आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
दूसरे क्या सोचेंगे, दुनिया क्या कहेगी?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
43 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मैं जब अपनी ज़िन्दगी के बीते सालों को देखता हूँ तो दिखता है कि बहुत कुछ किया जा सकता था पर दूसरे क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, ये ख़्याल कर-करके मैंने कुछ किया नहीं। और आपका जीवन देखता हूँ तो पाता हूँ कि आपने सब कुछ लीग (संघ) से हटकर किया, कोई नायाब काम करने से कभी डरे नहीं। आपने लाइफ एजुकेशन (जीवन शिक्षा) जैसे काम को कॉर्पोरेशन के साथ जोड़ दिया, सन दो हज़ार छह में यूपीएससी छोड़ दिया, बिना ख़्याल करे कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। कृपया समझाएँ कि ये दूसरे क्या सोचेंगे इत्यादि बीमारियों से कैसे बचूँ? कैरियर में लीग से हटकर कुछ एकदम नया आज़माने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ? आपने तो अपनी युवावस्था में ही सीधे उपनिषद् पढ़ाने की संस्था शुरू कर दी थी, उतनी तो मेरी सामर्थ्य नहीं पर मैं कविता और शायरी लिखता हूँ। मैं कैसे इसे ऊँचे-से-ऊँचा करके अपना कैरियर बनाऊँ?

आचार्य प्रशांत: तो दो बातें पूछी हैं; 'दूसरे सोचेंगे क्या?' इस बीमारी से कैसे बचूँ और कैरियर में कुछ एकदम अलग करने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ। देखो, कुछ बिलकुल ज़मीनी बातें हैं जिन्हें तुम जानते हो, मैं बस उनकी ओर तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करूँगा। जब किसी का भला करने जा रहे होते हो तो क्या ये ख्याल करते हो कि वो क्या सोचेगा? जब किसी का भला करने जा रहे होते हो तब भी क्या घबराते हो, कि, "अरे वो क्या सोचेगा मैं उसका भला करने जा रहा हूँ"?

दूसरी बात, जब किसी के मानसिक स्तर से ऊपर उठकर तुम कोई काम करते हो, साधारण, औसत मानसिक स्तर से ऊपर उठकर, तो क्या ख्याल करते हो कि सामने वाला व्यक्ति क्या सोचेगा? उदाहरण के लिए, बच्चों के बीच बैठकर तुम कुछ कर रहे हो जो बच्चों की समझ में बिलकुल नहीं आ रहा। हो सकता है तुम जो कर रहे हो वो बच्चों के लिए कुछ अजूबा सा हो, बच्चों के लिए कोई मज़ाक की बात हो, तब क्या तुम्हें ये खयाल आता है कि, "बच्चे क्या सोचेंगे मेरे बारे में"?

तीसरी बात, जब तुम कुछ ऐसा कर रहे होते हो जो तुम्हारे ह्रदय के बहुत निकट का होता है, जो तुम्हें इतना प्यारा होता है कि उसको किए बिना तुम जी नहीं सकते, क्या तुम तब भी यही विचार कर रहे होते हो कि दूसरे क्या सोचेंगे? क्या उस पल में दूसरे तुम्हारे विचार में होते भी हैं, कोई महत्व रखते भी हैं?

तो ये तीन बातें मैंने कही, इन तीनों बातों को एक साथ समझिए। दूसरे को लेकर झिझकना या शर्माना, कुछ लज्जित सा, कुंठित सा अनुभव करना तो तभी होता है जब दूसरे से कुछ नोचने खसोटने जा रहे हो, दूसरे को धोखा देने जा रहे हो। तब ज़्यादा भीतर से आत्मग्लानि उठती है कि, "अरे मैं इतना नीच काम कर रहा हूँ, वो क्या सोचेगा मेरे बारे में? मैं उसी का अपहित करने जा रहा हूँ, वो क्या सोचेगा मेरे बारे में? कुछ गलत ही करने जा रहा हूँ न मैं उसके साथ?? और तुम जानते हो कि तुम जो करने जा रहे हो वो दूसरे के लिए ठीक नहीं है। तो इस कारण से तुम्हारा मन तुमको धिक्कारता है, तुम अपनी ही नज़रों में गिर जाते हो और सोचते हो दूसरा क्या कहेगा। अगर जो तुम करने जा रहे हो उसमें दूसरे का या सबका भला ही है तो मुझे ये बात तो फिर भी थोड़ी प्राकृतिक लगेगी कि तुम कहो कि, "मुझे दूसरों से यश, सम्मान कितना मिलेगा।" लेकिन ये विचार फिर क्यों आएगा कि, "मुझे दूसरों से धिक्कार, या अपकीर्ति या निंदा कितनी मिलेगी"?

तुम तो भाई दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने जा रहे हो न, तो अगर तुम्हें दूसरों से कुछ पाने की आशा है भी तो वो चीज़ होगी प्रशंसा। तुम्हें ये आशंका क्यों होगी कि दूसरों से निंदा या दुत्कार मिलेगी? अगर तुमको ये आशंका है कि दूसरों से तुमको निंदा या उपहास मिलने वाला है तो इसका मतलब है कि तुम जो करने जा रहे हो वो कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी तल पर दूसरों के लिए घातक है।

भई जब तुम कहते हो कि, "मैं यही सोचता रह गया दूसरे क्या सोचेंगे", तो दूसरे क्या सोचेंगे ये सिर्फ प्रश्न ही थोड़ी रहा होगा तुम्हारे मन में। इस प्रश्न का तुम्हारे मन में एक संभावित उत्तर भी था और वो उत्तर ये था कि दूसरे बुरा सोचेंगे। तुम कभी ये थोड़े ही कहते हो कि, "दूसरे क्या सोचेंगे? कहीं बहुत अच्छा न सोच लें मेरे बारे में", ऐसा भी सोचते हो क्या? जब तुम कहते हो, "दूसरे क्या सोचेंगे?" तो आशंका ये ही तो रहती है कि दूसरे बुरा सोचेंगे। अब दूसरे बुरा क्यों सोचेंगे? ज़रूर तुम्हारे पास कोई कारण है कि दूसरे तुम्हारा बुरा सोचें, ज़रूर तुमने उन्हें कोई कारण दिया है कि वो तुम्हारा बुरा सोचें। और कारण तो एक ही होता है कोई तुम्हारा बुरा सोचे, उसका कोई नुकसान कर रहे होंगे। हो सकता है कि सीधा, प्रत्यक्ष नुकसान न कर रहे हो, हो सकता है कि छुपा-छुपा कोई नुकसान कर रहे हो।

नुकसान कई तरीके के होते हैं। नुकसान ये ही नहीं होता कि तुम गए और तुमने किसी का रुपया-पैसा छीन लिया। नुकसान ये भी होता है, उदाहरण के लिए, कि तुमने किसी के साथ कोई वादा किया, एक समझौता, एक अनुबंध और वो तुमने तोड़ दिया, तो फिर तुम कहते हो, "अरे! ये दूसरा क्या सोचेगा?"

उदाहरण के लिए एक बहुत सामान्य समझौता होता है घरों में कि, "हम तुमसे कुछ तरह की सुविधाएँ ले रहे हैं और उन सुविधाओं के एवज में अब हम काम वो करेंगे वो तुम चाहते हो।" बाप-बेटे के बीच में ये अनुबंध हो सकता है कि बेटा हो गया पच्चीस साल का, अट्ठाइस साल का और बाप एक स्थापित व्यापारी है और बेटा बाप की रोटियाँ तोड़ रहा है और एक अलिखित दोनों के बीच में समझौता है कि बेटा बाप की रोटियाँ तोड़ेगा, बाप बेटे को रोटियाँ, पैसा, सुविधाएँ, विलासिता का साज-सामान, ये सब मुहैया कराता रहेगा। इसके बदले में बेटा क्या देगा बाप को? अपने कैरियर पर पूरा नियंत्रण। अब ये समझौता है। समझौता क्या है? "आप मुझे पैसा देते रहोगे, सुविधाएँ देते रहोगे, मैं आपके घर में रहूँगा, मैं छब्बीस का हो गया, मैं अट्ठाइस का हो गया लेकिन मैं आपके ऊपर बिलकुल बोझ की तरह हूँ, पर आप मुझे ये सब दे रहे हो, बदले में आप भी मुझसे कुछ चाह रहे होगे। तो मैं बदले में आपको क्या दे रहा हूँ? अपने जीवन पर, अपनी आजीविका पर, शादी-ब्याह के अपने निर्णय तक पर, और निश्चित रूप से, अपने कैरियर पर पूरा अधिकार। आप जैसा बोलोगे मैं वो करूँगा। जिधर को आप कहोगे यहाँ नौकरी कर लो, यहाँ धंधा कर लो, मैं वो सब कुछ करूँगा।"

अब अगर तुम निकल पड़ो कुछ अलग ही करने के लिए जो तुम्हारी पिता की अपेक्षाओं के विपरीत है तो निश्चित रूप से तुम्हारे मन में खयाल आएगा कि, "पिता क्या सोचेंगे, पिता क्या बोलेंगे?" क्योंकि तुमने धोखा तो किया ही है।

वो करार किसी भी स्तर का रहा होगा लेकिन था तो था ही। तुम ये कह सकते हो कि ये एक घटिया स्तर का समझौता था। घटिया हो चाहे ऊँचा हो, समझौते पर दोनों ही पक्षों के अदृश्य हस्ताक्षर थे, थे कि नहीं? और एक पक्ष ने तो अपनी तरफ का काम पूरा करा। पिता ने तो अपनी ओर से जितने पैसे देने थे और जो कुछ भी सुविधाएँ थीं, पूरी दी। और जब बेटे की बारी आई तो बेटा बोला, "नहीं, मैं तो जा रहा हूँ, मैं कुछ और करूँगा।" तो भले ही वो एक घटिया किस्म का समझौता था लेकिन फिर भी उसमें फरेब तो हुआ है। तो फिर आप डर जाते हो।

इसी तरीके के सामाजिक, पारिवारिक समझौते, कॉन्ट्रैक्ट्स , हम सबसे करके रखते हैं। ये हम सिर्फ पिता से ही नहीं करके रखते, ये हम दोस्तों से भी करके रखते हैं, रिश्तेदारों से भी करके रखते हैं, जो हमारे इर्द-गिर्द व्यापक समाज है उससे भी हम करके रखते हैं।

देखो एक बात समझना। जिससे तुम्हारा कोई लेना देना न हो, उसके मत की तुम एक रत्ती परवाह नहीं करोगे। जिससे तुम्हें कोई अपेक्षा न हो, जिससे तुम्हारा कोई रिश्ता न हो, वो तुम्हारे बारे में क्या सोचता है, क्या कहता है, इसकी तुम्हें कोई फ़िक्र होगी ही नहीं। तुम्हें अगर बहुत फ़िक्र होती है कि लोग क्या कहेंगे, इसका मतलब ये है कि जिन लोगों के कहने की तुमको इतनी चिंता हो रही है, उन लोगों से तुमने कुछ ले रखा है। ले रखा है और बदले में तुमने उन्हें जानते हो दे क्या रखा है? क्या दे रखा है तुमने उन्हें बदले में? अपने जीवन पर अधिकार। तुमने उन्हें अपनी मुक्ति की बागडोर दे रखी है। ये हमने सभी के साथ कर रखा होता है। वो तो एक छोटा सा उदाहरण था बाप-बेटे का जो लिया मैंने, अन्यथा ये हम करते सभी के साथ हैं।

उदाहरण के लिए, तुम मुझे सम्माननीय कहोगे, ये हमारा आपसी समझौता है। तुम मुझे कहोगे कि मैं सम्माननीय हूँ और बदले में मैं तुम्हें वैसा ही आचरण दिखाऊँगा जैसी तुम्हारी उम्मीद है, ये आपसी समझौता है। मैं आचरण वैसा करूँगा जैसी तुम्हारी उम्मीद है मुझसे और बदले में मैं तुम्हें जब भी मिलूँगा तुम मुझे नमस्कार करोगे और अपने आसपास के लोगों से भी बोलोगे कि ये फलाने साहब, ये तो बढ़िया आदमी हैं, इज़्ज़तदार आदमी हैं।

अब तुम किसी से इज़्ज़त तो लिए जा रहे हो लेकिन पीछे से काम तुम वो कर ही नहीं रहे जिसकी वो तुमसे उम्मीद करता है। तुम अपनी मुक्ति में, स्वच्छन्दता में, स्वेच्छा में अपने अनुसार कुछ कर रहे हो, भले ही इस कारण ऐसा कर रहे हो कि तुम में कुछ आध्यात्मिक पर लग गए हैं, वजह जो भी हो। हो सकता है कि उस व्यक्ति से अनुबंध में तुमसे जिस स्तर का आचरण अपेक्षित हो, तुम उससे ऊपर के स्तर का आचरण दर्शा रहे हो, लेकिन तुमने उससे ऊपर के स्तर का भी आचरण दर्शाया तो करार तो तोड़ दिया न?

आप समझ रहे हैं बात को? आपका मेरा करार है कि आप मुझे कहेंगे कि मैं बहुत आदरणीय हूँ और बदले में मैं जो आचरण करूँगा वो एक तल का करूँगा, और ये तल आपकी अपेक्षाओं पर बिलकुल सही बैठता है। आप चाहते हो कि मैं ऐसा आचरण करूँ, आपके अनुसार यही आचरण सही है, यही आचरण सम्मान के काबिल है। तो मैं इस एक तल का आचरण करूँ और आप मुझे क्या देते रहेंगे? सम्मान। अब मुझमें ज़रा आध्यात्मिक प्रकाश आ गया कहीं से दुर्घटनावश और मैं आचरण दिखाने लग गया इस ऊँचे तल का। अब कहने को तो इस तल का आचरण ऊँचा है पिछले तल से लेकिन फिर भी मैंने समझौता तो तोड़ दिया न।

तो अब लगेगा कि, "अरे, क्या बताऊँ, वो क्या कहेगा।" तो हम ऊँचा आचरण भी जो करेंगे छुपा-छुपा कर करेंगे फिर। लोग अपने ऐब और फरेब छुपाते हैं, हम अपनी अच्छाइयाँ छुपाएँगे। लोग अपराधी अनुभव करते हैं जब उनमें कोई दोष होता है, तुम अपराधी अनुभव करोगे क्योंकि तुम निर्दोष होते जा रहे हो।

हम सोचते हैं कि किसी के भीतर अपराध भाव तब जागता है जब वो गिर जाता है, ऐसा नहीं है साहब। जिन लोगों के साथ आपने ये सामाजिक स्तर का करार कर रखा होता है, उनके सामने आप में अपराध भाव तब जागता है जब आप उठ जाते हैं। मेरी बात को अपने अनुभव की कसौटी पर परखिएगा, आपको बात बिलकुल सही नज़र आएगी। अपने निकटस्थ लोगों से हम सबने ऐसा करार कर रखा होता है। और अध्यात्म में जहाँ आप आए नहीं कि आपकी मुश्किलें बढ़ जाती हैं। आप भलीभाँति जानते हैं कि आप पहले से बेहतर हो रहे हैं लेकिन जिनके साथ आपका समझौता था, उनकी दृष्टि में बात ये नहीं है कि आप बेहतर हो रहे हैं या बदतर हो रहे हैं, उनकी दृष्टि में बात ये है कि आप वैसे क्यों नहीं हैं जैसे आप थे। समझौता तो ये हुआ था न कि, "तुम ऐसे रहोगे तो मैं तुम्हें ये सब दूँगा।" अब तुमने वो सब ले तो लिया, लेते ही गए और तुम हो कुछ और गए, ये नहीं चलेगा भाई। तो इसलिए हमारे भीतर ये बड़ी ग्लानि रहती है कि हमने समझौता तोड़ा है। जब आपके भीतर ये ग्लानि उठे तो अपने आप से पूछिएगा ये समझौता क्या आपने सामने वाले का अहित करने के लिए तोड़ा है। नहीं न?

किसी भी समझौते में मूल बात क्या होती है? दोनों पक्षों के हित की सुरक्षा, ठीक? दो पक्ष हैं जो मिल रहे हैं, व्यवहार कर रहे हैं आपस में, दोनों के हितों की सुरक्षा होनी चाहिए। तो आप अब जैसे हो रहे हो, आप जो काम धंधा करने जा रहे हो, ये जो बातें आप समझ रहे हो, उसके फलस्वरूप सामने वाले का हित बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं। ये बात आप अगर याद रखें तो फिर आपके भीतर ग्लानि भाव नहीं आएगा। नहीं तो आएगा, तगड़ा आएगा।

और बहुत लोग अध्यात्म को लेकर ही लज्जित रहते हैं। वो कहते हैं कि, "मैं आध्यात्मिक भले ही हो गया पर देखो न, वैसा तो नहीं रहा न जैसे इसके साथ पहले हुआ करता था।" और आपको ताना भी ये ही मारा जाता है।

एक आए साहब, वो बोले कि "वो अब बोला करती है। कहती है, अब हो गए होगे तुम बहुत ऊँचे लेकिन पति का स्थान ज्ञानी थोड़ी ले सकता है? मुझे वो लौटा दो जिसके साथ मैं ब्याही थी। वो कहाँ गया? उसको तो तुमने मार दिया न? धोखा किया न मेरे साथ?" और बात इतनी तार्किक लगती है कि कलेजा धक् से हो जाता है कि, "बात तो बिलकुल सही है, ये तो इसके साथ बेवफाई कर दी मैंने। ये जिसको ब्याह के आई थी वो तो अब मैं रहा नहीं तो ये तो मैंने धोखा कर दिया न। ये तो मैंने समझौता तोड़ दिया। ये गलत हो गया।"

ये बिलकुल वैसे ही गलत हो गया कि जैसे कोई जनरल के डब्बे का टिकट ख़रीदे और आप उसको फर्स्ट एसी में बैठा दो, ये उतना ही बड़ा अत्याचार है। लेकिन साहब आदत तो आदत होती है। अब किसी को अगर गू गलीदर सूंघने की आदत लगी हुई है कि वहीं बैठेंगे और (सूंघेंगे), "आहाहा पसीने का शबाब उठ रहा है और उस भारतीय रेल के ज़बरदस्त शौचालय का इतर उठ रहा है और वो जब हमारे फेफड़ों में पहुँचता है तो कोरोना आत्महत्या कर लेता है अंदर।" आदत लगी हुई है उसी चीज़ की तो फिर उसके सामने प्रथम श्रेणी वातानुकूलित भी बहुत बेकार नज़र आता है कि, "ये क्या है, बेकार! कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, आहाहा!" ऐसी ज़्यादातर लोगों की आदत है। अभी हँस रहे हो क्योंकि बात को मैंने बहुत स्थूल करके बता दिया, पर सूक्ष्म रूप से रिश्तों में ऐसा ही होता है।

तो हमेशा पूछ लिया करो अपने-आपसे, "मैं जो कर रहा हूँ, उसमें इनसे कुछ छीन रहा हूँ क्या? वास्तव में कुछ छीन रहा हूँ क्या? और अगर नहीं छीन रहा तो इनके पास ये हक़ तो है ये टिप्पणी करें मेरी प्रशंसा करने के लिए, पर इनके पास ये अधिकार बिलकुल नहीं है कि ये मुझे ताना मारें मेरी निंदा करने के लिए।"

"तुम्हें, पहली बात तो, मेरे बारे में कुछ कहना नहीं चाहिए और अगर तुम्हें मेरे बारे में कुछ कहना भी है तो तारीफ करो हमारी", और आप हैं तारीफ के काबिल।

अगर आप एक सच्ची ज़िन्दगी जीना चाहते हैं, मुक्ति का आपने रास्ता लिया है आजीविका के लिए, तो हक़ है आपका कि आपको तारीफ़ मिले। आप प्रशंसा के अधिकारी हैं। "चलो तुम्हें प्रशंसा नहीं भी करनी मत करो, कोई बात नहीं, लेकिन हमने ऐसा कुछ नहीं करा है कि तुम निंदा करोगे हमारी, बिलकुल ऐसा कुछ नहीं करा है।"

दूसरे को अपनी निंदा करने का हक़ देकर के आप अपनी आध्यात्मिक उन्नति का रास्ता रोक देते हैं। देखिए, कोई मुँह चला रहा है उसका मुँह तो आप नहीं रोक सकते। जब मैं कह रहा हूँ, "दूसरों को अपनी निंदा करने का हक़ न दो", तो वास्तव में मेरा आशय है कि दूसरे की निंदा को अपने मन पर प्रभाव डालने का हक़ मत दो, ये आशय है मेरा। वो कर तो सकता ही है, दुनिया में आप क्या कर लोगे किसी को रोक कर। अपने मन पर उसका असर मत पड़ने दो, वो बोल रहा हो तो बोले। तुम्हें पता होना चाहिए कि अगर वो बोल रहा है तो वो गलत कर रहा है तुम्हारे साथ, तुमने कुछ नहीं गलत किया उसके साथ। तुम क्यों अपनी नज़रों में अपराधी बन रहे हो? तुमने कोई अपराध किया ही नहीं, अपराध वो कर रहा है।

तो ये तो पहली बात हुई। दूसरी, मैंने कहा कि अगर बच्चे हों कुछ और तुम कुछ कर रहे हो और बच्चे तुम पर फब्तियाँ कसें और ताने मारें, तो तुम्हें कोई अंतर पड़ता है क्या? अगर तुम वाकई आश्वस्त हो कि तुम कैरियर में कोई ऊँची चीज़ करने जा रहे हो, तो तुमने ये जो चुनाव है वो चेतना के एक ऊँचे स्तर पर करा है न? चेतना का जो औसत स्तर होता है उसपर तो सभी जानते हैं कि जहाँ नाक समाए वहीं घुस लो। ये भी मत देखो कि हमें क्या आता है, क्या नहीं आता है, कहाँ हमारा दिल लगेगा, कहाँ नहीं लगेगा। ये तक मत देखो कि हम जिस इंडस्ट्री (उद्योग) में जा रहे हैं उसमें प्रदूषण कितना है या कि वहाँ जालसाज़ी, फरेब कितना है, कुछ मत देखो। जहाँ पैसा मिलता हो वहीं घुस लो, ये चेतना का औसत स्तर होता है। और जहाँ घुस गए हो वहाँ से कहीं पर पाँच-सौ रूपए ज़्यादा मिलते हों तो फट से उठाकर के वहाँ भाग जाओ। ये चेतना का औसत स्तर है। तुमने अगर इससे ऊपर जाकर के अगर जीवन में कोई फैसला करा है तो तुम ऊँचे उठे न भाई, ऊँचे उठे न? तुम्हें नाज़ होना चाहिए न अपने ऊपर कि, "मैं ऊँचा उठा हूँ!" तुम अगर ऊँचे उठे तो बाकी सब जो तुम्हारे आसपास हैं वो तुम्हरी अपेक्षा?

प्र: नीचे हैं।

आचार्य: मैं तुम्हारा अहंकार बढ़ाने के लिए ये सब नहीं बोल रहा हूँ कि तुम कहो, "मैं ऊँचा उठ गया, बाकी सब नीचे हैं और मैं महान हूँ, वो सब नहीं है।" पर तथ्य तो तथ्य होता है। चेतना का ऊँचा स्तर भी एक तथ्य है और चेतना का गर्हित स्तर भी एक तथ्य है, ये तो है न? तुम जानते हो अपने ही भीतर कि कभी तुम्हारी ही चेतना ऊँचाइयों पर होती है और कभी तुम ही तमाम तरह के माया और फरेबों में फँसकर के चेतना का स्तर अपना बहुत गिरा लेते हो। तो जानते हो कि निचला स्तर भी कुछ होता है और ऊँचा स्तर भी होता है, ये काल्पनिक बाते तो नहीं। तो तुम ऊँचे स्तर पर बैठे हो, तुम्हारे आसपास के लोग निचले स्तर पर हैं, तुम ये बात अगर समझते हो तो अपने आप को श्रेय दो न। अपने पर थोड़ा गौरव होना चाहिए, गर्व होना चाहिए।

अब वो आसपास जो हैं तुम्हारे, इसीलिए मैं उनको कह रहा हूँ कि, वो बच्चे समान हैं क्योंकि उनकी चेतना का स्तर नीचे है। अब वो तुम्हें कुछ बोल भी रहे हैं तो तुम अधिक-से-अधिक हँस सकते हो। जब तक वो कुछ ऐसा बोल रहे हैं जिससे मनोरंजन होता हो, तो हँस लो, बच्चे मनोरंजक होते हैं। बच्चे अगर तुम पर ताना भी कसें तो कई बार वो बात बड़े प्रहसन की हो जाती है, आप हँस रहे हो, "हाहाहा, ठीक है भई, बच्चा है कुछ बोल गया।" लेकिन वो बच्चा ज़्यादा उधम मचाए, तुम्हारे ऊपर चढ़े, तुम्हारे कान खींचे, तुम्हारे बाल नोचे तो लगाओ एक चाँटा, "भाग यहाँ से!" ये थोड़े ही है कि बच्चे ने आकर बोल दिया "बेवकूफ, बेकार।" और तुम्हारे भीतर बिलकुल मंथन शुरू हो गया, भूचाल आ गया और तुम्हें लग रहा है कि कहाँ जा कर डूब मरुँ। अरे वो बच्चा है, उसे क्या समझ में आ रही है बात?

लेकिन शारीरिक रूप से बच्चे तुम्हारे इर्द गिर्द हों और तुम्हारे प्रति बेवकूफी के लांछन लगा रहे हों, व्यर्थ की टिपण्णियाँ कर रहे हों तो शायद तुम पर अंतर नहीं पड़ता है क्योंकि तुम्हें दिखाई पड़ता है शारीरिक रूप से कि वो है तो छोटे-छोटे बच्चे, शरीर छोटा है उनका। शरीर छोटा है उनका तो इसलिए तुम उनकी बात को नज़रअंदाज़ कर देते हो, कर देते हो न? लेकिन ये बात तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल हो जाती है जब कोई पचास-साल, साठ-साल का स्त्री या पुरुष तुम्हारे सामने हो और तुम पर लांछन, अभियोग लगा रहा हो। तब तुम्हें दिखाई ही नहीं देता है कि उम्र इसकी पचास-साठ की है पर दिमाग से ये आठ ही दस साल का है बिलकुल, इसकी बात का क्या बुरा मानना। बिलकुल भूल जाते हो। तब तुम कहते हो, "अरे नहीं ये तो देखो न अच्छा बढ़िया, मस्तमौला अस्सी किलो का वयस्क है, प्रौढ़ है, बल्कि उम्र में हमसे ज़्यादा ही है।" और उसने जहाँ अपनी उम्रदराज़ आवाज़ में अपने दो-चार डायलॉग सुनाए नहीं कि तुम बिलकुल भीतर से अपने ही प्रति अपमान से भर जाते हो कि, "अरेरेरे, अगर इन्होंने बोल दिया तो फिर तो हम कहीं के नहीं रहे।"

अध्यात्म के मूलभूत सूत्रों को भुलाने में तो हम सिद्धस्थ हैं। मूलभूत सूत्र होता है कि शरीर नहीं हो तुम, बार-बार कहता हूँ न? चेतना हो तुम, और तुम वो चेतना हो जिसकी एकमात्र योग्यता ये है, जिसकी एकमात्र काबिलियत ये है कि वो ऊपर उठ सकती है। उसके अलावा आदमी की कोई काबिलियत नहीं होती। यही जीवन का लक्ष्य है कि चेतना के स्तर को ऊँचे-से-ऊँचा उठाना है, ठीक? तो आदमी का अगर तुमको मूल्यांकन भी करना है तो उसकी उम्र के हिसाब से करोगे या उसकी चेतना के स्तर के हिसाब से? उम्र तो शरीर की होती है, शरीर तो यूँ ही फ़िज़ूल है। अभी पैदा हुआ है, अभी मर जाएगा, और बीच में सब जितने उसके साथ उल्टे-पुल्टे काम होते हैं रोज़ होते ही रहते हैं।

बेहोश हो जाओ तुम तो ये ही नहीं होता कि बीमार भर हो। मान लो तुम्हारे भेजे में चोट लग गई और तुम बेहोश हो गए, और ऐसे बेहोश हुए हो कि दो महीने तक बेहोश पड़े हो। तो ऐसा ही नहीं होता फिर कि तुम्हारे बस मस्तिष्क में चोट लगी है, तुम्हारा पूरा शरीर सड़ने लग जाता है, ऐसा है शरीर। जानने वालों ने यूँ ही थोड़ी कहा है कि शरीर सब प्रकार के दोषों का, विकारों का और मल-मूत्र का घर है। जो लोग बेहोश पड़े होते हैं, जानते हो उनकी पीठ पर, उनके पिछवाड़े में, उनकी जाँघों में, इन सब जगहों पर फफोले, घाव हो जाते हैं? और मल-मूत्र अपना खुद नहीं साफ़ कर पाते, दूसरे करते हैं। जब दूसरे करते हैं तो ठीक पता नहीं चलता, इस नाते संक्रमण, इन्फेक्शन का खतरा और बढ़ जाता है, गन्दगी हो जाती है। ये तो शरीर है। इस शरीर की तुम उम्र नाप रहे हो! और कह रहे हो कि, "इनकी उम्र अब पचास की हो गई तो ये आदरणीय हो गए।" क्या बेकार की बात है!

शरीर की उम्र नहीं चेतना का स्तर देखो, और इससे निर्णय करो कि कौन है जिसकी बात सुननी है, कौन है जिसकी बात नहीं सुननी है। अगर उसकी चेतना का स्तर वैसा ही है जैसे किसी आठ साल के बच्चे का, तो क्या तुम उसकी बात को गंभीरता से लेकर अपना मन छोटा कर रहे हो। सिर्फ इसलिए क्योंकि वो दिखाई बड़ा-बड़ा देता है। "अरे देखो ये एक पाँच फुट ग्यारह इंच का आदमी खड़ा हुआ है और उस आदमी को मैंने नाम क्या दिया है? ताऊजी!" तो एक तो ताऊजी की उम्र है पैंसठ की, वज़न है एक सौ दस और रिश्ते में नाम बहुत बड़ा है, क्या? ताऊ। तो जहाँ ताऊ ने बोला "छोकरा बेकार निकल गयो।" तहाँ तुम्हारा मुँह इतना (छोटा) सा हो जाता है कि, "अरे!"—लोग फिर मुझे लिख के भेजते हैं कि लोग क्या बोलेंगे, लोग क्या कह रहे हैं। वो लोग नहीं है, वो ताऊ है।

अब मैं तुम्हें विधि बताता हूँ। जब ताऊ ये सब बोल रहा हो तो आँख पर एक लेंस लगाओ जो दृश्यगत वस्तु को डिमिनिश (घटा) कर देता हो, जैसे होता है न *डिमिशिंग लेंस, मैग्नीफाइंग लैंस*। तो एक बटा दस आकार में कर दो। ताऊ का कद एक सौ अस्सी सेंटीमीटर से घटा के अट्ठारह सेंटीमीटर कर दो क्योंकि ताऊ की चेतना उतनी ही बड़ी है। ताऊ अब कितने आकार का हो गया? अट्ठारह सेंटीमीटर का। अब देखो वो ताऊ है। ताऊ का वज़न भी एक बटा दस कर दो। अब वो ग्यारह किलो का है। अब बताओ, अब लग रहा है कि क्या बोलेगा? वो बोल रहा है, "हें!हें!हें!" उसको गोद में उठा कर उसके मुँह में लॉलीपॉप दे दो। अब नहीं लगेगा कि लोग क्या बोलेंगे।

ये बिलकुल सही विधि है जब ऐसे कोई तुम पर चढ़ा आ रहा हो न अपने रुतबे के कारण, अपनी उम्र के कारण या रिश्ते के कारण, तो वो विशेष आध्यात्मिक लेंस लगा कर उसको देखा करो। उसको ' सी लैंस ' बोलते हैं, चेतना लैंस। वो बस ये देखता है कि इसकी चेतना की उम्र कितनी है, और जितनी उसकी चेतना की उम्र होती है उसी हिसाब से वो उसके शरीर की उम्र, शरीर का आकार बना देता है।

कला में इसको इम्प्रेशनिस्ट (प्रभाववाद) पेंटिंग बोलते हैं। विन्सेंट वैन गौग इसके बड़े पारखी थे। तो कहते थे, "मैं चीज़ों को वैसा नहीं दर्शाऊँगा आकार में, जैसी वो आकार में होती हैं, मैं उनको वैसा दर्शाऊँगा जैसी वो मुझे प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए अगर मैं रात में तारों को देख रहा हूँ आसमान में। तो जब मैं आसमान में तारों को देख रहा हूँ तो उसमें तो तारों का आकार बिंदु बराबर ही है, ठीक? जैसे किसी बड़ी स्याह काली चादर में श्वेत बिंदु लटक रहे हों, लेकिन मेरी सारी चेतना देख किसको रही है, उस काली चादर को या उन छोटे-छोटे श्वेत बिंदुओं को?" तो बोले, "महत्व किसका है फिर? उन छोटे बिंदुओं का।" तो वो जब पेंटिंग बनाते थे तो उसमें तारे इतने बड़े-बड़े होते थे, ये बड़े-बड़े तारे। बोलते थे, " इम्प्रैशन (प्रभाव) तो इन्हीं का पड़ रहा है न, तो जब महत्त्व इनका है तो मैं अपनी पेंटिंग में इन्हें छोटा-छोटा क्यों दिखाऊँ?"

बिलकुल उसी तरीके से तुम देखो। ये नहीं देखना कि इनका स्थूल तौर पर आकार कितना है, एक-सौ-अस्सी सेंटीमीटर, वो देखना ही नहीं है। मैं तो ये देखूँगा कि इनकी चेतना का कद कितना है। दुनिया को ऐसे देखना शुरू कर दो फिर समझ में आएगी बात। उसके बाद नहीं होगा कि लोग क्या कहेंगे। आधे लोग तो तुम्हें दिखाई देना ही बंद हो जाएँगे क्योंकि वो चेतना शून्य होते हैं। तुम उनके आरपार निकल जाओगे। वो खड़ा है, तुम उसके आरपार निकल गए। वो है ही नहीं। वो बोले, "तुम हमारी परवाह नहीं करते", तुम बोलो, "तुम हो ही नहीं, यू डोंट एक्सिस्ट , तुम्हारी परवाह क्या करें?" अब जो है ही नहीं उसको लेकर के तुम्हारे भीतर ये चिंता आएगी क्या कि, "ये क्या बोलेगा"? अब आएगी नहीं ये चिंता। बात खत्म।

कोई वजह है कि देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की जाती थी। वो विशालता क्या दिखा रही है? उनके शरीर का कद? न न न उनकी चेतना का कद। आज भी महापुरुषों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। अभी हाल ही में पिछले साल ही भारत में एक बहुत बड़ी मूर्ति स्थात्पित की गई, तुम लोग जानते ही हो। उतनी बड़ी मूर्ति क्यों बनाई गई भई, ये क्या बात है? ज़रूर वो जिस चीज़ का प्रतीक है वो चीज़ बहुत ऊँची है न। चाहे स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी हो चाहे स्टेचू ऑफ़ यूनिटी हो, वो चीज़ बहुत ऊँची है। मुक्ति और एकत्व, ये बातें बहुत ऊँची हैं इसीलिए उनका कद इतना बड़ा दिखाया जा रहा है। नहीं तो कोई इंसान इतना बड़ा होता है क्या, तुम सोचते नहीं कि ये क्या बात है? इतना बड़ा बना दिया, इतना तो कोई होता नहीं। ये तो चीज़ ही गलत है, आपत्ति क्यों नहीं करते? इसी तरीके से हर इंसान की मूर्ति को उसकी चेतना के अनुपात में देखना सीखो। महापुरुष है तो बहुत ऊँचा है, जैसे उसकी मूर्ति ऊँची होती है। और ऐसे ही है जैसे सड़कछाप इधर-उधर लोग फिरते रहते हैं, साधारण, औसत जनता, तो वो अगर १८० सेमी का है तो मैं कह रहा हूँ उसको १८ सेमी जाना करो और वैसे ही देखा करो। बच्चा है, वैसे ही। चाहो तो सम्बोधित भी वैसे हो कर सकते हो, हाँ उसमे थोड़ा खतरा हो जाएगा। होगा तुमसे उम्र में चालीस साल बड़ा, तुम बोलो, "बेटे, बच्चे, लोलू, गोलू।" इसमें ताऊ को झटका लगने की सम्भावना है तो संभाल कर।

अब जो तीसरा मुद्दा है उस पर आते हैं। तीसरी चीज़ मैंने कही थी कि तुम्हें किसी चीज़ से जब दिल से प्यार होता है, कैरियर के सन्दर्भ में या वैसे भी, तो तुम्हारे मन में दूसरों का खयाल भी बचता है क्या? तुम्हारे मन में तो एक ही चीज़ फिर बच जाती है, क्या? वो जिससे तुम्हें प्यार है। दूसरों की बातों के बारे में तुम कुछ सोचो इसके लिए तुम्हारे मन में इतनी जगह तो होनी चाहिए न कि दूसरे वहाँ आ कर बैठें?

फिर अपना पुराना दोस्त मुझे याद आ गया, वो ही जिसको निकाल दिया था कॉलेज से, रौर्क (आयन रैंड के उपन्यास, दा फाउंटेनहेड का मुख्य चरित्र)। तो टूही ताऊ एक दिन उसको मिलते हैं तो उससे पूछ रहे हैं। वो टूही ताऊ की ही उम्र का था रौर्क के। तो पूछ रहे हैं कि, " व्हाट डू यू थिंक ऑफ़ मी (तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो)?" "एक सवाल है, इतना बता दो, व्हाट डू यू थिंक ऑफ़ मी ?" रौर्क रुका, थोड़ा खयाल किया, बोला, " आइ डोंट थिंक ऑफ़ यू (मैं आपके बारे में नहीं सोचता)।" क्या? *आइ डोंट थिंक ऑफ़ यू*। "भई मेरे पास बहुत अच्छा-अच्छा और ऊँचा-ऊँचा है सोचने के लिए। मैं जो ज़िन्दगी जी रहा हूँ मुझे उससे प्यार है क्योंकि उस ज़िन्दगी में वो काम कर रहा हूँ जिस काम से मुझे प्यार है। मेरा एक-एक पल, मेरी एक-एक साँस आच्छादित है मेरे प्रेम से। मैं जगह कहाँ से लाऊँ तुम्हें अपने मन में कहाँ से बैठाऊँ? कोई छोटा-मोटा कोना भी रिक्त नहीं है। मैं कैसे परवाह करूँ तुम्हारे दृष्टिकोण की, तुम्हारे मत की, तुम्हारे विचारों की, कैसे परवाह करूँ? परवाह करने के लिए मुझे थोड़ी देर के लिए उससे अलग होना पड़ेगा जिससे प्रेम है मुझे। उससे अलग मैं होना नहीं चाहता। उससे अलग मैं होना नहीं चाहता तो तुम्हारी बातों का खयाल करूँ कैसे?"

तो जो लोग कहें कि, "अरे मैं ज़िन्दगी में वो नहीं कर पाया जो मैं करना चाहता था क्योंकि दूसरे लोगों ने ताना मार दिया, समाज का दबाव आ गया", उनसे मैं कहूँगा तुम कुछ करना ही नहीं चाहते थे, प्यार तुम्हें था ही नहीं। हाँ, यूँ ही तुम्हें कोई बिज़नेस आईडिया आ गया होगा, वो बहुत हैं, वो बाजार में तैरते रहते हैं। नए-नए किसी को ये खयाल आ रहा है, किसी को वो खयाल आ रहा है।

एन्त्रेप्रेंयूर्शिप (उद्यमिता) न हुई, हर साल फैशन बदलने वाली चीज़ जैसी कोई चीज़ हो गई कि इस साल कौनसे तरह की एन्त्रेप्रेंयूर्शिप हॉट है। तो वो आ गया, ये आ गया। और लड़के जिनका कोई केंद्र नहीं होता, थाली पर लुढ़कते बैंगन, उनको जैसे ही कोई नया आईडिया मिलता है... आईडिया , मैं विचार नहीं कह रहा, ये आईडिया अलग चीज़ होती है। जैसे ही उन्हें कोई नया आईडिया मिलता है, बिज़नेस आईडिया , वो बड़े उत्तेजित हो जाते हैं। कहते हैं, "देखो ये है नया हॉट बिज़नेस एन्त्रेप्रेंयूर्शिप आईडिया आया है, हम भी करते हैं।" और वो उसमें लग जाते हैं, कुछ अपना पैसा फूँकते हैं, कुछ बाप की दुकान बेच देते हैं नहीं तो मूर्ख इन्वेस्टर्स (निवेशक) भी बाज़ार में बहुत तैर ही रहे हैं, उनका पैसा मिल जाता है, इस राउंड की फंडिंग , उस राउंड की फंडिंग * । अपना कुछ दिनों तक काम चलता है, उसके बाद, "हो गया, हमारा क्या है? कुछ नहीं।" एक के बाद एक इसी तरह से करते चलो, डुबाते चलो इधर-उधर से सब कुछ और फिर बोल दो, "मैं * सीरियल-एन्त्रेप्रेंयूर हूँ।" और ऐसा नहीं है कि इसमें सफलता मिलनी भी बहुत मुश्किल है। समोसा बाज़ार में दस रूपए का बिकता हो, तुम निवेशक का पैसा लगा करके उसको चार रूपए में बेचना शुरू कर दो, जल्दी ही मार्किट शेयर तुम्हारा हो जाएगा। बोलो, "ये देखो, मुझसे महान व्यापारी कोई हो सकता है? छह महीने के अंदर-अंदर मैंने ३८% मार्किट शेयर खींच लिया।" वो कैसे खींच लिया, ऐसे ही तो खींच लिया कि लागत आ रही है समोसे की आठ रूपए की और बेच रहे हो चार रूपए में, तो लोग तो खरीद ही लेंगे। कोई मूरख बाज़ार में बिकने को तैयार हो आधे दाम में, तो कौन नहीं उसको खरीदेगा। ऐसे चलता है।

ये सब चीज़ें प्रेम नहीं कहलाती कि जाड़े आ रहे हैं, लोग इस बार समोसा ज़रूर खाएँगे ज़्यादा, तो *सैम्स इंकॉर्पोरेटेड*। और फिर अगली बार कुछ और। अब क्या हो रहा है? बरसात आ रही है, पकौड़ा बिकेगा तो *पैक्स इंकॉर्पोर्रेटेड*। ये प्रेम की चीज़ है कि जिधर को हवा चली उधर को ही तुमने धंधा चला लिया?

प्रेम बिलकुल दूसरी बात होती है, बिलकुल दूसरी बात। जानते हो, प्रेम उतना भी निजी नहीं होता जितना कि पिछले दस मिनट की मेरी बातचीत से लग रहा होगा। तुमने कहा है कि आपने सीधे उपनिषद् ही पढ़ाने की संस्था शुरू कर दी थी। बड़ा मुश्किल था। अभी कल आप लोगों ने, शिविर के प्रतिभागियों ने, ' सो सैड द सेजिज़ ' नाम की एक एक्टिविटी पढ़ी होगी। उसमें साथ में कुछ प्रश्न रहे होंगे शायद उनको करा होगा। तो तब अद्वैत लाइफ एजुकेशन एकदम नई-नई शुरू हुई थी, एक-आध साल हुआ होगा, और उपनिषदों पर आधारित ये पहली एक्टिविटी थी जो मैंने बनाई थी। अब क्यों किसी को समझ में आए? जिन शिक्षकों को जाकर के करानी थी क्लासरूम (कक्षा) में उन्हें ही नहीं समझ में आ रही थी तो वो क्लासरूम में कैसे कराएँ। लेकिन मुझे प्यार सा हो गया था उपनिषदों से और मुझे ये पता था कि जो बात मुझे अनुभव हो रही है उपनिषदों को लेकर वो अनुभव तो सबको होगी, बस श्रम की और समय की बात है। ये चीज़ इतनी अच्छी है कि सबको अच्छी लगेगी, बस थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, थोड़ी ताकत, थोड़ा जुगाड़ लगाना पड़ेगा। तो वो जो प्रेम था मेरा इस काम के प्रति वो निजी होकर भी निजी नहीं था।

क्योंकि जब प्रेम गहराता है न तो उसमें स्वार्थ तो बचता ही नहीं है, जब स्वार्थ नहीं बचता तो फिर वो प्रेम पारमार्थिक हो जाता है। आप कहने लग जाते हो, "मैं जो कर रहा हूँ जब वो चीज़ अच्छी है तो सिर्फ मेरे लिए ही थोड़ी अच्छी है, सबके लिए अच्छी है। जो चीज़ सिर्फ मेरे लिए अच्छी हो वो तो मेरा स्वार्थ कहलाएगी, है न? जो चीज़ सिर्फ मेरे लिए अच्छी है वो तो मेरा स्वार्थ कहलाएगी, पर ये चीज़ इतनी अच्छी है इतनी अच्छी है कि सिर्फ मेरे लिए नहीं अच्छी है। कोई छोटी सी चीज़ होती तो सिर्फ मेरे लिए अच्छी होती। एक समोसा मिल गया वो सिर्फ मेरे लिए अच्छा है क्योंकि मैंने खा लिया तो किसी और को नहीं मिलेगा, और हो सकता है समोसे में मुझे स्वाद आता हो किसी और को न भी आता हो। पर ये जो मुझे मिल रहा है, बहुत बड़ा है और ये मेरे मन के उस केंद्र को आकर्षित करता है जहाँ तक बहुत कम चीज़ें पहुँचती हैं।"

हज़ारों चीज़ें हैं जो आपको आकर्षित करती हैं पर वो आकर्षण अलग-अलग तल के होते हैं न? कोई चीज़ है जो आपको बहुत ही सतही तौर पर आकर्षित करती है, उदाहरण के लिए प्यासे को पानी, "मुझे पानी चाहिए!" फिर एक चीज़ है जो आपको बिलकुल निजी तौर पर ही आकर्षित करती है, उदाहरण के लिए आपको एक टीशर्ट पहननी है। और कोई चीज़ होती है जो आपको इतनी गहराई से आकर्षित करती है, इतनी गहराई से आकर्षित करती है कि उस गहराई पर आपकी व्यक्तिगत सत्ता ही नहीं बची होती है। उस गहराई पर आप और दूसरा व्यक्ति एक हैं, माने कि जो आकर्षण आपको अनुभव हो रहा है वही आकर्षण दूसरे को भी अनुभव होगा अगर अनुकूल स्थितियाँ बना दी जाएँ।

ये चीज़ ऐसी नहीं है जो सिर्फ मेरे लिए उपयोगी है इसीलिए तो मुझे इससे इतना प्रेम है। ये चीज़ बड़ी ज़बरदस्त है, विराट है, तभी तो मुझे इससे प्रेम है। और अगर ये चीज़ इतनी ज़बरदस्त है, इतनी विराट है तो सिर्फ मेरे काम की नहीं हो सकती न, ये सबके काम की है। सबके काम की है तो क्या फर्क पड़ता है कि लोग क्या कहेंगे। जो कुछ भी कह रहे हों लोग, ये चीज़ तो सबके काम की है न, जो ताने भी कस रहे हों उनके भी काम की है। मैं इसे छोड़ कैसे दूँ? इतनी बढ़िया, इतनी प्यारी चीज़ है मैं इसे छोड़ कैसे दूँ?

पहली बात, मैं इसे छोड़ सकता नहीं। दूसरी बात, मैं आश्वस्त हूँ कि ये चीज़ इतनी अच्छी है कि सब इसे पसंद करेंगे-ही-करेंगे। और अगर सब इसे पसंद करेंगे-ही-करेंगे, तो यार दो-चार रूपए क्या चीज़ होते हैं। शरीर चलाने के लिए, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए बहुत पैसा तो चाहिए नहीं न? अगर ये चीज़ इतनी अच्छी है कि सब इसे पसंद करेंगे-ही-करेंगे तो क्या इस चीज़ को पाकर वो दो-चार रूपए भी नहीं दे देंगे? लो हो गई एन्त्रेप्रेंयूर्शिप , हो गई कि नहीं हो हो गई?

हमारी न माँगें बहुत ज़्यादा हैं न ज़रूरतें बहुत ज़्यादा हैं। माँगें, ज़रूरतें क्यों नहीं ज़्यादा हैं? क्योंकि साहब हम प्रेम में हैं। हमें तो कुछ ऐसा मिल गया है जिसने हमको पूरा ही पूरा भीतर से भर दिया है, अंदर से एकदम हरे हैं, एकदम लबालब भरे हैं। तो जब इतने भरे हैं तो हमारे पास और कोई ज़रूरत बची कहाँ है? ज़रूरत के लिए भी तो जगह चाहिए न भीतर। हम तो भीतर से छलछला रहे हैं बिलकुल, तो ज़रूरत के लिए भी जगह बची नहीं है। हाँ, रहा शरीर और रही कुछ व्यावहारिक आवश्यकताएँ, उनके लिए कुछ पैसा चाहिए होता है निश्चित रूप से। वो पैसा तो तुम मुझे दे ही दोगे क्योंकि बच्चू मैं तुमको न ऐसी चीज़ ला रहा हूँ बताने कि जो मज़ा मुझे आया है वहीं तुम्हें भी आ ही जाएगा। जब मज़ा आ ही जाएगा, दे देना कुछ। और नहीं भी दोगे तो मुझे इसी बात में मज़ा आ जाएगा कि तुम्हें मज़ा आया। इस बात में क्या कम मज़ा है?

जिन्होंने प्रेम किया है वो ये जानते हैं अपने मज़े से ज़्यादा मज़ा आता है दूसरे का मज़ा देख कर। आता है कि नहीं? तो आहाह, क्या मज़ा आया। इधर-उधर भाग रहे थे, मैंने पकड़ कर यहाँ बैठाया मैंने कहा, "यहाँ बैठ जा, ईशावास्य है।" बोले, "ईशावास्य बेकार! क्या ये वो इधर-उधर, जा रहा हूँ मैं तनक-दिन-धैयाँ का गाना सुनने, लेटेस्ट आया है, आहाहा। क्या मादक आवाज़ में गाती है।" तू थम जा, एक गीत इधर भी है। अब वो बेमन से बैठ गया, लेकिन जैसे-जैसे समझता गया वैसे-वैसे उसके चेहरे का रंग, आँखों की चमक ही बदलती गई। और तुम ये देख रहे हो और तुमको मज़ा आ रहा है। तुम कह रहे हो ये देखो, १-०, मारा न मैंने गोल।

अब उससे तुम्हें कुछ पैसा मिल गया तो बहुत अच्छी बात, नहीं मिला तो कम-से-कम अच्छी बात तो है ही, मज़ा कितना आया था पढ़ाने में। अब पैसा बोनस हो जाता है। अब पैसा पारिश्रमिक नहीं है कि मैंने इतना परिश्रम किया है इसके बदले में मुझे इतना पैसा दो। अब पैसा कम्पन्सेशन नहीं है, रेमूनरेशन नहीं है, मुआवज़ा नहीं है अब पैसा। अब पैसा क्या है? बोनस , कि मज़ा तो मिल ही गया है। हमने काम करा उसमें हमको मज़ा तो मिल ही गया है, अब अगर पैसा मिल गया तो पैसा कहलाएगा *बोनस*। ये हुई * एन्त्रेप्रेंयूर्शिप । अब इसमें नुकसान का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। कैसा लगा ये * बिज़नेस आईडिया ? फूलप्रूफ (सरल)। नुकसान की कोई सम्भावना ही नहीं है क्योंकि तुम्हें निर्भर ही नहीं रहना है क्लाइंट के चेक पर। तूने चेक दे दिया, बहुत मज़ेदार बात है, चेक नहीं भी दिया तो भी हमें क्लास में तो मज़ा आ ही गया था न। वो मज़ा तू कैसे छीन लेगा हमसे? चेक तू रोक सकता है, मज़ा तो नहीं रोक सकता न।

और हमारे भी पिछले पंद्रह साल में, जब संस्था बनी थी, बहुत सारे ऐसी विश्वविद्यालय थे, कॉलेज थे जिनके साथ एग्रीमेंट होता था कि आप इतनी राशि का हमें भुगतान करेंगे। वो खा जाते थे, पचा जाते थे। उनको लगता था उन्होंने कितनी बड़ी चीज़ रोक ली, उनको ये पता ही नहीं था कि असली चीज़ तो वो रोक ही नहीं सकते, मज़े तो हम लूट ही आए। उसपर कैसे तुम रोक लगा दोगे? स्टॉप (बाधित) चेक कर सकते हो, स्टॉप जॉय (आनंद) कैसे करोगे? वो तो अपने हाथ की चीज़ है न।

मूलभूत चीज़ समझो। अगर जो तुम कर रहे हो वो तुम्हारे लिए इतनी महत्वपूर्ण है, इतनी महत्वपूर्ण है तो ऐसा हो नहीं सकता कि वो दूसरे के लिए महत्वपूर्ण न हो। फिर तो बात बस समझाने की है और इंतज़ार करने की है और श्रम करने की है। लेकिन वो चीज़, शर्त ये है, कि वाकई महत्वपूर्ण होनी चाहिए। तुम ये नहीं कह सकते कि, "साहब मुझे तो हरे रंग की चटनी बहुत पसंद है तो वो दूसरे के लिए भी तो बराबर की महत्वपूर्ण होगी न।" नहीं साहब, उपनिषदों को पसंद करना और हरे रंग की चटनी को पसंद करना दो बहुत अलग-अलग बाते हैं। आप हरे रंग की चटनी का व्यापार करने निकलें, बहुत संभव है कि आप औंधे मुँह गिरें। लेकिन आप उपनिषद् समझाने निकलें लोगों को, तो बस धैर्य रखिएगा लोग समझेंगे ज़रूर क्योंकि वो बात सबके लिए है। जीव हम सब हैं, तनाव हम सबको है, डरते हम सब हैं, मृत्यु सबके सामने खड़ी है तो उपनिषद् भी फिर सबके लिए हैं न। जब उपनिषद् सबके लिए हैं तो फिर क्या सोचना कि कोई क्या बोलेगा। तो ये तीन इसमें तरीके बता दिए इस विचार से निपटने के कि लोग क्या कहेंगे।

अब फिर कहा है कि, "मैं कविता और शायरी लिखता हूँ, इसे कैसे अपना कैरियर बनाऊँ?" कैरियर क्या बनाना है, ऐसा कौन है जिसे कविता की या शायरी की ज़रूरत नहीं है? रचनाकारों का मूल्य तो हमेशा से रहा है। हाँ, तुम्हारी रचना में दम होना चाहिए। तुम्हारी रचना फिर ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जो लोगों को सतही तौर पर बस उत्तेजित कर दे। क्यों? नौतिकता का मसला नहीं है, ये बैड (ख़राब) बिज़नेस आईडिया है, बताओ क्यों? क्योंकि सतही तौर पर उत्तेजित करने वाले एक ढूँढों हज़ार मिलते हैं। कम्पटीशन ज़्यादा है मार्केट में। ये काम इतना सस्ता, इतना घटिया और इतना आसान है कि हर कोई करने के लिए तैयार बैठा हुआ है। ये जितनी एप्स आती हैं जिसमे पंद्रह सेकंड के, एक मिनट के वीडियो रहते हैं वहाँ हर दूसरा आदमी शायर है और पेल रहा है अपनी घटिया शायरी। तो इसलिए मैंने कहा कि बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बहुत है, भाईसाहब मार्केट बड़ा कॉम्पिटिटिव है। अगर मार्केट बड़ा कॉम्पिटिटिव है तो माने वो चीज़ बहुत घटिया ही होगी नहीं तो इतने लोग कहाँ से उसका व्यापार करने निकल पड़ते? जितनी ऊँची चीज़ होती है उसके विक्रेता तो उतने ही विरल और कम होते जाते हैं न? तुम कुछ करने निकले हो और वो काम तुम बहुत आसानी से कर ले रहे हो तो दूसरा आदमी भी तो वो काम उतनी आसानी से कर लेगा न। तो शायरी फिर वो लिखो जो ज़रा कमाल की शायरी हो। और दुनिया में हर आदमी को शायरी की ज़रूरत है।

ऋषि भी कवि ही तो होते हैं। अभी ईशावास्य उपनिषद् का उल्लेख किया हमने, उसमें तो ऋषियों को कवि के नाम से सम्बोधित ही किया गया है। कहो न कुछ ऐसा जो आदमी की जड़ें हिला दे लेकिन साथ-ही-साथ उसे उसकी ज़मीं से मिला दे। लिखो तो, बोलो तो। और फिर मज़ेदार बात ये होगी कि कोई तुम्हारी बात फिर सुन ले और दाद दे दे तो वो बस एक बोनस होगा, एक अतिरिक्त लाभ। तुम दूसरे की तालियों और दूसरे की शाबाशी के लिए नहीं जियोगे, नहीं अपनी बात, अपनी कविता या अपना कलाम कहोगे। तुम कहोगे इसलिए क्योंकि तुम्हें कहना ही है। वो चीज़ ऐसी है कि उसको अभिव्यक्त किए बिना जी नहीं सकते और उसको अभिव्यक्त कर लिया तो क्या आनंद आता है, ऐसा आनंद आता है कि दो-चार दिन खाली पेट भी चल सकते हैं, आनंद से पेट भरा हुआ है।

मेरा ये नहीं मतलब है कि खाली पेट चलना पड़ेगा। जो काम तुम कर रहे हो अगर उसमें मूल्य है तो क्यों तुम्हें खाली पेट चलना पड़ेगा भाई? तुम ही खासतौर पर अभागे हो क्या? प्रकृति में आसमान में चिड़िया है उसके खाने के लिए भी दाना है, ज़मीन पर चींटी है उसके खाने के लिए भी दाना है, पेड़ हैं, पौधे हैं उनके लिए भी पोषण की व्यवस्था है, और ये वो हैं जो अशक्त हैं बिलकुल। एक छोटा सा कीट पतंगा होता है वो भी है, इसलिए है क्योंकि उसके खाने की व्यवस्था है अस्तित्व में, है न? जो भी चीज़ पैदा होती है, उसके खाने की व्यवस्था पहले ही कर दी गई होती है नहीं तो वो पैदा ही नहीं होती। तो तुम ही इतने विशेष्तया अभागे हो कि तुम्हें ये ही खयाल आता रहता है, "हाय कहीं मैं भूखा न मर जाऊँ"?

और लोगों में ये बड़ा डर होता है। एक-दूसरे को जब धमकाना भी होता है तो ऐसे बोलते हैं, "भूखा मरेगा!" तुम बोलो, "मैं चींटे से भी बदतर हूँ?" चींटा भी भूखा नहीं मरता। कभी तुमने देखा है कि चींटों में भुखमरी फैली हुई है? वो अपना घूमते रहते हैं इधर-उधर लगे रहते हैं दिनभर मौज मार रहे हैं, खाना तो वो भी पा जाते हैं। मैं छोटा था तो उनको रिक्शा बोला करता था, वो पीछे से उनकी पूँछ उठी रहती थी जैसे रिक्शा होता है न। कहता था ये लाइन लगा कर जाते रहते हैं जैसे स्कूल में छुट्टी के बाद रिक्शे निकलते थे लाइन से, तो वैसे ही मैं उनको देखता था और कहता था इनकी स्कूल की छुट्टी हुई है, लाइन से जा रहे हैं कहीं। उनकी भी व्यवथा है भई और उनका क्या जीवन, क्या उनका सामर्थ्य। कोई भी पाँव रख देता है, कुचल जाते हैं, कहानी ख़त्म। पर वो भी आतंकित नहीं रहते, आदमी आतंकित रहता है।

"कहीं मैंने मजदूरी और मजबूरी की ज़िन्दगी और नौकरी छोड़कर कोई ढंग का काम कर लिया तो कहीं मैं भूखा न मरुँ।" और ताई खड़ी हो जाएगी। अब ताऊ है तो ताई वहीं पीछे, वहीं ही छुपी हुई थी। ताई आएगी, ताई ऐसे-ऐसे हाथ हिला कर बता रही है, "अरे, वो है न वो सावंत का बेटा, भूखा मरा था।" नहीं मरोगे भूखे भई। तुम्हारी इच्छाओं की भूख पूरी होगी इसकी कोई आश्वस्ति नहीं होती, लेकिन शरीर की भूख का पर्याप्त प्रबंध है अस्तित्व में। बढ़िया काम करो, लग के करो, बिंदास करो, बेफिक्र हो कर करो। जो तुम कर सकते हो करो बाकी साहब देखेंगे।

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