प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम स्वयं को कर्ता मानें या नहीं?
आचार्य प्रशांत: कर्ता तुम हो, लगातार हो, तुम्हीं हो, कोई और नहीं है। आम आदमी जिस स्थिति पर बैठा है उसके लिए बहुत ज़रूरी है कि वो लगातार खुद को ही कर्ता माने। आम आदमी के लिए बोल रहा हूँ, तात्विक या पारमार्थिक बात नहीं कर रहा हूँ अभी। अभी कह रहा हूँ जो हमारे लिए उपयोगी बात है। उपयोगी यही है कि हम स्वयं को ही कर्ता मानें; "हमने ही किया है।" क्योंकि अगर तुम ये नहीं मानोगे कि तुमने किया है तो तुम कह रहे हो कि, "मेरे पास फिर करने का अधिकार ही नहीं है।" और अगर तुम्हारे पास करने का अधिकार नहीं है तो फिर तुम सही चुनाव भी कैसे करोगे? फिर तो जैसी ज़िंदगी चल रही है वैसी ही चलती रहेगी न? और ज़िंदगी को यथावत चलाते रहने के लिए तुम्हें एक बहाना मिल जाएगा, क्या? "मैंने थोड़े ही करा है। ये किसी भगवान ने, किसी करतार ने करा है। असली कर्ता तो कोई और है, मैं थोड़े ही हूँ असली कर्ता।"
तो अभी सवाल ये नहीं है कि असली कर्ता कौन है, अभी सवाल ये है कि तुम मानते क्या आए हो आज तक। तुम आज तक यही मानते आए हो न कि तुम ही करते हो। तो जब हमने ये माना है कि हम ही करते हैं और ये मानकर कि हम ही करते हैं, हमने सारे उल्टे-पुल्टे काम करे हैं तो अब हम पर ही ज़िम्मेदारी है कि हमने जो फैलाया है उसको समेटें भी। वरना यह बात बड़ी बेईमानी की और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हो जाएगी कि सब गलतियाँ और गड़बड़ियाँ करते वक़्त तो हम बने हुए थे कर्ता और जब उनका फल भोगने का समय आया है और जब उनका सुधार करने का समय आया है तब हम कहें, "मैंने थोड़े ही किया, मैं थोड़े ही कर्ता हूँ।" जैसे कि जाकर रेस्टोरेंट में खाना खाएँ और बोलें कि "मैंने थोड़े ही खाया, तो बिल मैं क्यों दूँ? जो करता है भगवान करता है, तो मुँह भी उसी ने चलाया, उसी के पेट में गया।"
ऐसे नहीं! तो अपने-आपको ही कर्ता मानो। हमारे लिए यही आवश्यक है।
प्र: ये बात तो समझ में आ गई लेकिन जैसा कि आप बताते हैं कि बुराई का मूल अहंकार है, तो अहंकार को या ईगो को मिटाने के लिए क्या करूँ? मैं फल की चिंता किए बगैर कर्म करता हूँ फिर भी मुझे अकर्ता होने का भाव नहीं आता।
आचार्य: कोई भाव नहीं चाहिए अकर्ता का। ना ही अहंकार या ईगो को मिटाना है। ये सब हवा-हवाई और इधर-उधर की ऊँची बातें हैं। उसको मिटाना नहीं है उसको सही दिशा में मोड़ना है, उसको सही चीज़ से जोड़ना है। ये अहंकार मिटाने वाला जो पूरा दर्शन है ये आपके लिए उपयोगी नहीं है। सही हो सकता है, उपयोगी नहीं है। क्योंकि आपको तो 'मैं' कहते ही जाना है जीवन के आख़िरी साँस तक, कहोगे ही। और ये 'मैं' ही अहं है। तो 'मैं' को मिटाना है माने क्या? 'मैं' की जगह 'तैं' बोलना शुरू कर दोगे? अपनी सत्ता, अपनी अस्मिता का भाव तो रहना-ही-रहना है। गीता में कृष्ण तक 'मैं' का प्रयोग करते हैं — "आ अर्जुन मेरी शरण में आ।" तो 'मैं' तो वहाँ भी मौजूद है, 'मैं' कहाँ मिट गया? 'मैं' का क्या करना है? परिष्कार करना है, रिफाइनमेन्ट करना है, परावर्धन करना है, उसे एक ऊँचाई देनी है, उसे एक सबलिमेशन देना है।
ये बहुत काल्पनिक बात है कि 'मैं' मिट गया। ये अच्छी लगती है, साहित्य में अच्छी लगती है। आपके जीवन में जो चीज़ उपयोगी है वो ये है कि, "मैं हूँ और मैं ज़िम्मेदारी ले रहा हूँ कि मैं सही ज़िन्दगी जिऊँगा। मैं हूँ और मैं ज़िम्मेदारी ले रहा हूँ कि सही चीज़ से जुड़ूँगा।" क्योंकि 'मैं' का अर्थ ही होता है एक सूनापन, एक अकेलापन, एक रिक्तता जो कुछ-न-कुछ पकड़ती है, किसी-न-किसी चीज़ के माध्यम से स्वयं को भरती है। तो जुड़ना तो आपको पड़ेगा ही। ये तो छोड़िए कि "अब मैं कैवल्य ब्रह्म हो गया हूँ, मैं ही मैं हूँ, अहमेव ही केवलं। तो मुझे ना कुछ दिखाई पड़ता है, ना कुछ सुनाई पड़ता है, ना मुझे किसी के साथ की ज़रूरत है।"
ये बहुत बड़े अहंकार की बात है जब अहंकार बोले कि, "अब मुझे किसी साथ की ज़रूरत नहीं है।" कई बार ऐसा हो जाता है, अहंकार अपना ही साथ करना शुरू कर देता है और कह देता है "देखो मैं तो आत्मा हो गया, असंग हो गया हूँ। किसी की संगति की ज़रूरत नहीं है मुझे।" लेकिन वो संगति कर रहा है; किसकी संगति कर रहा है? अपनी ही कर रहा है। जैसे किसी को अपनी खूबसूरती का इतना मद हो जाए कि वो आईने में खुद को ही निहारे और कहे "चलो चाय पीते हैं; किसी और की ज़रूरत कहाँ है हमें? हमारा तो क्लब ऑफ ब्यूटीज़ है।" नहीं, ये नहीं होना चाहिए।
संगत करनी है। आत्मा नहीं हो, अहं ही हो तुम। सही संगत करो। कर्ता हो तुम तो कर्म करोगे ही, सही कर्म करो। इतना ही अपने हाथ में है, इससे ज़्यादा बात करोगे तो अहंकार है। झूठा अहंकार है कि "हम तो अब कुछ करते ही नहीं, हम तो जो कर रहे हैं हमसे प्रभु करा रहे हैं। ज़रा लड्डू लाना इधर! हम खाते थोड़े ही हैं। जैसे प्रभु को भोग लगता है न, वैसे हमें भोग लग रहा है। हम प्रभु हैं, तो जब हम खाते हैं तो प्रभु को भोग लगाते हैं, खा-खा कर।" बड़ा अहंकार है।
तो विनम्र रहिए। ज़मीन पर रहिए और भूलिए नहीं कि जब तक शरीर है तब तक शरीर में वास करने वाली सब वृत्तियाँ हैं। अहं वृत्ति कोई हवा में तैरती हुई नहीं आ जाती है। वो इसी शरीर से उठी है। तो जब तक ये शरीर है, इस शरीर का जैसा ढाँचा है, जैसी संरचना है तबतक जितनी वृत्तियॉं हैं वो रहेंगी। तो शरीर रहे और आप कहें कि आपमें कोई वृत्ति नहीं रही तो आप झूठ बोल रहे हैं। बस आप ये कर सकते हो कि आप अपनी सारी वृत्तियों को सही दिशा में मोड़ दो। जैसे कबीर साहब बोलते हैं कि "इन सबको मैंने अब चाकर बना लिया है राम का, मेरी सारी इन्द्रियाँ अब राम की चाकरी करती हैं।" उन्होंने ये नहीं कहा कि "मैंने उनका गला घोंट कर मार दिया। मेरे घर में पाँच लाशें पड़ी हैं; पाँचों इन्द्रियाँ क़त्ल कर दीं।" वो कह रहे हैं, "मैंने इनको राम का सेवक बना दिया। सब है — मुझे भय भी लगता है तो किसका लगता है? राम का से दूर ना हो जाऊँ। मुझे मोह भी है तो किससे है? राम से ही है।"