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लेख
शादी करने से ज़िम्मेदारी नहीं सीख जाओगे || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: आचार्य जी, एक रिश्ता है जो सामाजिक बंधन के कारण बन गया है, विवाह का। और एक दूसरा रिश्ता है, जिसमें कोई सामाजिक बंधन नहीं है। क्या सामाजिक बंधन वाले रिश्ते को तोड़ना देना चाहिए, भले ही वो कितना ही मुश्किल हो? या उस रिश्ते को, जिसमें कोई सामाजिक बंधन नहीं, और उससे आगे बढ़ जाना चाहिए?

आचार्य प्रशांत जी: समाज की कोई बात ही नहीं है।

समाज की इसमें कोई बात ही नहीं है। चाहे सामाजिक ठप्पा लिया हो, या न लिया हो।

प्रश्नकर्ता: जब सामाजिक ठप्पा नहीं लिया होता है, तो उसे तोड़कर आगे बढ़ जाना आसान होता है, क्योंकि उसमें कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती है।

आचार्य प्रशांत जी: जब ठप्पा लिया होता है, तो भी आगे ही बढ़ते हो, बस तरीका दूसरा निकालते हो। ख़ुफ़िया तरीका निकालते हो।

जिसको दायित्व नहीं उठाना है, वास्तविक अर्थ में, प्रेमपूर्ण अर्थ में, तो नहीं ही उठाएगा, चाहे वो शादीशुदा हो, चाहे गैर-शादीशुदा हो। शादीशुदा आदमी भी अगर विलग हो चुका है, उसके भी अगर स्वार्थ पूरे हो चुके हैं, रिश्ते से उसका मन उठ चुका है, तो वो शादीशुदा रहते हुए भी कटा-कटा रहेगा, और काटने के तरीके ढूँढ लेगा।

और जहाँ तक आध्यात्मिक मन की बात है, वो इस बात की परवाह नहीं करता कि रिश्ते पर सामाजिक ठप्पा लगा है या नहीं लगा है। वो अपनी ज़िम्मेदारी जानता है।

शादी करके किसी का हाथ पकड़ा हो, तो भी वही बात है। बिना करे भी किसी के साथ हो, तो भी वही बात है। व्यक्ति से व्यक्ति का रिश्ता है न, तो व्यक्ति की व्यक्ति के प्रति ज़िम्मेदारी है। तो ज़िम्मेदार आदमी हर स्थिति में ज़िम्मेदारी निभायेगा, चाहे शादीशुदा हो, चाहे न हो। और गैर-ज़िम्मेदार आदमी, शादीशुदा हो तो भी ज़िम्मेदारी नहीं निभाएगा।

कोई ये सोचे अगर कि शादी अच्छा तरीका है किसी को ज़िम्मेदार बनाने का, तो वो ग़लतफ़हमी में है। जिस व्यक्ति के भीतर आत्मज्ञान नहीं, प्रेम नहीं, तुम क्या सोच रहे हो, तुम उसकी शादी कर दोगे किसी से, तो वो अपने साथी के प्रति अचानक ज़िम्मेदारी और प्रेम से भर जाएगा? कर दो शादी, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वो जैसा है, वैसा ही रहेगा।

शादी बाहर का ठप्पा है, वो तुम्हारा अंतस थोड़े ही बदल देता है।

संत पूरी दुनिया के प्रति अपना धर्म निभाते हैं। पूरी दुनिया से उनका कोई औपचारिक रिश्ता है क्या? दुनिया भर की स्त्रियों से उन्होंने शादी की है? दुनिया भर के बच्चे उन्होंने स्वयं पैदा किये हैं? दुनिया भर के वृद्ध लोग क्या उनके अपने माँ-बाप हैं? कोई औपचारिक रिश्ता नहीं। देह का कोई रिश्ता नहीं, समाज का कोई रिश्ता नहीं, परिवार का कोई रिश्ता नहीं – बस व्यक्ति का व्यक्ति से रिश्ता है।

तो संत अनजाने को भी देखता है तो उसे अपना मानता है, और अपना मानकर उसके प्रति अपना धर्म, अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करता है।

संत और संसारी में यही अंतर है।

संत, अनजाने अपरिचित व्यक्ति को भी अपना जानता है, और उसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाता है। और संसारी जिस घर में रहता है, जिनके साथ रहता है, वो उनके प्रति भी स्वार्थ से ही भरा होता है, और कोई ज़िम्मेदारी नहीं जानता।

भले ही बाहर-बाहर ज़िम्मेदारी निभा रहा हो, कि रुपया दे दिया, पैसा दे दिया, पर सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी तो प्रेम होती है। प्रेम नहीं होगा उसके पास। प्रेम नहीं होगा, समझ नहीं होगी।

जब आपके पास बोध ही नहीं, तो आप अपने बच्चों के प्रति ज़िम्मेदारी निभा दोगे? नासमझ हो, तो आप अपने बच्चों को क्या दे दोगे?

ये भी एक बड़ा भ्रम है कि – जल्दी से शादी कर लो, और शादी करने से दूसरा व्यक्ति ज़िम्मेदार हो जाएगा। भागेगा नहीं, अनुशासन में रहेगा, कर्त्तव्य पूरा करेगा। कुछ नहीं। तुम कर लो शादी।

जिस व्यक्ति का मन अभी प्रकाशित नहीं हुआ, उससे तुम शादी कर भी लोगी, तो और दुःख झेलोगी। और जिसका मन प्रकाशित है, उससे शादी चाहे करो, चाहे नहीं करो, वो तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्ण रहेगा, और अपनी वास्तविक ज़िम्मेदारी जानेगा भी और निभाएगा भी।

करनी है तो कर लो शादी, न करनी हो तो न करो। दोनों ही बातें खुली हुई हैं।

ये पुरानी रिवायत रही है। माँ-बाप कहते हैं, “ये बड़ा उद्दण्ड है लड्डू। गाँव भर में लुढ़कता फिरता है लड्डू। तो लड्डू तो ज़िम्मेदार बनाने ले लिए लड्डू की शादी कर देते हैं।” घर में आ गयी बर्फी। तुम्हें क्या लगता है, शादी करने से लड्डू ज़िम्मेदार हो जाएगा? हो जाएगा क्या? नहीं होता। ये भी बड़ी पुरानी सोच है कि लड़के को ज़िम्मेदार बनाना हो तो शादी कर दो। शादी है या समाधि है? तुमको ज़िम्मेदार कैसे बना देगी भाई?

अंधविश्वास! ज़िम्मेदारी नहीं आएगी। लड्डू है, बर्फी है, फिर बूंदियाँ आ जाएँगीं।

रिश्ता उससे बनाने की कोशिश मत करो जो झटपट शादी के लिए तैयार हो। रिश्ता उससे बनाने की कोशिश करो, जिसके मन में प्रेम हो, प्रकाश हो।

शादीशुदा पति भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं निभाने वाला। लेकिन आध्यात्मिक रूप से जागृत है अगर तुम्हारा साथी, तो बिना शादी के ही तुम्हारे साथ बहुत दूर तक जाएगा। सैंकड़ों करोड़ शादीशुदा जोड़े हैं दुनिया में, ये कौन-सी ज़िम्मेदारियाँ निभा रहे हैं एक दूसरे के लिये भाई? देख लो ये दुनिया कैसी है। तुम्हें लगता है ये ज़िम्मेदार लोगों की करतूत है?

ज़िम्मेदारी का वास्तविक अर्थ होता है – धर्म। और धर्म का ताल्लुक होता है, सत्य से।

जिसमें सत्य के प्रति अनुराग नहीं, जो धर्म नहीं जानता, वो कौन-सी ज़िम्मेदारी निभाएगा – चाहे छोटी, चाहे बड़ी?

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