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जीवन व्यर्थ मुद्दों से कैसे भर जाता है?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्कार! पिछले दो दिन से उपनिषद समागम के दौरान जो मन में प्रश्न उठ रहे थे वो एकदम सामान्य प्रश्न थे जो आम ज़िन्दगी से संबंधित होते हैं। एक तरह से वे बनावटी प्रश्न थे। उन प्रश्नों पर गौर से ध्यान देने भर से वे भंग हो जा रहे थे। तो मेरा प्रश्न ये है कि अपने-आप में वो परिपक्वता किस तरह लाई जाए ताकि अध्यात्म से संबंधित असली प्रश्न उठ सकें?

आचार्य प्रशांत: देखिए, ये मत पूछिए कि असली प्रश्न कैसे उठेगा। दूर की बात हो जाती है न? असलियत क्या है, सत्य क्या है, असली प्रश्न क्या है?

मेरी रुचि तो नकली में है। मुझे उसी की बात करनी है। परेशान उसी ने कर रखा है न?

आप पहले ये बताओ कि नकली प्रश्न आपके मन में क्यों आ रहे थे बार-बार? हमें इसकी छानबीन करनी है। ज़बान से हम कह रहे हैं कि प्रश्न नकली है और दिमाग़ में फ़िर भी वो बैठा हुआ है। उसको ये दृष्ठता, ये बदतमीज़ी करने की ताक़त दी किसने?

भई, नकली अगर असली लग रहा हो और वो धोखे से भीतर की जगह हथिया ले तो थोड़ी बात समझ में भी आती है कि नकली असली बनके आया था और भीतर घुस गया। “हम क्या करें, हमको धोखा हो गया।" पर आप तो खुद ही बोल रहे हैं, अपने मुँह से बोल रहे हैं कि वो प्रश्न कृत्रिम हैं, नकली हैं। कह रहे हैं न आप?

प्र: हाँ।

आचार्य: कृत्रिम है, नकली है खुद ही कह रहे हैं लेकिन फ़िर भी वो प्रश्न मन में घूम रहा है। बात ख़तरनाक है। जैसे आपकी जगह पर किसी ने कब्ज़ा कर लिया हो। आप जानते हैं वो आपकी जगह है। आपको मालूम है कि जो बैठा है वो ग़लत बैठा है, जबरन बैठा है। आप उसे हटा नहीं पा रहे। आशय साफ़ है। क्या?

जो बैठा है उसके पास कोई खास ताक़त है। वो पता करिए न कि नकली के पास ताक़त कहाँ से आई? ये नकली को इतनी ताक़त कौन देता है? एक ओर तो हम कह रहे हैं, नकली है। दूसरी ओर दुनिया पर वही चढ़ कर बैठा हुआ है। जीवन को चला रहा है वो, घरों को चला रहा है, राष्ट्रों को चला रहा है। सारी व्यवस्थाओं को, जो नकली हैं, वही चला रहा है। कहाँ से आयी उसमें इतनी ऊर्जा?

वो धोखा देकर नहीं चला रहा है। वो हमारे मुँह पर बोलता है, “मैं नकली हूँ और मेरा जो कर सकता हो कर ले। मैं हूँ नकली।" वो हमारा इतना भी लिहाज़ नहीं कर रहा कि हम से बोले, “नहीं साहब, देखिए मैं असली हूँ मैं इसलिए इस जगह पर बैठ गया हूँ।" वो कह रहा है कि “तुम इतने कमज़ोर हो मेरे आगे कि मुझे तुम्हारा लिहाज़ करने के लिए झूठ बोलने की भी ज़रूरत नहीं है।" तो झूठ हम से सच बोल रहा है। झूठ हमें सच्चाई बताए दे रहा है कि “मैं तो झूठ हूँ। और मैंने तेरे मुँह पर बता दिया कि मैं झूठ हूँ। जो उखाड़ सकता है उखाड़ ले!"

हमसे ज़्यादा सच्चा तो झूठ है। वो खुलकर बोलता है कि “मैं झूठ हूँ।" ये तो बड़ी बेबसी की हालत है। वो खुलकर बोल रहा है, “हाँ मैं हूँ झूठ।" आप उसकी शक्ल देख पा रहे हो कैसे मुस्कुरा रहा है आपकी हालत पर? “मैं झूठ हूँ। कर सकता है जो कर ले।"

किसने दी ये ताक़त? किसने दी? कहाँ से आ रही है उसमें ये जान?

अपनी ज़िन्दगी को गौर से देखिए। बहुत कुछ है आपकी ज़िन्दगी में ऐसा जो खुलेआम आपका अपमान कर रहा है। जो अब ये छुपाने की भी कोशिश नहीं करता कि वो कुटिल है, उसके मंसूबे काले हैं, उसके पास आपके लिए कोई सद्भावना नहीं है। वो अब सीधे-सीधे कहता है। “मैं तुझपर राज करूँगा क्योंकि मेरे पास ताक़त है।" अब वो ये भी नहीं कह रहा कि मैं राज करूँगा क्योंकि मैं बेहतर हूँ, या मैं राज करूँगा तेरी बेहतरी के लिए। वो सीधे कह रहा है, “मैं राज करूँगा क्योंकि मेरे पास ताक़त है। हाँ, ये बात सही है कि मैं झूठा हूँ, नकली हूँ लेकिन मैं राज तो फ़िर भी करूँगा।"

ऐसी ताक़तें हम सबकी ज़िंदगियों में बैठी हुई हैं। बैठी हैं या नहीं बैठी हैं? जिन्हें हम जानते हैं कि नहीं होना चाहिए पर फ़िर भी वो न सिर्फ़ मौजूद हैं बल्कि सत्तारूढ़ हैं। ताक़त उन्हीं के पास है।

और दूसरी ओर हम कहा करते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते। कहते हैं नहीं कहते कि साहब झूठ के तो पाँव होते नहीं? यहाँ छोड़ दो कि झूठ के पाँव, झूठ के पास लगता है दर्जनों पाँव हैं, दर्जनों हाथ हैं, सैकड़ों सर हैं और दैत्याकार है झूठ। बल्कि हमारे ही पाँव नहीं हैं। हम बस यूँ ही उछाला करते हैं सत्यमेव जयते। जीत लगातार कौन रहा है? झूठ! और मुँह पर बोल कर जीत रहा है। “मैं झूठ हूँ, चल मेरे पाँव दबा।” और हम उसके पाँव दबा रहे हैं।

हाँ, बात कुछ खुल रही है लगता है। हम जानना चाह रहे थे कि नकली को ताक़त कौन देता है। कुछ बात खुल रही है? कौन देता है?

आप उसके पाँव दबाते हो। जितना आप उसके पाँव दबाते हैं न, उतना वो चार्ज होता जाता है। उसकी चार्जिंग ऐसे ही होती है। जो उसके जितने पाँव घिसेगा, झूठ उतना चार्ज होता जाएगा। और कैसे चार्ज होता है जानते हैं वो? आपकी ऊर्जा उसमें जाती है। फिजिक्स की बात है भई: ‘एनर्जी नाइदर क्रिएटेड, नॉर डिस्ट्रॉइड।' (ऊर्जा ना तो बनाई जा सकती है और ना ही नष्ट की जा सकती है)

तो उसको ऊर्जा मिल रही है तो किसी की कम भी हो रही होगी। किसकी कम हो रही है? आपकी कम हो रही है।

जितना आप उसके पाँव दबाते हैं, उतनी आपकी ऊर्जा कम होती जाती है, उसकी बढ़ती जाती है। आप पाँव दबाते क्यों हैं? पाँव इसलिए दबाते है क्योंकि वो ताक़तवर है। अच्छा, वो ताक़तवर है तो इसीलिए वो आपसे पाँव दबवाता है तो उसकी वो ताक़त जो पहले से ही बहुत ज़्यादा है, और बढ़ जाती है। और आपकी वो ताक़त जो पहले ही कम है, और कम हो जाती है। तो ये खेल चल रहा है, अच्छा, अच्छा!

तो उसकी शुरुआत कैसे हुई? कोई दिन तो ऐसा रहा होगा न जब आप ताक़तवर थे और वो बिलकुल कमज़ोर? अब शुरुआत जैसे भी हुई अब क्या पता करें। हो गई होगी कोई ग़लती। तब उसके पास ताक़त नहीं थी, तब उसके पास कुछ और रहा होगा। रूप, रंग, सौंदर्य, चार्म (आकर्षण), झूठ कुछ रहा होगा उसके पास कि उसने हमें फँसा लिया, अपने पाँव दबवा लिए और जितना हम उसके पाँव दबाते गए, वो उतना चार्ज होता गया, हम डिस्चार्ज होते गए।

ये चल रहा है। कैसे रोकें? कुछ नया जानने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कुछ छुपा हुआ है ही नहीं। झूठ खुलेआम बोल रहा है, “मैं झूठ हूँ।" तो छुपा हुआ क्या है? वो तो खुली घोषणा कर रहा है, “मैं झूठ हूँ।"

तो ज्ञान वगैरह अर्जित करने से कुछ नहीं होने वाला। साहस चाहिए, कलेजा। आप अगर बंधनों में हैं तो उसकी बड़ी वजह ये नहीं है कि आप अज्ञानी हैं या और कोई बात। उसकी बड़ी वजह ये है कि आप संकल्प से अपनी ऊर्जा उठा नहीं रहे। आप हारने से इतना डर रहे हो कि लगातार हार रहे हो। आप मिटने से इतना डर रहे हो कि लगातार मर रहे हो।

तरीक़ा तो एक ही है फ़िर, भिड़ जाना पड़ेगा। क्योंकि अभी जो स्थिति चल रही है वर्तमान हालत, स्टेटस क्वो (यथास्थिति) वो तो उसी के पक्ष में है न। अभी ताक़त किसने पकड़ रखी है? आपके पास तो ताक़त है नहीं। तो अगर आप झूठ को चुनौती नहीं देते तो झूठ को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। झूठ कहेगा, “ठीक है, मैं तो वैसे ही गद्दी पर बैठा हुआ हूँ। तू नीचे बैठा हुआ है। जो चल रहा है चलने दो। जो चल रहा है वो तो मेरे ही पक्ष में है।” झूठ प्रसन्न है।

फुटबॉल का मैच चल रहा हो, ठीक है? और स्कोर है दो-शून्य। कहने की ज़रूरत नहीं कि आपका ही शून्य है। और दूसरी टीम ने कितने कर दिए हैं गोल?

प्र: दो।

आचार्य: आखरी दस मिनट हैं। अब आक्रामक खेलने की, बढ़के, चढ़के खेलने की ज़रुरत किसको है? वो कहेगा, “मेरा क्या जाता है। मैं तो वैसे ही चढ़कर बैठा हुआ हूँ, दस मिनट निकल जाएँ बस।" आपको ज़रूरत है कि आप कुछ ऐसे काम करें जो बिलकुल अजीब हों। क्योंकि हारे हुए तो आप हैं ही, अब बुरे-से-बुरा क्या होगा?

तीन-शून्य से हार जाओगे। दो-शून्य हो, तीन-शून्य हो, अरे चार-शून्य हो जाए, सब बराबर है, हारे तो हारे। दस मिनट बाद मौत है। घंटी बज जाएगी। हारे तो हारे।

अब आपको कुछ अलग ही करना पड़ेगा, कुछ ऐसा जो आपने पिछले एक घंटे में नहीं करा है खेल के। अब कुछ नया करना पड़ेगा। सुरक्षा की सारी अपनी इच्छा और मोह बिलकुल छोड़ दीजिए। गोलकीपर को बोलिए, “तू भी आगे निकल के खेल।" छोड़ दीजिए अपने गोल को खुल्ला।

“क्या कर लेंगे, दो गोल और मार देंगे? ठीक है, कोई बात नहीं। पर तू आगे आ जाएगा तो कुछ अलग भी हो सकता है, क्या पता?" छोड़िए, ये क्या आप पीछे डिफेंडर खड़े कर रखे हैं! सबको आगे बढ़ाइए।

मैं ऐसे ही कुछ कॉमेंटरी (टीका) करे जा रहा हूँ या गेंद उधर पहुँच भी रही है? बात समझ में आ रही है?

प्र: आ रही है।

आचार्य: तो बाज़ी अभी उनके हाथ में है। तो कुछ नया, कुछ अलग हमें करना होगा न। हम चैलेंजर (दावेदार) हैं। वो चैंपियन बनकर बैठे हुए हैं। जो चल रहा है उसको बदलो। जो चल रहा है वो उन्हीं के पक्ष में है, उन्हीं के फेवर में है। जो चल रहा है उसको चलने मत दो।

और जो चल रहा है वो हमारी व्यवस्था, हमारी आदत का हिस्सा बन गया है। तो हमें उसमें बुरा लगता नहीं, हम उसे तोड़ना चाहते नहीं, उससे तोड़ोगे नहीं तो वही छाया रहेगा, जिसे झूठ बोलते हो, जिसे नकली बोलते हो। तो आपको तो कुछ अजब ही करना पड़ेगा। कुछ विचित्र, कुछ आउट ऑफ द वे (प्रचलन से हटकर), कुछ नया, कुछ साहसिक।

जब कुछ ऐसा करोगे तो लोग तो हँसेंगे। तुम गोलकीपर को फॉरवर्ड बनाओगे, सोचो कितनी हूटिंग (तिरस्कार) होगी, वो भी तब अगर दो-शून्य का तीन-शून्य हो जाए। लोग हँस-हँस कर पागल हो जाएँगे। मीम (इंटरनेट पर मजाक) बनेंगे, सब कुछ हो जाएगा कि गोलकीपर वहाँ खड़ा हुआ है, उधर गोल हो गया।

सब कुछ हो जाएगा। होने दो, अब इज़्ज़त की क्या परवाह करनी। हार तो वैसे ही रहे हैं, बेइज्जती तो हो ही चुकी है, थोड़ी और हो जाए। पर एक मौका जीत को तो देना चाहिए न? दस मिनट की बात है। कोशिश नहीं करनी है?

प्र: करनी है।

आचार्य: तो करो न। ये बड़े अपमान की बात है कि जानते हो कि चीज़ नकली है फ़िर भी वही चल रही है, वही चल रही है। यहाँ आकर बैठ गए हो, मुझसे सवाल पूछना चाहते हो, सवाल भी नकली ही उठ रहा है। ये क्या है?

असली सवाल कोई नहीं होता। असली तो शांति होती है बस। सवाल तो सब अलग-अलग तलों पर नकली होते हैं। कोई बहुत नकली होता है सवाल, कोई ज़रा कम नकली होता है। तो हमारा काम होता है इन सवालों को काटते चलना।

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