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लेख
जिसने माँगा नहीं उसे मिला है || आचार्य प्रशांत, जीसस क्राइस्ट पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
26 मिनट
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* “Verily, verily , I say unto you , Except a corn of wheat fall into the ground and die , it abideth alone : but if it die , it bringeth forth much fruit . He that loveth his life shall lose it; and he that hateth his life in this world shall keep it unto life eternal.” *

~ Bible (John 12:24)

(मैं तुम से सच सच कहता हूँ कि जब तक गेहूँ का दाना भूमि में पड़कर मर नहीं जाता, वह अकेला रहता है ,परन्तु जब मर जाता है तो बहुत फ़ल लाता है।

जो अपने प्राण को प्रिय जानता है, वह उसे खो देता है और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है, वह अनन्त जीवन के लिये उसकी रक्षा करेगा। )

~ बाइबल (यूहन्ना १२:२४)

वक्ता: जो बचाएगा, वो खो देगा| जो खोने को उत्सुक है उसे अनंत की प्राप्ति हो जाएगी| बीज पेड़ तभी बनेगा, जब वो मरेगा | तुम्हारे ऊपर है कि इसे कैसे देखते हो| या तो ये कह दो कि “बीज मर गया” और रोओ, और कहो कि “आगे से किसी बीज को मरने नहीं दूँगा, उसे ज़मीन में, मिट्टी में पड़ने नहीं दूँगा, उसे अंकुरित होने नहीं दूँगा| न पुष्पित होगा, न पल्लवित”, ये कसम खा लो| “मेरा प्यारा बीज मर गया, पेड़ बन गया, मर गया”, ये मूर्खतापूर्ण राग पकड़ लो|

हम यही तो करते हैं| अभी हम बात कर रहे थे, द्विज होने की, दूसरे जन्म की| तो क्यों नहीं होता है हमारा असली जन्म? क्योंकि यह जन्म बहुत प्यारा लगता है ना| बीज इतना प्यारा लगने लग गया कि उसको ले गए और सजाकर रख लिया| और कहीं धोखे से बीज मिटटी में पड़ के बड़ा आलीशान पेड़ बन गया तो उस पेड़ को देखते हैं और कलपते हैं कि “हाय मेरा बीज बर्बाद हो गया! मेरा नन्हा, प्यारा छोटू-सा बीज| ये आवारा, दुष्ट, दानवीय पेड़ बन गया| कितना नन्हा-सा मेरा बीज था, जेब में रख के चलता था उसे| अब इस पेड़ का क्या करूँ? बेकार है मेरे लिए|” मूर्खों की दृष्टि और कैसी होती है? उन्हें दिखाई नहीं देता कि बीज ने अपने गौरव को पाया है| उन्हें दिखाई नहीं देता कि जो सम्भावना-मात्र था, वो तथ्य में परिणित हो गया है| वो रो रहा है, “मेरा बीज, मेरा बीज|” जीसस ने कहा है ना कि “छोटे बच्चों को मत रोको, आने दो मेरे पास|” ऐसे ही कलपते हैं माँ-बाप कि मेरे बीज का क्या होगा? ये माँ-बाप उनके दोस्त हैं या दुश्मन? जो बीज को पेड़ बनने से रोके, वो उस बीज का दोस्त है या दुश्मन है?

मैंने देखा है लोगों को अपने घरों में, गमलों में पौधे लगाते हुए| लोग पीपल के पेड़ तक को गमले में लगा लेते हैं; छोटा-सा| और जब तक वो छोटा है, तब तक काम चल रहा है| सब कुछ लगता है गमले में: नीम, पीपल, यहाँ तक कि बरगद भी लग जायेगा गमले में; ज़रा-सा लगा लो| और जब वो बड़ा होने लगता है, तो इनके प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ इस तरह होती है कि वो नीचे से उसकी जड़ों को काटने लगते हैं| “बड़ा न होने पाए, क्योंकि बड़ा होगा तो हमारे गमले में नहीं समाएगा| अगर बड़ा होगा तो हम इसे सजाकर अपने घर के अन्दर कैसे रखेंगे? नीचे से इसकी जड़ों को काटते चलो, काटते चलो|” अब बरगद कहाँ है? तुम्हारे ड्राइंग रूम कि शोभा बढ़ा रहा है| और नीम कहाँ है? बिस्तर के बगल में रखा है|

ये प्रेम है? ये प्रेम है? तुम्हें अगर प्रेम होगा, तो तुम कहोगे, “मैं इसको आज़ाद करता हूँ| मैं इसे खुली धूप और मिट्टी का विस्तार दूँगा| मैं इसकी जड़ों को गहराई लेने दूँगा| हाँ, मैं इतना ज़रूर करूँगा कि जाकर देखता रहूँ कि पानी मिल रहा है, खाद मिल रही है| मैं ये भी देख लूँगा कि कोई इसे आ करके खा न ले, नष्ट न कर दे| पर मैं ये नहीं कर सकता ना कि ये मेरे समीप बना रहे, इसके लिए मैं इसकी सारी सम्भावना को ही नष्ट कर दूँ? बीज को बीज ही रहने दूँ, या फ़िर पौधे की जड़ काट दूँ|” करूँगा क्या ये मैं?

(सभी श्रोता न में सर हिलाते हैं)

यही काम हमारे साथ, लगातार दूसरों ने किया है| और अति दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि यही काम हमने भी अपने साथ किया है| हम अपनी ही जड़ों को काटते चले हैं| हमें भय है अपने ही विस्तार से| किसी ने कहा है कि, “हमें किसी से डर नहीं लगता, हमें अपनी ही अपार सम्भावना से डर लगता है|” कहीं न कहीं हमें पता हैं कि हम अनंत हैं| कहीं न कहीं, हमें पता है कि क्षुद्रता हमारा स्वभाव नहीं| हम अपनेआप से ही डरते हैं, अपनी ही संभावना से बड़ा खौफ खाते हैं| अगर हमें हमारी संभावना हासिल हो गयी, तो होगा क्या हमारे छोटे-छोटे गमलों का? हमें उनसे बाहर आना पड़ेगा|

बरगद घरों के भीतर नहीं पाये जाते| बरगद, घरों के भीतर नहीं पाये जाते| और बरगद तो छोटा है, हमारी संभावना तो अति विराट, वट-वृक्ष की है| जो बरगद हम देखतें हैं, वो तो कुछ नहीं है, नन्हा पौधा है वो| हम डरते हैं| बड़ी मजेदार बात है| हम उस दिन बात कर रहे थे कि लहर डरती है, बहुत डरती है| किससे डरती है? सागर से डरती है| हम अपनी ही संभावना से डरते हैं| लहर सागर से डरती है| लहर जो है, वो उसी से डरती है| हम अपनी ही संभावना से डरते हैं|

“He that loveth his life shall lose it; and he that hateth his life in this world shall keep it unto life eternal.”

(जो अपने प्राण को प्रिय जानता है, वह उसे खो देता है और जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है, वह अनन्त जीवन के लिये उस की रक्षा करेगा)

जिसने बीज से प्यार किया वो बीज को भी खो देगा| जो बीज अंकुरित न हुआ वो सड़ जायेगा| जिसने इसको [शरीर] बचाना चाहा, वो इसको तो नहीं हीं बचा पायेगा, वहाँ (दुनिया के पार) भी अपने लिए अड़चन खड़ी कर देगा| और जिसने इस (भौंतिक संसार) का सत्य जाना और इसके पार चला गया, वो वहाँ भी मज़े करेगा और यहाँ भी भोगेगा|

अभी थोड़ी देर पहले कहा था, फिर दोहरा रहा हूँ| सत्य को जानने वाला, संसार में पराजित नहीं हो जाता| क्या कह रहे थे कबीर कि असली गुरु कौन है? जो भोग में योग सिखाये| याद है? तुम्हें ये क्यों डर है कि कुछ खो जायेगा तुम्हारा? कुछ खो नहीं जायेगा| विराट वृक्ष बनकर बीज का कुछ खो नहीं जाता| आज दुनिया में चलते हो तो बेहोशी में चलते हो, गिरे-गिरे चलते हो, हर जगह ठोकर खाते हो| कभी अपने ही ऊपर दया करते हो, कभी दुनिया के ऊपर गुस्सा करते हो| तमाम भावावेशों के बीच झूलते रहते हो| बड़े खुश हो? बहुत पा रहे हो? तो फ़िर बचा के क्या बैठे हो?

जीसस कह रहे हैं, जिसको अपनी वर्तमान स्थिति से कोफ़्त हो जाएगी – “He that hateth his life in this world”, “जो इस जगत में अपने प्राण को अप्रिय जानता है” – जिसको नफ़रत होने लगेगी इन तरीकों से, अपनी स्थिति से, जो अपनी आँखों को देखेगा और कहेगा “इतनी ढ़ली हुई आँखें!”, जो अपने चेहरे को देखेगा और कहेगा “इतना मुर्झाया हुआ चेहरा!” वो जागेगा और वो कहेगा “न, ये मेरा असली चेहरा नहीं हो सकता|” और तब यह क्या कहा जा रहा है कि – “He shall keep it unto life eternal (वह अनन्त जीवन के लिये उस की रक्षा करेगा)” – जो भ्रम खोने को तैयार होगा वो सत्य पा जायेगा| जिसे कोफ़्त हों जाएगी कि “बहुत हो गया ये, ये उलझ-उलझ के जीना कोई जीना है? लगातार संदेह बना हुआ है, लगातार सूनापन, खालीपन, बेचैनी, कहीं पहुँचना है, कुछ पाना है, देर हुई जा रही है, भागना है| बड़े महत्वपूर्ण काम हैं जो इन्तज़ार कर रहे हैं|” इससे जब कोफ़्त हो जाएगी कि “छि:, ऐसे नहीं जीना| ऐसे नहीं जीना|” तो इसे ही वैराग्य कहते हैं|

जिसे जीसस कह रहे हैं ‘हेट’ (नफ़रत), उसके लिए भारत में शब्द है ‘ वैराग्य ’| और वैराग्य का मतलब ये नहीं है कि “मैं कोई कीमती चीज़ छोड़ रहा हूँ|” वैराग्य का मतलब ये है कि “जो कुछ सड़ा-गला, बदबूदार मेरी ज़िन्दगी में घुसा हुआ है, उसे अब और झेलूँगा नहीं| ये है वैराग्य| अब क्या दिक्कत हो गयी है वैराग्य से ये बताओ? तुम वैराग्य शब्द सुनते हो और खतरे की घंटी बजने लग जाती है तुम्हारी| और तुम्हारे माँ-बाप सुन लें तब तो और बड़ी घंटी| “वैरागी बना रहे हैं!”

वैराग्य का मतलब है- अपनी बीमारी को छोड़ देना| उसमे क्या आफत आ गयी, क्या दिक्कत है? कोई बड़ी बुरी बात कह दी? वैराग्य का मतलब है- तुमने हाथ में तपता हुआ कोयला पकड़ रखा था, अब तुम उसे छोड़ रहे हो| कोई गलत काम कर दिया? वैराग्य का मतलब है- तुम एक जलते हुए घर में फँसे हुए थे और तुम जान बचा कर बाहर निकले हो| तुमने कुछ अनुचित कर दिया? बुद्ध ने ठीक यही संज्ञा दी है कि तुम एक जलते हुए घर में फँसे हुए हो| यहाँ घर से मतलब है, तुम्हारी स्थिति , तुम्हारे मन की स्थिति| जीसस कह रहें हैं, “जब तुम्हें नफरत हो जायेगी, इस रोज़-रोज़ की किच-किच से”, जिसे कबीर कहते हैं कि “एक बार मर लो, रोज़ सौ-सौ बार क्यों मरते हो”|

मरना है मर जाइए, फूट पड़े संसार |

ऐसी मरनी क्यों मरे, दिन में सौ-सौ बार ||

(If you want to die, die a full death once.

Why do you die these little deaths, hundreds of times a day?)

ये दोहा याद है कबीर का? एक दिन में सौ-सौ बार मरने से जब तुम्हें नफ़रत हो जाएगी, तो तुम्हें वो अमृत-पद प्राप्त हो जाएगा, जिसको यहाँ ‘इटरनल लाइफ़’ (अमृत) कहा जा रहा है| अब मृत्यु छू नहीं सकती तुम्हें| मृत्यु क्या है – भय| मृत्यु क्या है – मिट जाने का विचार| अब ये विचार तुम्हें उठेगा ही नहीं| मृत्यु क्या है? कुछ खो जाने की आशंका| अब तुम्हारे मन में आशंकाओं के लिए कोई जगह हीं नहीं|

‘लाइफ़ इटरनल’| ‘लाइफ़ इटरनल’ का अर्थ ये नहीं है कि हज़ार साल, या एक अरब साल तक जियोगे या अनंत वर्षों तक जियोगे| ‘लाइफ़ इटरनल’ का अर्थ है, समय से पार जो है, उसको पा लोगे| इटरनिटी का अर्थ, लम्बा समय नहीं होता| इटरनिटी का अर्थ होता है, समय के आगे| कालातीत| लाइफ़ इटरनल|

श्रोता : सर, एक बात आपने बतायी ‘वैराग्य’, जिसमें आप फट पड़ते हो कि “मुझे बिल्कुल अस्वीकार है|” और एक आपने बताया कि आपको ग़न्दगी दिखने लगती है| आपको अपनी चालें घटिया लगने लगती है| अभी कुछ आपने करा और एक क्षण बाद ही आपको नफरत हो जाती है उससे| पर कहीं न कहीं बीच-बीच में एक बुढ़ापा-सा होता है कि “मैं कुछ नहीं कर सकता इसके लिए| मुझे इसी तरह समझौता करना होगा|”

वक्ता : वैराग्य फट पड़ना नहीं है| वैराग्य में ये छवि मत लाओ कि एक दिन अचानक विस्फोट होगा और तुम सारी बेड़ियों को किसी अति-मानव की तरह तोड़ दोगे| वैराग्य क्षणिक विस्फोट का नाम नहीं है| वो लगातार इस बात की प्रतीति है कि “ये नहीं चाहिए, ये नहीं चाहिए, ये नहीं चाहिए| ये ठीक नहीं है, ये मेरे लिए ठीक ही नहीं है|” जब ये एहसास लगातार बना रहता है कि “ये ठीक नहीं है”, तो अब कोई विकल्प नहीं है, वो कर्म में उतरेगा| अभी नहीं उतरेगा तो थोड़े समय बाद उतरेगा| उचित समय देख करके उतरेगा| पर अगर उसको विस्फोट का रूप देना चाहोगे, तो मुश्किल हो जानी है| क्योंकि कितना फटोगे, फटने की भी सीमा होती है| ये काम तो धीरे-धीरे सहज रूप से ही होगा|

श्रोता : सर, विस्फोट से मतलब था कि पहले ऐसा था कि कुछ बेकार की चीज़ मन में आ रही है, तो कहते थे कि “ठीक है यार आने दो”| पर अब तो बस उसे ‘धन्यवाद’ बोल कर आगे बढ़ लेते हैं|

वक्ता : दों बातें है| पहली: ज़ल्दबाजी नहीं है| दूसरी: हार भी नहीं गए हैं| जल्दी नहीं है जीतने की, क्योंकि हम जानते हैं कि जो होगा अपने उचित समय पर ही होगा| दूसरी बात: गहरा यकीन है मन में कि जीत तो हमारी ही होनी है|

“Of a truth I perceive, that God is no respecter of persons, but in every nation, he that feareth Him, and worketh righteousness, is accepted with Him.”

Bible (Acts 10:34)

“अब मुझे निश्चय हुआ, कि परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं लेता, वरना हर जाति में जो उससे डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।”

बाइबल (प्रेरितों के काम १०:3४)

वक्ता : अस्तित्व की निर्विकल्पता की ओर इशारा है| वो चुनता नही है| उसे किसी समुदाय से, किसी वर्ग से, किसी उम्र से, किसी पंथ से, कोई लगाव नहीं है| न लगाव है, न दुराव है| जो ही धर्म के मार्ग पर चलता है, वही उसे स्वीकार है| ‘राइटीयसनेस’ (Righteousness) का अर्थ धर्म समझों| बस इतना-सा ही है|

श्रोता : सर, एक लाइन है, “इन ऑनर प्रेफ़रिंग वन अनदर” उसका मतलब क्या हैं?

वक्ता : पुरानी अंग्रेजी है| “इन ऑनर प्रेफ़रिंग वन अनदर” का मतलब, एक-दूसरे से जो व्यवहार रहे, वो सम्मान का रहे| और सम्मान का अर्थ है, समझने का| बस यही है|

श्रोता : सर, नेबर (पड़ोसी) शब्द का इसमें कई जगह प्रयोग किया गया है, जैसे कि “बी काइंड टू योंर नेबर”| इस शब्द का क्या औचित्य है?

वक्ता : नेबर मतलब, जो भी तुम्हारे संपर्क में आये| नेबर का अर्थ ये थोड़े ही है कि जिसका घर तुम्हारे बगल में हो, वो नेबर| अभी तुम नेबर हो, अपने बगल वाले के नेबर हो| तुम इस वृक्ष के नेबर हो| नेबर मतलब, जो भी कुछ तुम्हारे आस-पास है|

“Eye has not seen, nor ear heard, nor have entered into the heart of man the things which god has prepared for those who love Him”

Bible (1 Corinthians 2:9)

जो आँख ने नहीं देखा, और कान ने नहीं सुना, और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ीं, वे ही हैं जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिये तैयार की हैं।

बाइबल (1 कुरिन्थियों २:९)

वक्ता : इसमें हार्ट(heart) से वो आशय नहीं है जो रमण महर्षि का होता है| यहाँ पर हार्ट मतलब आत्मा नहीं है, यहाँ पर हार्ट से मतलब मन ही है| जो भावनाओं वाला मन होता है ना, जिसे आमतौर पर हम दिल-दिल कहते रहते हैं, जीसस उसकी बात कर रहे हैं, जो वास्तविक है| जो वास्तविक है, उसे आँख, कान और मन नहीं जान सकते| यही कहते हैं ना उपनिषद् कि “न आँख वहाँ जाती है, न कान वहाँ जाते हैं, न वाणी वहाँ जाती है; ठीक वही बात कह रहे हैं जीसस|

(बाइबल के पन्नों की तरफ इशारा करते हुए) मैं चाहता हूँ इस उक्ति के ऊपरवाली पंक्तियाँ एक बार सब देखें| जिन लोगों को माँस-वगैरह खाना होता है, वो कभी-कभी जीसस का उदाहरण भी ले लेते हैं कि शायद जीसस भी माँस खाते थे| पर यहाँ देखो, ये जीसस ही कह रहें हैं कि “ईश्वर के राज्य में माँस-मदिरा नहीं हैं|” और कई उक्तियाँ भी ठीक यही कह रहीं हैं|

कोई भी ये न सोचे कि माँस खाना धर्म सम्बन्धी कोई बात है| जीसस ने क्या कहा ये सामने ही है कि “माँस मेरे प्रभु के राज्य में नहीं चलती”| और मोहम्मद भी कहीं नहीं कह गए हैं कि माँस खाना बड़ा ज़रूरी है| ये बात धार्मिक है हीं नहीं, ये सारी बात सांस्कृतिक(cultural) है| और ये सारी बात ज़बान के चटोरेपन की है| इसका ईसाई होने या मुस्लिम होने से कोई लेना-देना ही नहीं है|

“मैं ईसाई हूँ इसीलिए माँस खाता हूँ”| जीसस ने कहा है क्या माँस खाने को? कुरान कहाँ कहती है कि जो मुसलमान है, उसे माँस खानी ही होगी? कुरान ने कोई ऐसी बंदिश लगाई है क्या? तो फिर ये क्यों कहते हो कि “हम मुसलमान हैं, इसलिए खाते हैं|” इसका मुसलमान होने से कुछ लेना ही देना नहीं है| इसका सम्बन्ध तो सिर्फ़ तुम्हारी परम्परा से है कि तुम्हारे घर में सब खाते हैं, तो तुम भी खाए जा रहे हो| और अब तुम छोड़ इसलिए नहीं पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे ज़बान को आदत लगी हुई है|

तो इसको धार्मिक मुद्दा न बनाया जाये| ये कोई धार्मिक बात नहीं है कि कोई हिन्दू है या जैन है तो नहीं खायेगा और कोई मुसलमान या ईसाई है तो वो खायेगा| ये धार्मिक बात है ही नहीं| जो ही मूढ़ है और क्रूर है और जिसका दिल प्रेम से खाली है, वो खायेगा| और जिसके भी मन में थोड़ी तरलता है, जिसका भी बोध थोड़ा-भी जगा हुआ है, उससे खाया जायेगा ही नहीं| बात तुम्हारे पंथ की नहीं है, बात मन के जागने की है| मन जागेगा तो तुम खा ही नहीं सकते, मन सोया हुआ है तो वो खायेगा ही| चाहे जैन हो तो भी खाओगे|

Rejoice with those who rejoice, and weep with those who weep.

~ Bible (Romans 12:15)

आनन्द करने वालों के साथ आनन्द करो, और रोने वालों के साथ रोओ।

~ बाइबल (रोमियो १२:१५)

वक्ता : जब केंद्र स्थिर होता है, तो परिधि पर पूर्ण स्वतंत्रता मिल जाती है| कह रहे हैं, “ आनंद करने वालों के साथ आनन्द करो, और रोने वालों के साथ रोओ।” तुम्हें अपनी कोई स्थिति पकड़ नहीं लेनी, तुम्हारी अपनी कोई विशेष मनोदशा है ही नहीं| तुम तो नदी की तरह हो, जो स्थिति है, जैसा रास्ता है वैसे बह रहे हो| और बहने की, तुम्हें पूरी आजादी है क्योंकि केंद्र पर तुम अचर हो| जो केंद्र पर बिल्कुल अचर है, उसे बाहर-बाहर बहने की पूरी आजादी मिल जाती है| स्थिति ऐसी है कि उत्सव मने, मज़ा रहे, उल्लास रहे, तो वैसे रहो| और स्थिति ऐसी है कि चारों तरफ दुःख का माहौल है और लोग रो रहे हैं, तो उनका दुःख बाँटो, बेशक बाँटो|

लेकिन ये सिर्फ़ तब संभव हो पायेगा, जब तुम्हारे पास वो बिंदु हो, जो न सुखी होता है, न दुखी होता है| जो सुखी माहौल में बैठा हुआ है, खूब आनंद-उत्सव मना रहा है, लेकिन फिर भी सुखी नहीं हो गया| जो एक बड़े मातमी माहौल में गया है, और वह सबको बिलखता देख रहा है| और उनके साथ चार आँसू खुद भी रो लिया| लेकिन फिर भी केंद्र में उसके कुछ है, जिसे दुःख छू भी नहीं सकता| ये सिर्फ़ तभी हो पायेगा जब तुमको जहाँ दुखी होना है, वहाँ दुखी हो पाओगे और जहाँ तुम्हें सुखी होना है, वहाँ तुम सुखी भी हो पाओगे| जीवन को उसके प्रत्येक रंग में जी पाओगे|

ये भी एक बड़ी मुर्खतापूर्ण अवधारणा है कि बोधयुक्त आदमी, जगा हुआ आदमी, पत्थर हो जाता है| कि उसकी आँखें सूख जाती हैं, रो नहीं सकती| कि वो हँस नहीं सकता, कि वो नाच नहीं सकता, कि उसके भीतर कोई भाव अब उठते नहीं| ये बेवकूफी की बात है, ऐसा कुछ भी नहीं है|

कृष्ण खूब नाचते हैं, दुखी भी होते हैं, हँसते भी हैं, छल भी कर लेते हैं| जो स्थिति की माँग है, वैसे ही हो जाते हैं| क्योंकि योगी हैं, आत्मा को पा लिया है|

आत्मा वो बिंदु है जिसे संसार छू नहीं सकता, पर जिसके होने से पूरा संसार है|

ये तो बात छोड़ ही दो कि योगी पत्थर हो जाता है, कि वो हँस नहीं सकता, कि वो रो नहीं सकता| ज़रा अपनी स्थिति पर गौर करो ना, माहौल होगा बड़ी प्रसन्नता का, बड़े उल्लास का; तुम उल्लासित रह पाते हो? तुम्हारे दिल में तो कोई मातमी धुन बज रही होती है| और चेहरे पर बारह बज रहे होते हैं| अभी यहाँ पर हम बैठे है खूब सुन्दर माहौल है| हममे से कितने हैं जो इसके साथ जुड़ गए हैं और इसे पी पा रहे है| नहीं पी पा रहे| किसी के दिल में चल रहा है कि घर में क्या स्थिति होगी, किसी के दिल में चल रहा होगा के जो और महत्तवपूर्ण मसले हैं उनमें क्या हो रहा होगा| तुम तो भटके हुए हो, समय तुम को खींच रहा है, संसार तुम को खींच रहा है| दुनिया की तमाम स्थितियाँ हैं, जो तुम्हें खीच रही हैं|

योगी अकेला होता है, जो सिर्फ इस क्षण में जीता है| अभी रोंने का है ना, तो रोऊँगा| अभी हँसने का है ना, तो आगे-पीछे की चिंता कौन करे|

हमें तो जहाँ हँसना होता है, हमारी हँसी नहीं फूटती| जहाँ रोना होता है, वहाँ हममें इतनी करुणा नहीं है कि किसी के दुःख के साथ एक हो सकें| हो पाते हैं क्या? हो पाते हैं? होगा नकली दुःख, पर जिसको है उसके लिए उस समय तो असली ही है| तुम किसी के दुःख में सहारा दे पाते हो? क्योंकि तुम तो अपनी ही उलझनों में उलझे हुए हो| जो अभी अपनी ही उलझनों में उलझा है, वो किसी को सहारा क्या देगा?

हमारी तो हालत ऐसी है कि सुन्दर संगीत बज रहा होता है; कि थिरको| हमसे नाचा नहीं जाता| कल अनहद क्रिया कर रहे थे, हम में से कई लोगों ने कहा कि “ढ़ोल बज तो रहा था पर दिमाग में तो कुछ और ही बज रहा था| नाचा ही नहीं गया|” जीसस कह रहे हैं, “जब नाचने का समय हो तो नाचो ना| तुम्हारा मन क्यों इधर-उधर भागा हुआ है? नाचो|” नही नाचा जायेगा| जीसस कह रहे हैं, “जब खाना सामने है तो खाते क्यों नहीं| खाओ, सुन्दर है, मीठा है, स्वाद है उसमें|” हमसे नहीं खाया जाता| खा रहे होते हैं खाना और सामने चल रहा होता है टी.वी या कान में लगा होता है मोबाइल फ़ोन|

खुल के रोओ और खुल के हँसो, पूरा इन्द्रधनुष उपलब्ध है तुम्हें| बिल्कुल ये मत सोचना कि तुम्हारा अपमान हो गया, अगर रो पड़े| बिल्कुल ये मत सोचना कि बड़ी कमज़ोरी दिखा दी, अगर किसी के चुटकुले पर हँस पड़े| हक है पूरा | जीव हो, देह है, संसार है, इसलिए है कि इसकी ओर देखें न, इसे छुएँ न?

“जहाँ हमें स्थिर होना है, वहाँ हम पूरी तरह स्थिर हैं| जहाँ हमें आसन लगाना है, वहाँ हमारा आसन लगा हुआ है, अब हमें खेलने दो| हमारा दिल हमारे घर में ही है, अब हमें जहाँ जाना है, हमें जाने दो| हम अपने केंद्र से पूरी तरह जुड़े हुए हैं| अब हमें पूरे संसार में घुमने दो| हमारे मन में कोई तरंग अब उठती ही नहीं| उस बिंदु पर जहाँ आत्मा है, अब हमारे मन को पूरे तरीके से तरंगित होने दो|”

सब कुछ अनुभव करो, कुछ वर्जित नहीं है| जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जानो| दौड़ो, भागो, सम्बन्ध बनाओ| पर अगर बिना केंद्र से जुड़े ये सब करा, तो दुःख पाओगे और गहरा दुःख पाओगे| बड़ा दुःख पाओगे| जिसकी डोर का एक सिरा आत्मा से बंधा हुआ हो, सिर्फ़ वही बेख़ौफ़ हो कर भ्रमण करे| जिनका एक सिरा आत्मा से नहीं बंधा हुआ है, वो जब घुमने निकलेंगे तो भटक जायेंगे| वो अपने घर वापस लौट नहीं पाएंगे| शोषण हो जायेगा उनका, संसार उनके लिए यातना बन जायेगा|

समझ में आ रही है बात?

(सभी श्रोता हामी में सर हिलाते हैं)

“Let him that thinketh he standeth take heed lest he fall.”

Bible (1 Corinthians 10:12)

“इसलिये जो समझता है कि मैं स्थिर हूँ, वह चौकस रहे कि कहीं गिर न पड़े।”

बाइबल (1 कुरिन्थियों १०:१२)

वक्ता : जो सोया है, उससे नहीं कहा जायेगा कि “ध्यान रखना, कहीं सो न जाओ| पर जो जगा है, लेकिन सोने के खतरे में है, जिसपर नींद हावी हो ही रही है, उसको चेताना पड़ेगा| इसलिए कह रहे हैं कि “जगे हो, ध्यान देना कहीं सो ना जाओ| सपने बड़े मधुर हैं, बुला रहे हैं तुमको|”

जीसस कह रहे हैं, “जो कहते हैं कि “हम खड़े हैं” वो होशियार रहें, सतर्क रहें कि कहीं गिर न पड़ें|” जीसस उनसे नहीं कह रहे हैं जो गिरे ही हुए हैं| जो गिरा ही हुआ है वो और क्या गिरेगा| लेकिन जो अपनी गिरी अवस्था से संभल-संभल कर अब उठ रहा है, खड़ा हो रहा है, उसे बड़ा जागरूक रहना होगा| “कहीं गिर न पडूँ|” ध्यान रखो, कहीं गिर ना पड़ो|

और ये तुमसे इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि अभी-अभी खड़ा होना सीखा है तुमने, अभी-अभी तो खड़े हुए हो| ज़मीन बड़ी रपटीली है, फिसलने के हज़ार कारण मौज़ूद हैं| और तुम्हें खड़ा होने के तरीके नहीं पता| तुम्हारी टाँगों में अभी उतना बल नहीं| तुम्हारा अतीत तुमसे जुड़ा हुआ है, वो बुलाता है| खड़े तो हो गए हो, पर अपने फिसले हुए दिनों को बहुत पीछे नहीं छोड़ पाए हो| वो दिन, अभी भी तुम्हारे मन के किसी कोने को आकर्षित करते ही हैं| वो कहते हैं “वापस आ जाओ|”

जैसे बीमारी चली गयी हो, लेकिन कोई अभी भी कमजोर हो| बीमार तो नहीं है, पर कमज़ोर है| और जो कमज़ोर होता है, उसको बीमारी दोबारा लग सकती है| जीसस की बातें पथ्य की तरह हैं| जीसस कह रहे हैं, “अभी-अभी तो दोबारा स्वस्थ हुए हो, ख्याल रखना, कुछ भी मत ग्रहण कर लेना| बस पथ्य ग्रहण करना| होशियार रहना, सतर्क रहना, वरना गिरोगे|”

बाहर तो कारण मौजूद ही हैं गिरने के, तुम्हारा अपना मन बहुत बड़ा कारण बनेगा| क्योंकि तुम्हारे भीतर अभी भी गिरने का, सोने का और सपनों का लालच मौजूद है| उठ तो गए हो, पर कहीं ना कहीं तुम्हारी इच्छा है कि फ़िर से सो जाओ| मौका मिलेगा नहीं और तुम दुबकोगे, किसी बिस्तर पर, किसी रज़ाई के तले|

देखो, मेरा अपना अनुभव जो रहा है, वो ये रहा है कि सोते को झटका दे करके जगाना, है तो बहुत कठिन पर फ़िर भी आसान है| लेकिन जगे हुए को जगा हुआ रखना, करीब-करीब असंभव है| नहीं समझे? झटका दे करके जगाना तो फ़िर भी किसी तरह हो जाता है कि ऐसी एक स्थिति बनाओ, उसमे ग्रंथो को पढ़ो, चर्चा करो, जागृति आती है| आती तो है, पर उसको कायम रखना बड़ा दुष्कर है|

दिक्कत ये नहीं है कि तुम खड़े नहीं हो पाते| दिक्कत ये है कि खड़े होने के बाद, तुम सो जाते हो| ज़मीन भी रपटीली है, और तुम्हें फिसलने का शौक भी है| अभी फिसल के गिरोगे और वहीँ सो जाओगे, “अरे हम तो गिर गए|” और जहाँ गिरे वहीँ सो गए| (हँसते हुए) “हमारी कोई गलती थोड़े ही है, हम तो गिर गए थे| गिरे हुए हैं|” माया लौट-लौट आती है| भगा तो दी जाती है, बड़ी जिद्दी है लेकिन, लौट-लौट कर आती है| इसीलिए सतत जागरण की बात होती है| लगातार जगे रहो, लगातार होशियार रहो| आएगी, पलट-पलट आयेगी| अभी वापस जाओगे, फ़िर ऐसे थोड़े ही रह जाओगे, जैसे अभी बैठे हो| अभी तो बड़े प्यारे लग रहे हो, जैसे किसी क्लास के अच्छे-अच्छे बच्चे शांति से बैठ गए हों, आलथी-पालथी मार के| सामने जीसस के वचन रखे हैं, कोई शोर-शराबा नहीं, सुन रहे हो | ऐसे थोड़े ही रह जाओगे, कल-परसों से|

श्रोता १: चौकीदार जैसे बोलता है, “जागते रहो”| वैसे ही ख़ुद ही बन जाओ चौकीदार, अब तो|

श्रोता २: वहाँ पर ये माहौल भी तो नहीं मिलेगा|

वक्ता : माहौल मिलेगा नहीं या चाहते नहीं?

श्रोता २: शायद चाहता नहीं|

श्रोता ३: सर, अभी जो आपने एक बात कही थी कि “तुम्हारा वक़्त तो है हीं नहीं कि तुम खुल्लम-खुल्ला ऐसे घूमों कि “मुझे पता है कि मैं कहाँ हूँ”| अभी तो गहरा विरोध होना चाहिए?”

वक्ता : माहौल, वो बात माहौल के लिए कहा है कि माहौल तुम्हें प्रभावित न कर पाए| उसका विरोध |

श्रोता ३: सिर्फ़ माहौल के सम्बन्ध में कहा था आपने?

वक्ता : हाँ और क्या, और किसका विरोध करोगे? तुम्हारे भीतर भी जो वृत्ति उठती है, वो आती तो माहौल से ही है ना|

श्रोता : सर, अगर माहौल की बात है तो जिस माहौल को हम अभी दबाते आ रहें है, उसको फ़िर कभी न कभी सामने भी लाना होगा?

वक्ता : माहौल से मेरा मतलब है, वो सबकुछ जो तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है| अगर दबाना तुम्हारे लिए ठीक नहीं लग रहा है, तो तुम देखो|

श्रोता : सर, ये चीज़े कभी-कभार बहुत महफूज़ कर देती हैं| जैसे, मैं हमेशा आख़िर में पाता हूँ कि एक सूक्ष्म रेखा है, उसपर चलो तो ठीक, और यहाँ-वहाँ हुए तो तुम फिसले| तो हमेशा दिमाग में ये आशंका रहती है कि “जो तू कर रहा है, क्या वो ठीक है?”

वक्ता : हमेशा क्या रहती है? तुम कितने दिनों, कितने दशकों की बात कर रहे हो? बस पिछले कुछ दिनों से ना, या कुछ महीनों से? अभी तो शुरुआत करी है तुमने, अभी से ही क्यों कह रहे हो, ‘हमेशा’? हमेशा से तो ऐसे लगता है, जैसे दसों-सालों से कोशिश कर रहे हो|

श्रोता : जब से पता चली है ये बात|

वक्ता : कितने दिन हो गए, कितना समय हो गया? और उसकी तुलना करो, अपनी पूरी उम्र से | अभी-अभी तो शुरू किया है तुमने, तो हमेशा क्यों बोल रहे हो?

~ ‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

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