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प्रकृति माँ है, पत्नी नहीं; नमन करो, भोग नहीं || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रसंग में बताया गया है कि देवताओं ने बहुत लंबे समय तक सुख से राज्य किया, फिर उनके ऊपर दु:ख आया, तब जाकर उन्होंने देवी की स्तुति की। फिर आपने यह भी बताया कि धूल को लगातार साफ़ करते रहना होता है। हमारे साथ भी ऐसा ही होता है कि जब दु:ख आता है, तभी हम लोग याद करते हैं। जब सामान्य चल रहा होता है, सब कुछ सही होता है, तब ऐसा नहीं लगता कि धूल साफ़ करनी चाहिए, और फिर जब धूल हद से ज़्यादा बढ़ जाती है, तभी साफ़ करते हैं। तो क्या यह ऐसे ही होता है या हम ध्यान रख सकते हैं इसका?

आचार्य प्रशांत: देवी ही इसका कारण हैं। देवी के प्रति अज्ञान भी देवी का ही कार्य है। आप क्यों भूल जाते हो देवी को? उस भूल का कारण भी स्वयं देवी हैं। प्रकृति, देवी माने प्रकृति, प्रकृति में ही ये निहित है कि आप इस तथ्य को भूल जाओगे कि यह सब कुछ प्राकृतिक अर्थात क्षणभंगुर मात्र है। इसे थोड़ा गौर से समझिए, फिर से दोहराऊँगा।

यह बात प्रकृति में ही निहित है कि आप भूल जाओगे कि वह सब कुछ जिस पर आप इतरा रहे हो, जिससे आप संयुक्त हो गए हो, जिसको आप बचाना चाहते हो, जिसको आप मूल्य दे बैठे हो, जिसको आप अमर ही समझने लग गए हो, जिसको आप सत्य ही समझने लग गए हो, वो सब कुछ प्राकृतिक है। प्रकृति ही आपसे यह भुलवा देती है कि आप जिस बेहोशी के समुद्र में गोते मार रहे हो, वो प्राकृतिक है, वास्तविक नहीं। वास्तविक और प्राकृतिक में अंतर समझते हो? अध्यात्म की भाषा में वस्तु मात्र सत्य को कहा जाता है, वस्तु माने जो है, जो है। तो वास्तविक मात्र सत्य होता है।

प्राकृतिक जो है, वो वास्तविक नहीं है। हम आम बोल-चाल की भाषा में कह देते हैं कि ये रुमाल वास्तविक है (इशारा करते हुए) , ये कलम वास्तविक है, ये माइक वास्तविक है। अध्यात्म में ऐसे नहीं कहते। अध्यात्म में कहेंगे कि ये सब क्या हैं? ये प्राकृतिक हैं। आप कहेंगे, “अरे! माइक प्राकृतिक कैसे हो गया? प्राकृतिक तो वो चीज़ें होती हैं न जो जंगल में पाई जाती हैं।” नहीं, जंगल में अगर मकड़े का जाला लगा हो तो उसे किसने बनाया? मकड़े ने। उसे आप प्राकृतिक मानते हो, नहीं मानते हो? मकड़े के जाले का निर्माण जंगल में किसने किया? या आपके घर में भी मकड़े के जाला लगा है तो उसका निर्माण किसने किया? मकड़े ने। तो मकड़े की निर्मित्ति को आप प्राकृतिक मानते हो कि नहीं मानते हो? मकड़े ने जाला बनाया; आदमी ने माइक बनाया। अगर वह मकड़ी का जाला प्राकृतिक है तो ये माइक भी प्राकृतिक है। ये सब प्राकृतिक हैं, अध्यात्म में ये वास्तविक नहीं हैं।

वास्तविक क्या है? मात्र सत्य। लेकिन प्रकृति के ही खेल में यह अविद्या भी निहित है, प्रकृति को अविद्या भी बोलते हैं, प्रकृति को माया भी बोलते हैं। प्रकृति के ही खेल में यह अविद्या भी निहित है कि जो प्राकृतिक है, उसको आप समझने लग जाओगे वास्तविक। और जब आप प्राकृतिक को वास्तविक समझने लग जाते हो—प्रकृति यानी देवी का ही मायाजाल—तो आप पर दु:ख आता है, तो दु:ख का कारण भी कौन हैं? देवी स्वयं। दु:ख का निवारण भी कौन है? देवी स्वयं। कारण भी वही हैं, निवारण भी वही हैं। तभी तो जीवन भी देवी हैं, मृत्यु भी देवी हैं।

भारत में कहते नहीं हैं कि कष्ट आ गया किसी पर, तो क्या कहते हैं? देवी रुष्ट हो गईं। तो कष्ट भी देवी ही हैं, किसी और ने नहीं कष्ट दे दिया, देवी ने कष्ट दिया। ‘देवी ने कष्ट दिया’, इस बात का मतलब क्या है? कि प्रकृति के मायाजाल में उलझकर तुम कुछ गलती कर बैठे, ये मतलब है इस बात का। जो भी कोई गलती करता है इसलिए करता है न क्योंकि वह अहंकार में उलझ गया, भीतर कहीं कुछ भ्रम हो गया, काले को सफेद समझ बैठा? माने प्रकृति ने उसको धोखा दे दिया—प्रकृति माने संसार, संसार माने प्रकृति—संसार से धोखा खा गया। संसार में सिर्फ़ बाहरी संसार नहीं, जो भीतरी संसार है, वो भी प्राकृतिक है। धोखा खा गए तभी तो कष्ट हुआ।

तो तुम्हारा कष्ट किसने दिया? देवी ने दिया, क्योंकि देवी ही तो जगत हैं। उनको क्यों जगदंबा बोलते हैं? क्यों जगत जननी बोलते हैं? कष्ट भी वही देतीं हैं, कष्ट से मुक्ति भी वही देतीं हैं। कष्ट वो कब देतीं हैं? जब तुम प्रकृति को प्रकृति न समझ करके अहंकार के उपभोग की वस्तु समझ लेते हो, जैसा कि अभी थोड़ी देर में शुंभ और निशुंभ करने वाले हैं।

वही देवी जिनके सामने देवता नमित हो रहे हैं, क्योंकि अब उनकी अकल ठिकाने आ गई है—दु:ख पड़ा है, चोट लगी है, सिंहासन छिना है तो होश में आ गए—तो वो अब देवी से दूर खड़े होकर कह रहे हैं, “नमो नम:, नमो नम:, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै।” इनका दु:ख कटेगा अब, मिटेगा। और दैत्य वो कर रहे हैं जो आम आदमी करता है, कि दैत्यों ने देवी को देखा और देवी से कह रहे हैं कि तुम आ जाओ बिल्कुल, हमारे राज्य में आओ, हमारी पत्नी बनो न, हम भोग करेंगे तुम्हारा। तुम तो परम रूपसी हो, तुम तो स्त्रियों में रत्न हो, हम तुम्हें भोगेगे।

ये समझ रहे हो, आदमी के भीतर की किस वृत्ति की ओर इशारा है? प्रकृति को भोगना है। प्रकृति में जहाँ सुंदरता दिखी नहीं, उसको क्या कर लेना? भोग लेना है। और जब देवी राज़ी नहीं हुई तो बलपूर्वक भोगना है, बलात् दुष्कर्म की चेष्टा करनी है। हम सब दैत्य ही तो हैं, देखो न, जहाँ प्रकृति मिलती है, जिस भी तरीके से, तुरंत अपने सुख के लिए उसका भोग ही तो करना चाहते हैं। यही शुंभ-निशुंभ कर रहे थे। देवताओं ने भी यही करा होगा, लगे होंगे खूब भोगने में, संसार को, जीवन को, तो आ गई फिर आपदा। पर आपदा ने उनको कम-से-कम ज़रा जगा दिया, होश में ला दिया, तो फिर देवी के सामने खड़े हो गए, इसलिए नहीं कि देवी को भोगेगे बल्कि बच्चों की तरह, बालक की तरह, नमन करके, हाथ जोड़कर। अंतर समझ रहे हो?

वही देवी हैं जिनके सामने देवता खड़े हो गए हैं हाथ जोड़कर, क्या कह रहे हैं? “माँ,” और कह रहे हैं कि हम कुछ नहीं हैं, जो कुछ हो तुम्हीं हो, हम समझ गए। और वही देवी हैं जिनके सामने शुंभ-निशुंभ खड़े हो गए हैं और कह रहे हैं, “माँ नहीं, पत्नी। हम उपभोग करेंगे, हम सुख लूटेंगे तुम्हारी काया से, तुम्हारे रूप से।” और फिर निश्चित ही है कि संहार होगा और हुआ भी दैत्यों का संहार, और बढ़िया वाला हुआ। ऐसा पिटे हैं, ऐसा पिटे हैं कि आठ अध्याय तक उनके पिटने की ही गाथा है, अब यहाँ से शुरु हुई, पाँचवें से लेकर तेरहवें अध्याय तक खिचेंगे। मुझे तो लग रहा है कि मैं बताऊँगा क्या-क्या! इतने तरीकों से पीटे गए: कभी दाएँ से, कभी बाएँ से, तीर से, गदा से, शूल से और होश तब भी नहीं आ रहा है उनको। एक-के-बाद एक उनके सेनापति मारे जा रहे हैं, सेनाएँ खत्म हो रही है। शुंभ-निशुंभ में भी पहले एक का वध होता है, दूसरे को तब भी होश नहीं आता। पूरा मिटके ही मानते हैं दोनों। क्यों? क्योंकि नहीं कह पाए, “नमो नम:,” नहीं देख पाए स्त्री में माँ का रूप; भोगने के लिए ही आतुर रहे।

अब यहाँ पर बात किसी स्त्री माने किसी व्यक्ति की नहीं हो रही है, नारी की बात नहीं हो रही है। स्त्री से क्या आशय है यहाँ पर? प्रकृति। नर-नारी की बात नहीं चल रही यहाँ पर, महिला-पुरुष की बात नहीं चल रही है यहाँ पर। प्रकृति की ओर तुम्हारी दृष्टि क्या है, इसकी बात चल रही है। समझ में आ रही है बात?

प्रकृति माने सब कुछ, यह माइक , यह मेज़, यह पुस्तक और यह कलम ही नहीं, तुम्हारी अपनी भावनाएँ और विचार भी। ज़रा दूर से उनको क्या कर लो बस? नमन कर लो; चढ़ मत बैठो, भोगने मत लग जाओ कि अच्छा विचार आ रहा है, उससे सुख लूट रहे हैं। ये जो सुख की आकांक्षा है प्रकृति का दोहन करके, ये तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। इसी से तो राक्षसों का बार-बार पतन होता है, देवताओं का भी उसी से होता है।

जो भी कोई प्रकृति को अर्थात् देवी को भोग की वस्तु समझेगा, घोर दु:ख पाएगा। जो भी कोई उनको जगत जननी जानेगा, एक सम्मानजनक दूरी रख करके उनकी स्तुति करेगा, उनकी माने किसकी? जीवन की। अपने अहंकार को बहुत बढ़ने नहीं देगा यह सोच करके कि प्रकृति में यह मेरा है, यह मेरा है। प्रकृति में जो कुछ भी है, वो किसका है? देवी का है। तुमने बहुत अच्छा कर दिया, वो किसका है? तुम्हारा नहीं है, प्रकृति का है। तुम्हारे पास बहुत सुंदर रूप है, तुम क्या अहंकार दिखा रहे हो, रूप किसका है? वो प्रकृति का है। तुम्हारी बहुत तीक्ष्ण बुद्धि है, क्या आई.क्यू. है, डेढ़ सौ! क्यों उछल रहे हो, वो किसका है? प्रकृति का। “नहीं साहब, सब कुछ थोड़ी प्रकृति ने दिया है, हमने अपनी मेहनत से भी हासिल किया है”, वो तुम्हारी मेहनत, श्रम और जो भी ऊर्जा तुमने लगाई है, वो भी सब किसकी है? वो भी प्रकृति ही जानना, अहंकार से मत जोड़ लेना।

जो भी कोई प्रकृति में किसी भी चीज़ से अपना अहंकार जोड़ लेगा, वो दानव ही है। वो पिटेगा, क्योंकि वो भोग रहा है प्रकृति को। तुमने बहुत सुंदर पुस्तक लिख दी, क्या उसमें उदात्त विचार हैं! क्या बात है! सब तुम्हारी तारीफें कर रहे हैं कि देखो क्या बात है! तुम्हें लगता है ये तो मैंने ही कहा है, मेरे ही विचार हैं। तुम्हारी पुस्तक पर वो ‘ सी * ’, * कॉपी राइट का निशान भी लगा हुआ तुम्हारे नाम के साथ, अब तो समाज-सम्मत बात हो गई है कि साहब, यह चीज़ आपकी ही है। “मैं”, “मैंने लिखी किताब”, “ये विचार मेरे हैं”। किताब को मान लो कोई पुरस्कार मिल गया, बुकर प्राइज, “मैं हूँ बुकर प्राइज विजेता।” वो विचार तुम्हारे नहीं थे, वो विचार किसके थे? प्रकृति के।

तुम्हारा बस एक काम हो सकता है और वह काम भारत ने सीखा है, पश्चिम को कभी समझ ही नहीं आया, उसे बोलते हैं: त्याग। तुम्हारा कुछ नहीं है, जो कुछ है, उसका त्याग तुम्हारा हो सकता है। अंतत: त्याग का भी त्याग तुम्हारा हो सकता है। अंतत: त्याग को भी त्यागने वाले का त्याग भी तुम्हारा हो सकता है। त्याग के अलावा तुम्हारा कुछ नहीं। भारत में और पश्चिम में यही अंतर रहा है। पश्चिम ने सदा पाने की भाषा में बात करी है। उनके लिए ऊँची-से-ऊँची चीज़ यह है कि किसने कितना पा लिया और भारत में बड़े-से-बड़ा सम्मान उसको मिला है जिसने ज़्यादा-से-ज़्यादा छोड़ दिया।

पश्चिम में सबसे ज़्यादा सम्मान किसको मिलेगा, बड़ा आदमी कौन? जिसने ज़्यादा-से-ज़्यादा पा लिया और भारत में सबसे ज़्यादा सम्मान उसको मिलेगा जिसने ज़्यादा-से-ज़्यादा छोड़ दिया। उसके पीछे बात वही है जो अभी सप्तशती सिखा रही हैं हमको, क्या? प्रकृति का है, तुम काहे पकड़कर बैठे? त्यागो, और त्यागोगे नहीं तो बहुत दु:ख पाओगे। तुम्हारा था ही नहीं, तुमने पकड़ कैसे लिया! जो तुम्हारा नहीं है, उसको पकड़ोगे तो चोर कहलाओगे, राक्षस हो तुम, देवी से पिटोगे, बहुत पिटोगे। समझ में आ रही है बात?

त्याग ही अकेली चीज़ है जो आपको जीवन में जिता सकती है। और त्यागने का सूत्र भी आपको फिर उपनिषद बताते हैं: ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा’।

जी रहे हो तो भोग तो होगा, शरीर है यदि तो नथुनें हवा तो भोग ही रहे हैं, साँस ले रहे हो तो ऑक्सीजन भोग रहे हो। एक दिन भी अगर जी रहे हो तो अन्न भोग रहे हो, जल भोग रहे हो, कपड़े भोग रहे हो, ज्ञान भी, पर उसको भोगने की कला आनी चाहिए। त्याग कर भोगो, यह जान कर भोगो कि मेरा नहीं है। तो फिर भोगने के पीछे कोई व्यक्तिगत कारण नहीं हो सकता है। फिर अब जीवन में जो भी कुछ तुम भोगेगे, उसके पीछे कोई निर्वैयक्तिक कारण होगा, इमपर्सनल , तुमसे आगे का।

बस ऐसे ही जिया जा सकता है कि खा भी रहा हूँगा खाना तो इसलिए नहीं कि ऊर्जा मिलेगी तो उससे कोई व्यक्तिगत सुख भोगूँगा, खा इसलिए रहा हूँ कि अपने से आगे का कोई उपक्रम करना है, कोई बड़ी लड़ाई लड़नी है, कोई चुनौती है जिसको जीतना है, इसलिए खाना खा रहा हूँ। सिर्फ़ अगर अपने लिए खाना खाना होता तो हम आज खाना बंद कर देते, सिर्फ़ अगर अपने लिए जीना होता तो हम आज जीना बंद कर देते।

ये भारत ने सीखा है और जिस हद तक भारत इसपर अमल कर पाया, भारत विश्व विजेता रहा, भारत विश्व गुरु रहा। और जब भारत अपनी ही इस खोज को, इस सीख को भूल गया तो जीवन के हर क्षेत्र में बहुत पिछड़ा, बहुत पिटा।

भारत की अगर अवमानना हुई, दुर्गति हुई, पिटाई हुई, बहुत तरीकों से हार हुई, तो उसकी वजह यही रही कि भारत ने जो सबसे बड़ा सूत्र खोजा था त्याग का, भारत स्वयं ही उसको भूल गया।

प्रकृति की स्तुति का अर्थ ही है त्याग। “मेरा नहीं है, देवी, तेरा है। मेरी वृत्ति तेरी है, मेरी धृति तेरी है, मेरी भूख तेरी है, मेरी क्षुधा भी तेरी है और मेरी तुष्टि भी तेरी है। मैं हूँ ही नहीं, यह सब कुछ तेरा है तो फिर तो मैं हूँ ही नहीं। यह काया भी तेरी है, सब माया भी तेरी है। मैं तो हूँ ही नहीं।” समझ में आ रही बात? “मैं कहाँ हूँ? मेरी क्या हस्ती है?”

जिसने यह जान लिया कि मेरी कोई हस्ती नहीं, वो अमर हो गया अब; मिट नहीं गया, अमर हो गया। अब उसे कोई नहीं मिटाएगा, अमिट हो गया।

तुम कुछ हो तो तुम्हें कोई मिटा दे। (इशारा करते हुए) यहाँ दीवार पर कुछ लिखा हो तो मिटा सकते हो न? ये जो खाली स्थान है यहाँ पर, इसको मिटा कर दिखाओ। दीवार पर कुछ लिख दिया जाए तो मिटा दोगे, कितने भी खास तरीके से लिखा गया हो, कुछ-न-कुछ करते मिटा दोगे, नहीं मिटाओ तो दीवार ही गिरा दो, मिट गया। पर ये जो आकाश है, रिक्त व्योम, इसको मिटाकर दिखाओ। अमर हो गया यह, यह नहीं मिट सकता। ये है प्रकृति की उपासना।

जो कुछ भी है मिटने लायक, वो देवी तेरा है; क्योंकि जन्म और मृत्यु देवी दोनों तू है। मैं तो कुछ और ही हूँ, देवी। मैं क्या हूँ, मैं उस बारे में कुछ बोलूँगा भी नहीं क्योंकि मैं अगर कुछ भी बोल दूँगा अपने बारे में तो वो सब भी तो तू ही है, देवी। तो अपने विषय में तो मैं मौन रहूँगा। अधिक-से-अधिक धृष्टता यह कहने की कर सकता हूँ कि मैं मौन हूँ, बाकी तो जो कुछ है, वो तुम हो, देवी। “नमो नम:।”

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