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लेख
धोखा देकर शारीरिक संबंध बनाने वाले || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
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प्रश्न: मैं एक संबंध में थी। उसका आकर्षक व्यक्तित्व, प्यारी बातें और कई तरह के किस्सों के फेर में आ गई। अब पता चल रहा है कि जो कुछ वो अपने बारे में बताता था, वो ज़्यादातर तो झूठ था। दुःख से ज़्यादा मुझे शर्म और बेज़्ज़ती महसूस हो रही है कि मेरे शरीर का इस्तेमाल किया गया। मेरी कहानी, यहाँ तक कि कुछ फोटोज़ भी इधर-उधर फैला दिए गए हैं। मैं डिप्रेस्ड हो चुकी हूँ और आत्महत्या का ख़याल आता है।

आचार्य प्रशांत: तुमने ऐसा क्या अपराध कर दिया है जो तुम अपने आप को जीने के क़ाबिल नहीं समझतीं? कोई था, चतुर, कुटिल आदमी; उसने अपने बारे में झूठ बोला और कुछ लच्छेदार बातें करी होंगी, और तुम फँस गईं। अब कुछ लोग हैं जिन तक तुम्हारी कहानी पहुँच गई है, तुम्हारी कुछ तस्वीरें इधर-उधर फैला दी गईं हैं, इसमें तुम कहाँ से नंबर-१ की गुनहगार हो गईं भई? ग़लती तुम्हारी भी है, मैं उस पर आऊँगा, पर सबसे बड़ी ग़लती जिनकी है वो तो कोई और है, तुम अपने आप को क्यों सज़ा दे रही हो?

ये शर्म और बेइज़्ज़ती तुम्हें किस बात पर लग रही है कि कोई तुम्हारे शरीर का इस्तेमाल करके चला गया? शरीर चीज़ क्या है? कल राख हो जानी है। पर तुम ऐसे बता रही हो जैसे तुम्हारी कितनी बड़ी दौलत लुट गई। क्या चीज़ है शरीर? अभी लग जाएगा वायरस तो देख लेना। इसी शरीर को बाँध देते हैं प्लास्टिक में और कोई छूने भी नहीं आता। जलाने भी तुमको ले जाएँगे तो लोग दूर-दूर खड़े होंगे, ये है शरीर। कोई मूर्ख मिला था तुम्हें, जिसकी कुल बुद्धि, कुल नियत इतनी ही थी कि वो तुम्हारे शरीर को भोग गया, इस बात से तुम में क्यों डिप्रेशन छा रहा है? तुम सिर्फ़ शरीर हो क्या?

ये ग़लती है तुम्हारी कि तुमने अपने आप को सिर्फ़ देह मान रखा है। तुम्हें लग रहा है कि – “मैं हूँ ही क्या! मैं एक शरीर हूँ और मैं अपने आप को बचा करके रखी थी, कोई आया और मेरी संपदा लूटकर ले गया। मैंने बड़ी सहेज कर रखी थी”। किसके लिए सहेज कर रखी थी? प्रियवर के लिए? किसके लिए? हम सोचते हैं कि हमने जो अपने जिस्म की दौलत है, वो बिल्कुल बचा कर रखी है, आएगा कोई दिलराज, उसको हम अर्पित करेंगें। दिलराज तो नहीं आता पर यमराज ज़रूर आ जाता है। दिलराज तो छलावा है, किसी को नहीं मिला; यमराज हकीक़त है, वो सबको मिल जाता है।

इतनी बड़ी भारी तुम्हारे साथ त्रासदी हो गई कि तुम आत्महत्या की सोचने लग गईं? तुम्हारा जीवन इतना फ़िज़ूल है? एक फ़िज़ूल आदमी तुम्हारी ज़िंदगी में आता है, तुम्हारे साथ कुछ फ़िज़ूल की हरकतें करता है, और तुम आँसुओं में डूबी हुई हो कि – “अरे! मैं डिप्रेस्ड हो गई।” तुम्हें तो खुशखबरी सुनानी चाहिए कि एक व्यर्थ का आदमी आ गया था जीवन में, अब वो दफ़ा हो गया है, और बहुत छोटी क़ीमत पर दफ़ा हुआ है वो। इतना ही करा न उसने कि तुम्हारे शरीर का थोड़ा इस्तेमाल कर ले गया और अब इधर-उधर जाकर थोड़ी अफ़वाहें फैला रहा होगा, कहानियाँ और ये वो। तो ये तो ऐसे लोगों से पिंड छुड़ाने की, पीछा छुड़ाने की तुमने बहुत छोटी क़ीमत दी है। भला हुआ कि वो दफ़ा हुआ।

अपने आप को जानो और ज़िंदगी का मक़सद समझो। ज़िंदगी ख़त्म करने की बात भी तुम्हारे मन में इसीलिए उठ रही है क्योंकि तुमने ज़िंदगी को शरीर से बहुत ज़्यादा जोड़ कर देख लिया है। देखो, एक ही ग़लती है जो पहले भी करी थी, और अब भी दोहरा रही हो। पहले तुमने बहुत क़ीमत दे दी उस आदमी के शरीर को। तुम यहाँ लिख तो रही हो कि उसका आकर्षक व्यक्तित्व, प्यारी बातें, इसका बहुत बड़ा हिस्सा तो शरीर ही होता है न? दिखने में अच्छा रहा होगा। होगा लम्बा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा, घुँघराले बाल वगैरह-वगैरह, और ये सब। तो तुमने बहुत क़ीमत दे दी उसके शरीर को कि शरीर से आकर्षक दिखता है, तो तुमने उसको अपने जीवन में आने दिया। और अब दूसरी ग़लती ये कर रही हो कि तुम अपने शरीर को बहुत क़ीमत दे रही हो। शरीर को ख़त्म करने का ख्याल भी यही बताता है कि तुम अपने आप को शरीर ही मानते हो। तभी तो कहते हो कि – “मैं ख़त्म हो जाऊँगी,” जबकि वास्तव में तुम किसको ख़त्म कर रहे हो? सिर्फ़ शरीर को। राख तो शरीर होगा। वही ग़लती दोबारा कर रही हो जो पहले की थी।

ज़िंदगी इन सब चीज़ों के लिए नहीं होती। जो लोग देह भाव में जीते हैं, उनका वही अंजाम होता है जो तुम्हारा हो रहा है। वो दूसरों की देह को देखकर फँस जाते हैं, और फिर अपनी ही देह को कष्ट देते हैं। ये दो तरफ़ा उन पर चोट पड़ती है। ज़िंदगी शरीर बन कर मत गुज़ार दो; वो बर्बादी है। जानो कि तुम इसलिए हो ताकि तुम मानसिक तौर पर ऊँचे-से-ऊँचा उठ सको और यही जीने का मक़सद होता है। हम इसलिए नहीं पैदा हुए हैं कि अपना शरीर चमकाएँगे, दूसरों का शरीर भोगेंगे या दूसरों के भोग का कारण बनेंगे। हम इसलिए पैदा हुए हैं ताकि चेतना के तल पर, समझदारी के तल पर, होश के तल पर ऊँचे-से-ऊँचा उठ सकें।

अब बताओ कि अगर तुमको चेतना के तल पर ऊँचा उठना है तो तुम्हारे साथ ये जो घटना घटी, ये क्या वाक़ई एक हादसा है, या छुपा हुआ वरदान? इस घटना से तो तुम बहुत बड़ा सबक भी सीख सकती हो न? ये घटना शायद घटी ही इसीलिए हो ताकि जो पाठ तुम बीस साल में नहीं सीख पातीं वो तुम एक साल में ही सीख जाओ। तो समझाने वाला तो तुमको फास्ट ट्रैक प्रमोशन दे रहा है, कह रहा है कि जल्दी से तुमको बेहतर बना दें, जल्दी से तुमको उत्तीर्ण करके आगे वाली कक्षा में पहुँचा दें, और तुम समझ ही नहीं रही कि तुमको क्या भेंट मिल रही है। तुम दुःखी हो रही हो, डिप्रेस्ड हो रही हो।

अच्छा ये बताओ, कहती हो कि डिप्रेस्ड हो रही हो, शरीर डिप्रेस्ड हो रहा है क्या, बताना शरीर में कहाँ-कहाँ डिप्रेशन आ गया? ये सारी तकलीफ़  इसलिए है न क्योंकि मन बुरा मान रहा है? ये भी अगर कह रही हो कि - “मेरे शरीर का इस्तेमाल कर लिया किसी ने,” तो बुरा किसको लग रहा है? शरीर को? नहीं, मन को। तो माने समस्या सारी कहाँ है? मन में। पर मन की तो तुम बात ही नहीं कर रहीं। ना तुमने उस आदमी का मन देखा था, और ना अभी तुम अपना मन समझती हो। मन की बात ही नहीं कर रहीं, तन की बात किए जा रही हो, जबकि दुःख सारा मन में है।

मन को बेहतर करना है। अगर मन बेहतर हो गया तो आइंदा इस तरह के किसी प्रलोभन में आओगी नहीं। साफ़ दिख जाएगा कि जो सामने आ रहा है, मुझे लुभा रहा है, ये बिल्कुल दो कौड़ी का आदमी है, ऐसों से बिल्कुल दूर-दूर रहना है, नर पशु हैं ये। और ये भी दिख जाएगा कि मुझे किसी के उपभोग की, किसी के कंज़म्पशन की चीज़ बनकर इतराते-इठलाते नहीं घूमना है। इस तरह से ना फिर तुम दूसरों को शरीर की तरह देखोगी, और ना ही अपने आप को शरीर की तरह देखोगी।

अपने आप को शरीर की तरह देखोगी तो जैसे अभी बुरा लग रहा है कि कोई आकर के शरीर लूट ले गया, वैसे ही फिर इस बात का भी कभी बुरा लग सकता है कि – “हाय! मेरा शरीर तो इतना सुंदर, सुडोल और आकर्षक है, इसको भोगने वाला मुझे कोई मिल क्यों नहीं रहा! मैं तो इतनी तैयारी, इतने श्रृंगार के साथ निकला करती हूँ बाजार में, कोई है क्यों नहीं जो मुझ पर प्यार भरी नज़र डाले?” तब इस बात का डिप्रेशन हो जाएगा। तब इस बात का होगा कि – "मेरी ओर कोई आ क्यों नहीं रहा," और अभी इस बात का है कि– "मेरी ओर कोई आया और मेरा शोषण कर गया।" लेकिन दोनों ही मामलों में मूल मुद्दा क्या है? शरीर। इस शरीर से थोड़ा हटो तो। पढ़ो, लिखो, आगे बढ़ो।

तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम अभी छात्रा हो। पढ़ाई कोई बोरिंग चीज़ ही थोड़ी होती है कि – “अरे! मन नहीं लग रहा, ऊब गए, ऊब गए, ऊब गए!” जो कुछ तुम पढ़ रहे हो उसका कुछ अर्थ होता है। बिल्कुल ऐसे विषय का चयन करो जिसमें तुम्हारा दिल लग जाए, और उसमें डूब जाओ पूरे तरीक़े से। ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए और भी न जाने कितने तरीक़े होते हैं। बताओ, कोई वाद्य यंत्र बजाना आता है? कुछ गाना आता है? मैं पूछ रहा हूँ कोई म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट है जिसमें तुम पारंगत हो? जैसे गिटार, सितार, फ्लूट, ड्रम, कुछ भी? अरे! माउथ ऑर्गन भी आता है बजाना क्या? इनकी यहाँ तुम कोई बात ही नहीं कर रहीं।

ज़िंदगी को जो सब चीज़ें उत्कृष्टता देती हैं, उनकी आप बात ही नहीं कर रहीं। इतना कुछ है जीवन में जो जीवन में ऐसे रंग भर देगा कि खिल जाओगे, प्रमुदित हो जाओगे।

फ़िल्में भी तुमने देखीं हैं क्या ढंग की? मैं उन सड़कछाप फ़िल्मों की बात नहीं कर रहा हूँ जो उन साहब के साथ तुमने जा करके पॉपकॉर्न के साथ कार्नर सीट पर बैठ के देखी होंगी। ऐसा ही होता है न? ऐसी फ़िल्म ली जाती है जो बिल्कुल दो कौड़ी की हो, उतरने ही वाली हो, बिल्कुल चली ना हो, फ़्लॉप हो। इसमें फ़ायदा ये मिलता है कि हॉल खाली मिलता है। खाली हॉल लो और उसमें भी पीछे की दो कॉर्नर की सीट लो। फ़िल्म तो तुमने क्या ही देखी, उसने तुमको पूरा देख डाला। पॉपकॉर्न तो क्या ही चबाया गया, तुम ही चबा दिए गए। इन फ़िल्मों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं पूछ रहा हूँ तुमने हिंदी की, अंग्रेज़ी की क्लासिक्स देखी हैं? मैं पूछूँ, “गुरूदत्त?” तो कहोगे, “हैं! ये गुरुजी कब थे?” मैं पूछूँ, “सत्यजीत रे?” तो कहेंगे, “बाप रे!”

अरे, ज़रा आगे बढ़ो, आर्ट्स से, कल्चर से अपना परिचय बढ़ाओ। इतनी ऊँची-ऊँची किताबें हुई हैं, उनको पढ़ती क्यों नहीं? ये कुछ नहीं है डिप्रेशन वगैरह। ज़बरदस्ती का फ़ितूर लेकर के बैठ गई हो। चार बढ़िया पिक्चरें देखोगी, और बढ़िया पिक्चरों से मेरा मतलब, फिर वही कह रहा हूँ, वो सड़कछाप वाली नहीं, बढ़िया माने बढ़िया। अपने आप भीतर एक नई पुलक उठेगी, आँख खुलेगी। और इसमें ऐसा भी नहीं है कि हम शरीर मानते हैं अपने आप को तो शरीर का ही बड़ा ख्याल भी रख लेते हों। खेलती हो? किसी स्पोर्ट्स में माहिर हो? दौड़ लगाती हो? पाँच किलोमीटर दौड़ा करो रोज़, और खेला करो। लूडो खेलने की बात नहीं कर रहा। टेनिस का रैकेट उठाओ, दो सौ अस्सी ग्राम, अपने आप बाँह में ही नहीं, जिगर में भी मज़बूती आ जाएगी।

बिल्कुल कमसिन कुमारी मत बनके बैठ जाओ कि ऐसियों पर ही तो आशिक़ लोग मेहरबान होते हैं। जीवन में एक ताक़त लाओ। तुम्हारी जो पूरी कहानी है वो लाचारगी बयान कर रही है। लाचार क्यों हो तुम? लड़की हो इसलिए लाचार हो? तुम कह रही हो वो तुम्हारी देह भोग गया। अरे, दो शरीर भी मिलते हैं तो दो शरीर मिलते हैं न? तुम भी अपने आप को बता दो, उसने ही मुझे थोड़ी ही भोगा, मैंने भी तो उसको भोगा है, क्योंकि हुआ तो यही होगा। संबंध तो पारस्परिक होता है, दोनों तरफ़ से। पर ज़बरदस्ती की लाचारी और हताशा अपने ऊपर ओढ़ रही हो कि - “मैं तो लड़की हुँ, मेरे साथ ऐसा वैसा..।”

जीवन में मज़बूती लेकर के आओ, जीवन इसीलिए है। हम सब कमज़ोर ही पैदा होते हैं, हर तरीके से कमज़ोर पैदा होते हैं, उसके बाद शरीर कुछ हद तक अपने आप मज़बूती पा लेता है। तो जीवन का क्या उद्देश्य है? शरीर को पूरी तरह मज़बूत रखना, और उसको मज़बूती देना जो अपने आप कभी मज़बूत नहीं होने वाला। कौन? मन। शरीर तो फिर भी अपने आप ही थोड़ी मज़बूती पा लेगा, आकार बढ़ा लेगा, वगैरह-वगैरह, तुम उसकी बहुत देखभाल ना भी करो तो भी। मन बच्चे जैसा ही रह जाएगा, मन बिल्कुल पशु जैसा ही रह जाएगा अगर मन को ताक़त नहीं दोगे। तो जीवन का उद्देश्य है मन को मज़बूत करना। आगे बढ़ो, मन को मज़बूत करो, दुनिया तुम्हारी है।

तुमने तो अभी ही ज़िंदगी शुरू करी है, तुम ये कैसी निराशा की बातें करने लग गईं?

अब अगली बार जब संदेश भेजना तो उसमें ऊँची बातें करना, और बताना कि क्या पढ़ा और क्या सीखा, तैरना सीखा कि नहीं, बाँसुरी बजाना सीखा कि नहीं, नाचना सीखा कि नहीं, यात्राएँ करीं दूर-दूर की कि नहीं, जो कोर्सेज़ तुम पढ़ रही हो, जिस भी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में तुम हो, वहाँ एक बेहतर छात्रा बनीं कि नहीं, कौन सी किताबें पढ़ीं। अरे, कविता लिखने की कोशिश करो, इतनी कलाएँ हैं, आगे तो बढ़ो।

अब ये सब मुझे चाहिए, और इंतज़ार रहेगा।

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