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कोरोना वायरस, भगवान, और धर्म || आचार्य प्रशांत, कोरोनावायरस पर (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पूरा विश्व इस वक़्त कोरोना वाइरस से ग्रस्त है। अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाँ आ रही हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि यह ईश्वर द्वारा भेजी गई एक विपत्ति है और इसका समाधान तो वो ख़ुद ही करेगा। पोप इत्यादि कह रहे हैं कि उन्होंने ईश्वर से ख़ुद बात की है, वो इसका समाधान निकालने को हैं। कुछ लोग यह भी कर रहे हैं कि अगर आप मंदिरों में, मस्जिदों में नमाज़ और प्रार्थना इत्यादि के लिए एकजुट हो रहे हैं, तो आपको यह बीमारी नहीं लगेगी। वहाँ पर ऐसा कुछ भी नहीं होगा।

आपका इसमें क्या कहना है?

आचार्य प्रशांत: कोई ईश्वर, कोई भगवान नहीं बैठा है जिसको मनुष्यों पर बीमारियाँ भेजने में रुचि हो, या मनुष्यों के वाइरस और बैक्टीरिया अपनी तरफ़ खींच लेता हो, सोख लेता हो, लोगों को जादुई तरीक़े से बीमारियों से मुक्ति दिला देता हो। तो इस तरह की बातें करके तो हम इस संक्रमण को और फैलाने का ही काम कर रहे हैं।

और वास्तव में इसी तरह की बातों के कारण धर्म, धर्म का पूरा क्षेत्र ही इतना बदनाम हो गया है। जो भी फिर थोड़े भी पढ़े-लिखे लोग हैं, थोड़े भी बुद्धिजीवी हैं, वो कहना-मानना शुरू कर देते हैं कि – धर्म का मतलब ही है अंधविश्वास, और बुद्धिहीन तरीक़े के तर्क और मान्यताएँ और जीवन।

तो यह सोचना कि अगर आप पूजा के लिए या प्रार्थना के लिए या नमाज़ के लिए इकट्ठा हो रहे हैं, तो कोई ईश्वर या कोई दैवीए ताक़त आपको वाइरस के संक्रमण से बचा देगी, ये बात ग़लत ही नहीं है, मूर्खतापूर्ण ही नहीं है, ज़बरदस्त रूप से ख़तरनाक है। क्योंकि जब आपको संक्रमण लगता है, तो वो सिर्फ़ आपके लिए निजी कष्ट की बात नहीं होती, आप एक औज़ार बन जाते हैं, आप एक माध्यम बन जाते हैं, जिसके ज़रिए से ये वाइरस बहुत और लोगों तक पहुँच सकता है।

तो आपको संक्रमण लगेगा या नहीं लगेगा, यह कोई आपका निजी मामला नहीं है। अब ये आपकी सामाजिक ज़िम्मेदारी है कि आप अपनेआप को संक्रमित ना होने दें। और अगर आप उस सामाजिक ज़िम्मेदारी को पूरा नहीं कर रहे हैं, आप उस सामाजिक ज़िम्मेदारी की उपेक्षा कर रहे हैं, अगर आप धर्म इत्यादि के नाम पर किसी समूह में, जत्थे में, मेले में, या कहीं और इकट्ठा होते हैं और सोचते हैं कि आपको ईश्वर वगैरह बचा लेगा, तो ऐसा नहीं है। डॉक्टरों की, वैज्ञानिकों की, शोधकर्ताओं की बात पर ध्यान दीजिए, और वो जैसा कह रहे हैं, चुपचाप उनका अनुकरण करिए। पूजा-पाठ इन मसलों में काम नहीं आते, उनका क्षेत्र बिलकुल दूसरा है।

उसपर अगर आप चाहेंगे तो मैं अलग से बात कर लूँगा।

पूजा का, ध्यान का, भक्ति का, ज़बरदस्त महत्त्व है, जीवन की ऊँचाईयों पर महत्त्व है। पर जहाँ तक एक भौतिक शरीर को लगने वाले संक्रमण की बात है, उससे आपको ध्यान या कोई प्राचीन विधि नहीं बचा लेगी। तो हमें आदिम और मध्ययुगीन अंधविश्वासों को पीछे छोड़ना होगा, नहीं तो फिर जैसे प्लेग फैला था उस ज़माने में यूरोप में और जो दशा हुई थी यूरोप की, वैसी ही दुर्दशा के लिए हमें भी तैयार रहना होगा।

तो दो ख़तरे हैं।

पहली बात मैंने कहा कि अगर आप इस तरह का काम करते हैं तो आप अपने और समाज के लिए ख़तरनाक हैं। और दूसरी बात मैं कह रहा हूँ कि अगर आप इस तरह की मान्यताएँ फैलाते हैं, तो आप धर्म को भी बदनाम कर रहे हैं। कृपा करके धर्म के क्षेत्र को बदनाम ना करें, धर्म का काम यह सब नहीं है कि आपको वाइरस से बचाए या आपको वाइरस लगवा दे।

इन सब चीज़ों का धर्म से कोई ताल्लुक़ नहीं है।

प्रशकर्ता: क्या इस पूरे मुद्दे में धर्म का कोई महत्त्व नहीं है? जिस तरह से पूरी दहशत फैल रही है पूरे विश्व में?

आचार्य प्रशांत: देखिए, बात समझिएगा। हमें साफ़-साफ़ समझाया गया है – ‘बोधोऽहं’।

ईश्वर कोई हमसे बाहर की चीज़ नहीं है। हमारे भीतर जो बोध की शक्ति है, उसी का नाम ‘सत्य’ है, वही परम सत्ता है। तो दैवीयता का अर्थ हुआ कि – आप अपने भीतर जो ज्ञान है, समझने-बूझने की जो ताक़त है, उसको जागृत करें ,और उसके अनुसार काम करें। यही धार्मिकता है, यही ईश्वर परायणता है।

आप कहते हैं न –

या देवी सर्वभूदेशू शक्ति-रूपेण संस्थिता

या देवी सर्वभूदेशू बुद्धि-रूपेण संस्थिता

तो आप जिस दैवीए सत्ता की प्रार्थना करते हैं बाहर, उस सत्ता ने अपने बारे में ख़ुद ही कहा है कि – “मैं तुम्हारे भीतर बुद्धि बनकर अवस्थित हूँ।” मैं कौन हूँ? चाहे ‘बोधोऽहं’ कहिए, चाहे कहिए कि ‘बुद्धिरूपेण संस्थिता’। वो तुम्हारे भीतर बुद्धि है।

इसी तरह से गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं कि – “मैं मनुष्य के भीतर जो उच्चतम बिंदु हो सकता है, वो हूँ। और उसका नाम है – ‘बोध’।” उपनिषदों के पास जाएँगे तो वो कहते हैं – “ब्रह्म क्या है?” वो कहते हैं – “प्रज्ञान ही ब्रह्म है।”

तो निश्चित रूप से हमें भगवान की सहायता चाहिए इस विपत्ति से निपटने में। पर वो भगवान कोई बाहर बैठा हुआ भगवान नहीं है कि आप आसमान की ओर हाथ उठाकर प्रार्थना कर रहे हो, और वो ऊपर से आकर आपको बचा लेगा। वो भगवान आपकी अपनी समझदारी है।

तो जब आप कहते हैं कि – “हमें इस वाइरस से भगवान बचाए,” आपने बहुत अच्छी बात कही कि, “भगवान बचाए।” पर वो भगवान कौन है? वो आपका अपना बोध है – बुद्धि-रूपेण संस्थिता, बोधोऽहं।

प्रश्नकर्ता: तो क्या आपका इशारा इस तरफ़ है कि इस संदर्भ में जो बुद्धिमान है, जिसके पास ये कुशलता मौजूद है कि वो इस वाइरस को और इसके पूरे विज्ञान को समझेगा, जो इसके ऐंटीडोट निकालेगा, जो इसका तोड़ निकालेगा, वो तो वैज्ञानिक हुआ? तो क्या इस पूरे खेल में जो भगवान है उसका किरदार डॉक्टर निभाएँगे?

आचार्य प्रशांत: नहीं! वैज्ञानिक कुछ भी निकाल ले, आप उस वैज्ञानिक की बात ही न मानो तो वैज्ञानिक क्या कर लेगा? वैज्ञानिक तो आज भी बहुत सारी बातें बोल रहे हैं।

प्रशकर्ता: लोग वैज्ञानिकों कि बात क्यों नहीं मानेंगे?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि लोगों के पास अपनी मान्यताएँ हैं दूसरी न।

लोग बुद्धि से ज़्यादा महत्त्व जब मान्यताओं को, धारणाओं को, अंधविश्वासों को देंगे, तो आपके भीतर की दैवीयता कहाँ जागृत होगी? और आपके भीतर की दैवीयता का ही नाम ‘भगवान’ है।

तो आप कहें कि – “भगवान मेरी मदद करो,” तो वास्तव में आपको समझना चाहिए कि भगवान आपकी मदद कर ही रहे हैं आपके भीतर बुद्धि बनकर के। बुद्धि चलाओ अपनी, अक़्ल चलाओ, यही वो तरीक़ा है जिसके माध्यम से आपको दैवीय सहायता मिलेगी। आप अपनी बुद्धि ना चलाएँ, बिलकुल बुद्धू बनकर बैठे रहें, एकदम मंदबुद्धि, और आप कहें, “भगवान आएगा, भगवान आएगा, मेरी मदद करेगा,” तो कोई कैसे आएगा आपकी मदद करने? आपकी मदद करने वाला तो आपके भीतर बैठा है। वो जो भीतर बैठा है, आप उसकी सहायता ले नहीं रहे। जो भीतर बैठा है वो किस रूप में बैठा है? बुद्धि और बोध।

बुद्धि वो शक्ति है आपके भीतर की जो आपको बोध तक ले जाती है।

वो(भगवान) भीतर ही बैठा हुआ है, उसका इस्तेमाल करें।

तो ये मत कहिएगा कि – “इस समय धर्म का क्या काम है?”

इस समय धार्मिकता यही है, सदा से धार्मिकता यही है। जबसे वो आर्शवचन बोले गए थे ग्रंथों के, तब से लेकर आजतक धार्मिकता यही है कि – आप समझने-बूझने कि अपनी ताक़त का अधिकतम प्रयोग करें। सवाल पूछें, जिज्ञासा करें। जो बात सही लगे उसे मानें, जो बात सही नहीं लगी है उसपर अंधविश्वास न कर लें। प्रश्न पूछते रहें, प्रश्न पूछते रहें। यही तो धर्म है।

प्रश्नकर्ता: तो आप ये कह रहे हैं कि बोध-रूपेण, वो ईश्वर, जब एक वैज्ञानिक में प्रकाशित होगा तब हमारे पास ऐंटीडोट तो आ जाएगा, पर वही बोध जनमानस में भी आना चाहिए ताकि वो उसको ग्रहण कर सके।

आचार्य प्रशांत: ताकि वो उसको ग्रहण कर सके।

फिर वृत्तियाँ भी हैं। आपको बहुत सारी बातें बता भी दी गईं । आपसे मान लीजिए कह दिया गया कि – “लोगों से कम-से-कम सम्पर्क में आओ, बाहर कम निकलो,” लेकिन आपकी वृत्ति कह रही है कि – “मुझे तो बाहर निकलना है, बाज़ार में घूमना है, दोस्तों के साथ मसखरी करनी है, अय्याशी करनी है,” और आप निकल पड़े।

प्रश्नकर्ता: हाँ, ऐसे कई दिलफेंक हैं। सोशल-मीडिया में वीडियो में नज़र आ रहे हैं कि – “हमें नहीं होगा।”

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल। “हम तो जी ऐसे हैं – हम सूरमा हैं। हमें नहीं होता। हम फलानी क़ौम के हैं। हम फलानी जाति के हैं। हम फलाने प्रांत के हैं। हम तो बड़े मर्द हैं। हमें ये नहीं होता।” ये बुद्धि का प्रयोग नहीं है। ये दुर्बुद्धि है। ये पाश्विक वृत्ति है। और जहाँ ये चलेगी, वहाँ समझ लीजिए कि आप भगवान से बहुत दूर हो गए।

भगवान हमारे भीतर, मैं दोहरा रहा हूँ, बुद्धि और बोध बनकर बैठे हैं। जो भगवान के सामने नमित होना चाहते हों, वो बुद्धि और बोध की आराधना करें। यही भगवान की पूजा है, यही धार्मिकता है।

प्रश्नकर्ता: तो अगर बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए इस वक़्त अगर एक शोपिंग मॉल को बंद कर दिया गया है और एक मंदिर और मस्जिद को बंद कर दिया गया है, तो क्या इसमें आप कोई भेद नहीं देखते?

आचार्य प्रशांत: नहीं, बिलकुल कोई भेद नहीं है।

यह बिलकुल सही बात है कि अगर किसी भी जगह पर – चाहे वो धार्मिक जगह हो या वाणिज्य जगह हो, चाहे वहाँ पर पूजा, प्रार्थना, अरदास होती हो, चाहे खरीददारी, क्रय-विक्रय होता हो, लोग तो इकट्ठा हो रहे हैं न? वायरस को इस बात से क्या मतलब कि जो लोग इकट्ठा हो रहे हैं, वो प्रार्थना के लिए इकट्ठा हो रहे हैं या चाट खाने के लिए। वायरस ये सब भेद नहीं जानता। और ये सब बात आपको बुद्धि बताएगी। बुद्धि बताएगी मतलब – भगवान बताएगा।

भूलिएगा नहीं – “या देवी सर्वभूदेशू बुद्धि-रूपेण संस्थिता।” और भी हैं – “श्रद्धारूपेण संस्थिता।” लेकिन इस समय पर आवश्यक है कि ध्यान दें कि वो दैवीए सत्ता आपके भीतर बुद्धि बनकर बैठी है, तो दुर्बुद्धि वाले काम नहीं करिए। थोड़ी अक्ल लगाइए, थोड़ा खोपड़ा चलाइए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने पिछले ५-७ मिनट में ही बुद्धि को ईश्वर की परिभाषा के रूप में सामने रखा, कम-से-कम इस मुद्दे में तो। तो क्या आप यह कह रहे हैं कि जो बुद्धिजीवी वर्ग है, वो इस पूरे मुद्दे का, इस पूरी समस्या का सबसे अच्छे तरीक़े से उत्तर दे रहा है? अगर कोरोना वाइरस से ‘बुद्धि और बोध’ हमें बचा सकते हैं, तो क्या बुद्धिजीवी वर्ग इस संक्रमण से लड़ने में समर्थ है?

आचार्य प्रशांत: अभी इस बात को आप गहरा ले जाना चाह रहे हैं।

देखिए, जिन शक्ति के लिए कहा गया है कि वो बुद्धिरूपेण संस्थिता हैं, उन्ही के लिए यह भी कहा गया है कि वो वृत्तिरूपेण संस्थिता भी हैं। इसीलिए मैं बार-बार दो अलग-अलग शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ – ‘बुद्धि और बोध’। बुद्धि तभी सही है जब वो बोध तक ले जाए। इसीलिए बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए सतर्क रहना पड़ता है कि आप बुद्धि चला किसलिए रहे हो।

समझिएगा बात को।

बुद्धि दो तरह की हो सकती है – सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि। बोध दो तरह का नहीं होता – सुबोध और कुबोध। ‘कुबोध’ सुना है कभी? दुर्बुद्धि सुना होगा, है न? तो बुद्धि मात्र ही दैवीयता नहीं होती। दैवीयता बुद्धि में है निश्चित रूप से, लेकिन आवश्यक नहीं कि बुद्धि सदा दैवीयता से ही प्रेरित हो। बुद्धि वृत्ति की भी गुलाम हो सकती है।

बुद्धि के पास दोनों विकल्प हैं। जब बुद्धि वृत्ति की जगह दैवीयता पर चलती है तो बुद्धि बोध बन जाती है। जब बुद्धि वृत्ति पर चलती है तो वही बुद्धि ‘दुर्बुद्धि’ कहलाती है। बुद्धि के पास दो विकल्प होते हैं – बुद्धि चाहे तो दैवीयता को अपना मालिक बना ले, और बुद्धि चाहे तो वृत्ति को अपना मालिक बना ले। बुद्धि दैवीयता को अपना मालिक बना ले, तो बुद्धि हो जाती है – बोध। और बुद्धि अगर वृत्ति के इशारों पर चलने लगे, जैसा कि बहुत सारे बुद्धिजीवों के साथ होता है, तो वही बुद्धि हो जाती है – दुर्बुद्धि या कुबुद्धि।

ये थोड़ी जटिल बात है।

प्रश्नकर्ता: यह आचार्य जी आपसे इसलिए पूछा क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग से, जो अक्सर अनीश्वरवादी होता है, उससे ऐसी प्रतिक्रिया आयी हैं कि – “अब देखो तुम्हारे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारे तो सब बन्द हो गए है, जो खुला है वो है अस्पताल। और कहाँ हैं तुम्हारे भगवान? अभी तो नहीं दिख रहे, दिख तो सिर्फ़ डॉक्टर ही रहा है। तो जाओ डॉक्टर के पैर पड़ो, वही तुम्हें बचाएगा।”

आचार्य प्रशांत: उनसे पूछिए कि – ये जो आप सबको सलाह दे रहे हैं, वो सलाह आप इसीलिए दे रहे हैं न ताकि लोगों का भला हो? तो यह जो आपके भीतर भावना है कि – सबका भला हो – यह भावना आपको धर्म ने, भगवान ने और मंदिर ने ही सिखाई है।

जो लोग कह रहे हैं कि – “अब मंदिर तुम्हारे काम नहीं आएगा, जाओ वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की शरण में,” ऐसे लोग बहुत हैं। लोग कह रहे हैं – “यह बिलकुल सही समय है कि नास्तिक हो जाओ, क्योंकि तुम्हें दिख नहीं रहा कि अब तुम्हारे काम न धर्म आ रहा है, न पूजा-पाठ आ रहा है, न ध्यान आ रहा है, तुम्हारे काम तो डॉक्टर, गोलियाँ और वैक़सीनेशन ही आना है।” तो अब वो कह रहे हैं कि – “अब तुम बिलकुल समझ जाओ कि धर्म किसी काम की चीज़ नहीं है। तुम नास्तिक हो जाओ।”

उनसे पूछिऐ, “तुम ये सलाह क्यों दे रहे हो? ये सलाह इसीलिए दे रहे हो न कि दूसरों का हित हो? तो ये परहित की जो भावना है, करुणा की जो भावना है, यह तुम्हें किसने सिखाई? जानवरों में तो होती नहीं ये।”

जानवरों में मोह हो सकता है, जानवरों में स्वजाति के लिए एक शारीरिक बन्धुत्व का भाव हो सकता है, लेकिन जानवरों में परहित की भावना नहीं होती। हो ही नहीं सकती है, क्योंकि जानवर तो पूरी तरीक़े से अपनी पाश्विक वृत्ति पर चलता है।

आप जब ये भी कहते हो कि – “अरे सुनो, अरे समझो, भगवान नहीं है,” तो मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि – “आप क्यों समझाना चाह रहे हो दूसरे को?” ये जो आपके भीतर की भावना है न, जो दूसरे को कुछ समझाना चाह रही है दूसरे के हित के लिए, इसी भावना का नाम है ‘भगवत्ता’। और यही भावना प्रमाण है कि भगवान है। भगवान इसी भावना के रूप में तो आपके भीतर बैठा हुआ है। बात समझ रहे हैं आप?

प्रश्नकर्ता: तो आप मानते हो कि समझना एक अच्छा मूल्य है।

आचार्य प्रशांत: और आप ये मानते हो न कि आप दूसरे का भला करना चाहते हो, और आप मानते हो कि दूसरे की भलाई बहुत बड़ी बात है। तो ये जो बात है आपके भीतर जो दूसरे की भलाई चाहती है, इसी चीज़ को ‘भगवत्ता’ कहते हैं। अन्यथा आप दूसरे का भला क्यों चाहते? और ये जो चीज़ है कि – ‘दूसरे का भला चाहो’ – यही तो सब मंदिर सिखाते हैं, यही तो धर्म ने सिखाई है।

तो जो लोग अभी कह रहे हैं कि – “ये बिलकुल सही समय आ गया है कि तुम भोगवादी हो जाओ, पदार्थवादी हो जाओ, बिलकुल मेटीरियलिस्ट हो जाओ, कह दो कि नहीं जो कुछ है वो यही शरीर भर है,” उनसे पूछिए कि – “अगर ये शरीर ही सबकुछ है, तो फिर अपने शरीर की रक्षा करो न। तुम दूसरे के हित की बात क्यों कर रहे हो?”

ये जो हित चीज़ है दूसरे की, ये तो भौतिक चीज़ नहीं है न। प्रेम भौतिक चीज़ होती है? परहित क्या भौतिक चीज़ होती है? शरीर तो भौतिक है, शरीर पदार्थ है। प्रेम तो पदार्थ नहीं है न। आप कह रहे हो, “मुझे तुझसे प्रेम है इसलिए मैं तुझे बीमारी से बचाना चाहता हूँ। मुझे तुझसे प्रेम है, मैं तुझे बीमारी से बचाना चाहता हूँ। तेरा कल्याण चाहता हूँ। तुझे बीमारी से बचाना चाहता हूँ।” मुझे बताओ अगर ये शरीर ही सबकुछ है, तो ये प्रीम और कल्याण कहाँ से आ गए? क्योंकि शरीर का तो मतलब है वज़न, शरीर का तो मतलब है पदार्थ।

प्रेम, दूसरे का कल्याण, परहित, ये सब तो पदार्थ नहीं होते न, भौतिक नहीं होते न। इसका मतलब कुछ है ऐसा जो भौतिक नहीं है। वो जो शरीर से आगे है, वो जो पदार्थ नहीं है, उसी को खोजने का नाम, उसी के अनुसंधान का नाम ‘धर्म’ है। और वही चीज़ जो शरीर से आगे की है, जब नहीं मिलती तो आदमी सदा बेचैन रहता है।

आपके पास शरीर हो, प्रेम न हो, आप रहते हैं बौखलाए हुए कि नहीं? जीवन बिलकुल उजाड़ -उदास रहता है कि नहीं रहता? क्यों रहता है? आप तो कह रहे हैं कि आप तो बिलकुल अनीश्वरवादी हैं। आप कह रहे हैं, “सिर्फ़ यही है दुनिया जो सामने दिखती है, पदार्थ, पदार्थ और पदार्थ!” तो पदार्थ जितना चाहिए ले लो। प्रेम क्यों माँग रहे हो? प्रेम तो पदार्थ नहीं होता। प्रेम क्यों माँग रहे हो?

हमें ये समझना होगा कि हमारी चेतना पदार्थ भर से संतुष्ट नहीं होती। कुछ है जो पराभौतिक है, जो मेटाफिसिकल है, जो हमें चाहिए। उसी की खोजबीन काम नाम ‘धर्म’ है।

इसको थोड़ा-सा पलट के भी कह सकता हूँ।

हमारे भीतर हमने जो बंधन बना रखे हैं, उसको पाने के ख़िलाफ़ जो हमें वास्तव में चाहिए, उसके अनुसंधान का नाम ‘धर्म’ है। दोनों तरह से कह सकते हो। हमसे आगे का जो है – मेटाफिसिकल, उसको पाने की कोशिश का नाम ‘धर्म’ है। या ये कह सकते हो कि हमारे भीतर जो हमने सत्तर तरीक़े के बंधन खड़े कर रखे हैं, शांति के ख़िलाफ़, चैन के ख़िलाफ़ – उन बंधनों को समझने का, उन बंधनों को काटने का नाम’ धर्म’ है।

लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में जो लोग ये कह रहे हैं कि, “अब तुम्हारा भगवान कहाँ छुप गया?” वो बात कुछ समझ ही नहीं रहे। वो बात ही मूर्खता की कर रहे हैं।

वास्तव में अगर आप समझें तो आदमी की वास्तव में जो समस्याएँ हैं, वो इसलिए नहीं हैं कि मंदिरों का भगवान काम नहीं आया। वो इसलिए हैं क्योंकि लोग मंदिर जाते नहीं हैं।

मुझे मालूम है अब मैं जो बोलने जा रहा हूँ, बात बड़ी विवादास्पद हो जाएगी। लेकिन ग़ौर करिएगा कि ये बीमारी भी उस देश से आयी है जहाँ मंदिरों पर प्रतिबंध है। ये बीमारी भी जहाँ से आ रही है, वहाँ भी सब तरह के धर्म पर प्रतिबंध है। मंदिर अगर हैं तो मंदिर तो आपको नहीं सिखाएँगे कि जो जानवर मिले उसी को मारकर खा जाओ। मंदिर तो ये होने नहीं देते न, कि होने देते?

मैं नहीं कह रहा हूँ कि अगर मंदिर होंगे तो इस तरह के वाइरस वगैरह नहीं होंगे इत्यादि। कुतर्क़ करके मेरी बात काटने की कोशिश ना की जाए। न मुझे इस तरह की बातें दी जाएँ कि देखो जहाँ मंदिर हैं, वहाँ भी तो पशुबलि दी जाती है। बात का मर्म समझिए। मेरी बात बस काटने के लिए बहस मत करिएगा।

बात का मर्म ये है कि मंदिर करुणा सिखाता है, धर्म करुणा सिखाता है। और जहाँ करुणा है, वहाँ दुनियाभर के जानवरों के साथ, पशुओं के साथ दुर्व्यवहार और हिंसा कम होगा। संभावना यही है।

प्रश्नकर्ता: क्या चीन में, क्योंकि आपने ये मुद्दा उठाया, मैं पढ़ रहा था – धर्म का अभाव, ज़िंदा पशुओं को खाना एक कारण है, या १९७० में जो भुखमरी आई थी, जिसके कारण चीन की इकॉनमी (अर्थव्यवस्था) को बचाने के लिए इसके कारोबार से प्रतिबंध हटा दिए गए, वह एक मुख्य कारण है?

आचार्य प्रशांत: भारत में बड़े-बड़े दुर्भिक्ष पड़े हैं। भारतियों ने तो जाकर के साँप और केंचुआ और मच्छर और तरह-तरह के कीड़े और घोड़े, गधे और कुत्ते खाना तो नहीं शुरू कर दिया।

प्रश्नकर्ता: क्योंकि इनके व्यवसाय से इकॉनमी को उस वक़्त बचाने की ज़रूरत थी।

आचार्य प्रशांत: मैं बात समझ रहा हूँ बिलकुल। आप बात कर रहे हैं कि जो ‘ग्रेट लीप फ़ॉर्वर्ड’ का समय था, माओ ज़ेडोंग का समय था, इस समय बड़ा आकाल, दुर्भिक्ष पड़ा था। लोगों के पास खाने को नहीं था, तो लोग जंगलों की तरफ़ निकल गए, वहाँ जो जानवर मिला उसी को उठाकर चबाना शुरू कर दिया। भारत में तो अंग्रेज़ों के समय दर्जनों महा-आकाल पड़े, और लाखों में, करोड़ों में लोग मरे। भारत में तो कभी ऐसा नहीं हुआ कि भारतीयों ने जाकर के जो ही मिला उसी को खाना शुरू कर दिया।

तो एक चीज़ होती है जहाँ इंसान कहता है, “जान देना गँवारा है, लेकिन कुछ काम हैं वो बिलकुल नहीं करेंगे। वो गँवारा नहीं है।”

तो धर्म आवश्यक है जीवन में। धर्म अगर नहीं है जीवन में, तो आदमी में और जानवर में बहुत अंतर नहीं है। आदमी गोरिल्ला है, बुद्धि वाला गोरिल्ला। जंगल में जो गोरिल्ला पाया जाता है वो बुद्धिहीन गोरिल्ला है, आदमी भी फिर गोरिल्ला है। वृत्तियाँ उसकी बिलकुल जानवर की और वानर की हैं। बस उसके पास एक अतिरिक्त चीज़ है जिसका नाम ‘बुद्धि’ है। और वो बुद्धि उसकी पाश्विक वृत्तियों के पीछे-पीछे चलेगी। तो धर्म के बिना आदमी में और जानवर में कोई अंतर नहीं है, बल्कि आदमी बहुत ख़तरनाक जानवर हो जाता है। आदमी बहुत बुद्धिमान जानवर हो जाता है। और बुद्धिमान जानवर को ही कहते हैं – ‘कुबुद्धि’।

आजकल के अधिकांश बुद्धिजीवी बस बुद्धि वाले जानवर हैं। बुद्धि उनमें ख़ूब है। पर उनकी बुद्धि पर शासन उनकी वृत्तियाँ कर रही हैं। उनकी बुद्धि बोध की तरफ़ नहीं बढ़ रही, बढ़ने देना नहीं चाहते।

प्रश्नकर्ता: फिर वो निर्बल पशुओं को सिर्फ़ खाता नहीं है, उनका पूरा व्यापार करता है। वूहान का पूरा मार्केट है, वेट मार्केट है।

जिस बुद्धिजीवी वर्ग की मैंने आचार्य जी बात की, वो जब यह कह रहा है कि – “यह सही मौक़ा है अनीश्वरवादी हो जाने का, यह जानने का कि ईश्वर जैसा कुछ है नहीं, क्योंकि अगर होता तो बचा लेता, “बड़ी दुर्भाग्य की ये बात है कि वो इस बात के पक्ष में हिंदू और मुस्लिमों के बीच हुए दिल्ली के दंगों को भी ला रहा है कि – देखो कुछ ही समय पहले उनके नाम पर जो लोग लड़ रहे थे, आज वो सब एकजुट हो गए हैं क्योंकि एक बड़ी बीमारी है जो उनके सामने है। इसपर आपका क्या कहना है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो तो जो लोग धर्म के नाम पर लड़ रहे थे उनका धर्म से कोई सम्बन्ध था ही नहीं। यह मैं पहले भी एक साक्षात्कार में कह चुका हूँ – ये सब जो दंगे-फ़साद होते हैं धर्म के नाम पर, वास्तव में इनसे धर्म के अभाव का ही पता चलता है। ये लोग जो धर्म के नाम पर एक दूसरे का गला काटते हैं, ये कहाँ धार्मिक, धर्मावलम्बी हो गए?

दंगा करने से पहले की इनकी ज़िंदगी देख लो, दंगे के बाद की इनकी ज़िंदगी देख लो, मुझे दिखा दो कि कितना धर्म है इनकी ज़िंदगियों में। तो ये सब जो लड़ रहे हैं, इनको धर्म का प्रतिनिधि नहीं समझ लेना चाहिए। बल्कि ये समझना चाहिए कि ये वो लोग हैं जिन्हें सही धार्मिक-शिक्षा कभी मिली नहीं, क्योंकि सही धार्मिक-शिक्षा के रास्ते बंद कर दिए गए।

सही धार्मिक शिक्षा को जितने तरीक़े से रोका जा सकता है, राज्य ने मिलकर के, बुद्धिजीवियों ने मिलकर के, ये जो अभी पूरी व्यवस्था चल रही है शिक्षा की, सबने मिलकर के सही धार्मिक ज्ञान को रोक रखा है। बच्चों तक, जवानों तक पहुँच नहीं पाता। तो फिर उन तक जो पहुँचता है, वो या तो उनको बनाता है अधर्मी, या उनको बनाता है धर्महीन।

दो काम करते हैं वो – या तो वो कहते हैं कि वो धार्मिक हैं, लेकिन वो धर्म के नाम पर होते विधर्मी हैं। या वो कह देते हैं कि – “साहब हम तो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते, हम तो नास्तिक हैं।” आप आज के युवाओं में जाएँगे तो आप दो धाराएँ पाएँगे, जिनको आप आमतौर पर कह देते हैं – राईट और लेफ़्ट कह देते हैं।

जो युवावर्ग अपनेआप को कह देता है कि – “साहब हम तो वाम-मार्गी हैं, लेफ़्ट की तरफ़ के हैं,” ये वो लोग हैं जिन्हें धर्म कभी पढ़ाया ही नहीं गया। बेचारे बड़े अभागे थे। तो ये एक ऐसी चीज़ को अस्वीकार कर रहे हैं जिनके बार में इन्हें कुछ पता ही नहीं। जब इनसे पूछो, “तुम किस चीज़ को अस्वीकार कर रहे हो?” तो ये कहते हैं, “हम रिलीजन (धर्म) को अस्वीकार कर रहे हैं।” इनसे पूछो कि रिलीजन है क्या? इन्हें नहीं पता। ये कहेंगे, “रिलीजन का मतलब तो होता है पूजा-पाठ, पाखंड।” मतलब ये हास्यास्पद बात है।

तुम्हें पता तो है नहीं कि धर्म क्या है, तुम अस्वीकार किस चीज़ को कर रहे हो? और ये बड़ी बुद्धिहीनता की बात है कि तुम बुद्धि के नाम पर ऐसा बुद्धिहीन काम कर रहे हो कि जिस चीज़ का कभी ज्ञान नहीं लिया, जिस चीज़ के बारे में न कभी पढ़ा, न जाना, उसको तुम ख़ारिज किए दे रहे हो। कह रहे हो, “निरस्त! धर्म तो बेकार है। हम नहीं मानते।”

दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि – “साहब हम तो धर्म-परायण हैं।” इनको आप राईटिस्ट बोल देते हो। ये वो लोग हैं जो नाम तो धर्म का लेते हैं, पर धर्म का इन्हें भी कुछ नहीं पता। तो ये भीतर-ही-भीतर से छुपे हुए अधार्मिक लोग हैं

प्रशकर्ता: जिनके लिए धर्म एक संस्कृति है।

आचार्य प्रशांत: जिनके लिए धर्म कभी संस्कृति है। कभी ये है कि कौन-सी माला पहननी है। कौन-से रंग का कपड़ा, कौन-सा त्योहार मनाना है। ताम्बे का लोटा और लोहे की थाली और ये रीति, ये रिवाज़। इनके लिए धर्म का बस यही मतलब है। क्योंकि इन्हें भी कभी सही तरीक़े से धार्मिक शिक्षा दी ही नहीं गई।

बड़ा आपातकाल है धर्म के क्षेत्र में। जो कहते हैं कि वो धार्मिक नहीं हैं, वो तो नहीं ही हैं धार्मिक, और जो कहते हैं कि वो धार्मिक हैं, वो तो और नहीं हैं धार्मिक।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज ही देश के प्रधानमंत्री ने इस स्थिति के विषय में अपनी कुछ बात सामने रखी। उन्होंने २२ मार्च को एक कर्फ़्यू लागू कर दिया है। हो सकता है आने वाले कुछ महीनों में स्थिति और गम्भीर हो जाए। आपकी एक उक्ति है कि – “जिस चीज़ को लेकर तुम डर रहे हो, वो हो जाए उससे ज़्यादा बुरा है कि तुम उसके होने की कल्पना करके डर-डर के मरते रहो।”

लोग घर में रहने लग गए हैं, दफ़्तर इत्यादि बंद हो रहे हैं। बाहर नहीं जा रहे हैं। जो माताएँ-बहनें हैं, वो चिंतित हैं। इस वक़्त जो सावधानी बरतनी है, उसके साथ-साथ मानसिक रूप से सक्षम रहने के लिए आपके क्या सुझाव हैं?

इस विकट परिस्थिति में चिंता और भय से कैसे बचें? ख़ाली समय का सदुपयोग कैसे करें?

आचार्य प्रशांत: ये बहुत अच्छा समय है। क्योंकि आपके जो रोज़मर्रा के नियमित ढर्रे हैं वो टूटेंगे। आपको घर पर रहने का मौक़ा मिलेगा, आपको ऐसा समय मिलेगा जो आमतौर पर उपलब्ध नहीं होता। इस आपातकाल ने आपको एक ऐसी सुविधा दे दी है जो आपको ज़िंदगी के नित्यक्रम में मिलनी ही नहीं थी कभी। तो मैं कहूँगा कि इस समय का सदुपयोग करें।

प्रश्नकर्ता: पर आचार्य जी, ख़ाली बैठे हैं तो डरेंगे भी, सोचेंगे भी बहुत।

आचार्य प्रशांत: नहीं, ख़ाली बैठे हैं तो दूसरा काम भी तो हो सकता है।

सुंदर साहित्य पढ़ें। अच्छे से अच्छे वीडियोज़ देखें। ऐसी बातों पर विचार करें जिसपर ज़िंदगी में आमतौर पर कर नहीं सकते थे। थोड़ा अकेले बैठने का अभ्यास करें। वो सारी चीज़ें जो ज़िंदगी की हबड़-तबड़, जो ज़िंदगी की दौड़-भाग आपको करने नहीं देती, आप थोड़ा उनपर ध्यान दें। और व्यर्थ-चर्चा, ख़ुराफ़ात, गॉसिप, इन सबसे बचें। अफ़वाहें ना उड़ाएँ। शांत बैठें। और इस समय को भी एक आशीर्वाद की तरह मानकर के, प्रसाद की तरह मानकर के, इस समय का सदुपयोग करें।

हमें नहीं मालूम कि ईश्वर का आशीर्वाद भी किन-किन रूपों में आता है। कई बार ऐसा हुआ है कि कोई बहुत बीमार हो गया है, अस्पताल में पड़ा रहा है साल भर। और जो अस्पताल में उसका साल भर का समय है, उसी समय में उसने एक ज़बरदस्त किताब लिख डाली है। या इतना स्वाध्याय कर डाला है कि वो अस्पताल से कुछ और होकर के बाहर आता है।

तो ये तो आपके ऊपर है कि आप स्थितियों के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हैं। सार्थक और स्वस्थ दृष्टिकोण रखें, और अगर आपका शरीर, भगवान ना करे, संक्रमित हो भी जाए, तो मन को संक्रमित ना होने दें। क्योंकि देखिए काफ़ी सम्भावना है कि लाखों, करोड़ों लोग इससे संक्रमित होंगे। एक सम्भावना ये भी है कि दुनिया की आबादी का आधे से ज़्यादा हिस्सा इससे संक्रमित होने जा रहा है। ऐसा हो सकता है।

प्रश्नकर्ता: ऐसा क्यों कह रहे हैं आप? क्या आपने देखा?

आचार्य प्रशांत: देखिए, अलग-अलग तरह के सिनेरियो (परिदृश्य) होते हैं। एक ये होता है कि जो इसका ग्राफ़ है, वो समतल हो जाए – चपटा। और एक ये भी होता है कि अचानक से जो संक्रमित लोगों की संख्या है वो उठकर बढ़ जाए।

एक उदाहरण दिए देता हूँ।

हज़ार लोगों की भीड़ कहीं जमा है। मान लीजिए, भारत में आज के दिन तक आपके पास कुल १६० केस हैं जो आपको पता है कि संक्रमित हैं। इनमें से एक आदमी, एक हज़ार लोगों की भीड़ के बीच चला जाए, और उनके बीच में खाँसते-छींकते दो-चार घंटे बिता दे। मान लीजिए कोई धरना प्रदर्शन हो रहा है, और उसमें कोई एक आदमी संक्रमित हो, अचानक पता चलेगा आपको कि हज़ार लोग और जुड़ गए। और अब जो ये हज़ार लोग हैं, ये स्टेज तीन पर ले जाएँगे वाइरस को। आप स्टेज २, स्टेज ३ समझते हैं न? स्टेज ३ होता है जहाँ पर अब सामुदायिक स्तर पर वाइरस फैलेगा।

प्रश्नकर्ता: भारत अभी स्टेज २ पर है।

आचार्य प्रशांत: भारत अभी स्टेज २ पर है। स्टेज २, पर है लेकिन स्टेज ३ की तरफ़ जा रहा है। और ऐसा एक मामला भी स्टेज ३ में भारत को खींचकर रख देगा।

शरीर बीमार हो, मन बीमार न होने पाए। वैसे भी इसमें जो मृत्यु दर है, बहुत ज़्यादा नहीं है। कहीं एक प्रतिशत है, कहीं चार प्रतिशत है। कहीं पाँच प्रतिशत है, बहुत हुआ तो। औसतन दो प्रतिशत के आसपास है। पचास में से किसी एक व्यक्ति की ही इसमें मृत्यु होने की आशंका है। तो आपको अगर इन चौदह दिन से गुज़रना भी पड़े, तो उन चौदह दिनों को अपने लिए सदमे की तरह, हादसे की तरह ना लें।

सब तरह की सावधानियाँ बरतें। सबसे पहले तो ये कि संक्रमण आपको लगा है तो आपसे किसी और को नहीं लगना चाहिए। ये भूलिएगा नहीं कि ये आपका धर्म है। और दूसरी बात – ये जो बीमारी का दौर है, इसका सदुपयोग करें। ये जो आपके घर में अकेले रहने का दौर है, उसका भी सदुपयोग करें। आप क्वारंटाइन भी हो जाएँ, उसका भी सदुपयोग करें। समय का क्या है, वो तो कट ही जाएगा। आप ग़लत और घटिया तरीक़े से भी काटें, तो भी कट जाएगा। ये अब आपके चुनाव पर है, आपकी बुद्धि पर है कि आप समय को कैसे काटते हैं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्योंकि आप अर्थशास्त्र की भी अच्छी समझ रखते हैं। एक प्रश्न पूछना चाहूँगा अगर आप अनुमति दें कि – काम इत्यादि ठप पड़ गया है। विदेश यात्रा, बहुत सारा आवागमन जो है वो रुक गया है, स्टॉक मार्केट बाजार गिर रहा है, पूँजीवादी जो क्षेत्र है, उसको नुक़सान हो रहा है, तो इस पूरी व्यवस्था में आप भविष्य कैसा देखते हैं, आर्थिक रूप से?

आचार्य प्रशांत: कुछ कह नहीं सकते। ये तो पक्का है कि नुक़सान हो रहा है और नुक़सान होगा। लेकिन आगे कैसा होता है, वो तो इसीपर निर्भर करता है कि हम एक समुदाय के तौर पर, एक राष्ट्र के तौर पर, और सम्पूर्ण मानवता के तौर पर कैसा जवाब देते हैं इस स्थिति को। भूलिएगा नहीं कि चीन, जहाँ ये बीमारी शुरू हुई, चीन ने भी इतनी सफलता तो पाई ही कि चीन में वुहान से बहुत आगे नहीं फैलने दिया इसको। और अभी मैं पढ़ रहा था कि आजकल में वुहान से भी नए मामले शायद अब आ नहीं रहे हैं।

तो ऐसा नहीं है कि अगर आदमी मुट्ठी भींच ले, और संकल्पबद्ध होकर के काम करे, तो इसके प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है।

और अगर हम बुद्धिहीन होकर के काम करें, मनचले होकर के काम करें, तो फिर तो कितना संक्रमण हो जाएगा, इसकी कोई सीमा ही नहीं है। पूरी मानवता भी संक्रमित हो सकती है। मौतें लाखों क्या, करोड़ों में भी हो सकती हैं। ये भी हो सकता है कि आप बहुत आसानी से इसको रोक दो, और ये भी हो सकता है कि ये बिलकुल आजतक की सबसे बड़ी महामारी भी बन जाए।

ये हमारे हाथ में है काफ़ी हद तक। हमें कुछ करके दिखाना होगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपका ज़्यादा समय न लेते हुए आख़िरी प्रश्न आपसे पूछना चाहूँगा। जो लोग संस्था से जुड़े हुए हैं – प्रशांतअद्वैत फ़ाउंडेशन से, स्वयंसेवी हैं, आपको बहुत मानते हैं, इस स्थिति में उनका रेस्पॉन्स (प्रतिक्रिया) कैसा होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: वो वही काम करें जो उनका करना है। सड़क पर निकलकर किसी तरह की सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए हमारा जो पूरा दल है, जो हमारा संस्था का समुदाय है, वो बहुत छोटा है। हम जो काम कर रहे हैं, वो अपनेआप में, बहुत जीवन के प्रति सकारात्मक काम है। वो काम हम सही तरीक़े से करते रहें, यही काफ़ी है।

हमारे वीडियो लोगों के पास जाते रहें। लोगों के पास इस समय थोड़ा ज़्यादा ही समय होगा, वो घर बैठेंगे, उन्हें हमारे वीडियो पहुँचते रहें। हमारा पूरा सोशल मीडिया सक्रिय रहे। जो हमें कॉल्स आ रहीं हैं फ़ोन पर, यूँही कुछ सैकड़ों कॉल्स आती थीं, अभी कुछ हफ़्ते से वो जो फ़ोन कॉल्स आ रही थीं वो बढ़ ही गई हैं। लोग इस मुद्दे पर भी बात कर रहे हैं।

तो हमसे जब वो बात करते हैं, मेरी प्रार्थना है कि जैसे उनको शांति मिलती है, उन्हें और शांति मिलती रहे हमारे माध्यम से। बस यही है। हम जो कर रहे हैं, वही बेहतर तरीक़े से करते रहें, वही काफ़ी है।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी।

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