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उस पैसे में दाँत होते हैं जो पेट फाड़ देते हैं || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मेरे काम में दान-दक्षिणा दोनों प्राप्त होते हैं, और मेरी जानकारी में 'दान' अलग विषय है और 'दक्षिणा' अलग विषय है। दक्षिणा मतलब हुआ कि आपने जो सेवा कर्म किया, और दान जो आपको मिलता है। दान की महिमा तो बहुत सुनी है परंतु दान के विषय में कुछ साधु-संतों ने मुझे एक बात बताई है जिससे थोड़ा भय उठा है मन में। आपसे स्पष्टता चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि, "बेटा, दान के पैसे में दो दाँत होते हैं, सोच समझकर लिया करो, नहीं तो वो पेट फाड़ देगा।"

और रामायण में भी पढ़ा है कि:

हरइ शिष्य धन शोक न हरइ, सो गुरु घोर नरक महुँ परई।।

~ तुलसीदास जी (रामचरितमानस ७/९९)

इसीलिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि आप 'दान' के विषय में सत्संग करें। मेरा इस शिविर में आने का, आपके समक्ष बैठने का, एकमात्र उद्देश्य है कि इस विषय पर सत्संग पा सकूँ और जिस कार्य में मैं अभी जुड़ा हुआ हूँ, उसी कार्य के संदर्भ में मुझे आपसे स्पष्टता मिले।

आचार्य प्रशांत: दान में दाँत नहीं होते, दाम में दाँत होते हैं।

दाम में भी दाँत नहीं होते अगर भौतिक चीज़ है, और ईमानदारी से उसको भौतिक ही चीज़ बताकर, दाम लगाकर बेचा गया है। साधारण बाज़ारू क्रय-विक्रय है अगर, तो दाम में भी दाँत नहीं होते।

आपने कहा कि आपको सलाह मिली है कि, "दक्षिणा तो ठीक है, पर दान में दाँत होते हैं जो पेट फाड़ देते हैं।"

दान अगर सच्चा हो तो दान में दाँत नहीं होते, और दाम भी अगर तथ्यता के साथ किसी वस्तु के, किसी भौतिक चीज़ के लगाए गए हैं तो दाम भी पेट नहीं फाड़ देगा। दिक़्क़त तब आती है जब रूप 'दान' का होता है और भीतर यथार्थ 'दाम' का होता है। तब उस झूठे दान के सिर्फ़ दाँत ही भर नहीं होते, उसके ज़हर-बुझे दाँत होते हैं, फिर वो पेट ही नहीं फाड़ देता, मन और जीवन भी फाड़ देता है।

दाम क्या है? दान क्या है? और दान के रुप में दाम क्या है? इन तीनों में अंतर करेंगे। समझिएगा!

'दान' है किसी भौतिक वस्तु को उस जगह पहुँचाना जहाँ वो सर्वाधिक उपयोगिता की हो। और अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो किसी भी वस्तु की मनुष्य के लिए उपयोगिता एक ही है – कि वो वस्तु मनुष्य के मन को शांत करे, उसे मुक्ति और सत्य तक पहुँचाने में सहायक बने। ये किसी भी भौतिक वस्तु की उपयोगिता है। वो भौतिक वस्तु कुछ भी हो सकती है – रुपया, पैसा, कपड़ा-लत्ता, ज्ञान-मकान, ये सब भौतिक ही हैं। जो कुछ भी विचारों के तल पर पकड़ा जा सके, जिसकी बात की जा सके, जिसकी छवि बनाई जा सके, जिसका ज़रा आदान-प्रदान हो सके, वो सब भौतिक ही है।

तो जीव हैं हम, मनुष्य हैं, और मनुष्य होने का अर्थ होता है एक भौतिक देह से सम्बद्ध होना। शरीर भौतिक है न? यह जो चारों ओर संसार पसरा हुआ है, ये भी भौतिक ही है – फिज़िकल, मटेरियल * । आदमी को इस संसार से अनिवार्यतः रिश्ता तो रखना ही पड़ेगा। एक-एक साँस जो आप ले रहे हैं, वो संसार से आपका भौतिक रिश्ता है, * मटेरियल रिलेशन है। ये आपकी नाक है भौतिक, और ये नाक ऑक्सीज़न ग्रहण कर रही है, और ऑक्सीज़न भी है भौतिक।

तो कोई हो – साधु, संत, सिद्ध, योगी – सबको दुनिया से एक भौतिक रिश्ता तो रखना ही पड़ता है। माने ये जो दुनिया में चीज़ें हैं, इनसे संबंध तो रखना ही पड़ेगा, और दुनिया की चीज़ें अनिवार्य हैं। और चीज़ें ही चीज़ें हैं, दुनिया में चीज़ों के अलावा कुछ होता नहीं, जगत पूर्णतया भौतिक है। जो भी कुछ है, जो आँखों से दिखाई देता है, त्वचा जिसे स्पर्श कर सकती है, मन जिसका चिंतन कर सकता है, वो सब भौतिक ही है। तो जगत तो पूरी तरह शत-प्रतिशत भौतिक है न? यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं जो किसी और आयाम का हो।

और मनुष्य है बंधा हुआ, मनुष्य है दुःख में, और दुःख से बाहर निकलने का उसे साधन तो कुछ चाहिए। वो साधन उसे कहाँ मिलना है? और कोई जगह ही नहीं है जहाँ मिलना है, एक ही जगह है आपके पास, एक ही जगह है मेरे पास। चाहे बहुत बड़ा बुद्धिमान हो, चाहे महामूर्ख हो, चाहे बिल्कुल विरक्त हो, चाहे महा आसक्त हो, जगह तो सबके पास एक ही है – संसार। और संसार है भौतिक। माने मुक्ति के लिए भी आपको जो साधन मिलने हैं, वो कहाँ से मिलने हैं? दुनिया से ही मिलने हैं। दुनिया के अलावा कुछ नहीं है जहाँ से आपको साधन मिल जाने हों मुक्ति के लिए।

हाँ, काव्यात्मक तरीक़े से बहुत दफे बोल दिया जाता है कि ऊपर से कृपा बरसेगी, और कुछ पारलौकिक घटित हो जाएगा। अरे भाई, जब पारलौकिक भी घटित होता है तो घटित कहाँ होता है? परलोक में? और यदि पारलौकिक घटना परलोक में ही घटित हो रही है तो आपके किस काम की? कुछ पारलौकिक भी अगर घटे तो आपके काम का तभी है जब आपके लोक में घटे, आपके सामने घटे। निराकार ब्रह्म भी अपने परलोक से अगर आपकी मदद करना चाहे तो उसे आपके मृत्युलोक में, आपके भूतलोक में, आपके समक्ष भौतिक रूप में अवतरित होना पड़ता है, हाँ या न? तो दुनिया में आपकी मुक्ति का जो साधन है, वो दुनिया से ही आना है; माने उसे भौतिक ही होना है।

हर व्यक्ति को दुनिया से कुछ ऐसा चाहिए जो उसे मुक्त कर दे। हाँ, गौरतलब बात ये है कि हम दुनिया से और सौ-पचास चीज़ें लेते रहते हैं जो हमें मुक्ति तो क्या देंगी, हमारे लिए और बंधनों का कारण बन जाती हैं। लेकिन दुनिया से ही वो हम नहीं ले पाते, न माँग पाते, जो हमारे लिए मुक्ति का माध्यम बने।

तो अब बताइए, दान क्या हुआ? दान हुआ किसी भौतिक चीज़ को उस जगह पहुँचा देना जहाँ मुक्ति के संदर्भ में उसकी उपयोगिता सर्वाधिक हो। दान को ठीक से समझ लीजिए। आप किसी को कुछ दे रहे हैं, कुछ भी किसी को दे देना दान नहीं कहलाता। आप जिसको जो दे रहे हो, वो उसकी मुक्ति और शांति में सहायक होता हो, तो आपने दान किया। जिस चीज़ का आप दान कर रहे हैं, वो कुछ तो आपके भी काम की थी, लेकिन आपने जाना कि वो चीज़ आपके जितने काम की है उससे ज़्यादा काम की किसी और जगह पर है, तो आपने उस चीज़ को यथा स्थान पहुँचा दिया जहाँ उसे होना ही चाहिए। ये दान है।

इससे ये भी स्पष्ट होता होगा आपको कि दान में और समर्पण में बड़ा निकट संबंध है। दान का अर्थ है – किसी भौतिक वस्तु को उस जगह पहुँचा देना जहाँ होने की वो अधिकारी है, या किसी भौतिक वस्तु को उसे दे देना जो उसको पाने का अधिकारी है, या किसी भौतिक वस्तु को उसे दे देना जिसके लिए वो वस्तु वास्तव में उपयोगी है। उपयोगी, सुख की दृष्टि से नहीं, उपयोगी मुक्ति की दृष्टि से। आप किसी को कोई सुखकारी चीज़ दे दें, वो दान नहीं कहलाएगा कि, "ये चीज़ ले लो, इस से तुमको बड़ा मज़ा आने वाला है।" ये बात दान की नहीं हुई। आप किसी को कुछ ऐसा दे दें, ये मैं दूसरी, तीसरी, चौथी बार बोल रहा हूँ, जो उसकी मुक्ति में मददगार होता हो, तो ये दान हुआ।

और समर्पण का अर्थ होता है कि आपने अपनी अहंता ही दूर रख दी। देने का भाव दोनों में है, छोड़ने का भाव दोनों में है। बस दान में आप जिसको दे रहे हैं, वो कोई जीव ही होगा; समर्पण में आप जिसको दे रहे हैं, वो कोई जीव नहीं होता, वो 'कोई नहीं' होता। दान में जो आप चीज़ दे रहे हैं, वो कोई भौतिक चीज़ होती है; समर्पण में जो आप दे रहे हैं, वो सब भौतिक चीज़ों की माँ होती है —अहमवृति। दान में आप जो दे रहे हैं, उस चीज़ का आगे उपयोग होने वाला है; समर्पण में आप जो दे रहे हैं, उसका आगे कोई उपयोग नहीं होने वाला, उसका विसर्जन हो जाने वाला है। तो ये दान है।

दान के मूल में करुणा बैठी है। दान में आप कहते हैं कि, "जो मैं दिए दे रहा हूँ न तुझे, ऐसा नहीं है कि वो वस्तु मेरे बिल्कुल काम की नहीं थी, वो वस्तु मेरे भी काम की थी, उससे मुझे भी कुछ सुख मिलता था, लेकिन मैंने देखा कि मेरे पास रहेगी तो थोड़ा बहुत लाभ देगी, और वो भी लाभ शायद शारीरिक, मानसिक तल पर ही देगी। मुझे समझ में आया कि ये वस्तु मेरे पास न हो करके अगर तेरे पास है, तो ये तुझे बहुत ऊँचाइयों पर पहुँचा देगी। इसकी सही जगह मेरे पास नहीं तेरे पास है, मैं तुझे दिए देता हूँ। और ये करके मैं तुझ पर कोई एहसान नहीं कर रहा, तू अधिकारी है इस वस्तु की प्राप्ति का।" ये दान है।

दान, दाम कब बन जाता है? जब दिया ही नहीं जा रहा होता, लिया भी जा रहा होता है। लेन-देन में अपने-आप में कोई बुराई नहीं है, क्रय-विक्रय बाज़ार का काम है, और लूटमार चले दुनिया में चीज़ों को पाने के लिए, उससे कहीं बेहतर है कि ख़रीद-फ़रोख़्त चले। एक व्यक्ति को एक चीज़ चाहिए, उसको पाने के दो तरीक़े हो सकते हैं: या तो वो उसको किसी दूसरे से लूट ले, या दूसरे को उसका दाम चुका ले। ये दाम चुकाना अपने-आप में कोई अनैतिक बात नहीं होती। बाज़ार में मूलभूत रूप से ऐसा कुछ भी नहीं है जो ग़लत या अनैतिक हो, क्योंकि बात सीधी है, हर व्यक्ति, हर चीज़ का उत्पादन तो नहीं कर सकता न? आपको कुछ-न-कुछ तो ऐसा चाहिए होगा जो आपके पास नहीं है और दूसरों के पास है, और दूसरों को कुछ ऐसा चाहिए जो आपके पास है। अगर आप दाम चुका कर नहीं लोगे वो चीज़ उस दूसरे व्यक्ति से, तो फिर मुझे बताओ कि एकमात्र विकल्प क्या है? विकल्प यही है कि उससे आप लूटोगे। अब लूटने से तो अच्छा ही है न कि बाज़ार की एक अर्थव्यवस्था चले नियमबद्ध तरीक़े से।

तो 'दाम' में कुछ ऐसा नहीं है कि मैं बाजार का, और दाम का, और दुकानदारी का विरोधी हो जाऊँ। लेकिन दाम बुरा तब हो जाता है जब वह रूप धरता है प्रेम का, करुणा का और दान का। दाम बुरा तब हो जाता है जब आप कहते तो ये हो कि, "देखो, मैं फलानी चीज़ को तुमको प्रेमवश दे रहा हूँ," लेकिन भीतर-ही-भीतर आपने उसका दाम लगा दिया होता है। आप दो तरफ़ा मुनाफ़ा कमाना चाहते हो। आप इस बात का अहंकार भी रखना चाहते हो कि आपने दूसरे को प्रेमवश कुछ दिया। आप कहोगे, "देखो, मैं बहुत बड़ा भला आदमी हूँ, बड़ा सात्विक, बड़ा आध्यात्मिक आदमी हूँ। देखो मैंने प्रेमवश तुम्हें कुछ दे दिया।" आपने अहंकार केंद्रित मुनाफ़ा भी कमा लिया, आंतरिक। और जो आपने दिया है, उसके बदले में चोरी-छुपे आप कुछ कीमत भी वसूलोगे। हो सकता है कि खुलेआम न कह पाओ आप कि, "मैंने तुझे जो भी चीज़ें दी हैं, तू उनके बदले में मुझे कुछ दे," पर भीतर-ही-भीतर आप उम्मीद रखोगे, कुछ छद्म प्रयास करते रहोगे। ये दामबाज़ी हो गयी।

ये ग़लत जगह की दामबाजी हो गयी, इसलिए बुरी है, अन्यथा दाम लगाने में कोई बुराई नहीं, मैं फिर कहे दे रहा हूँ। आप बाज़ार जाएँ, वहाँ आपको कोई चीज़ चाहिए हो, कृपा करके बिना दाम चुकाए वो चीज़ आप ले मत आइएगा। दाम ज़रूर चुकाएँ, पूरा चुकाएँ, ईमानदारी से चुकाएँ, पर उन जगहों पर न चुकाएँ जहाँ आपने नाम कुछ और दे रखा है संबंध को। वहाँ न दाम लगाएँ, न दाम चुकाएँ।

अब आप जा रहे हैं कहीं पर और दाम दे रहे हैं, और बदले में अपेक्षा ये है कि आपको सम्मान मिल जाएगा, तो ये दान नहीं 'दाम' है। और मैं कह रहा हूँ इसके विषैले दाँत होते हैं, और भी ज़बरदस्त कुरूपताएँ हैं इस क्षेत्र में। बड़े जीवन विरोधी तरीक़ों से, बड़े काले तरीक़ों से पैसा कमाया है और फिर बुला करके किसी को उस काली कमाई का पाँच प्रतिशत दान कर दिया, ये दान नहीं है, ये मनी-लॉन्ड्रिंग है। ये आध्यात्मिक तरीक़े से काले पैसे को सफ़ेद बनाने की कोशिश है। आप कह रहे हैं कि, "देखो, मैंने पाँच प्रतिशत दान कर दिया न, किसी मंदिर में दान कर दिया, किसी पंडित को दान कर दिया, किसी संस्था में दान कर दिया। और अब चूँकि मैंने दान कर दिया है, इसीलिए मैंने जितने छल-कपट और पाप से ये पैसा अर्जित किया था, वो सब अब ठीक हो गया।" ये तो बढ़िया तरीक़ा है भाई! काले तरीक़ों से सौ रुपया कमाओ, उसमें से पाँच रुपया दान कर दो, बाकी पचानवे काले से सफ़ेद हो गया। इस पाँच रुपए में नागराज के दाँत होंगे, सब कुछ फाड़ देंगे।

दान लेते वक्त दान करने वाले की मंशा के प्रति बड़े सजग रहें, और दान लेते वक्त दान के प्रति अपने अधिकार और अपनी आवश्यकता, इनके प्रति भी बराबर के सचेत रहें। अगर ये सतर्कता आपने बरत दी, तो फिर दान आपको अवश्य फलेगा।

मैं कह रहा हूँ, दान के दोनों सिरों पर सजग दृष्टि से देखने की ज़रूरत है: देने वाले के सिरे पर देखें कि वो जो दे रहा है, उसकी नियत क्या है, देने वाले का इरादा क्या है। और अपने सिरे पर देखें कि, "मैं जो ले रहा हूँ, वो मुझे लेने की आवश्यकता है कुछ, या बस ऐसे ही लिए ले रहा हूँ। और मेरा कुछ लेने का अधिकार भी है या चीज़ हाथ में आयी तो लपक लिया, बिना ये देखे कि ये चीज़ मेरे काम की भी है या नहीं?"

और भूलिएगा नहीं कि धर्म में, अध्यात्म में काम का एक ही अर्थ होता है —जीव के जीवन का, जीव के जन्म का एक ही प्रयोजन है, और वो है मुक्ति। तो दान आपके काम का है कि नहीं, वो आपको इसी कसौटी पर जाँचना है: "ये जो चीज़ मैं दूसरे से ले रहा हूँ, ये मेरी मुक्ति के काम आएगी या मुझे और हज़ार बंधनों में फँसा जाएगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरे ने अपने सिर का बोझ मेरे सिर पर रख दिया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरे ने अपने घर का साँप मुझे दान कर दिया है?"

खेद की बात ये है कि अधिकांशतः दान ऐसा ही होता है। और दान का ये जो कारोबार चलता है, इसमें दोनों ही पक्ष बराबर के ही दोषी होते हैं। देने वाले को भी पता है कि ये जो दान किया जा रहा है इसमें कोई सत्यता, कोई प्राण नहीं है; लेने वाले को भी पता है कि वो जो ये दान ग्रहण कर रहा है, उसकी न तो उसमें पात्रता है, न उसे आवश्यकता है। लेकिन दान को भी हमने बाज़ारू खेल बना लिया दाम की ही तरह, और फिर बड़ी गड़बड़ हो जाती है।

रही बात दक्षिणा की, दक्षिणा वास्तव में अनुग्रह का दूसरा नाम है। दक्षिणा दी ही जाती है पा लेने के उपरांत। "कुछ मिला है आपकी उपस्थिति से, कुछ मिला है आपकी अनुकंपा से, आपके प्रयत्नों से; बहुत मिला है, भीतर का पात्र बिल्कुल छलक आया आपके सामीप्य से; अनुमति दें कि थोड़ा-सा आपके हाथों में रख दूँ, बल्कि आपके चरणों में निवेदित कर दूँ"– ये दक्षिणा है। दक्षिणा बात ही कहीं और की है।

दक्षिणा और दान की भी आपस में कोई तुलना नहीं है, दाम तो बहुत दूर की बात है।

दान में तो तैयारी होती है, दान में तो उम्मीद होती है, दान में तो चाहा जा रहा होता है कि जिसको दान दे रहे हैं, उसे दान से कुछ लाभ हो जाए, भविष्य में हो जाए लाभ। दक्षिणा तब दी जाती है जब लाभ हो गया। दान दिया जाता है उसको जो लाभान्वित होगा भविष्य में, और दक्षिणा उससे आती है जो लाभान्वित हो ही गया। जिसके लिए अब कोई भविष्य नहीं बचा, जिसका सब अंधेरा मिट गया, जिसकी सब गाँठें खुल गयीं, चित्त सरल हो गया, ग्रंथियाँ कट गयीं, वो फिर दक्षिणा देता है।

तो दक्षिणा देना भी बड़े अधिकार की बात है। दक्षिणा देने वाले को पहले ये पूरा भरोसा होना चाहिए कि भाई, उसे कुछ मिल ही गया है। और ये भरोसा ही दक्षिणा देने की पात्रता बनता है। ये भरोसा आपको बड़ा असहाय कर देता है, विवश हो जाते हैं आप इस भरोसे के आगे। एक बार आप जान गए कि आपको वास्तव में कुछ प्राप्त हुआ है, कि अब आप वो इंसान ही नहीं रहे जो कभी थे – मिला है! मिला है! और ऐसा मिला है कि जिसको मिला था वही बदल गया – तो अब आप बेबस हैं, असहाय हैं। अब तो भीतर से प्रेम का, अनुग्रह का विस्फोट होगा। आप रोक ही नहीं पाएँगे अपने-आपको भीतर से उठते धन्यवाद को अभिव्यक्त करने में। वो धन्यवाद आपके रोम-रोम से फूटेगा, वो धन्यता आपके व्यक्तित्व का केंद्र बन जाएगी। यही वास्तविक गुरु-दक्षिणा भी होती है।

शिष्य और क्या देगा दक्षिणा के रूप में गुरु को? वो सब कहानियाँ ठीक हैं कि फलाना राजकुमार शिष्य था और फिर जब उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई तो उसने इतनी ज़मीन दे दी गुरु को, या और कुछ चीज़ें दे दीं, वो सब ठीक है—पर वास्तविक गुरु-दक्षिणा क्या होती है वो समझिएगा। उसके जो भौतिक और सामाजिक, सांसारिक अर्थ हैं, वो तो किस्से-कहानियों में खूब प्रचलित ही हैं।

वास्तविक गुरु-दक्षिणा आपका बदलाव होती है, आप कुछ और हो गए। आपके माध्यम से अब गुरुता हर दिशा में विकीर्ण हो रही है। पहले आपको गुरु से कुछ मिल रहा था जब तक शिष्य थे आप, अब गुरु से जो मिल रहा था, उसका स्रोत ही आपके अंदर आकर बैठ गया। आप तो गायब हो गए और गुरुता आपके भीतर अब सूरज की तरह चमक रही है। आपको गुरु से एक किरण मिला करती थी, अब गुरु आपके भीतर बैठकर के हर दिशा को आलोकित कर रहा है। जैसे कि एक छोटी-सी लौ का सान्निध्य मिला हो किसी मशाल को, कि जैसे बस कुछ चिंगारियाँ पड़ गयी हों किसी मशाल पर और अब वो मशाल उतनी ही धकधका कर प्रज्वलित हो उठी है जितना कि वो स्रोत है जहाँ से चिंगारियाँ आयीं थीं। ये गुरु-दक्षिणा है। अब आप हर दिशा में प्रकाश फैला रहे हो, ये गुरु-दक्षिणा है।

नहीं तो गुरु-दक्षिणा क्या है? कि काम पूरा हो गया, हमारा दीक्षांत समारोह है, हम गुरु जी को एक दुशाला भेंट देंगे, गुरु जी के लिए एक कुर्ता-पजामा लेकर आएँगे, गुरु जी को कुछ रुपया-पैसा चढ़ा देंगे। ये सब गुरु-दक्षिणा नहीं होती।

तुम वो स्रोत ही बन जाओ जहाँ से रोशनी तुम तक पहुँची थी, यही वास्तविक अनुग्रह है। अब तुम जलोगे, अब तुम बरसोगे, अब तुम प्रकाश-पुंज हो गए, अब तुम रोक भी नहीं सकते अपने-आपको। गुरु को क्या दोगे तुम? गुरु अगर वास्तव में गुरु है तो उसे चाहत क्या है शिष्य से? हाँ, अब पूरी दुनिया को दोगे तुम। पूरी दुनिया को अब तुम गुरुता बाँटते फिरोगे। ये गुरु-दक्षिणा है। गुरु-दक्षिणा में गुरु को कुछ नहीं दिया जाता है; गुरु-दक्षिणा में वास्तव में पूरे संसार को गुरु दे दिया जाता है।

तुम्हें मिला न गुरु? अब उसी गुरु को तुम पूरी दुनिया को दे दो, यही गुरु-दक्षिणा है। छलछला गए तुम, पहले बस तुम्हारे भीतर का पात्र भर रहा था, वो ऐसा भर गया कि अब अनंत हो गया। अब वो दुनिया भर के पात्र भरेगा। जो तुमको मिला है, वो अब तुम सबको दे दोगे, यही गुरु-दक्षिणा है।

बात समझ में आ रही है?

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