आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पर गुमनाम मुद्दे
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
13 मिनट
52 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, बचपन से ऐसी शिक्षा दी जाती है कि बहुत पढ़ो, बहुत कमाओ। नौकरी-छोकरी, यही सिखाया जाता है। और फिर अभी जब पैसा कमाते हैं, तब एक परिस्थिति आती है कि सब सुख हैं, लेकिन आनंद नहीं है। तो अब सत्य कहाँ? सत्य की ओर कैसे जाएँ? अभी हम बीच में हैं, तो क्या करें?

आचार्य प्रशांत: बहुत विस्तृत सवाल है, "क्या करें?" यही पहला सवाल है, यही आखिरी सवाल भी है। किसी भी पल में, किसी भी जगह पर, किसी भी इंसान के लिए क्या करना सही है?

एकदम ज़मीनी बात करेंगे। अध्यात्म को ऐसा नहीं बना लेना है कि बहुत दूर की हवा-हवाई बात है; एकदम ज़मीन की बात। कभी भी, किसी के लिए भी सही क्या होता है?

मैंने कहा है कि हम सब शुरू तो कर ही चुके हैं। हम सबकी ज़िंदगी में कितने मुद्दे हैं? एक ही है क्या? कभी कोई भी सूची बनाते हो, तो उसमें एक से आगे नहीं जा पाते क्या? कितने मुद्दे हैं जीवन में? बहुत सारे मुद्दे हैं न?

तो क्या करें? सबसे पहले ये देखना है कि दो तरह के मुद्दे हुए जीवन में, एक वो जो हमारी सूची में मौजूद हैं मुद्दों की तरह और दूसरे वो जो हमारी सूची में मौजूद ही नहीं हैं।

कुछ मुद्दे वो हैं ज़िंदगी में जिनको हम मानते हैं कि ये एक इशू (मुद्दा) है जिसपर विचार चाहिए। कोई चीज़ है जो हमें समस्या की तरह लगती है। कुछ है जो मन में घूमता रहता है। एक तो वो क्षेत्र है।

और दूसरा हिस्सा एक और भी हो सकता है—हमे स्वीकार करना चाहिए—कि मुद्दे हों तो, पर हमें पता ना हो। मुद्दा है तो, समस्या है तो, पर हमारे दिमाग में चलती नहीं है। हमे उसका ख्याल नहीं आता। हम उसके बारे में विचार नहीं करते, ठीक है?

इन दोनों क्षेत्रों की थोड़ी-सी जाँच-पड़ताल कर लेते हैं। जिन मुद्दों को हम बोलते हैं कि ये मेरे जीवन में मौजूद हैं, अब इनमें भी कुछ भेद, कुछ वर्ग हो सकते हैं, कौन-से? एक वो मुद्दे जो समस्या की तरह हैं, पर हम उनको समस्या मानते नहीं हैं। हम उनको कुछ और ही मानते हैं—कुछ दे रखे होंगे नाम; ये चीज़ ऐसी है, ये चीज़ वैसी है। तो उनकी मौजूदगी को कभी भी हम अवांछित, गैरवाजिब नहीं कहते। हमको लगता है कि जैसे वो चीज़ हमारी ज़िंदगी में रत्न की तरह है। किसी मूल्यवान वस्तु की तरह, बहार की तरह है।

दूसरे मुद्दे वो हो सकते हैं जहाँ जो हो रहा है वो वास्तव में समस्या नहीं है, माने हमारे लिए गलत नहीं है, लेकिन हम उसका विरोध करते हैं और उसका विरोध करके उस चीज़ को हमने अपने लिए समस्या बना लिया है, ठीक है?

हम सब लोग अगर एक सूची बनाएँगे कि मेरे जीवन में, मेरे दिमाग में क्या-क्या मुद्दे चलते रहते हैं, तो आप उनके ये दो विभाजन कर पाएँगे।

इनसे ज़्यादा खतरनाक हैं वो सारे मुद्दे जो आप किसी कागज़ पर लिखेंगे नहीं, जिनके बारे में आपको पता ही नहीं है, जो कि बहुत बड़ी समस्या हैं जीवन की, पर हम उनसे परिचित ही नहीं हैं क्योंकि हमने कभी जीवन पर गहराई से ध्यान दिया नहीं—दिया भी तो ज़रा कम ही दिया। तो मुद्दा मौजूद है, समस्या मौजूद है, जैसे शरीर में बीमारी मौजूद हो, पर हमें उसका पता नहीं है।

अब इतना बड़ा विस्तार है इनके प्रश्न के उत्तर का। पूछ रहे हैं, "क्या करें?" तो किस क्षेत्र की बात करना चाहते हैं हम? किन समस्याओं के बारे में बात करें? उन समस्याओं के बारे में जिनको आप समस्या मानते हैं? उन समस्याओं के बारे में जो समस्याएँ हैं, पर जिनका आपको पता ही नहीं? उन समस्याओं के बारें में जिनको आप समस्या मानते हैं, पर वो वास्तव में समस्या हैं नहीं? उन मुद्दों के बारे में जिनको आप आपने जीवन का आभूषण मानते हैं, और हैं वो काँटे? किन के बारे में बात करें?

तो अब ज़रूरी क्या हो जाता है? ज़रूरी ये हो जाता है कि सबसे पहले ज़िंदगी को गौर से देखें, पूछें अपने-आपसे कि "चल क्या रहा है?" साधारण सवाल है न? क्या? "चल क्या रहा है?" और क्या चल रहा है, ये आपसे बेहतर कोई नहीं जानता, भाई। और आपसे बेहतर अगर कोई जानने लग जाए, तो ये आपके लिए कोई गर्व की बात नहीं। जीवन आपका, पल-प्रतिपल अनुभव आप ले रहे हैं उसका, हर छोटी-मोटी घटना से, तथ्य से परिचित आप हैं, तो आप ही बताओगे न कि चल क्या रहा है?

मुझसे भी अगर कोई मिलने आते हैं, तो मेरी उनसे घंटे भर बात होती है, तो पहले आधे घंटे, चालीस मिनट तो मैं उनको सुनता हूँ। एकदम चुप होकर ध्यान से उन्हीं को सुनता हूँ। मुझे बताइए तो सही कि चल क्या रहा है?

और ध्यान से समझिए, अगर आप ईमानदारी से अपने-आपको बता लें कि चल क्या रहा है, तो अगले बीस मिनट में भी जो मुझे बोलना पड़ता है वो मुझे बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। साफ-साफ आप देख लें कि चल क्या रहा है, तो आप ही फिर जान जाएँगे कि चलना क्या चाहिए।

तो मूल समस्या फिर क्या है? वो सारे मुद्दे जिनको हम मुद्दा मानते हैं? वो सारे मुद्दे जिनसे हम अपरिचित हैं? या मूल समस्या ये है कि हम कभी ठहरकर अपनी ज़िंदगी को शांत और निष्पक्ष तरीके से देखते नहीं? ज़िंदगी की ओर देखने की ज़रूरत भी हमें सिर्फ तब लगती है जब कोई दुर्घटना हो जाती है। कहीं जीवन में कोई विस्फोट हो गया, कुछ तोड़फोड़ हो गई, कुछ बिखर गया। तो फिर मजबूर होकर, सदमे की हालत में, कुछ समय के लिए, कुछ दिनों के लिए हम थोड़ा अंतरमुखी हो जाते हैं, अपने-आपसे पूछने लगते हैं, " व्हाट्स गोइंग ऑन इन माय लाइफ? (मेरे जीवन में क्या चल रहा है?)" ऐसा करते हैं न? लेकिन जैसे ही स्थिति में थोड़ा सुधार आता है, ये सवाल हमारे लिए फिर गैरज़रूरी हो जाता है, फिर पूछना बंद।

आम आदमी बहुत सारी बातों पर जिज्ञासा करता है, दिन में सौ बातें पूछता है। इससे ये खबर लेगा, उससे वो जानकारी लेगा, इतनी बातचीत करेगा, अखबार पढ़ेगा, टीवी देखेगा। वो जितने मुद्दों पर कोतुहल रखता है, उनमें कभी ये मुद्दा भी शामिल है कि मेरी ज़िंदगी में चल क्या रहा है? मैं आमतौर पर टीवी देखता नहीं पर पिछले दिनों देखा। न्यूज़ चैनल की स्क्रीन पर एक साथ तीन या चार स्क्रोल्स (सूचीपत्र) चल रहे होते हैं। और जो एंकर्स होते हैं, वो इतनी तेज़ गति से बोलते हैं कि साफ है कि वो आप तक अधिक-से-अधिक सूचना पहुँचा देना चाहते हैं, है न? और टीवी चैनल भी एक नहीं है, दस-बीस, शायद पचास हैं।

ये तो बड़ी अच्छी बात है कि हम सूचना के इतने प्यासे हैं, कि जानकरी को लेकर हममें इतनी जिज्ञासा है, इतना कोतुहल है। बड़ी अच्छी बात है। छोटी-से-छोटी बात टीवी स्क्रीन से हमको चाहिए। फ़लाने की गाड़ी जा रही थी, उसका टायर पंक्चर हो गया। थोड़ी देर में ये भी आया कि आगे का था या पीछे का। बात रुकी नहीं, फिर ये भी आया कि दायाँ था या बायाँ था। स्टेपनी ठीक है कि नहीं, ये भी।

बुराई कुछ भी नहीं है। बाहर के बारे में आप इतना जानना चाहते हैं, तभी तो वो टीवी चैनल आपको दिखा रहे हैं न, नहीं? कोई देखना ना चाहता, तो उनका चैनल बंद हो जाता। वो क्यों दिखा पा रहे हैं आपको? क्योंकि आपमें जिज्ञासा तो है ही जानने की। क्या जानना चाहते हैं हम? कि वहाँ चल क्या रहा है। राष्ट्रपति भवन में क्या चल रहा है, गाज़ीपुर बॉर्डर पर क्या चल रहा है, व्हाइट हाउस में क्या चल रहा है, मंगल ग्रह पर क्या चल रहा है, टेस्ला के हेड ऑफिस (मुख्य कार्यालय) में क्या चल रहा है, ये जानना है। और क्या नहीं पता?

एक चैनल लॉन्च (शुरू) करना बनता है, नहीं? जिसमें आपकी ही खबर आए। पर ऐसी टेक्नोलॉजी (तकनीक) ही नहीं जो हर आदमी को उसकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है साफ-साफ दिखा दे।

"फ्लैशिंग न्यूज़! फ्लैशिंग न्यूज़! अभी-अभी बहुत ज़ोर की जलन उठी पड़ोसी की नई कार देखकर। फ्लैशिंग न्यूज़! फ्लैशिंग न्यूज़!" आता ही नहीं, आता है? "ब्रेकिंग न्यूज़! ब्रेकिंग न्यूज़! अभी-अभी फ़लाने ने किचन में कटोरा तोड़ दिया। ब्रेकिंग न्यूज़!" अब ज़रूरी क्या है ज़्यादा आपके लिए: गाज़ीपुर बॉर्डर और व्हाइट हाउस में जो चल रहा है वो, या आपकी ज़िंदगी में जो चल रहा है वो? बोलिए।

प्र: ज़िंदगी का।

आचार्य: और उसका तो हमें कुछ पता नहीं। कैसे पता चले? ना कोई वेबसाइट है, ना कोई टीवी चैनल है। ना कोई किताब है जिसमें मेरी ज़िंदगी का हाल लिखा हो, "मेरी ज़िंदगी।" बड़ा अपमान है हममें अपनी ही ज़िंदगी के प्रति। बाकि सब जानना ज़रूरी है, बिलकुल विस्तार में जानना ज़रूरी है, बारीक बिंदु भी पता होने ज़रूरी हैं। और अपनी ज़िंदगी का तो मोटा हालचाल भी नहीं पता होता।

सुना है कभी-कभी हम कहते हैं कि, "पता नहीं क्यों आज सुबह से मूड (मिज़ाज) खराब है"? ये आप क्या कह रहे हैं? "पता नहीं क्यों सुबह से मूड खराब है।" किसको पता होगा? आपको नहीं पता, तो किसको पता होगा? और इससे अव्वल दर्जे की अनभिज्ञता नहीं पता चलती अपने ही मन के बारे में? मूड ऐसे ही तो खराब होता नहीं; बात तो कुछ है। इतना अज्ञान अपने ही विषय में?

नतीजा बताता हूँ। नतीजा ये है कि जब हम नहीं जानते कि हम कौन हैं, हमारा क्या चल रहा है, हमें क्या चाहिए, तो फिर हमें ये भी नहीं पता होता कि बाहर भी किन चीज़ों की जानकारी होना ज़रूरी है, किन चीज़ों की गैरज़रूरी है। बाहर भी जो कुछ चल रहा है, उसमें से काफी कुछ ऐसा है जो आपको पता होना चाहिए, पर बहुत कुछ ऐसा है जो बिलकुल शूद्र है, ट्रिविया (तुच्छ बातें)। उसकी जानकारी होनी बिलकुल ज़रूरी नहीं है, बल्कि घातक है क्योंकि वो जगह घेरता है दिमाग में। नतीजा? बेकार-से-बेकार चीज़ हमको दुनिया-जहान की पता है, लेकिन दुनिया में भी जो चीज़ें जानने लायक हैं वो हमें नहीं पता हैं। पाँच फूहड़ टीवी एंकर होंगे, उनके नाम आपको पता होंगे। पांच समकालीन वैज्ञानिकों के नाम मैं आपसे पूछूँ, आप बता नहीं पाएँगे।

जब हमें अपनी ज़िंदगी का कुछ नहीं पता, तो फिर बाहर भी क्या चीज़ जानने लायक है, हमें वो भी नहीं पता। और इसमें कोई आपकी सहायता नहीं कर सकता। ये तो गड़बड़ हो गई। शिविर के पहले ही सवाल में मैने तो हाथ खड़े कर दिए। कोई सहायता नहीं कर सकता आपकी अगर आपको नहीं पता आपकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है। मैं तो बेबस हूँ, मैं तो आप ही से पूछूँगा। आप बता देंगे, फिर मैं उसमें कुछ, थोड़ा-बहुत… बाकी तो सब आपको ही करना है।

तो ये जो आप यहाँ समय बिताएँगे—कुछ लोग तीन दिन को आये हैं, कुछ लोग मुझको बताया गया है कि हफ्ते-हफ्ते का कार्यक्रम भी बनाकर आए हैं। ठीक है, बाहर का तो वैसे भी बहुत घूम-घाम लिया है, देख लिया—बहुत लोग आपमें से विदेश यात्रा भी कर चुके हैं, कुछ लोग विदेशों से भी आएँ हैं—थोड़ा भीतर, अंतर्गमन। और अंतर्गमन का मतलब ये नहीं कि आँख बंद करके आत्मा वगैरह के दर्शन कर रहें हैं। यहाँ बहुत इस तरह का चलता है माल ऋषिकेश में। बाईं आँख बंद करके लाल आत्मा, दाईं बंद करके पीली आत्मा।

आपकी ज़िंदगी के स्तम्भ क्या हैं? आपकी ज़िंदगी के स्तम्भ हैं आपका कारोबार, आपका परिवार, और आप अगर किसी विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, तो आपकी विचारधारा से सम्बंधित जो भी गतिविधियाँ हैं। यही सब तो, और क्या है? जो लोग आध्यात्म में गहरी रूचि रखते हैं, उनके लिए कुछ आध्यात्मिक प्रश्न। इन मुद्दों पर अपने-आपसे पूछिए, "चल क्या रहा है?" और जब जिज्ञासा गहरी होती है, तो उत्तर में भी गहराई रहती है। मुझे आनंद आता है। नहीं तो फिर सवाल ऐसे ही आएँगे कि "मैं क्या करूँ?" ये सवाल है। "आचार्य जी, मैं क्या करूँ?" तुम एक काम करो। छोड़ो।

समझ रहे हैं बात को? जो बात मैं कह रहा हूँ देखिए वो फैशन की नहीं है, वैसा कोई करता नहीं। आप गंभीर हैं, शांत हैं, जीवन पर थोड़ा मनन कर रहें हैं, तो आपके आसपास वालों को थोड़ा अजीब-सा लगेगा। उसकी वजह है। वजह ये है कि हमारे जीवन की सारी व्यवस्था हमारी गहराई का ही प्रतिबिंब होती है। अगर हम गहरे हैं, तो हमारे जीवन की व्यवस्था उसी हिसाब से बनती है सारी। आसपास कौन-से लोग हैं, हम क्या काम कर रहे हैं, क्या रिश्ते बनाए, सबकुछ। और अगर हम उथले हैं, तो उसी हिसाब से हमारे आसपास लोग इकट्ठा होते हैं, सारा ढाँचा निर्मित हो जाता है।

तो जब आप गहरे प्रश्न करने लगते हैं—और गहरे से मेरा मतलब ये नहीं कि उसमें कोई बहुत बौद्धिक गतिविधि करनी पड़ती है; गहरे से मेरा मतलब है सरल और ईमानदार; साफ, सपाट, सीधा, और ईमानदार सवाल। जब आप ये करने लगते हैं, तो आपके आसपास के ढाँचे को खतरा हो जाता है। तो लोग फिर आपत्ति करने लगेंगे क्योंकि वो लोग जुड़े ही आपके उथलेपन से हैं, जैसे कि कोई रिश्ता बना ही बेहोशी में हो। आप होश में आने लगोगे, उस रिश्ते को खतरा हो जाएगा। और रिश्ते से मेरा मतलब ये नहीं कि किसी इंसान की बात है; चीज़ें भी। आप बेहोशी में बाज़ार जाकर कोई चीज़ खरीद लाए अपने लिए, एकदम बेहोशी में। अगले दिन होश आ गया, उस चीज़ का कोई इस्तेमाल बचेगा आपके पास? वो चीज़ अगर जीवित होती तो बुरा मानती आपके होश में आने का। वो कहती, "ये होश में आ गए, अब इनका मुझसे कोई नाता ही नहीं बचा। ये होश में क्यों आ गए?"

तो फ़ैशनेबल (प्रचलित) नहीं है ध्यान। यही ध्यान है: अभी जो हम बात कर रहे थे न, इसी को ध्यान कहते हैं। लोग नहीं करते, एकदम प्रचलन में नहीं है। पर करना चाहिए, अच्छा रहता है। लगातार करना चाहिए, नहीं? मैं समझता हूँ आप करते होंगे, अन्यथा यहाँ आप होते नहीं।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें