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मंदिर- जहाँ का शब्द मौन में ले जाये || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: ‘अनहता सबद बाजंत भेरी’, कृपया इसका अर्थ बताएँ?

वक्ता: मंदिर से जो घंटे, घड़ियाल, ढोल, नगाड़े की आवाज़ आ रही है; वो ‘अनहद’ शब्द है | घंटा जैसे बजता है, अच्छा है | शब्द वही अच्छा जो जब बजा तो ऐसे बजा जैसे चोट करी हो, और फिर क्योंकि चोट करी, इसीलिए तुम्हारा मन उसी के साथ जाकर अटक गया | मन तो स्थूल होता है | जो बातें बड़ी, आकर्षक, डरावनी या लुभावनी हों, मन उन्हीं के साथ जाकर अटकता है | तुम बैठे हो और अचानक घंटा बज जाए, मन जाकर उस पर अटक जाएगा | ज़ोर की चोट होती है |

मन उस पर अटका। वो जो झंकार थी, उस पर अटका और फिर वो झंकार स्थूल से सूक्ष्म होती गयी | और जैसे-जैसे आवाज़ सूक्ष्म होती गयी, वैसे-वैसे उसके साथ मन भी सूक्ष्म होता गया, शांत होता गया |

श्रोता १: क्या यह द्वैत है? एक तरफ शोर और दूसरी तरफ शान्ति |

वक्ता: नहीं | शान्ति, शोर का द्वैत विपरीत नहीं होती है | यह द्वैत नहीं है | ये सब बातें अद्वैत की हैं | शान्ति! मौन! मौन का अर्थ शोर का विपरीत नहीं है |

श्रोता १: अभाव |

वक्ता: अभाव भी नहीं है | बात दूसरी है | शब्दहीनता और मौन में बहुत अंतर है | अभाव, शब्दहीनता है | तो शोर है, और शब्दहीनता है, इन दोनों में से मौन कुछ नहीं है | यद्यपि मौन दोनों में मौजूद है|

श्रोता १: जैसे हम रोशनी और अँधेरा बोलते हैं, तो अँधेरा कुछ अलग नहीं है | यह सिर्फ प्रकाश का अभाव नहीं है?

वक्ता: नहीं | रोशनी और अँधेरा वो नहीं हैं, हम जिस प्रकाश की बात करते हैं | हम जिस प्रकाश की बात करते हैं उसका कोई विपरीत नहीं होता क्योंकि उसका अभाव कभी होता ही नहीं है | तो रोशनी और अँधेरा इस सामान्य रोशनी के लिए ठीक हैं, कि बत्ती जलाई तो रोशनी है और बत्ती नहीं जलाई तो अँधेरा | जब बाइबिल कहती है, “लेट देअर बी लाइट”, तो उस प्रकाश का कोई विपरीत नहीं है, कि रोशनी और अँधेरा | उसका कोई विपरीत नहीं है |

जब हम कहते हैं सत्य प्रकाश है, तो उस प्रकाश का कोई विपरीत नहीं है, कोई अन्धकार नहीं है | उसमें फँस मत जाइएगा |

श्रोता २: प्रकट होना कह सकते हैं?

वक्ता: किसका क्या प्रकट हो रहा है? प्रकट होना भी नहीं है | उसकी लगातार मौजूदगी है, बाकि सब प्रतीत होता है | मौन लगातार है | मैं जो कुछ कह रहा हूँ आपसे, क्या आप सुन पाएँगे अगर मौन न हो?

मौन वो है जो लगातार है, जिसका होना कभी कम या ज्यादा नहीं होता | शब्द आते-जाते रहते हैं | शब्द कभी हैं, कभी नहीं हैं | वहां पर द्वैत है, शब्दों का होना या शब्दों का न होना | वो चलता रहता है | कभी शब्द हैं, कभी शब्द नहीं हैं | मौन वो है जो लगातार है | जो शब्दों के होते हुए भी है, जो शब्दों के न होते हुए भी है | ठीक वैसे ही जैसे मन में भविष्य के, अतीत के विचार आते-जाते रहते हैं, लेकिन वर्तमान सदा है | वो विचार है तो भी है, विचार नहीं है तो भी है | हाँ, इतना ज़रूर है कि जब आप विचारों में होते हैं तो वर्तमान का पता नहीं चलता | पर आपको पता चले न चले, वर्तमान में तो आप हैं ही | अतीत और भविष्य की कल्पना भी आप वर्तमान में होते हुए ही करते हो |

तो मंदिर कौनसी जगह हुई? मंदिर वो जगह हुई जहाँ का शब्द आपको मौन में ले जाए; जहाँ की भेरी, अनहद जैसी हो; जहाँ का घंटा, मौन जैसा हो; जहाँ का शब्द, शान्ति जैसा हो | वो ही जगह मंदिर है| यही मंदिर की परीभाषा है|

‘अनहता सबद वाजत भेरी’, हो तो आवाज़ ही रही है, पर आवाज़ ऐसी है कि मौन में ले जाती है | और कैसे मौन तक पहुंचोगे? मन तो जानता नहीं आवाजों के अलावा कुछ | दिख तो दृश्य ही रहे हैं, खड़ी तो सामने मूर्ति ही है, पर वो मूर्ति कुछ ऐसी है कि अमूर्त में ले जाती है | मूर्ति का रूप कुछ ऐसा है कि अरूप की याद दिलाता है| दीवारों पर लिखे तो शब्द ही हैं, पर वो शब्द कुछ ऐसे हैं कि शांत कर देते हैं, हलचल नहीं मचा देते | वहां हो तो कर्म ही हो रहे हैं, पर वो कर्म ऐसे हैं जो कर्ता को मिटा देते हैं |

जहाँ यह होने लगे, उसी जगह को मंदिर जानना | जहाँ ये न हो, वो जगह भले ही मंदिर कहलाती भी हो, तुम उसे मंदिर मत मान लेना | जहाँ जाकर तुम्हारा कर्ताभाव प्रबल हो जाता हो, जहाँ जाकर मन और अशांत हो जाता हो, जहाँ जाकर इन्द्रियां और भर जाती हों, वो जगह भले ही बड़े से बड़ा मंदिर कहलाती हो, तुम उसे मंदिर मानना मत | हट जाना वहां से |

तो हमसे कहा जा रहा है कि दुनिया में दो ही जगह होती हैं | मंदिर और अमंदिर |

तुम मंदिर ढूँढो, मंदिर में रहते-रहते उस स्थिति में पहुँच जाओगे कि अमंदिर भी मंदिर बन जाएगा | एक दिन ऐसा आएगा कि सिर्फ मंदिर के घंटे की आवाज़ नहीं, बाज़ार का शोर भी तुम्हें मौन की ही याद दिलाएगा | लेकिन शुरू में नहीं | तुमने अगर शुरू में ये कह दिया कि बाज़ार में और मंदिर में क्या अंतर है, दोनों जगह शब्द ही तो हैं; तो दिक्कत हो जाएगी|

तुम अभी तो मंदिर ढूँढो | और वो मंदिर फिर फैलता जाएगा, फैलता जाएगा |

कुरान कहती है, ‘अल्लाह ने ये पूरी धरती तुम्हारे लिए मस्जिद के तौर पर बनायी है|’ मस्जिद कोई जगह नहीं है विशेष | जहाँ ही तुम्हारा सिर झुकने लग जाए, वो मस्जिद है | पर तुम्हारा सिर अभी आसानी से झुकेगा नहीं | तो अभी तो तुम्हें एक ख़ास मस्जिद की, ख़ास मंदिर की ज़रुरत है | तुम उसे ढूँढो, फिर एक दिन ऐसा भी आएगा कि समूची धरती तुम्हारे लिए मंदिर हो जाएगी |

फिर तुम्हें कुछ भी सुनाई देगा, तुम्हें उसी की आवाज़ लगेगी |

फिर तुम्हें कुछ भी दिखाई देगा, तुम्हें अमूर्त ही लगेगा |

सारे दृश्य, अदृश्य में ले जाएँगे |

कोलाहल भी शान्ति में ले जाएगा |

या यूँ कहो, कि शान्ति इतनी स्थापित हो जाएगी भीतर कि वो कोलाहल में भी दिखाई देगी | अन्दर की शान्ति बाहर के कोलाहल को भी अपने रंग में रंग देगी |

देखो लोग कहते हैं ना कि मुझे इस चीज़ में मज़ा आता है, मुझे उस चीज़ में मज़ा आता है | इस तरह आम-तौर पर प्रयोग करते हैं ना? उसका अर्थ समझना | उसका अर्थ बस इतना है कि मेरे भीतर का आनंद इतना सघन है कि बाहर के कर्म को रंगे दे रहा है अपने रंग में | तो तुम कहते हो कि मुझे मौज मिलती है यह करने में, यह करीब-करीब वैसा ही है कि मैं यह दीवार रंग रहा हूँ अपनी मौज में|

तुम कहोगे, ‘मैंने इस दीवार को रंगा, मुझे दीवार रंगने में मज़ा आया’| तुम्हें दीवार रंगने में मज़ा नहीं आया, तुमने अपनी मौज के रंग में इस दीवार को रंग दिया| तुम्हारी मौज पहले आती है | तुम्हें सही में क्या किया? तुमने अपनी मौज के रंग में दीवार को रंग दिया | ये मत सोचना कि मौज दीवार में थी; मौज भीतर थी | चूंकि वो भीतर था इसलिए तुम्हारे कर्म में छलक आया | और जब वो भीतर होता है तो एक कर्म में नहीं झलकता, वो तुम्हारे सारे कर्मों में झलकेगा |

इसलिए बार-बार कहता हूँ कि अगर आनंद भीतर है तो वो एक कृत्य तक सीमित नहीं रह सकता|

श्रोता ३: आपने कहा भी है कि किसी कर्म से प्रेम नहीं होता, प्रेम में कर्म होता है |

वक्ता: सही | जो भी काम हो रहा था वो मेरे प्रेम में रंग गया क्योंकि प्रेम भीतर मौजूद था | जो भी करता हूँ वो प्रेमपूर्वक होता है |

इसलिए तुम क्या कर रहे हो, एक स्थिति के बाद उसका विशेष महत्व नहीं रह जाता | जब ये कहा गया है कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता, ये बात ठीक कही गयी है लेकिन इसका अनर्थ कर दिया जाता है| ‘काम छोटा-बड़ा नहीं होता’, इसका अर्थ बस इतना ही है कि मन छोटा-बड़ा होता है | मन अगर आनंदमग्न है तो तुम झाड़ू भी लगाओगे; आनंद में | मन अगर आनंदमग्न है तो तुम बैठ कर पढ़ोगे अपने कंप्यूटर पर; आनंद में | अब झाड़ू लगाना और कंप्यूटर पर बैठ कर प्रोग्राम लिखना, दोनों एक हो गए ना | दोनों में से कोई छोटा-बड़ा नहीं रहा | ये अर्थ है इस बात का कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता | इसका यह अर्थ नहीं है कि सारे काम कर लो क्योंकि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता| ये बेवकूफी का अर्थ है, और आमतौर पर ये हारे हुओ की सांत्वना है कि बड़ा काम करना चाहते थे, उनकी दृष्टि में जो भी काम बड़ा हो, बड़ा काम कर नहीं पाए तो अब अंगूर खट्टे हैं, अब तथाकथित छोटा काम करने को मिल रहा है तो कह दिया कि कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता | पागल हो, तुम्हें बात समझ में ही नहीं आयी |

काम छोटा-बड़ा नहीं है, मन छोटा-बड़ा है | बड़े मन से जो करा, वो बड़ा है | छोटे मन से जो भी करो, छोटा है |

माँ होती है, उसे छोटे बच्चे की शौच उठाने में कोई दिक्कत हो जाती है क्या? अगर तुमने थोड़ा-बहुत भी प्रेम जाना है, कोई बीमार पड़ा है, उसके मवाद बह रहा है, तो घिन्न होती है क्या? काम छोटा है या बहुत बड़ा है? प्रेम में किया जा रहा है तो महत्वपूर्ण है, बड़ा है | ‘अभी उसका घाव साफ़ कर रहा हूँ, इस से बड़ा कुछ हो नहीं सकता’| मन पर निर्भर करता है ना | पर अगर तुम एक आया हो तो हो सकता है तुम्हें घिन्न आ जाए | अब काम छोटा हो गया | तुम इस्तीफा भी दे सकते हो नौकरी में कि यहां तो मुझे ये छोटे काम करने पड़ते हैं | बात काम की थी ही नहीं, बात प्रेम की थी | इस्तीफा इसलिए नहीं दिया तुमने क्योंकि तुम्हें काम पसंद नहीं था, इस्तीफा इसलिए दिया क्योंकि प्रेम नहीं था | जब ये कहानियां सुनते हो तो ध्यान से सुना करो, इनका अर्थ समझा करो |

राम, शबरी के बेर खा लेते हैं, झूठे | कृष्ण जाकर एक बूढ़ी औरत के पाँव दबा रहे हैं | मतलब समझो इन बातों का | काम से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, ऐसी स्थिति में बैठे हैं | काम का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रहा, कोई रंग ही नहीं रहा | हमारा रंग है, जिसमें काम रंग जता है | जब तुम कुछ होते हो- कर्ता, सीमित, अलग- तब काम तुमसे कुछ अलग हो जाता है | जहाँ कर्ता मौजूद है वहां काम को कर्ता से अलग होना ही पड़ेगा, क्योंकि कर्ता ने अपनी परीभाषा ही यही दी है, ‘मैं कर्ता हूँ, सीमित हूँ मैं, ये मेरी सीमाएं हैं| और काम क्या है? जो मेरी सीमा से बाहर है जिसे ‘मैं’ कर रहा हूँ | मुझसे बाहर की कोई चीज़|

जब कर्ता नहीं रहता है, जब कर्म सिर्फ आत्मा की अभिव्यक्ति होता है, तब काम जैसा कुछ नहीं रह जाता | तब वह आत्मा का नृत्य होता है | आत्मा नाच रही है, आत्मा का नाच है, उसमें काम कहाँ है? कोई विषय-वस्तु है ही नहीं कि जिसको तुम कहो कि यह है और मैं इस पर काम कर रहा हूँ |

सावधान कर रहा हूँ, बहाना मत बनाने लगना कि आपने ही तो कहा था कि हर जगह मंदिर है| ‘मेरी तो रसोई ही मेरा मंदिर है, और सुबह नौ बजे मैं परिवार के लिए पकवान बनाती हूँ, वही मेरी पूजा है| मेरे पति ही मेरे इष्टदेव हैं और ये पकवान नहीं, प्रसाद है जो मैं उन्हें चढ़ाती हूँ | आपने ही तो कहा था ना कि समूची धरती ही मंदिर है, और पति को तो वैसे भी परमेश्वर कहा गया है और नन्हे-मुन्नों को बाल-गोपाल कहा गया है | तो पूरा स्वर्ग, विष्णु का पूरा कुनबा, और कहाँ है? यहीं है | कुनबे को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी मेरी है | मैं ब्रह्मा, जन्म देती हूँ | मैं विष्णु, पालती हूँ | महेश का नाम नहीं लूंगी जिनका काम है ख़त्म कर देना |

न पुरुष है, न विषय है| जब कर्ता रुपी पुरुष होता है तभी कर्म रुपी विषय होता है| न कर्ता है, न कृत्य है| आत्मा है, आत्मा का नाच है| अब कहाँ कुछ छोटा और कहाँ कुछ बड़ा| नाचते हो तो कहते हो क्या, कि इस नाच में जो ये वाली मुद्रा है वो छोटी है, और ये मुद्रा या ये गति या ये भाव या ये ताल बड़ी है| नाच तो नाच है; सम्पूर्ण है, पूरा है|

लेकिन वो स्थिति सिर्फ तब है जब आत्मा नाच रही हो| पूरी धरती मंदिर सिर्फ तब है जब तुम्हारा मन ही मंदिर बन गया हो| जब तक मन मंदिर नहीं बना है तब तक तो तुम अपना मंदिर ध्यान से चुनना|

‘ज्ञान सेशन’ पर आधारित। स्पष्टता हेत प्रक्षिप्त हैं।

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