बहुत महत्वाकांक्षी होता है। स्तुति और जो आरतियाँ होती है मंदिरों में, उनका उद्देश्य प्रचलित तौर पर महिमामंडित करना ही होता है। अभी जो आपने स्तुति का अर्थ बताया, उसका आधार ज्ञान या वेदांत है, जिसका उद्देश्य अहंकार को घटाना है। तो यह भूल क्यों होती है कि देवी को बिल्कुल उस रूप में दिखा रहे हैं कि बहुत शक्तिशाली हैं और महिमामंडित कर रहे हैं।

आचार्य: देवी की ही माया है। प्रकृति को ही तो माया कहते हैं न? तुम जब तक मुक्ति माँगोगे नहीं, वह देने नहीं आएँगी। तुम मुक्ति नहीं माँग रहे, वह तुमको भुक्ति देती रहेंगी। भुक्ति समझते हो? भोग। तुमको भुक्ति चाहिए, भुक्ति मिलता रहेगा। क्या भोगोगे? थोड़ा सा सुख, बहुत सारा दु:ख। चलो कह लो कि बराबर का सुख-दुख, लेकिन वो जो सुख भी होगा, वह दु:ख की छाया में होगा। तो देख लो सुख में कितना दम है। आशंकित डरा हुआ सुख होगा कि कहीं खत्म न हो जाऊँ। हमारे सारे सुख ऐसे ही होते हैं न?

तुम कभी पूरे सुखी हो पाते हो? हमेशा जो सुख है, वह भीतर-ही-भीतर आशंकित रहता है, अनहोनी न घट जाए कहीं। आज तो ठीक है, कल का पता नहीं क्या होगा। तुम्हारा ऐसा चलता है। सुख में दु:ख की आशंका और दु:ख में सुख की आशा — कुछ भी पूरा नहीं।

प्रश्न यह नहीं है कि ऐसा क्यों होता है, यह जान लो कि ‘ऐसा होता है’। तुम पूछोगे कि प्रकृति ऐसी क्यों है, तो फिर तो कारण ब्रह्म है। प्रथम और अंतिम कारण ब्रह्म है। कारण नहीं पूछो, जानो कि ऐसा है—तथाता, ऐसा है। ‘क्यों?‘ वगैरह तो बहुत उलझाऊ प्रश्न हैं। ऐसा है। मन, ऐसा है।

प्र: आचार्य जी, सब कुछ देवी ही हैं तो जो हमारे दु:ख हैं, उनको हटाने के लिए जो उपक्रम हैं, जो भी हम लोग एक्ट (क्रिया) करते हैं, वो भी फिर हमारा नहीं रहा, मतलब वो भी देवी से ही आ रहा है।

आचार्य: पर आप तो यही मानते हैं न कि आप कर रहे हैं? जैसे आप अपने-आपको अपने सुख का कारण मानते हो, वैसे ही आप अपने-आपको अपने दु:ख का कारण मानते हो। तो आप कोशिश में लगे रहते हो कि दु:ख मिटा भी दूँगा मैं। आप अपने-आपको कुछ-न-कुछ लगातार मान रहे हो; आप देवी की सत्ता को अस्वीकार कर रहे हो। देवी माने अनात्म, जो आप नहीं हैं, प्रकृति। आप प्रकृति से परे हैं पर प्रकृति में हाथ डाल करके आप अपने स्वभाव से दूर हो जाते हैं।

देवी की स्तुति का अर्थ है: प्रकृति का दृष्टा होना और अपनी कमियों को स्वीकार करना कि देखो, कैसे हम प्रकृति का दृष्टा होने की जगह प्रकृति से संबद्ध हो जाते हैं, प्रकृति के भोक्ता हो जाते हैं। तो फिर आप नमन करते हो, कहते हो, “देखो, आपमें इतनी क्षमता है देवी कि मैं, जो भोक्ता हो नहीं सकता, आप उसे भी भोक्ता बना डालती हैं। तो मैं नमन कर रहा हूँ।” समझ में आ रही बात?

“इतनी क्षमता है आपमें देवी कि अहंकार जिसकी कोई अस्मिता ही नहीं है, आप उसको भी मेरे भीतर उठा देती हैं। मैं नमन कर रहा हूँ आपको। आपने तो पूरी तरीके से जीत लिया मुझको। मैं जो शरीर हूँ नहीं, आप उसे शरीर बना डालती हैं जन्म दे करके। आपका नमन तो करूँगा ही न, देवी! आपमें तो एक तरह से इतनी क्षमता है कि आप आत्मा को भी माया के कंबल से ढक देती हैं।” अहंकार आत्मा को ही तो आवृत्त कर लेता है न, भले ही कर सकता नहीं पर कर लेता है, यही तो माया है। ऐसी देवी को नमन तो करना ही पड़ेगा न जो सत्य के ऊपर भी एक आवरण डाल दें, ऐसी देवी को नमन न करें तो क्या करें! और सत्य के ऊपर जो आवरण डला है, उसको हटाएँगे भी फिर स्वयं देवी हीं। तो नमन तो करना ही पड़ेगा न।

बुद्धि का उपयोग करके ही बुद्धि के ऊपर के जाले साफ़ किए जाते हैं। शरीर का उपयोग करके ही शरीर में जमी चर्बी घटाई जाती है न? शरीर में चर्बी जम गई, शरीर किसने दिया था? देवी ने। अब शरीर की चर्बी घटाने के लिए भी आप जिस चीज़ का इस्तेमाल करोगे, वह भी किसने दी है? देवी ने। आत्मा के ऊपर जो कुछ भी आपने कूड़ा बिछा दिया है, उसको हटाने के लिए भी आप जिन उपायों का सहारा लोगे, वह सब उपाय भी तो प्राकृतिक ही है न? प्रकृति न हो तो कौन यहाँ कहने वाला, कौन है सुनने वाला? किसके शब्द और किसके कान?

तो प्रकृति जो अपने-आपमें महामाया है, उसी प्रकृति का अगर ध्यानपूर्वक नमन करो तो वह महामुक्ति का द्वार भी है। समझना होगा लेकिन भोगना नहीं—समझना होगा, भोग भी करना होगा अगर तो समझदारी से करना होगा।

ये बड़ी सूक्ष्म बात है, ये अच्छे-बुरे वाला खेल नहीं है कि प्रकृति अच्छी है कि बुरी है, कि माया अच्छी है कि बुरी है। अच्छी भी हो सकती है, बुरी भी हो सकती है, यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप अभी जाना किधर को चाहते हो। आपको काम की तरफ जाना है, माया काम की तरफ जाने का माध्यम बनेगी; आपको राम की तरफ जाना है, माया राम का उपाय बनेगी। समझ रहे हो बात को?

अच्छा है कि कुछ कह नहीं रहे हो, मौन हो माने समझ रहे हो थोड़ा-थोड़ा। मन का विस्मित रह जाना ज़रूरी है, मन का थोड़ा सा ठहर जाना, मन का कुछ ऐसा अनुभव करना कि कुछ ऐसी बात अभी चल रही है जो मेरी पकड़ से बाहर की है, यह बड़ा ज़रूरी है। इसका मतलब है कि कुछ नया हो रहा है। अगर आसानी से समझ में ही आ जाए और हुंकारा भरने लगो कि हाँ, समझ में आ गया, तो फिर कोई पुरानी बात ही दोहराई जा रही थी जो इतनी आसानी से समझ में आ गई। कुछ नया हो रहा है, अभी प्रगति है इसमें।

तो जब देवता ऐसे स्तुति करने लगें तो फिर तो वही हुआ जिसकी आपको अपेक्षा होगी, क्या हुआ? देवी प्रकट हुईं, देवी के प्रकट होने को कुछ चरणों में यहाँ दिखाया गया है, क्या चरण हैं? कि पहले पार्वती जी आईं तो वो गंगा में स्नान करने को आईं थीं, तो उन्होंने पूछा कि “अरे, देवताओं! यह सारी स्तुति किसके लिए कर रहे हो? इतनी देर से देवी को भुलाए बैठे थे, अब यहाँ आ गए हो देवलोक छोड़ करके। हिमालय आए हो, गंगा किनारे खड़े हो करके हाथ जोड़ करके बार-बार प्रार्थना कर रहे हो, किससे कर रहे हो?”

बड़े भोलेपन से पूछा होगा पार्वती ने, “अरे, देवताओं! यह किसकी स्तुति कर रहे हो?” अब देवता बेचारे क्या बोलें, लजाए खड़े हैं, तो फिर कथा कहती हैं कि उत्तर भी स्वयं पार्वती जी से ही आया। तो उनके शरीर से शिवा देवी प्रकट हुईं और शिवा देवी पार्वती जी से बोलती हैं कि “अरे, भाई! ये देवता लोग मेरी ही स्तुति कर रहे हैं।” समझ रहे हो? तो पार्वती जी ने कहा, “अच्छा, अच्छा। तो मतलब अभी इन पर कोई संकट आ गया है, वरना तो ये मुझे स्मरण करते नहीं हैं।” तो फिर पार्वती जी ने अपने शरीर से अंबिका देवी को जन्म दिया। और अंबिका देवी एकदम शुभ्रवर्णा हैं माने गोरे रंग की हैं। और वही अंबिका चूँकि पार्वती जी के कोशों से निकली हैं, कोश माने सेल्स (कोशिकाएँ), शरीर से, तो उनको कौशिकी भी बोलते हैं। ये सब विवरण हैं, सुन लो। तो फिर जब बिल्कुल गोरे रंग की अंबिका पार्वती जी के शरीर से प्रकट हो गईं तो उसके बाद पार्वती जी का रंग काला पड़ गया, और फिर वो पहाड़ों में कालिका नाम से पूजीं जाती हैं।

अब आगे की कहानी अंबादेवी के साथ है। तो अंबादेवी अब वहीं पर्वतों पर विचरने लगीं और वो महासुंदरी, महासुंदरी। तो यह दैत्यों के दूतों ने देखा कि ये तो एक बड़ी अपूर्व सुंदरी यहाँ हिमालय पर विचरण कर रही हैं, तो उन्होंने जा करके शुंभ-निशुंभ को बताया। और दूत भी ऐसे कि वह जा करके शुंभ-निशुंभ को और आवेशित कर रहे हैं। सुंदरी के लावण्य का वर्णन कर-करके दैत्यों को और उत्तेजित कर रहे हैं, बोल रहे हैं कि “देखो, दुनिया में जो भी ऊँची-से-ऊँची चीज़ें हैं, वह सब आपने जीत रखी हैं, ये खजानें, ये मोती, ये रत्न, वो हाथी, वो घोड़े, वो फलाना आपके पास यान भी है, फलानी गाय भी है, फलाना पेड़ भी है, जो भी संसार में उत्कृष्टतम वस्तुएँ थीं, वो सब आपने प्राप्त कर रखीं हैं। अब महाराज! वहाँ वो जो स्त्रियों में रत्न है, वो वहाँ हिमालय पर घूम रही है। अब उसको भी तो आप प्राप्त करिए न।”

जैसा राजा, वैसी प्रजा, जैसी राजा की मति, वैसी ही दूतों की बुद्धि। वो भी जानते हैं कि हमारा जो राजा है, वह महाभोगी है, तो वो भी राजा को जाकर उकसा रहे हैं कि जाओ, वहाँ पर महिला है, उसको हासिल करो। तो होना ही यही था कि दैत्य बिल्कुल आ गए नशे में, हो गए उत्तेजित, दूत को बोलते हैं कि “जाओ, उसको बोलना कि हम राजा हैं और दुनिया में जो भी सब सुंदर और श्रेष्ठ चीज़ें हैं, वह तो हमारे पास होतीं हैं तो सुंदरी तुम्हें भी हमारे ही पास होना चाहिए, हम तुम्हारा भोग करेंगे। क्योंकि हम ही तो हैं जो दुनिया में सब श्रेष्ठ वस्तुओं का भोग करते हैं, तुम भी श्रेष्ठ हो, तुम्हारा भोग हम ही करेंगे। हमारी पत्नी बनो।”

तो दूत पहुँचे और दूतों को लगा कि जहाँ ये प्रस्ताव सामने रखेंगे तो सुंदरी तत्काल मान जाएगी, भाई। अभी तो दैत्यों का ही सब लोकों में शासन हैं। वो ये पहुँचे वहाँ, अंबिका देवी अपना मौजूद थीं तो उनको बोला कि ऐसा-ऐसा हमारे राजा श्री ने आपके लिए संदेश भेजा है, आप हमारे साथ चलिए, उनकी पत्नी बनिए। तो वो मन ही मन मुस्कुराईं, बोलती हैं, “हाँ, बात तो तुमने बिल्कुल ठीक कही है, बड़े शक्तिशाली हैं तुम्हारे राजा, लेकिन मैं तो अल्पबुद्धि स्त्री हूँ, अल्प ज्ञानी और मैंने एक प्रण कर लिया है कि जो भी कोई मुझे अपने पराक्रम से परास्त कर देगा, जो भी कोई मेरे अभिमान को चूर-चूर कर देगा, मैं तो उसी का वरण करूँगी, उसी को पति मानूँगी।” दूतों को भी बड़ा अमर्ष हुआ, अमर्ष माने ठुकराए जाने पर अपमान, फिर वह लौटते हैं और यह कहानी शुंभ-निशुंभ को बताते हैं। फिर आगे की घटनाएँ हैं कि फिर कैसे पहले एक सेनापति को भेजा गया, देवी ने बस ‘हुँ’ बोला तो उसके चिथड़े उड़ गए। और वो जिन सैनिकों को लेकर गया था, देवी के शेर ने आधों को तो थप्पड़ मारकर ही मार दिया, बाकी आधे सदमें से मर गए। एकाध-दो बचे सैनिक भागकर वापस गए, उन्होंने वहाँ जाकर हाल बताया कि महाराज, वो जो सुंदरी थी, उसने तो मार-काट कर दी। बचे ही नहीं आपके यह जो प्रबल सैनिक आपने भेजे थे।

अब हम जो हैं फिर छठे अध्याय में प्रवेश कर चुके हैं। उससे पहले कोई प्रश्न?

प्र: अभी यहाँ पर तीन चीज़ों की बातें हुई थी: शुंभ-निशुंभ, दैत्य और देवी। तो अगर इसे सांसारिक तल पर अगर देखा जाए जो बाहर घटित होता है कि दैत्य कहीं दूर के नहीं लग रहे, अपने भीतर के ही हैं। शुंभ-निशुंभ वैसे ही हैं जैसे मार्केटिंग एजेंसीज़ होतीं हैं जो आकर भड़का रहीं हैं प्रकृति की तरफ कि भोगो, भोगो।

आचार्य: और प्रकृति देवी हैं जो कह रहीं हैं कि मुझे भोगोगे तो मैं तुम्हें नष्ट कर दूँगी। प्रकृति को भोगा नहीं कि प्रकृति तुम्हें नष्ट कर देगी। अभी तो आगे तुम्हें बहुत एकदम भौचक्का कर देने वाली बात पता चलेगी। जब शुंभ-निशुंभ का आगे चलकर वध होता है, पर इसमें तो कोई छुपी बात नहीं है कि वध तो इनका होना ही है, वहाँ तो कोई सस्पेंस (संदेह) नहीं, तो सप्तशती कहती है कि नदियाँ ठीक से बहना शुरू कर देती हैं, हवाएँ ठीक से बहना शुरू कर देती हैं, आकाश में जो उल्कापात और अन्य तरह के विक्षेप होते थे, वो बंद हो जाते हैं। समूची प्रकृति ही अपनी निर्दोष लय को दोबारा प्राप्त कर लेती है। कुछ इशारा मिल रहा है?

ये भोगने वालों ने प्रकृति का ही सत्यानाश कर रखा था, जैसे आज हो रखा है, इन्होंने नदियाँ खराब कर दी थीं, इन्होंने पहाड़ खराब कर दिए थे, इन्होंने वायुमंडल ख़राब कर दिया था। तो कथा कहती है कि जैसे ही फिर इनका वध हुआ, वैसे ही नदियों का जल स्वच्छ हो गया, नदियों की धारा अपने पुराने मार्ग पर वापस लौट आई, जो सब ज्वालामुखी फट रहे होते थे इधर-उधर, वो शांत हो गए और वायुमंडल में जो उपद्रव हो रहे होते थे, वो सब ठीक हो गए। और वायुमंडल में उपद्रव को क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) क्यों न माना जाए? नदियों की धारा तो आज भी सूख रही है न।

तुम देख पा रहे हो जो साम्य स्थापित हो रहा है, एनालॉजी , क्या? जो प्रकृति का दोहन करता है, वो फिर मारा जाता है। प्रकृति का दोहन ही उसके अंत का कारण बनता है। तो आज जितने भी ये दुनिया में राज करने वाली ताकतें हैं, वो शुंभ-निशुंभ हैं। शुंभ-निशुंभ क्या कर रहे थे? राज ही तो कर रहे थे। आज भी जिनका राज है, ऐसे ही राज नहीं होता कि राजनैतिक रूप से राज है, आप किसी बहुत बड़ी कंपनी के बड़े शेयर होल्डर हो, आपका राज है न दुनिया पर, और आप प्रकृति को ख़राब कर रहे हो। यही शुंभ-निशुंभ हैं आज के। दुनिया को जीते हुए हैं, प्रकृति को तहस-नहस कर रहे हैं। अगर कथा सच्ची है तो इनका अंत आएगा।

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