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मन को मुक्ति की ओर कैसे बढ़ाएँ? || आचार्य प्रशांत, तत्वबोध पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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मुमुक्षत्वं किम्?

‘मोक्षो मे भूयाद्’ इति इच्छा।

भावार्थ:

मुमुक्षत्व किसे कहते हैं?

हमें मोक्ष प्राप्ति हो, यह इच्छा।

~ तत्वबोध

प्रश्न: प्रणाम आचार्य जी। संसार में इतना कुछ है प्राप्त करने और सीखने के लिए – धन-दौलत, नाम, ऐश्वर्य, इन्द्रीय-भोग सुख, बहुत कुछ है, पर इन सबके बावजूद और इन सबसे परे, श्रेष्ठ शांति और मुक्ति प्राप्त करना भी चाहें, तब भी मन इन्हीं सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागता है।

मगर जो व्यक्ति अपनी मुक्ति के प्रति गंभीर है, वो अपने मन की इस दिशा को सांसारिक आकर्षण से खींचकर अंतर्मुखी होने या मुक्ति की ओर बढ़ने के प्रयास की शुरुआत कैसे करे? और फिर कैसे मन की इस दिशा को मुक्ति की ओर सतत रूप से बनाए भी रखे?

धन्यवाद!

आचार्य प्रशांत: शुरुआत दुःख से होती है।

तुम पूछ रहे हो, “कैसे मन को संसार से मोड़कर मुक्ति की ओर लगाया जाए? और फिर कैसे उसकी दिशा को मुक्ति की ओर ही रखा जाए?” दोनों ही बातें जो तुमने पूछी हैं, उनमें दुःख का बड़ा महत्त्व है।

शरीर का संसार से लिप्त रहना, संसार की ही ओर भागते रहना, संसार से ही पहचान बनाए रखना, ये तो तय है; ये पूर्वनियोजित है। बच्चा पैदा होता है, उसे क्या पता मुक्ति इत्यादि। पर उस पालना पता है, उसे दूध पता है, उसे मल-मूत्र पता है, उसे ध्वनियाँ पता हैं, उसे दृश्य पता है। अर्थात उसे जो कुछ पता है, वो सब संसार मात्र है।

तो बच्चे का मन किस ओर लगेगा शुरु से ही? संसार की ओर, शरीर की ओर। यही तो दुनिया है, और क्या?

इधर को जाएगा ही जाएगा बच्चा, इधर को जाएगा ही जाएगा जीव। फिर मुक्ति की ओर कैसे मुड़े? अगर संसार की ही ओर जाना पूर्वनिर्धारित है, तो फिर मुक्ति की ओर कैसे मुड़े? मुक्ति की ओर मोड़ता है तुमको तुम्हारा दुःख। और दुःख मिलेगा ही मिलेगा, क्योंकि जिस वास्ते तुम दुनिया की ओर जाते हो, दुनिया तुमको वो कभी दे ही नहीं सकती।

दुनिया की ओर जाओगे सुख के लिए, सुख मिलेगा ज़रा-सा, और दुःख मिलेगा भरकर। ले लो सुख! सुख थोड़ा ज़्यादा भी मिल गया, तो सुख के मिट जाने की आशंका हमेशा लगी रहेगी। ये कौन-सा सुख है जो अपने साथ आशंका लेकर आया है? ये कौन-सा सुख है जो अपने साथ इतनी सुरक्षा माँगता है, कि – सुख तभी तक रहेगा जब तक तुम सुख की देखभाल करो, सुरक्षा करो? और जिस दिन तुमने सुख की देखभाल नहीं की, तुम पाओगे की सुख चला गया।

तो इस सुख में तो बड़ा दुःख छुपा हुआ है। ये दुःख सामने आने लगते हैं, और तब तुम कहते हो, “ये जो संसार के साथ मेरा नाता है, मुझे इस नाते से मुक्ति चाहिए। इस नाते में मुझे कुछ नहीं मिल रहा।”

जब तुम अपनी वास्तविक इच्छा के प्रति ज़रा सजग, ज़रा संवेदनशील होते हो, तब तुम मुक्ति की ओर मुड़ते हो।

फिर तुमने पूछा है, “क्या है जो मुझे मुक्ति की ओर लगाए ही रखे?” एक बार मुड़ गए मुक्ति की ओर, पर हम तो यू-टर्न लेना भी खूब जानते हैं। सत्संग में आए तो लगा मुक्ति बड़ी अच्छी चीज़ है, जीवन में दुःख आया तो लगा मुक्ति होनी चाहिए, लेकिन दुःख के बाद थोड़ा सुख भी आ गया, तो मुक्ति इत्यादि भूल गए। सत्संग ख़त्म हो गया, तो मुक्ति इत्यादि भूल गए। तो तुम पूछ रहे हो, “मुक्ति की चेष्टा सतत कैसे रहे?” वो सतत ऐसे रहेगी कि तुम भूलते रहो, जितनी बार भूलोगे, उतनी बार पड़ेगा।

जीवन इस मामले में बड़ा इंसाफ़ पसंद है – जितनी बार तुमने मुक्ति को भूला, उतनी बार जीवन का थप्पड़ पड़ा। पलट-पलट कर दुःख आते किसलिए हैं? दुःख आते ही इसलिए हैं ताकि तुमको याद दिला दें कि ‘जिसको’ याद रखना था, उसको भूल गए।

जिसको भुला देना था, उसको सिर पर बैठाए हुए हो।

दुःख से बड़ा मित्र तुम्हारा कोई नहीं। भला हो कि तुममें दुःख के प्रति संवेदनशीलता बढ़े, तुम जान पाओ कि आम आदमी – तुम, मैं, सभी – कितने दुःख में जीते हैं। जैसे-जैसे दुःख का एहसास सघन होता जाएगा,वैसे-वैसे मुक्ति की अभीप्सा प्रबल होती जाएगी।

बेईमानी मत करना। डर के कारण दुःख का अलंकरण मत करने लग जाना। दुःख तो जीवन यूँही देता है, तो दुःख हुआ सस्ता। और मुक्ति बड़ी क़ीमत माँगती है, हिम्मत माँगती है, तो मुक्ति हुई महँगी। तो फिर हम बेईमानी कर जाते हैं – जैसे की कोई चीज़ अगर बहुत महँगी लगे, तो हम कह दें कि हमें चाहिए ही नहीं – “सब ठीक चल रहा है।”

सब ठीक चल रहा है क्योंकि जो चीज़ तुम्हें वास्तव में ठीक कर देगी, वो तुमको बहुत महँगी लग रही है। तुम दाम नहीं देना चाहते। अधिकाँश लोग अध्यात्म की ओर यही कहकर नहीं आते कि – “हमें ज़रुरत क्या है? न हमें डर है, न हमें दुःख है, क्यों आएँ अध्यात्म की ओर?” डर भी है भी है, दुःख भी है, बेईमानी कर रहे हैं। क्योंकि क़ीमत अदा नहीं करना चाहते, और डरते हैं।

मुक्ति हिम्मत माँगती है न! अध्यात्म बहुत हिम्मतवर लोगों का ही काम है। डरपोक आदमी तो ऐसे ही रहेगा – थोड़ा पास, थोड़ा दूर; कभी अंदर, कभी बाहर।

प्रश्न २: प्रणाम आचार्य जी।

मैंने जबसे जीवन के असली, मुख्य उद्देश्य को जाना है, तबसे मैं खुद को इस पथ पर लाने की सोच रहा हूँ। मेरी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में तीस साल गुज़र गए। अब मैं इस राह पर चलने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहता। कृपया मार्ग दिखाएँ।

आचार्य प्रशांत: एक तरफ़ तो लिख ही रहे हो कि “मैं इस राह पर चलने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहता,” और दूसरी ओर कहते हो कि – “कृपया राह दिखाएँ।” राह दिख ही रही है तभी तो कह रहे हो कि इस राह पर चलने में विलम्ब नहीं करना चाहता। राह पता थी तभी तो ये कह रहे हो कि तीस वर्ष निकाल दिए, राह पर चले नहीं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे तीस वर्ष निकाल दिए, वैसे पाँच-सात-दस वर्ष और निकालने का इरादा हो। और इसीलिए जो प्रत्यक्ष राह हो उसकी अनदेखी करके, उससे अनजाने बनकर, मुझसे ही कह रहे हो कि राह दिखाईए।

राह तो सामने है। राह वही है जिसके बारे में कह रहे हो कि तीस साल उसपर चले नहीं। कौन-सी राह है? वही राह जिसपर तीस साल चले नहीं। जिस राह पर तीस साल चले नहीं, उसी राह पर चल दो।

क्या है राह? जहाँ समय का निवेश नहीं करना चाहिए, वहाँ करना बंद करो। जो काम अज्ञान में करे जा रहे हो, उन कामों को विराम दो। जो रिश्ते तुम्हारी बेहोशी और अंधेरे को और घना करते हैं, उन रिश्तों से बाहर आओ। उन रिश्तों को नया करो। धन का, जीवन का, अपनी ऊर्जा का जो हिस्सा तुम अपनी अवनति की ओर लगाते हो, उसको रोको। यही राह है। और ये राह तुमको पता है, क्योंकि भली-भांति जानते हो कि तुम्हारे जीवन में दुःख कहाँ है। जहाँ कहीं तुम्हें दुःख है, भय है, संशय है, जहाँ कहीं तुम्हारे जीवन में पचास तरह के उपद्रव हैं, उस तरफ़ को बढ़ना छोड़ो । यही राह है।

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