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लड़ना हो तो शांत रहकर लड़ना सीखो || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: आचार्य जी, आप कहते हैं कि शांत रहो, मौज में रहो। जब मैं देखता हूँ कि आसपास ग़लत हो रहा है और मुझे सही करने के लिए लड़ना भी पड़ेगा, तो वहाँ क्या मुझे लड़ाई लड़नी चाहिए, या सबकुछ परिस्थितियों के हाल पर छोड़ देना चाहिए?

आचार्य प्रशांत जी: जितने अशांत लोग हैं, उन सबके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी है। और अशांत लोगों को देखकर मंजीत (प्रश्नकर्ता) भी अशांत हो गया है। अब मंजीत के ख़िलाफ़ लड़ाई कौन लड़ेगा? तुम कह रहे हो, “मैं शांत कैसे रहूँ जब आसपास इतना उपद्रव है?” आसपास अशांति है, उसको देखकर तुम भी अशांत हो गए, और कह रहे हो कि – “मुझे उस अशांति से लड़ना है।” तो पहले अगर दस अशांत लोग थे तो अब कितने हैं? ग्यारह। इस ग्यारहवें के ख़िलाफ़ कौन लड़ेगा?

आग में आग डालकर आग बुझाना चाहते हो? तुम्हें किसने कह दिया कि लड़ने के लिए अशांत होना ज़रूरी है?

ऐसे सैनिक से बचना जो लड़ने जा रहा हो और अशांत हो। ये किसी काम का नहीं होगा। चुआँग त्ज़ु की कहानी सुनी है न, मुर्ग़े की? एक मुर्ग़ा है उसको तैयार किया जा रहा है मुर्ग़े की लड़ाई के लिए। मुर्ग़े एक दूसरे पर लड़ने के लिए छोड़े जाते थे, उन पर सट्टा लगता था, मनोरंजन होता था। तो उसको बढ़िया खिलाया-पिलाया जा रहा है, पँजे पैने किए जा रहे हैं।

उसका जो प्रशिक्षक है, मुख्य-प्रशिक्षक, वो देखने जाता है मुर्ग़े को। मुर्ग़े का अभी एक महीने का प्रशिक्षण हुआ है, और उसने देखा कि ये जो मुर्ग़ा है, ये दूसरे मुर्ग़ों को देखते ही फनफना कर कूदने लग जाता है। आवाज़ें मारता है।विरोधी मुर्ग़ा अगर दूर भी है तो ये ज़मीन पर चोंच मारने लग जाता है। तो ये जो मुख्य-प्रशिक्षक है, वो कहता है – “अभी नहीं, इस मुर्ग़े की अभी और तैयारी कराओ। अभी तो ये किसी काम का नहीं है। बहुत पिटेगा।”

वो कुछ महीनों बाद वापस आता है, कहता है, “दिखाओ अब इस मुर्ग़े का क्या हाल है।” वो देखता है कि मुर्ग़ा पहले से ज़्यादा शांत है। लेकिन फ़िर भी जब विरोधी मुर्ग़ा सामने आता है, दूर से दिखाई देता है, तो ये पंख खड़े कर लेता है, पँजा उठा लेता है। इसकी आँखें रक्तिम हो जाती हैं। वो कहता है, “न अभी भी नहीं, और तैयारी कराओ।” फ़िर कुछ महीनों बाद वो आता है।

अब वो देखता है कि आसपास उकसाने वाले, आवाज़ देने वाले कितने भी दुश्मन मुर्ग़े खड़े हों, ये मुर्ग़ा चुपचाप अपनी जगह पर एकाग्र खड़ा रहता है। प्रशिक्षक बोलता है, “अब ये मुर्ग़ा युद्ध के लिए बिलकुल तैयार है।” अब जब ये उतरेगा मैदान में, तो इसको देखभर के इसका विरोधी मैदान छोड़ देगा।

उथले जो बर्तन होते हैं, उनमें चीज़ें जल्दी उफ़नाने लगती हैं। उफ़नाने लगती हैं न? गहराई चाहिए। इतनी जल्दी नहीं उफ़नाते। याद रखना ये जो तुम्हारे आसपास दस लोग अशांत हैं, वो तुम्हारे ही जैसे हैं। और वो इसीलिए अशांत हैं क्योंकि उनको भी लग रहा है कि कहीं कुछ ग़लत हो रहा है। जैसे तुम्हें लग रहा है कि इन दस लोगों की अशांति ग़लत है, वैसे ही इन दस लोगों के पास भी अपने-अपने तर्क हैं अशांति के पक्ष में। उन्हें भी लग रहा है कि – “कहीं कुछ ग़लत है इसीलिए अब हमें हक़ है अशांत होने का।”

“दफ़्तर में मेरी तरक्की नहीं हुई, मैं अशांत हूँ।”

“कोई मेरा हक़ मार ले गया, मैं क्रोधित हूँ।”

सबके पास वाजिब वजह हैं अपनी दृष्टि में।

अशांति के लिए कोई वाजिब वजह नहीं होती। बेवकूफ़ी के पक्ष में तुम कौन-सा बोध भरा तर्क दोगे? लड़ो। स्थिर होकर, शांत होकर, मौन होकर लड़ो। दुनिया को ऐसे लड़ाकों की बहुत ज़रुरत है।

कबीर साहिब का सूरमा है। वो कहते हैं, “वो लड़ता ही जाता है। वो कभी रणक्षेत्र से, खेत से हटता ही नहीं है।”

*कबीर साँचा सूरमा लड़े हरि के हेत* पुरज़ा पुरज़ा कट मरे तबहुँ न छाड़े खेत

ऐसा लड़ाका चाहिए। पुर्ज़ा -पुर्ज़ा कट जाए उसका, अंग-अंग कटके गिर जाए लड़ाई में, फ़िर भी वो लड़ाई से हटे नहीं। और इस सूरमा की पहचान जानते हो क्या है? ये अपनी सारी अशांति पीछे छोड़कर जाता है। ये सिर पहले कटाता है, फ़िर युद्ध में जाता है। अब अशांत कौन होगा? ये सिर अशांति का गढ़ था, वो इसको ही पीछे छोड़ आया । तो लड़ाई चाहिए, निश्चित रूप से चाहिए। धर्मयुद्ध चाहिए, लेकिन धर्मयुद्ध वही कर सकता है जो बहुत शांत हो।

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