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लेख
कल्पना, और कल्पना से आगे || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: जितनी दूर तक तुम्हारी कल्पना जा सकती है, (ब्रह्म) उससे आगे का है; और उसके आगे का हमें कुछ चाहिए, क्योंकि कल्पना जितनी भी दूर तक जाती है, अपने साथ कचरा ही लेकर वापस आती है। ब्रह्म सत्य हो न हो, हमारे लिए आवश्यक ज़रूर है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त जो कुछ है वो तो काम आता दिख नहीं रहा; और ब्रह्म सिर्फ़ उन्हीं के लिए है जिन्हें ब्रह्म के अतिरिक्त जो कुछ है वो काम आता न दिख रहा हो। ये बात समझिएगा अच्छे से।

अगर आपको संतुष्टि वहीं मिल गई है जहाँ तक आपकी कल्पना जाती है, उसी क्षेत्र में आपको मिल गई संतुष्टि, तो आपको कल्पना का फिर उल्लंघन करने की ज़रूरत क्या है? फिर ‘ अणोरणीयान् * ’ (सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद) की आवश्यकता क्या है? अणु तक तो आपकी कल्पना जा रही थी न; अणु माने समझ लो पदार्थ का वो छोटे-से-छोटा टुकड़ा जो आदमी की कल्पना में, आदमी के सिद्धांतों में आ सकता है। और महत् समझ लो समूचे अंतरिक्ष का विस्तार; वो अधिकतम है जिसकी आदमी कल्पना कर सकता है। अगर इसी विस्तार में, अगर इसी क्षेत्र में, अगर इसी * स्पेक्ट्रम ( वर्ण-क्रम) में आपको शान्ति मिल ही गई, तो ब्रह्म का क्या करना है? जो चाहते थे वो यहीं मिल गया।

ब्रह्म सिर्फ़ उनके लिए है जिनको अणु के भीतर भी खोज लेने के बावजूद चैन न मिले।

हम तो अधिक-से-अधिक यही कहते हैं न, “चप्पा-चप्पा छान मारेंगे”? अब चप्पा-चप्पा छानने में यही मतलब है कि यहाँ-वहाँ, कोने-कतरे, हर जगह देख लिया। खोजी ऐसा चाहिए जो एक-एक अणु, एक-एक एटम के भीतर भी घुसकर के खोज आए, कि, “कहीं यहाँ तो सत्य नहीं छुपा, कहीं यहाँ तो वो नहीं है जिससे मुझे शान्ति मिलेगी?” और वो वहाँ भी खोज ले और उसके बाद कहे, “नहीं मिला;” उसको मिलता है। ये वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, समझो। यूँ ही जो सस्ता विश्वास कर ले, जो ऐसी ही कही-सुनी धारणा पर चलता हो बस; उसके लिए नहीं है। पक्का अन्वेषक चाहिए, जो अणु के भीतर घुसकर खोज लाया है, और जो बिल्कुल बाहर तक निकल गया है। वो कह रहा है, “बताओ कहाँ है? बात क्या है? सच्चाई क्या है? जहाँ कहीं भी पदार्थ है मैं पूरा उसको जानना चाहूँगा।" न्यूक्लिअर-साइंस (नाभिकीय – विज्ञान) से लेकर के कॉस्मोलॉजी (ब्रह्मांड- विज्ञान) तक, सब एकसाथ शामिल हो गया इसमें।

माने ब्रह्म बस उनके लिए है जिनको सबसे पहले इस दुनिया की जानकारी गहराई से हो। और उससे मेरा मतलब सूचना इत्यादि नहीं है, कि सिकंदर ने किस साल भारत पर आक्रमण करा था; उन्हें संसार की प्रकृति का पूरा ज्ञान होना चाहिए: इस संसार का स्वरूप क्या है? नेचर क्या है इसका? प्रकृति क्या है इसकी? वो बिलकुल पता होना चाहिए। जो उतनी गहराई से पता करता है सिर्फ़ वही गहराई से निराशा पा पाता है। औरों को चूँकि गहराई से कुछ पता ही नहीं होता, तो उन्हें फिर गहरी निराशा भी नहीं होती; उनकी उम्मीद बची रहती है न। भई तुम गए ही नहीं अणु के भीतर खोजने के लिए, तो तुम अपने-आपको ये उम्मीद देकर के बहला सकते हो कि, “अणु के भीतर है न अभी। हमने वहाँ तलाशा नहीं है, वहीं पर है, तो जब जाएँगे वहाँ तो मिल जाएगा; हमने आरक्षित कर रखा है, रिज़र्व्ड है वहीं, अणु के भीतर बैठा हुआ है वो। वो तो अभी तक हम वहाँ गए नहीं! लेकिन जिस दिन जाएँगे, मिल जाएगा।" अरे तुम जाओ तो, तुम्हें वहाँ भी नहीं मिलेगा।

तो पूर्ण निराशा सिर्फ़ उनको मिलती है, जो पूर्ण खोज करते हैं। पूरी खोज करने से फ़ायदा ये नहीं होगा कि तुम्हें मिल जाएगा; पूरी खोज करने से फायदा ये होगा कि तुम्हें पूरी निराशा मिल जाएगी।

खोज पूरी होती है निराशा के पूरे हो जाने पर।

“नहीं है भाई, नहीं है।" जो आलसी लोग होते हैं वो पूरा खोजते ही नहीं; वो एक तरह की बेईमानी है, कहते हैं, “पूरा खोज लिया अगर और नहीं मिला तो बदलना पड़ेगा, मिटना पड़ेगा। इससे अच्छा ये है कि पूरा खोजो ही मत; फिर चलेगा।"

कोई कीमती गहना घर में खो गया है, घर के नौकर से कहा गया है कि खोजो ज़रा। ये रात में बहुत देर से पता लगा कि वो गहना खो गया है; मान लो कोई अँगूठी है, आधी रात के बाद पता चला, “अरे, अँगूठी कहाँ है?" नौकर सोने जा चुका था, उसे जगाया गया, कहा, “हम भी खोज रहे हैं, तुम भी खोजो।" वो खोज रहा है, थोड़ी देर में वो कहता है, “सारे कमरे खोज लिए हैं, लेकिन आज आप वहाँ लॉन (मैदान) में बहुत देर तक थे न, और आप पौधों के साथ काम भी कर रहे थे, खुर्पी लेकर गुड़ाई भी कर रहे थे, तो वो लॉन में ही होगी, मिल जाएगी सुबह; लॉन में ही होगी, सुबह मिल जाएगी।" और ऐसा भरोसा दिलाकर के वो चला जाता है सोने।

उसके लिए बहुत ज़रूरी है ये आशा बनाकर के रखना कि अँगूठी लॉन में ही कहीं इधर-उधर गिरी हुई है, सुबह मिल जाएगी। ये आशा बनाकर रखनी क्यों ज़रूरी है? ताकि वो सोने जा सके। अगर लॉन में खोज ली और नहीं मिली, फिर क्या होगा? फिर तो रात भर ढुँढाई चलेगी, सड़क पर ढुँढाई चलेगी, पूरे मोहल्ले में ढुँढाई चलेगी; रात भर सोने को नहीं पाओगे। अगर सोना है तो एक ही तरीका है; चीज़ तो मिली नहीं है, सोना फिर भी है; चीज़ मिली न हो, फिर भी चैन की नींद सोना चाहते हो तो तरीका क्या है? अपने-आपको बोल दो, “मिली तो नहीं है, पर है वहीं पर, तो जब चाहेंगे खोज लेंगे।“

लेकिन अगर तुमने खोज लिया तो मुसीबत में पड़ जाओगे, क्योंकि खोजने जाओगे, पाओगे नहीं; अँगूठी लॉन * में है नहीं, हम भरोसा यही दिलाए हुए हैं कि अँगूठी * लॉन में है। इसीलिए आम आदमी कभी भी किसी भी चीज़ को गहराई से परखता ही नहीं है। वो यही मानता है—अपने-आपको यही मनवाए रहता है, कि, “मेरे ही घर का लॉन है, और उसमें मेरी वो अँगूठी पड़ी हुई है। हाँ, अँगूठी कीमती है, लेकिन अपने ही लॉन में है, कहीं गई थोड़े ही है। जब जी चाहेगा अँगूठी उठा लेंगे, यहीं सामने लॉन में है।"

तुम जिन भी चीज़ों को कीमती मानते हो बताओ वो तुमको पूरी तरह उपलब्ध हैं या उनकी बस उम्मीद है, या कल्पना भर है? कभी परखकर देखा है, कि वो चीज़ें वास्तव में तुम्हारे पास हैं भी क्या? तुम्हारे लिए, उदाहरण के लिए, बहुत कीमती बात है -सुरक्षा। हम रिश्ते बहुत सारे बनाते ही ये सोचकर हैं कि इनसे सुरक्षा मिलेगी। हम कहते हैं, “ये सब आड़े वक्त पर हमारे काम आएँगे,” है न, क्यों? बहुत सारे लोग तो शादी भी यही बोलकर करते हैं, कि बुढ़ापे में कोई रहेगा देखभाल करने के लिए। दोस्त-यार भी ऐसे ही बनाए जाते हैं, कि कौन काम आ जाएगा। यहाँ परखा तो कभी गया नहीं है, बस अपने-आपको ये बता दिया गया है कि जब चाहेंगे हमें इनसे मदद मिल जाएगी; जब चाहेंगे लॉन से अँगूठी उठा लेंगे। नहीं मिलेगी मदद, जैसे नहीं है लॉन में अँगूठी। कोई ही होता है जो बिल्कुल परखने जाता है, कि, “मेरे रिश्ते क्या मुझे वाकई वो दे पाएँगे जो मैं इनसे उम्मीद लगाए बैठा हूँ, चुपचाप मन में?” और जब वो परखता है तो उसको पता चलता है कि, लॉन में अँगूठी नहीं है भाई!

जैसे वाल्मीकि डाकू को पता चला था। उसने परख लिया एक दिन, पत्नी को पकड़ ही लिया। कहते हैं कोई ऋषि जा रहे थे जंगल से, उनको लूटने की कोशिश करी। ऋषि बोले, “लूट ले, लेकिन जिनके लिए लूट रहा है वो तेरे काम नहीं आएँगे।" डाकू बोला, “अगर आपकी बात सही है"—वाल्मीकि बोला, "अगर आपकी बात सही है तो आपको ससम्मान जंगल से बाहर निकालने की ज़िम्मेदारी मेरी है। लेकिन अगर आपकी बात ग़लत है, तो सर कटेगा आपका।" वो उनको बोलता है, “यहीं रुको!" दो-चार लोगों से अपने वहीं पकड़वा कर बोला, “यहीं रुके रहो। मैं घर जा रहा हूँ, पता करके आता हूँ, इन्होंने जो बोला सही है कि नहीं।" घर जाता है, पत्नी को पकड़ता है, बोलता है, “बता, ये जो मैं पाप कर रहा हूँ, मेरे साथ नर्क जाएगी?" पत्नी में भी न जाने कहाँ से ईमानदारी आ गई उस क्षण, वो बोलती है, “नर्क छोड़ दो, इन सब पापों के लिए तुम जेल जाओगे, मैं तो भी साथ नहीं जाऊँगी।" पता चल गया, कि लॉन में अँगूठी नहीं है बाबा! इतने दिनों तक माने ही बैठे थे कि अपना ही लॉन है, अपनी ही अँगूठी है। नहीं है; ज़िंदगी बदल गई।

जैसे कि कोई बेटा हो, बाप मर गया हो, और एक बंद तिजोरी छोड़ गया हो बेटे के लिए। उसको बोल गया हो, “इसमें बहुत सारी सोने की ईंटें हैं, निकाल लेना जब ज़रूरत होगी।“ और अब बेटा बिल्कुल काहिल हो गया है, और जितना पैसा तिजोरी से बाहर है वो सारा फूँक रहा है, दबाकर के बिल्कुल, अय्याशी में, कुछ काम-धाम नहीं, सिर्फ़ अय्याशी। क्या भरोसा है उसको? तिजोरी में सोने की ईंट है। और तिजोरी की चाबी कहीं इधर-उधर रखी हुई है, वो खोलकर के जाँचना भी नहीं चाहता कि अंदर है कि नहीं; बाप जी बोल गए हैं तो होगा ही होगा। एक दिन कोई कोंची करता है, कि देख तो ले तिजोरी। वो खोलता है, देखता है ईंट तो है, वो ईंट ही है बस लेकिन; बाप राम ईंटें रख गए हैं दो-चार, तिजोरी के अंदर। अब ज़िन्दगी बदलनी पड़ेगी न, क्योंकि अब निराशा आ गई। वो निराशा हम आने नहीं देते, हम अपने-आपको पता ही नहीं लगने देते कि लॉन में अँगूठी नहीं है, क्योंकि उसके बाद मेहनत करनी पड़ेगी; इस लड़के को अब मेहनत करनी पड़ेगी, डाकू वाल्मीकि को ज़िन्दगी बदलनी पड़ी थी।

उपनिषदों का काम है हमें झूठ के प्रति निराश कर देना।

इतना ही मत कह दो, कि, “ये जो ग्रन्थ हैं ये तो बड़ा निराश कर देते हैं।“ साथ में ये भी बताओ किसके प्रति निराश करते हैं तुमको? झूठ के प्रति निराश करते हैं न! जो सोना तुम्हारी तिजोरी में है ही नहीं, उसके प्रति निराश करते हैं न! जब उस झूठे सोने के प्रति निराश हो जाओगे, तो फिर सम्भावना बनेगी कि अब जीवन में असली सोना कमा पाओ। समझ रहे हो न? जब लॉन में अँगूठी के होने की कल्पना से आज़ाद हो जाओगे, निराश हो जाओगे, तब संभावना बनेगी कि खोज पाओ कि वास्तव में अँगूठी कहाँ पर है। जो चीज़ है ही नहीं उसको सच मानकर के जो जी रहा हो, उसको कैसे कोई सुख मिलेगा? इसी को तो माया कहते हैं।

माया का अर्थ है: उसको अस्तित्व-मान मान लेना जो है ही नहीं; जो है ही नहीं, उसकी हस्ती को सच मान लेना ही माया है।

पचासों चीज़ें हैं जिन पर हमारा जीवन आधारित है, हम उन्हें कभी परखते नहीं। हो सकता है कि हम अपने व्यवसाय में बड़े जिज्ञासु किस्म के आदमी कहलाते हों, ज़बरदस्त तरीके के प्रश्न करते हों; कोई आप कॉर्पोरेट जॉब करते हैं, वहाँ आपका काम ही यही है कि आप गहरे, तीखे सवाल पूछें। खेद की बात ये है कि उतने ही सूक्ष्म, पैने सवाल हम कभी अपने व्यक्तिगत जीवन में नहीं पूछते, न हम उनसे पूछते हैं जो हमारे निकट के लोग हैं; और अपने-आपसे पूछने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।

समझ में आ रही है बात?

वो सवाल बहुत ज़रूरी है कि पूछे जाएँ, ताकि हम जिन झूठे आधारों पर जी रहे हैं उनसे हमें आज़ादी मिले। एक बार को झटका लगता है, निराशा होती है, अफ़सोस होता है, ज़िंदगी की नींव हिल जाती है बिल्कुल; लेकिन फिर उसके बाद नया भवन खड़ा होता है । जो चीज़ जर्जर है, उसमें तुम रह तो वैसे भी सकते नहीं, या रह सकते हो? एक जर्जर-सी इमारत है, वो खड़ी हुई है, उसको देखकर के तो ऐसा लगता है कि वो इमारत है; बाहर से हो सकता है तुमने लीपा-पोती करा दी उसमें, तो देखने से कैसा लग रहा है? कि वो भईया इमारत है, और तुम अपने-आपको ये दिलासा दिए हुए हो कि, “मेरे पास है, मेरे पास है;" वही, लॉन * में अँगूठी है। तुमने अपने-आपको दिलासा दे रखी है, ताकि तुम्हें श्रम न करना पड़े, “मेरे पास इमारत है।" रह सकते हो उसमें? जो * लॉन में अँगूठी है, उसको बेचकर के पैसा कमा सकते हो?

उस इमारत में तुम रह नहीं सकते, क्योंकि वो इस काबिल नहीं है कि उसमें रह सको। लॉन में जो अँगूठी है उसको बेचकर कुछ कमा नहीं सकते, क्योंकि लॉन में अँगूठी है ही नहीं। तो वैसे भी ये जो चीज़ है वो तुम्हारे किसी काम की तो है नहीं, तो इसको अगर ढहा दिया ऋषियों ने, तो कुछ बुरा करा तुम्हारे साथ? वो जो लॉन में अँगूठी थी जिसके प्रति ऋषियों ने तुम्हें निराश कर दिया, अरे बाबा वो थी कहाँ? पर तुम अभियोग ये लगाओगे कि, “मेरे लॉन में अँगूठी थी, और मैं तो बड़ा खुश रहता था, इन ऋषियों ने आकर के साबित कर दिया कि कोई अँगूठी नहीं है; बड़े बुरे हैं।” हैं? थी कब अँगूठी ? तुम कह रहे हो, “इन्होंने मेरी अँगूठी छीन ली।“ वो तुम्हारी कल्पनाओं में थी, तुम्हारी कल्पना छीन ली न? तुम्हारा झूठ छीन लिया, अँगूठी नहीं छीन ली, क्योंकि अँगूठी तो तुम्हारे पास कभी थी ही नहीं।

लोग आते हैं, कहते हैं, “आचार्य जी, जब से उपनिषद् पढ़े हैं, तब से वो, सम्बन्धों में दरार आने लग गई है।" अरे, दरार कैसे आएगी? हवा में कभी दरार आते देखी है? कुछ होगा तो न दरार आएगी? वो सम्बन्ध थे ही नहीं, काल्पनिक थे। दरार क्या है? तुम माने बैठे थे कि लॉन में अँगूठी है, तुम माने बैठे थे कि कोई सम्बन्ध है; वो जो तुम्हारी झूठी मान्यता थी, अध्यात्म ने वो तोड़ी है, तुम्हारा सम्बन्ध थोड़े ही तोड़ दिया अध्यात्म ने? अध्यात्म तो सुन्दर और सुदृढ़ सम्बन्ध बनवाता है। वो तो सिर्फ़ झूठ को तोड़ता है; और झूठ माने वो जो है ही नहीं। तो जो सम्बन्ध था ही नहीं, उसके न होने को अगर उजागर कर दिया उपनिषदों ने, तो तुम्हारे साथ बुरा करा कि अच्छा करा?

एक खोखली जर्जर इमारत, उसमें रंग-रोगन कराकर के तुम खुश होते रहते थे कि मैं तो देखो इस इमारत का मालिक हूँ। उससे तुम्हें मिल क्या रहा था? बस एक झूठा आश्वासन। रह सकते थे उस इमारत में? एक रात भी सो सकते थे? उसकी छत पर बैठ सकते थे? दिल-ही-दिल में तुम्हें पता तो था ही कि इस इमारत की हैसियत क्या है, उसके आस-पास भी टहलते तो ज़रा दस फ़ीट की दूरी बनाकर, कि क्या पता कब कौन-सी ईंट गिर पड़े। ऋषियों ने आकर इमारत गिरा दी; अब कम-से-कम नई नींव खुदेगी, नई इमारत खड़ी होगी। लेकिन कृतज्ञ होने की जगह हम क्या कहते हैं, “अरे! मेरा ताजमहल गिरा दिया;” ताजमहल नहीं था, हवा-महल था; महल ही नहीं था, कुछ नहीं था वो।

समझ में आ रही है बात कुछ?

असत्य के प्रति, झूठ के प्रति निराश हो जाना बहुत ज़रूरी है। जब तक झूठ से ही आशा लगी हुई है सच की, तब तक सच न तुम्हें चाहिए, न तुम्हें मिलेगा। अध्यात्म बस यही सीधे-सीधे कहता है, “बुद्धू मत बनो, कितना बुद्धू बनाते हो खुद को?” ये जैसे समझ लो कि प्रथम श्लोक है, क्या? “कितना बुद्धू बनाते हो खुद को?”

लॉन क्या है? अतिशय सूक्ष्म से अतिशय बृहद के बीच में जो कुछ भी आता है, वो लॉन है; वहाँ अँगूठी नहीं है। तो ऋषि कह रहे हैं कि, “सत्य सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, और बृहद से भी बृहदतर है;” माने तुम्हारे लॉन से बाहर है अँगूठी बाबा! ये लॉन है, जितना इस मेज की सतह है, ये क्या है? लॉन । इधर (बाईं ओर) मामला सूक्ष्म, सूक्ष्म, और सूक्ष्म होता जाता है, और उधर (दाईं ओर) मामला महत्, महत्, और महत् होता जाता है। तुम सोच रहे हो, “यहीं पर (मेज पर) है, वो जो मुझे चाहिए, मूल्यवान अँगूठी।“ ऋषि कह रहे हैं, “न। ‘*अणोरणीयान्*’: अणु से भी छोटा है; उस तरफ़ होगा (मेज के बाएँ ओर से बाहर)। या ‘ महतो महीयान् ': महत् से भी महत् है; तो उस तरफ़ होगा (दाएँ तरफ बाहर)। यहाँ (मेज पर) तो नहीं है।“ और ये (मेज) क्या है? ये हमारा संसार है, हम कह रहे हैं, “यहीं मिल जाएगा;” यहाँ नहीं मिलना है, यहाँ नहीं है; मानो तो, कि यहाँ नहीं है। “अच्छा, संसार में नहीं है, माने संसार छोड़ना पड़ेगा क्या?" नकली संसार छोड़ना पड़ेगा।

तुम जैसे हो, तुम्हारे सामने वैसी ही मेज रहेगी; तुम और मेज एक हो। ये बहुत मूलभूत सिद्धांत है, कम्प्लीट सब्जेक्टिविटी ; माने ऑब्जेक्ट कुछ होता ही नहीं, सब्जेक्ट ही सब कुछ है; विषय कुछ नहीं होता, विषयेता ही सब कुछ है। तो ये जो मेज है, ऑब्जेक्ट , ये (स्वयं के शरीर की ओर इशारा करते हुए) इस सब्जेक्ट का ही प्रक्षेपण है, प्रोजेक्शन है। तो मेज नकली है न, झूठी है न, मेज में सच नहीं है? माने कौन झूठा है? मैं झूठा हूँ। जब तक मैं मैं हूँ तब तक मेज मेज रहेगी; मेज में अगर सच नहीं मिल रहा, मतलब सच कहाँ नहीं है? मुझमें सच नहीं है। तो ऐसा नहीं कि ऋषि तुमसे कह रहे हैं कि, “इस मेज में नहीं है, दूसरी मेज ले आओ वहाँ मिल जाएगा। इस संसार में नहीं है, चलो संसार बदल लो। इस घर में नहीं है, चलो घर बदल लो। इस शहर में नहीं है, चलो शहर बदल लो।“ न, तुम जैसे हो, तुम अपने सामने अपने जैसी ही मेज रखोगे। इस मेज में नहीं मिल रहा, माने समझ लो तुम ही ग़लत हो। तो बदलना किसको है? स्वयं को। मेज के इस सिरे के पार जाना है, मेज के उस सिरे के भी पार जाना है: माने अपने सिरों के पार जाना है, अपने पार जाना है। बाहर ढूँढने से नहीं मिलेगा; कितनी भी मेजें बदलते रहो, कोई लाभ नहीं।

समझ में आ रही है बात?

तो स्वयं को बदलना होगा; अन्यथा जगह बदलते रहो, संसार बदलते रहो, कोई लाभ नहीं होगा।

और हम डरते क्या हैं? हम कहते हैं कि, “ऋषि तो कह रहे हैं संसार में है नहीं, तो क्या संसार छोड़ दें? वैराग्य ले लें? जाएँ तो जाएँ कहाँ? ऐसे तो सब लोग छोड़कर जाने लगे तो आदमी की प्रजाति का क्या होगा?" लोगों को ऐसे-ऐसे सवाल उठते हैं। संसार कोई एक चीज़ थोड़े ही होता है, तुम जैसे हो वैसा संसार है। और तुम झूठे हो इसीलिए तुम्हारा संसार भी झूठा है, और तुम झूठे हो इसीलिए तुम्हारे संसार में अँगूठी है नहीं; तुम्हें बदलना है। तुम बदलो, एक नया संसार अपने-आप खड़ा हो जाएगा, और उस नए संसार में बिल्कुल तुम्हारे जैसी और जितनी ही गुणवत्ता होगी; तुम फिर सच्चे हो तो संसार आ जाएगा सच्चा। क्या उस संसार में अँगूठी होगी? हो सकती है अँगूठी संसार में, अगर वो पहले तुम्हारे भीतर हो; ये निर्भर इस पर करता है कि तुम अँगूठी को मूल्य कितना देते हो। तुम अँगूठी को मूल्य दे दो, अपने भीतर स्थापित करलो, वो तुम्हारे संसार में—तुम्हें फिर हर जगह मिलेगी; भीतर नहीं है तो बाहर नहीं मिलेगी।

समझ में आ रही है बात?

बाहर जिन्हें नहीं मिल रही हो, वो समझ जाएँ कि बाहर मिल इसलिए नहीं रही है क्योंकि सर्वप्रथम भीतर नहीं है।

आ रही है बात समझ में?

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