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इतनी शोहरत इतनी कमाई, फिर भी उदासी और तन्हाई
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरी उम्र तीस वर्ष है। मेरा जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। जब मैं सिर्फ आठ साल का ही था तब मेरे पिताजी की मृत्यु हो गई। बचपन से ही कोई भी दोस्ती नहीं करता था मुझसे। न मेरी शक्ल अच्छी न अक्ल, तो मैंने ऐसे काम करने शुरू किए जिससे लोग मुझसे आकर्षित हो सकें।

कहीं से नाचना-गाना और कॉमेडी करना सीखा। आज मैं एक सफल कोरियोग्राफर हूँ। मेरा एक यूट्यूब चैनल भी है जिसमें तक़रीबन आठ लाख से ऊपर सब्सक्राइबर्स हैं। इतने लोग होने के बावजूद फिर भी जीवन में अभी तक ख़ुशी नहीं मिली। कुछ साल पहले एक लड़की से मुझे प्यार हुआ, मगर उसकी कुछ हरकतों के कारण मैं बहुत दुखी हुआ और मैंने दो बार आत्महत्या करने का प्रयास भी किया। सभी रिश्तों को बाहरी-बाहरी देखकर अब मुझे ऐसा लगता है कि किसी भी रिश्ते पर मैं भरोसा नहीं कर पाता। कृपया मार्गदर्शन कीजिए।

आचार्य प्रशांत: सच्ची ख़ुशी न किसी लड़की से मिलेगी, न आठ लाख सब्सक्राइबर्स से। सच्ची ख़ुशी तब है जब खुश रहने के लिए न लड़की की ज़रूरत हो न सब्सक्राइबर्स की। जिनके पास वो सब चीज़ें नहीं होतीं जो तुम्हारे पास हैं, उनको तो माफ किया जा सकता है अगर उनको ये भ्रम हो कि कभी लड़की मिल जाएगी, या शोहरत मिल जाएगी, या पैसा, या काम में सफलता, तो भीतर से बड़ा उल्लास उठेगा।

अक्सर होते हैं न लोगों को ऐसे भ्रम कि अभी तो ज़िन्दगी में मायूसी इसलिए है क्योंकि पैसा, शोहरत, सफलता, लड़की ये सब नहीं हैं? पर तुम तो अब खेले-खाए जीव हो। संस्था के चैनल पर जितने सब्सक्राइबर्स हैं उससे ज़्यादा तो तुम्हारे हैं, लड़की इत्यादि भी कर ली। तो फिर तो जो बात मैं अभी कह रहा हूँ, ये तुम्हें खुद ही समझ जाना चाहिए था। बहुतों के लिए तुम बड़े आदर्श होगे। होगे न? क्या करते हो उसमें? तुम्हारे अपने वीडियोस रहते हैं?

प्र: उन वीडियोस में डांस सिखाता हूँ।

आचार्य: तो उस चैनल में डांस सिखाते हुए तुम्हारे वीडियोस रहते हैं?

प्र: हाँ, जी। डांस करते हुए भी और डांस सिखाते हुए भी।

आचार्य: तो इतने लोगों को सिखाया है तो उसमें से कुछ को तो बहुत फायदा भी हुआ होगा, सीख भी गए होंगे?

प्र: हाँ, जी।

आचार्य: शायद सैंकड़ों, शायद हज़ारों लड़के-लड़कियाँ तुम्हें आदर्श की तरह भी देखते होंगे।

प्र: हाँ गुरूजी, लिखते हैं कमैंट्स में।

आचार्य: लिखते होंगे कमैंट्स में। अब समझो कि हम सब कैसे भ्रमित हो जाते हैं। ये सब लड़के-लड़कियाँ जो तुम्हारे वीडियो देखकर के नीचे लिखे रहे हैं “आप बड़े ऊँचे हो”, “आप देखो हम सब में कितनी खुशियाँ बाँट रहे हो”, “आपके कारण हमें भी कुछ सफलता मिल रही है।” ऐसा ही लिखते होंगे न?

प्र: हाँ गुरूजी, लिखते हैं।

आचार्य: तो देखो उन्हें गलतफ़हमी हो गयी न। अब समझो कि हम सबको ही कैसे ग़लतफहमी हो जाती है। ऐसे ही। अब आपके दिल की हालत क्या है वो तो हम मुट्ठीभर लोग ही जान रहे हैं न यहाँ पर। अब आज के बाद बहुत सारे लोग जान जाएँगे, पर फिर भी, भीतर का मामला क्या है वो तो हम चंद लोगों को ही फिलहाल पता चल रहा है, और तुम्हें देखने वाले बाकी लोग क्या देख रहे हैं? एक *स्क्रीन*।

हम अभी थोड़ा सा बन्दे की हकीकत देख पा रहे हैं, है न? क्योंकि उसने ईमानदारी से अपनी बात यहाँ पर हमारे सामने रखी है। हमारा सौभाग्य है। जब कोई आपके सामने ईमानदारी से अपना दिल खोल कर रखे तो सबसे पहले उसको नमस्कार करना चाहिए, क्योंकि वो आपको बड़ा सम्मान दे रहा है कि आपके सामने अपनी हकीकत रख पा रहा है।

तो ये बात तो हम जानते हैं न जो तुमने हमें अभी बताई। बाकी लोग तो क्या देखते हैं? स्क्रीन * * स्क्रीन शब्द पर गौर करना, गहरा जाता है। बाकी लोग स्क्रीन देखते हैं और तुम्हारे ही जैसा बनना चाहते हैं। बहुत ऐसे होंगे न?

अब तुम कह रहे हो कि तुम इतने तनाव में हो कि दो बार आत्महत्या की विफल कोशिश भी कर चुके हो। वो कह रहे हैं उन्हें तुम्हारे जैसा बनना है, तो क्या उन्हें भी आत्महत्या की कोशिश करनी है कि तुम्हारे जैसा बने? पर वो ये बात जानते ही नहीं कि तुम भीतर-ही-भीतर दुखी भी हो, परेशान भी हो, नहीं जानते न? वो क्या देख पा रहे हैं? बस तुम्हारा स्क्रीन पर्सोना (दिखावटी व्यक्तित्व)। और स्क्रीन पर्सोना देखकर के वो बिलकुल तुम्हारे ही जैसा बनने की कोशिश कर रहे होंगे, है न? और ये करके वो भी अपने जीवन में क्या ले आएँगे? मायूसी, अवसाद, भ्रम। ले आएँगे न?

अब समझो ऐसे ही तुम्हारे जीवन में भी वो सब कुछ आया है। वो तुम्हें देख के सोचेंगे कि अगर हम इनके जैसा बन जाएँ तो हमें सच्ची ख़ुशी मिलेगी। तुम्हारे ये जो आठ लाख सब्सक्राइबर हैं वो तुम्हें स्क्रीन पर देखते होंगे, और तुम्हें देख कर सोचते होंगे कि, "काश हम भी इनके जैसे हो पाते, तो हमें भी सच्ची ख़ुशी मिलती। देखो न, ये कितना बढ़िया प्रदर्शन करते हैं स्क्रीन पर।" और स्क्रीन पर तो मुस्कुराता चेहरा ही दिखाते होगे न? "और देखो स्क्रीन पर ये कितने खुश, प्रफुल्लित नज़र आते हैं। और कितने जाबाज़, कितने सक्रिय, कितने गतिशील लगते हैं।" वो तुम्हें देख-देखकर बिलकुल तुम्हारे जैसा बनने की कोशिश करेंगे, यही सोच करके कि अगर वो तुम्हारे जैसा बन गए, उन्होंने वो सब कुछ पा लिया जो अभी तुमने पाया हुआ है, तो उन्हें मिल जाएगी सच्ची खुशी।

सच्ची खुशी क्या है कोई नहीं जानता लेकिन एक स्क्रीन है जिस पर हम दूसरों को देखते हैं और हमें ये भ्रम हो जाता है कि उस दूसरे को मिली हुई है। मैं उसके ही जैसा बन जाऊँ अगर तो, मुझे भी मिल जाएगी। जैसे तुम्हें देखने वाले तुम्हें देखकर ये भ्रम पाल रहे होंगे, ठीक उसी तरीके से तुमने भी न जाने किन लोगों को देख लिया और उनको देखकर के ये भ्रम बना लिया कि, "अगर मैं भी इन्हीं की तरह सफल, और शोहरत वाला हो जाऊँ और पैसे वाला हो जाऊँ, तो मुझे भी सच्ची खुशी मिल जाएगी।"

अब अंदर की बात सुनो। जिनको देख करके कभी जाने-अनजाने में तुमने ये भ्रम बनाया होगा कि, "अगर मैं इनके जैसा हो जाऊँ तो मुझे भी सच्ची खुशी मिल जाएगी", उनमें से भी कुछ लोग यहाँ इसी तरह सामने आकर बैठ चुके हैं। और कोई भरोसा नहीं। अगले शिविर में तुम्हें देखने वाले, तुम्हारे छात्रों में से कोई यहाँ आकर के बैठा हो। तो एक दूसरे को भ्रमित करने वाली और एक दूसरे से भ्रम खाने वाली तीन पीढ़ियाँ मेरे सामने होंगी। तीनों यही सोच रहे हैं कि एक दूसरे जैसा बन जाएँ तो सच्ची खुशी मिल जाएगी। सच्ची खुशी तीनों में से किसी के पास भी नहीं है।

तुम्हें भी याद हो या न हो, तुम भी इस बात को समझते हो चाहे न समझते हो, लेकिन खुशी मिल सकती है सफलता से और शोहरत से, ये बात तुम दो वर्ष की उम्र से नहीं जानते थे। ये बात तुमने भी किसी स्क्रीन पर किसी को देखकर सीखी है। और स्क्रीन के दो अर्थ होते हैं। जब तुम कहते हो लैपटॉप की स्क्रीन , या टीवी की स्क्रीन या मोबाइल की स्क्रीन तो उससे आशय होता है वो चीज़ जिस पर कुछ उभरता है, जिस पर कुछ दिखाई देता है, ठीक? स्क्रीन शब्द का बिलकुल दूसरा अर्थ भी होता है। स्क्रीन माने वो जो तुम्हें कुछ देखने से रोकता है।

कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि वासना, काम, क्रोध, मद, मोह ये सब सत्य के ऊपर स्क्रीन की तरह हैं। क्या आशय हुआ? कि इनकी मौजूदगी के कारण तुम सच को नहीं देख पाते। अरे भाई, सनस्क्रीन लोशन लगाते हो, तो उसमे स्क्रीन का क्या अर्थ हुआ? जो सन को रोक दे। सन माने धूप। जो धूप को तुम तक पहुँचने से रोक दे उसका नाम होता है *सनस्क्रीन*। इसी तरह जो सच को तुम तक पहुँचने से रोक दे उसका नाम होता है मोबाइल की *स्क्रीन*।

जो धूप को तुम तक पहुँचने से रोक दे उसका क्या नाम है? *सनस्क्रीन*। और जो सच को तुम तक पहुँचने से रोक दे उसका क्या नाम है? मोबाइल की * स्क्रीन । उस पर तुम्हें जो दिखाई दे रहा है वो * स्क्रीन्ड ट्रुथ (फिल्मी सत्य) है। वहाँ जो कुछ दिखाई दे रहा है वो स्क्रीन्ड है मतलब उसका रस हटा दिया गया है, उसका यथार्थ, उसका सार, उसका सच छुपा दिया गया है। और जो झूठ-झूठ है, जो छिलका-छिलका है वो तुमको दिखाई दे रहा है, उसका नाम *स्क्रीन*।

और हम स्क्रीन पर आधारित और स्क्रीन से प्रेरित ज़िन्दगी जीते हैं। हम गहरे कभी नहीं जाते। जैसे तुम्हारे भी जितने चाहने वाले हैं, और फैंस हैं और स्टूडेंट्स हैं वो तुम्हे स्क्रीन पर ही देख रहे हैं न? किसी ने इतनी दिलेरी, और इतनी इच्छा, और इतना श्रम तो दिखाया नहीं कि वो बिलकुल तुम्हारे पास आए और पूछे, कि “*टीचर, वी फील सो इंस्पायर्ड बाय यू, आई वांट टू नो व्हाट योर रियल लाइफ इज़ लाइक*” (अध्यापक साहब, हम आपसे बहुत प्रेरित हैं। हम आपके असल जीवन के बारे में जानना चाहते हैं)

कोई आया क्या? नहीं न। होंगे दो-चार। बाकी तो सब इतने से ही संतुष्ट हैं कि दूर-दूर से, स्क्रीन भर से जो दिख गया उतना काफी है। और ये समझ लो निन्यानवे दशमलव नौ नौ प्रतिशत तुम्हें जो कुछ भी दिख रहा है स्क्रीन पर वो झूठा ही है, स्क्रीन्ड ही है।

कह रहे हो ‘बचपन से ही मैं बहुत साधारण था।’ कह रहे हो कि ‘न कुछ ख़ास व्यक्तित्व था, न ज्ञान था।’ और बड़ी विनम्रता से तुमने ये भी कह दिया कि चेहरा-मोहरा कुछ ख़ास नहीं था, अक्ल नहीं थी ये भी कह बैठे। और उसके बाद निश्चित रूप से तुमने कुछ ऐसे लोगों को देखा जिनके पास वो सब कुछ था जिसकी कमी तुम्हे स्वयं में खलती थी, ठीक? अगर तुम गौर करोगे तो शायद वैसे नाम भी मुझे अभी बता दो कि वो कौनसे लोग थे जो तुम्हें बिलकुल किसी दूसरे जगत के लगते थे, किसी विपरीत ध्रुव के लगते थे।

तुम कहते थे “मेरी शक्ल देखो, अति साधारण। और उनकी देखो, वाह वाह क्या बात है!” तुम्हें पता भी नहीं चला तुमने कब उनको आदर्श बना लिया। तुम्हें पता भी नहीं चला कि तुमने कब ये ख़याल पाल लिया कि तुम भी उनके जैसे हो जाओ तो सच्ची खुशी मिल जाएगी। इतनी जाँच तुमने करी ही नहीं कि वो, जिनके जैसा तुम बनना चाहते हो, उनके पास भी सच्ची खुशी है या नहीं है।

ये सब बेटा हैप्पी फेसबुक फेसेस हैं। ये सब झूठ दिखा रहे हैं। आज ही एक दुखद खबर आयी है। एक फिल्म अभिनेता और टेलीविज़न अभिनेता, जो अभी युवा ही था, उसने आत्महत्या कर ली। परिचित चेहरा था, सब जानते होंगे। खबर में पढ़ा नहीं तो जा कर पढ़ना। उसको स्क्रीन पर देखोगे तो कहोगे “बिंदास! क्या खूबसूरती है! खुशियाँ ही खुशियाँ। क्या बात है!” किसी को पता चला उसके दिल में क्या ज़ख्म था? किसी को पता चला वो भीतर-ही-भीतर कितना दुखी था?

यही संसार है जहाँ बस सतह दिखाई पड़ती है, गहराई में कोई जाता नहीं। गहराई में जाने का नाम अध्यात्म है। संसारी वो जो स्क्रीन देख-देख कर संतुष्ट हो गया, संसारी वो जिसने स्क्रीन को ही सच समझ लिया। आध्यात्मिक आदमी वो जो स्क्रीन देख कर कहता है “नहीं। ये चीज़ जैसी भी लग रही है, बात मुझे पूरी जाननी है, मुझे गहराई में पैठना है।”

जहाँ तलाश रहे हो, सच्ची खुशी वहाँ नहीं है। ऐसा नहीं है कि कहीं भी नहीं है, पर वहाँ बिलकुल भी नहीं है जहाँ तलाश रहे हो। और इसका प्रमाण अब तुम्हें मिल चुका है। अब क्या करना है? अब यह करना है कि तलाशना नहीं है वहाँ जहाँ आजतक तलाशा। वो जो कुछ हो रहा है होने दो। उससे ये उम्मीद रखना छोड़ दो कि सच्ची खुशी पा जाओगे।

तुरंत तुम्हारे मन से प्रतिक्रिया आएगी। तुम कहोगे “अच्छा, वहाँ नहीं मिलनी है सच्ची खुशी तो कहाँ मिलनी है?” ये प्रतिक्रिया ही दुश्मन है तुम्हारी क्योंकि अगर तुमने इस प्रतिक्रिया की बात सुनी तो वो कहेगी कि “अच्छा, पैसे में नहीं मिली तो शायद रोमांच में, यात्रा में, एडवेंचर में मिल जाए। लड़की में नहीं मिली तो लड़के में मिल जाए। इतनी शोहरत में नहीं मिली, आठ लाख सब्सक्राइबर्स में तो क्या पता अस्सी लाख में मिल जाए। भारत में बैठे-बैठे नहीं मिली तो क्या पता विदेश जाकर मिल जाए।”

जब भी भीतर से ये प्रतिक्रिया आएगी कि सच्ची खुशी अगर यहाँ नहीं है तो कहाँ है, ये प्रतिक्रिया तुम्हें बाध्य कर देगी एक उत्तर देने के लिए, और तुम्हें बता रहा हूँ कि सारे उत्तर झूठे होंगे। लेकिन ये पता लगने में कि पिछला उत्तर तो झूठा था ही, अगला उत्तर भी झूठा होगा, तुम्हारे दस साल और बीत जाएँगे, दस साल की ज़िन्दगी तुम और ख़राब कर लोगे।

आज भी तुम यहाँ जो बैठ कर कह रहे हो कि यश भी है और सफलता भी है, फिर भी शांति नहीं है, आनंद नहीं है, ये तुम दस साल के तजुर्बे के बाद कह पा रहे हो न? आज से दस साल पहले तुम्हें यही लग रहा होगा कि फलानि फलानि चीज़ें अर्जित कर लूँ, तो आहाहा! क्या आनंद रहेगा, यही लग रहा था न? दस साल बाद मायूस हो कर बैठे हो, कहते हो “वो सब तो पा लिया जो पाना चाहता था लेकिन उसका नतीजा है आत्महत्या का विचार। ये तो छोड़ दीजिए कि ज़िन्दगी खुशियों से भर गई है; मुझे ज़िन्दगी बोझ लग रही है, मैं जीना नहीं चाहता।”

अब जो तुम्हारे भीतर से प्रतिक्रिया आएगी वो कहेगी “अरे अरे अरे, गलती ये हो गई कि तुमने इन कुछ चीज़ों में खुशी खोजी। मैं बताती हूँ तुम्हें कि किन चीज़ों में सच्ची खुशी मिलेगी।” तो वो तुम्हें दो-चार दूसरी चीज़ों के नाम गिना देगी। फिर तुम लग जाओगे तुम उन दो-चार दूसरी चीज़ों का पीछा करने में और लगाओगे और दस साल, और उस दस साल के बाद अगर ज़िंदा बचे तो फिर यहाँ मेरे सामने बैठ कर यही कह रहे होगे कि “सर जी, फिर धोखा हो गया, फिर धोखा हो गया।”

तो इसलिए कह रहा हूँ ये प्रतिक्रिया ही दुश्मन है। ये प्रतिक्रिया ही हमें थाली का बैंगन बनाए रहती है। ये प्रतिक्रिया ही हमें बिलियर्ड्स टेबल की बॉल बनाए रहती है: एक तरफ, और जिधर को गए वहाँ ठोकर लगी तो दूसरी तरफ, पर रुकने नहीं पाते। और रुकते भी हैं तो बस थोड़ी सी देर को। जितनी देर को रुके, उतनी देर में कोई और गेंद आकर के टक्कर मारती है, या स्टिक टक्कर मारती है और फिर चल देते हैं। किधर को और किसकी तलाश में? सच्ची खुशी मिलने वाली है! सच्ची खुशी मिलने वाली है!

रुकते अंततः तभी हैं, वो भी बस थोड़ी ही देर को, जब गड्ढे में गिर जाते हैं। गड्ढे में गिरना माने ख़त्म, लेकिन सदा के लिए ख़त्म नहीं क्योंकि कोई गेंद ऐसी नहीं जो गड्ढे में गई और फिर रुक ही गई। वो गड्ढे में चली भी जाती है तो वहाँ से निकाल कर फिर मेज पर रख दी जाती है, ठोकरे खाने के लिए। ये आदमी का जीवन है। ठोकर खाते रहो, खाते रहो। मर जाओ तो भी खाते रहो।

ये जो सच्ची खुशी नामक विचार है इसको मन से निकाल दो क्योंकि जब तक सच्ची खुशी एक विचार है, वो वो चीज़ ही नहीं है जो सच्ची हो। जब तक सच्ची खुशी तुम्हारे मन में एक विचार है और एक अभिलाषा है तब तक वो एक छवि मात्र है, और कोई छवि सच्ची नहीं होती। छवि तो छवि होती है न, उससे पेट नहीं भरेगा तुम्हारा।

अब से जो भी करो, न तलाशने के लिए करो। अब से जब भी भीतर से ये आशा उठे कि सच्ची खुशी मिलने जा रही है, समझ लो कि तुम अपने लिए दर्द का इंतज़ाम कर रहे हो। अब से जहाँ कहीं भी तुम्हें रौशनी की किरण दिखाई दे कि अब मिलेगी खुशी, अब खुला मेरे लिए एक नया दरवाज़ा, अब बन रहा है फिर से एक और नया खुशियों भरा रिश्ता, तत्काल सतर्क हो जाओ कि ये मैं फिर से गड्ढे में गिरने का इंतज़ाम कर रहा हूँ।

अब मेरी बात बड़ी, अगर तुम्हारी भाषा में कहूँ तो, नेगेटिव लग रही होगी। तुम कह रहे होगे, "ऐसे थोड़ी होता है। गड्ढे में अगर गिरें तो फिर उठ खड़ा होना होता है न। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। मोटिवेटेड रहना होता है। ये थोड़ी करना होता है कि एक-दो बार धोखा हो गया हो तो फिर कोशिश ही न करें।" जो अभी मोटिवेशन का खेल खेल रहे हैं, सच उनके लिए नहीं है। उनके लिए झूठ है और दुःख है, और खुद को ही दिए गए हज़ार धोखे हैं।

अब से तुम्हें खुशी पाने की कोशिश नहीं करनी है, अब से तुम्हें खुशी के विरुद्ध सावधान रहने की साधना करनी है। और ये साधना आसान नहीं होगी क्योंकि बार-बार जीवन में ऐसे आमंत्रण आएँगे, ऐसी किरणें दिखाई पड़ेंगी, ऐसे दरवाज़े खुलेंगे जो उसी पुरानी खुशी का वादा एक बार फिर करेंगे जो अभी तक तुम्हें मिली नहीं।

तुम कहोगे, “पिछला चेहरा धोखा दे गया, देखो, इस बार वाला तो नहीं देगा। बार-बार थोड़े ही पत्ता कटता है।” ऐसे ही लगता है न? “अपना नंबर भी आएगा, बिलकुल आएगा। लगे रहो मुन्नाभाई।” और बड़ा सुखद एहसास होता है। उम्मीद पर दुनिया कायम है। आशा न हो तो लोग बेवकूफ क्यों बनें?

जो करना है करो। अच्छे डांस इंस्ट्रक्टर हो, सिखाते रहो। बढ़िया बात। पर ये उम्मीद मत रखना कि ये असली चीज़ है। तो असली चीज़ क्या है? यही असली चीज़ है: ये उम्मीद न रखना कि यहाँ कुछ भी असली है।

जो इस भ्रम से ऊपर उठ गया कि यहाँ कुछ भी ऐसा है जो तुम्हें सच्ची खुशी दे जाएगा, समझ लो उसे सच्ची खुशी मिल गई। सच्ची खुशी पाने का और कोई तरीका ही नहीं है। बस इसी भ्रम को छोड़ दो कि दुनिया की कोई गतिविधि, कोई विचार, कोई ओहदा, कोई व्यक्ति, कोई उपलब्धि,कोई सफलता तुमको सच्ची खुशी दिला सकती है।

हाँ, तुमको अगर मन बहलाने के लिए छोटी-मोटी सावधिक खुशियाँ चाहिए हों, जो आती हैं और गुज़र जाती हैं और अपने पीछे बहुत सारा दर्द छोड़ जाती हैं, तो तुम दुनिया के फेर में फँसे रहो।

इसीलिए समझाने वालों ने तुमसे सदा कहा कि सुख की नहीं धर्म की राह चलो। सुख की राह कहती है वो सब करो जो करके खुशी मिलेगी। ये भारत ने कभी नहीं सिखाया। दुनिया भर में जो जानने वाले हुए हैं उन्होंने ये कभी नहीं सिखाया कि वो सब काम करो जो करके खुशी मिलती है। ये आजकल कुछ लोग सिखा रहे हैं क्योंकि इसी तरह की बातों का बाज़ार बड़ा गरम है। दुनिया के किसी जानने वाले ने कभी तुमसे नहीं कहा कि अपने सुख की राह चलो। उन्होंने तुमसे कहा कि धर्म की राह चलो, और धर्म का मतलब होता है जो सही है वो करना ही है। कौन इस पचड़े में पड़े कि इससे सुख मिलता है कि दुःख।

मज़ेदार बात समझो। एक बार तुमने इस बात पर ध्यान देना बंद कर दिया कि सुख मिल रहा है या दुःख, उसके बाद न सुख मिलता है न दुःख। उसके बाद वो मिलता है जिसे तुम सच्ची खुशी कह रहे हो और समझने वाले जिसे आनंद कहते हैं।

सुख-दुःख तुम्हें प्रभावित ही तब करते हैं, सुख-दुःख तुम्हारे लिए कीमती ही तब हो जाते हैं जब तुम सुख-दुःख की खातिर काम करो। जब तुम धर्म की खातिर काम करते हो—धर्म से मेरा आशय कोई हिन्दू धर्म या इस्लाम या ईसाईयत इनसे नहीं है। धर्म से बस ये समझ लो वो जो सही है, सच्चा कर्त्तव्य, उसको मैं धर्म कह रहा हूँ।

जब तुम धर्म की खातिर काम करते हो, तब तुम कहते हो कि “भाई, इसलिए थोड़ी कर रहे हैं कि इससे बड़ी खुशी मिल जाएगी, इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ये तो मुझे करना ही है, और जो करना ही है वो इतना आवश्यक है, इतना आकस्मिक, इतना तात्कालिक है, इतना इमरजेंट है कि ये सोचने की हमें फुर्सत कहाँ कि इससे हमें सुख मिल रहा है या दुःख मिल रहा है?”

जैसे तुम्हारे सामने कोई इमरजेंसी (आपातकालीन घटना) हो गई हो भई। तुम सड़क पर हो और तभी तुम देखते हो एक गाड़ी आई और एक आदमी को तगड़ी ठोकर मारकर चली गई। वो सड़क किनारे पड़ा है, उसके सर से खून बह रहा है, सर फट गया है। तुम तत्काल उसकी ओर भागते हुए पहुँचते हो, क्या इसलिए कि तुम्हें सुख मिल जाएगा उसके पास पहुँचने से? और यह सब पलक झपकते हो रहा है। क्या तुम्हारे पास समय भी है ये सोचने का कि मैं ये जो कर रहा हूँ उससे मुझे सुख मिलेगा या दुःख? कहो।

प्र: नहीं।

आचार्य: ये कहलाता है धर्म। वो जो आवश्यक है, वो जो अति आवश्यक है, उसमें न सुख का विचार होता है न दुःख का भय, उसमें बस तुम कर रहे हो क्योंकि वो करने के अलावा कोई और विकल्प हो नहीं सकता। वही चीज़ है जो अभी करी जा सकती है। क्या वो तुम अपने लिए कर रहे हो? बिलकुल नहीं। क्या वो तुम दूसरे के लिए कर रहे हो? नहीं दूसरे के लिए भी नहीं कर रहे।

जब तुम उस दुर्घटना ग्रस्त आदमी की ओर भागते हो तो क्या उस वक़्त तुम्हारे मन में ये विचार भी होता है कि ये तुम किसी को निःस्वार्थ भाव से सहायता देने के लिए नैतिक, आध्यात्मिक काम कर रहे हो? उस वक़्त क्या ये विचार भी होता है? तो ये समझो धर्म वो है जो अपने लिए तो किया ही नहीं जाता, दूसरे के लिए भी नहीं किया जाता। तो किसके लिए किया जाता है? वो किसी के लिए नहीं किया जाता। और जिन लोगों की विधायक वक्तव्यों में बहुत रुचि है, वो कह देते हैं कि वो काम परमात्मा के लिए किया जाता है।

मैं तुमसे नहीं कह रहा हूँ कि अनिवार्य रूप से तुम ऐसा कहो कि धर्म वो जो परमात्मा के लिए किया जाता है। तुम इतना ही समझ लो कि धर्म वो जो अपनी खुशी के लिए तो नहीं ही किया जाता, दूसरे की खुशी के लिए भी नहीं किया जाता अर्थात धर्म में खुशी के लिए कोई स्थान ही नहीं है।

"न तो मैं ये इसलिए कर रहा हूँ कि इससे मुझे खुशी मिलेगी और न ही मैं ये इसलिए कर रहा हूँ कि इससे तुम्हें खुशी मिलेगी। तो कर किस लिए रहा हूँ? ये सोचने की फुर्सत किसे है!" ये धर्म है। कर इसलिए रहा हूँ क्योंकि सड़क पर कोई पड़ा है और उसके पास अब लग रहा है चंद साँसें ही शेष हैं। लेकिन ये बात भी मैं बाद में कह पा रहा हूँ। अगर ये बात तुम मुझसे तब पूछो जब सामने वो पड़ा है अपनी आखरी साँसें गिनता हुआ, तो मैं तुमसे ये भी नहीं कह पाऊँगा कि ये काम मैं इस बन्दे की जान बचाने खातिर कर रहा हूँ।

तब तुम मुझसे पूछोगे मैं कुछ भी नहीं कह पाऊँगा क्योंकि जो कुछ भी पूछोगे मुझे सुनाई ही नहीं देगा। क्यों नहीं सुनाई देगा? क्योंकि उस वक़्त सुनना मेरा धर्म ही नहीं है। उस वक़्त धर्म क्या है मेरा? आगे को भागना। उस वक़्त तुम मुझसे लाख कुछ बोलते रहो मुझे नहीं सुनाई देगा, मुझे वही सुनाई देता है जो धर्म है।

वो करो जो आवश्यक है। और जो आवश्यक है, वो सुख की खातिर नहीं होता बिलकुल। क्या दुःख की खातिर होता है? साहब, जब सुख की खातिर नहीं होता तो दुःख की खातिर तो स्वयं ही नहीं होगा। जहाँ सुख का लालच छूट गया वहाँ दुःख की अनिवार्यता भी ख़त्म हो गई।

जीवन को सही काम से इतना भर लो, फिर कह रहा हूँ, कि तुमको ये सोचने की फुर्सत न मिले कि हम सुखी हैं या दुखी हैं। जिसको ये सोचने की फुर्सत मिल गयी कि हम सुखी हैं या दुखी हैं, वो एक ही निष्कर्ष निकालेगा। निष्कर्ष होगा कि, "मैं तो बहुत दुखी हूँ!" प्रयोग करके देखा लेना। सौ लोगों से कहना हम आपको यहाँ बैठाए देते हैं और आधा घंटा दे रहे हैं आपको। सोच कर बताइएगा कि आप सुखी हैं कि दुखी हैं। जो इतने मूरख लोग हैं कि आधे घंटे के लिए बैठकर के यहीं सोचें कि सुखी हैं कि दुखी हैं... वेल्ला बोलते हैं न इनको? जो ऐसे वेल्ले हों उनका एक ही निष्कर्ष निकलना है कि, "हम तो बहुत दुखी हैं!"

सच्चा सुख सिर्फ तब है जब ख़याल ही न शेष रह जाए सुख का। कोई तुमसे पूछे “बढ़िया, मस्त चल रहा है आजकल?” तुम कहो “क्या पूछा इसने? खैर जो भी पूछा होगा, कौन ध्यान दे, अपना काम करें हम।” तुम चौंक जाओ ऐसे सवाल सुन कर। तुम कहो “अप्रासंगिक है ये सवाल, बेमतलब है, अर्थहीन है। क्या पूछ रहे हो तुम मुझसे कि मैं सुखी हूँ कि दुखी हूँ? ये कोई पूछने की बात है? हमें क्या पता। हम इतने खाली बैठे हैं कि क्या इसी तरह की बातें सोचते रहें कि सुखी हैं कि दुःखी हैं।” लेकिन ताज्जुब्बों में ताज्जुब, पूरी दुनिया इससे ज़्यादा और कुछ सोचती ही नहीं कि सुखी हैं कि दुःखी है।

किसी भी आदमी के पास और कोई ख़याल हो न हो पर ये ख़याल ज़रूर होता है कि वो सुखी है कि दुखी है, और जिसके पास ये ख़याल है कि वो सुखी है या दुखी है, मैं उसके बारे में निश्चित रूप से कह रहा हूँ कि वो तो बड़ा ही दुखी है। ये तो गड़बड़ हो गई। और अंदर की बात। जो निश्चित रूप से दुखी है, ज़्यादा सम्भावना यही है कि वो दिखाएगा नहीं कि वो दुखी है क्योंकि उसका आदर्श क्या है?

प्र: सुखी रहना।

आचार्य: वो पाने क्या निकला है?

प्र: सुख।

आचार्य: पाने तो निकला है सुख और मिला गया है दुःख। माने ये भी नहीं हुआ कि दस अंक पाने निकले थे और शून्य मिल गया है, दस पाने निकले थे तो मिला कितना है? माइनस पाँच। किस मुँह से बताएगा, बड़ी लाज आएगी।

समझो। मैं कह रहा हूँ जो दस पाने निकलेगा उसको शून्य भी नहीं मिलेगा, उसको मिलेगा माइनस में। जो सुख पाने निकलेगा, सुख तो उसे नहीं ही मिलेगा, उसे मिलेगा दुःख। लेकिन चूँकि वो सुख पाने निकला है तो उसको बड़ी शर्म महसूस होगी ये बताने में कि दुःख मिला है।

वो इतना तो चलो फिर भी बोल जाता, स्वीकार कर लेता कि सुख पाने गया था, सुख नहीं मिला। दस पाने गए थे, मिला अंडा, जीरो, शून्य। इतना तो वो फिर भी बर्दाश्त कर लेता। किसी तरह बता देता कि सुख पाना चाहते थे सुख मिला नहीं। पर बेचारे को बड़ी लाज आती है, बड़ी बेइज्जती मालूम होती है। कैसे बताए कि सुख पाने चले थे और मिला है?

प्र: दुःख।

आचार्य: तो फिर उसको जितना दुःख मिला होगा, वो उससे दूना तुम्हें क्या दिखाएगा? हैप्पी फेसबुक फेस * । “मुझे तो जी बड़ा सुख मिला है। देखो न मैं कितना खुश हूँ।” ऐसों को ही तुमने देख लिया * स्क्रीन पर और ऐसे ही अपना चेहरा तुम भी दिखा रहे हो स्क्रीन पर आठ लाख लोगों को।

बात का पूरा मनोविज्ञान समझ में आ रहा है? हँसता हुआ चेहरा दिखाना हमारी अनिवार्यता है क्योंकि भीतर से हम बेपनाह रो रहे हैं। बेइंतहां दुखी हैं हम इसलिए आवश्यक है कि दूसरों को दिखाएँ कि बड़े सुखी हैं हम।

बाहर ही आ जाओ न इस गोरख धंधे से: सुख-दुःख, फिर दुःख ज़्यादा, तो सुख का ढोंग ज़्यादा। कुछ ढूँढो ऐसा जो अति आवश्यक हो। कुछ ढूँढो ऐसा जो तुम बिलकुल जानते हो कि सही ही है। वो बहुत बड़ा होगा, वो एक कभी न ख़त्म होने वाला काम होगा क्योंकि छोटी चीज़ होगी तो ख़त्म हो जाएगी और ख़त्म हो जाएगी तो दुखी हो जाओगे।

जो तुमको सुख-दुःख से दूर रख सके उसे तो एक अनंत उपक्रम ही होना होगा। कुछ इतना बड़ा तुम्हें लक्ष्य करना होगा जो तुम्हें पता है कि पूरा तो कभी हो नहीं सकता। पूरा नहीं हो सकता लेकिन उसे पाने की कोशिश में ज़िन्दगी बड़ी मौज में कट जाएगी। मिल तो वो सकता नहीं, पर उसकी ओर बढ़ते रहने भर से सुख-दुःख से बच जाएँगे।

सुख-दुःख से अगर बच गए तो वो मिल गया। "हैं! अभी तो कहा था मिल वो सकता नहीं?" मैं तो ऐसे ही गोलमोल बातें करता हूँ। मिल तो वो सकता नहीं, पर बढ़ते रहो उसकी ओर क्योंकि अगर बढ़ते रहोगे उसकी ओर और निगाहें, निशाना बिलकुल उसी पर रहेगा तो सुख-दुःख की फुर्सत नहीं बचेगी। सुख-दुःख की जिसको फुर्सत नहीं उसको तो वो मिल गया। चीज़ बड़ी होनी चाहिए।

छोटी चीज़ वो जो अपने लिए की जा रही है। चीज़ बड़ी होनी चाहिए। अब बड़ी माने ये नहीं जो दूसरों के लिए की जा रही है क्योंकि दूसरों के लिए तुम जब करते हो तो उल्टे हाथ से अपने लिए ही तो करते हो।

जब हम कहते हैं कि हम कुछ दूसरों के लिए कर रहे हैं, तो ये दूसरे होते कौन हैं? हमसे सम्बंधित लोग। तो ले-देकर हम कर किसके लिए रहे हैं? अपने ही लिए तो कर रहे हैं।

चीज़ बड़ी होनी चाहिए। क्या किसी ऐसे के लिए कुछ कर सकते हो जो तुमसे बिलकुल असंबंधित हो? या किसी ऐसे अभियान में कूद सकते हो जिससे तुम्हें व्यक्तिगत तौर पर कुछ न मिलना हो? जितना उसमें डूबते जाओगे, उतना ये शब्द ही तुम्हें बेगाने लगने लगेंगे: खुशी ग़म। कहोगे हम जानते नहीं।

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