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लेख
देवगण असुरों से बार-बार क्यों हारते हैं? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: श्रीदुर्गासप्तशती के उत्तर चरित्र में अब हम प्रवेश करते हैं। यह तीसरा और अंतिम चरित्र है ग्रंथ का और इसमें हमें देवी के सतोगुणी रूप के दर्शन होते हैं। देवी यहाँ माँ महासरस्वती के रूप में आविर्भूत होंगी। तो कथा आगे बढ़ती है, आपको स्मरण होगा कि चौथे अध्याय के अंत में महिषासुर वध के उपरांत देवताओं ने देवी महालक्ष्मी की भावपूर्ण स्तुति की और देवी ने उनसे वर माँगने के लिए कहा।

तो देवताओं ने कहा कि महिषासुर से ही हमें आतंक था और आपने हमें अभय दिया है, अब और क्या वर माँगें। पर यदि वर माँगना ही है तो यही कि भविष्य में भी जब हम आपकी स्तुति करें और कष्ट में, आपदा में आपकी स्तुति करें तो आप आ करके हमारी रक्षा कीजिएगा। तो देवी ने कहा था, "तथास्तु।” इसके अतिरिक्त देवताओं ने यह भी कहा था कि आप वर दीजिए कि जो भी मनुष्य आपके चरित्र का भक्तिपूर्वक, ध्यानपूर्वक पाठ करें, उनको आप श्री, धन-धान्य, भक्ति और बुद्धि का वरदान दें। देवी ने वर दिया था और अंतर्ध्यान हो गईं थीं।

तो हम पहले भी कई बार कह चुके हैं कि देवता पूर्ण नहीं हैं, देवता प्रकृति के चक्र में ही हैं, और प्रकृति के चक्र में तो बस लहरें मात्र होती हैं—कभी ज्वार, कभी भाटा; कभी धूप, कभी छाँव; कभी अच्छे दिन, कभी बुरे दिन। तो इंद्र आदि देवताओं ने महालक्ष्मी के वरदानस्वरूप एक लंबे काल तक सुख और राज्य भोगा। और तदुपरांत समय ने फिर करवट बदली—जैसी समय की प्रकृति है—और इस बार देवताओं का अनिष्ट प्रकट हुआ किन दो महा-दैत्यों के रूप में? शुंभ और निशुंभ। और इन दो दैत्यों ने वही सब कुछ किया लगभग जो कभी मधु-कैटभ ने और महिषासुर ने किया था।

प्रकृति में सब कुछ चक्रवत ही नहीं होता, सब कुछ अपनी पुनरोक्ति भी करता रहता है। चक्र इस प्रकार चलता है कि जो आज बीता है, वो कल लौटकर आएगा।

इसीलिए जानने-समझने वाले भविष्य से आशा नहीं टिकाते, उन्हें पता है कि भविष्य तो अतीत का रूपांतरण भर होता है। आज का महिषासुर कल का शुंभ-निशुंभ बन जाना है — नाम बदल जाएगा, आवाजें बदल जाएँगी, चेहरे बदल जाएँगे, स्थितियाँ बदल जाएँगी, जीवन के रंग-मंच पर पात्र बदल जाएँगे, संवाद बदल जाएँगे, दर्शक बदल जाएँगे, पात्रों के वस्त्र बदल जाएँगे। जो कुछ बदल सकता है, बदल जाएगा, क्या नहीं बदलेगा? नाटक नहीं बदलेगा, नाटक का सार नहीं बदलेगा।

तो सब बदल गया, देश बदल गया, काल बदल गया, युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्र बदल गए होंगे, जिस तरीके से, जिन माध्यमों से देवताओं की नवीनतम हार हुई, वो माध्यम बदल गए होंगे, महिषासुर एक था, वो एक की संख्या बदल गई, शुंभ-निशुंभ का दो का जोड़ा है, लेकिन बात का मर्म वही रहा—कभी धूप, कभी छाँव; जो आया है, वो जाएगा; जो पाया है, वो खोएगा। आज सिंहासन पर बैठे हो, और सत्ता के हैं फूल और सुगंध और मद, और यही जो मद है, यही जो नशा है, वही फूल को धूल बना देगा।

देवता अनायास ही थोड़े ही हारते थे, उनकी हार के पीछे उनका प्रमाद, उनका मद, उनका अहंकार, उनकी असावधानियाँ, उनकी अश्रद्धा, यही तो होतीं थीं। अन्यथा क्यों बार-बार विवरण आता कि देवता हारने के बाद भागे कभी ब्रह्ना जी की ओर, कभी शिव की ओर, कभी विष्णु की ओर? हारने के बाद ही काहे को भागे, भाई? जब जीते हुए थे, तब भी निरंतर भगवत शरण में रहते तो हार करके उनकी तरफ जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती न।

हमने कहा: देवता पूर्ण नहीं हैं, त्रुटियों से भरपूर हैं, वही त्रुटियाँ उन्हें बार-बार संकट में डालती हैं।

तो अब एक बिल्कुल हालिया, नया, ताजा, नवीन संकट खड़ा हुआ है इन दो भाइयों के रूप में, महा-दैत्य हैं। और इन्होंने फिर वही करा है देवताओं के साथ जो उनके साथ बार-बार होता रहता है। तो फिर से अब देवता अपने ही राज्यों से निष्कासित हैं, अपमानित हैं और शुंभ और निशुंभ ने उनके सारे अधिकार छीन लिए हैं। यम के, अग्नि के, वायु के, इंद्र के, चंद्र के, सूर्य के, खुद ही अब वो सारे अधिकारों का संचालन कर रहे हैं।

देवताओं का राज्य भी गया और जो देवताओं के पास भाँति-भाँति की मूल्यवान वस्तुएँ थीं, संपत्तियाँ थीं, वो भी छिनीं। हाथी, घोड़े, एरावत, उच्चैश्रवा, विशेष वृक्ष, मालाएँ, रथ, महल जो भी कुछ विशिष्ट धन-धान्य संपत्ति रखकर देवता इतराते थे, सब हाथ से गया। तो देवता फिर पहुँचते हैं, कहाँ? देवी की शरण में। और जा करके गंगा किनारे वे देवी की स्तुति आरंभ करते हैं। और ये जो स्तुति स्तोत्र हैं, ये बड़े सारगर्भित हैं, बड़ा इनका मूल्य है। इनको पूरी गहराई में जाकर समझना बड़ा आवश्यक है, प्रसिद्ध भी ये खूब हैं।

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