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एक अनूठी तैराक, और महासागर का अकेलापन
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वो चार अलग-अलग महासागरों और आठ अलग-अलग समुद्रों में तैर चुकी हैं।

स्वर्गीय माननीय भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी जी ने उन्हें वाटर एडवेंचर के लिए तेनज़िंग नोर्गे नेशनल एडवेंचर अवार्ड से सम्मानित किया है।

वो अंटार्कटिक जल में खुली तैराकी में रिकॉर्ड स्थापित करने वाली पहली एशियाई महिला और दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला हैं।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार! मेरा नाम भक्ति शर्मा है और कुछ महीनों पहले मेरा परिचय आचार्य जी से उनके यूट्यूब पर जो वीडियोज़ हैं, उनके माध्यम से हुआ। मन में कई सारे सवाल भी उठे जो पहले से थे, कुछ नए सवाल उठे और ये इच्छा जागी कि मैं वो सवाल आचार्य जी से स्वयं पूछूँ। आज मुझे उनसे बात करने का सौभाग्य हुआ, मुझे मौका मिला कि मैं आचार्य जी से स्वयं वीडियो कॉल के ज़रिए बात कर सकूँ और अपने सवाल पूछ सकूँ। मैं एक तैराक भी हूँ और २०१५ में काफी मुश्किल तैराकी की तैयारी के दौरान, जो कि आगे जाकर एक वर्ल्ड रिकॉर्ड तैराकी बना, उसकी तैयारी के दौरान मेरा परिचय ध्यान से हुआ और वहीं से मेरी आध्यात्मिक यात्रा, मेरी स्प्रिचुअल जर्नी की भी शुरुआत हुई। तो जो सवाल आज मैंने आचार्य जी से पूछे, वो मेरे उन्हीं अनुभवों से जुड़े हैं, मेरे जीवन के उन्हीं पहलुओं से जुड़े हैं और भी कई सारी चीज़ों से जुड़े हैं जो कि हर व्यक्ति के जो कि अध्यात्म के पथ पर चलता है, उनके मन में उठते हैं। मैं आशा करती हूँ कि मेरे जो सवाल थे, वो सिर्फ मुझ तक ही न रह जाएँ। जो भी इस पथ पर चल रहा है उन तक पहुँचे और जिस तरीके से मुझे आचार्य जी के जवाबों से मार्गदर्शन मिला है, वही मार्गदर्शन हर उस व्यक्ति तक पहुँचे जिनके मन में ये या कोई और सवाल उठते हों।

प्र: नमस्कार आचार्य जी, बहुत ही अच्छा लग रहा है आपको देखकर और आपसे मिलकर।

आचार्य प्रशांत: मुझे भी। बताइए?

प्र: ध्यान से मेरा परिचय कुछ पाँच या छः साल पहले हुआ और वो बहुत ही सांयोगिक था- मैं एक तैराक हूँ तो एक काफी मुश्किल तैराकी की तैयारी में मैं योग विद्या में तरीके ढूँढ रही थी कि जिससे मैं अपने शरीर की ठंड बर्दाश्त करने की क्षमता बढ़ा सकूँ, तो उसी दौरान 'पतंजलि योग सूत्र' और 'ऑटो बायोग्राफी ऑफ योगी' जैसी किताबों को मैंने ढूँढना चालू किया जिनमें सिद्धियों की बात की गई है काफी ज़्यादा। मेरे पिताजी ने जब ये देखा तो मेरा परिचय एक व्यक्ति से कराया जिन्हें मैं अब गुरु बोलती हूँ तो उन्होंने मुझे कोई विधि तो नहीं दी योग की लेकिन क्योंकि वो खुद ओशो के सन्यासी हैं तो उन्होंने मुझे ध्यान की ओर बढ़ाया और बोला कि "ये सीडी है जिसमें उनका ४५ मिनट का रिकॉर्डेड मेडिटेशन था तो ये ध्यान करो और हर ध्यान के बाद मुझे फोन करके बस बताना कि क्या अनुभव हुआ।" तो इस तरीके से उन्होंने कोई उम्मीद नहीं बाँधी मेरी ध्यान के साथ में- कि मुझे ऐसा महसूस होना चाहिए या अचानक शांति महसूस होना चाहिए। तीन साल पहले मैं यहाँ यू.एस. (अमरीका) आई और यहाँ पर काफी लोगों से मैंने मिलना-जुलना चालू किया जो माइंडफूलनेस की और मेडिटेशन की बातें करते हैं लेकिन हमेशा उससे एक लक्ष्य जुड़ा हुआ होता है कि, "मैं ध्यान करता हूँ", या, "मैं माइंडफूलनेस की प्रैक्टिस करता हूँ क्योंकि उससे मेरा फोकस बढ़ता है मेरी एकाग्रता बढ़ती है।" जबकि मेरा हमेशा से ध्यान के प्रति एक बहुत ही आध्यात्मिक दृष्टिकोण रहा है तो मेरा सवाल ये है कि, पहली बात तो अध्यात्म क्या है? और क्या ध्यान को अध्यात्म से अलग किया जा सकता है? या व्यवहारिक और मानसिक बदलाव के लिए किया जाना चाहिए?

आचार्य: देखो इंसान जैसा बना है न- तो हमारी सीधी-सादी प्राकृतिक वृत्ति, टेंडेंसी यही रहती है कि हम दुनिया को देखें-परखें। हमारा जो पूरा तंत्र है, हमारी इंद्रियाँ, सेंसेस , मन ये सब प्राकृतिक तौर पर इस तरीके से हैं कि हम दुनिया की खोज-खबर तो मज़े में लेते रहते हैं। आँखों से दुनिया का पता चल जाता है, कोई चीज़ छूनी-पकड़नी है तो हाथ काम आ जाते हैं, किसी चीज़ के बारे में खोजबीन करनी है, उसकी जाँच-पड़ताल करनी है तो मन, बुद्धि काम आ जाते हैं, कोई बाहरी, पुरानी बात याद रखनी है तो बुद्धि, स्मृति ये सब काम आ जाते हैं। लेकिन हम इस तरीके से प्राकृतिक रूप से रचे नहीं गए हैं कि जो इन सब बाहरी चीज़ों को देख रहा है हम उसकी ओर ज़रा भी ध्यान दें, देखें या उसकी खोजबीन करें। ऐसा हमसे कभी भी प्राकृतिक रूप से, वृत्तिगत रूप से, इंस्टिंक्टिवली , इंट्यूटिवली होगा नहीं, बहुत कम संभावना है। आप किसी इंसान को यूँ ही छोड़ दीजिए, ज़िन्दगी भर के लिए और आप ये उम्मीद करिये कि वो खुद ही अपने आप सवाल पूछेगा कि, "मैं हूँ कौन? ये मन में विचार, सोच, ख्याल, कहाँ से आते हैं? चेतना क्या है? मैं क्यों इधर-उधर देखता रहता हूँ? आँखों के पीछे क्या है? मन का स्रोत क्या है?" ये सवाल वो खुद कभी नहीं पूछेगा।

हाँ, आप उसे अगर छोड़ दीजिए अकेला, बिना कुछ लिखाए-पढ़ाए- समझाए उसी के दम पर, तो वो ये सवाल ज़रूर पूछ लेगा कि, "वो पेड़ क्या है? वो पत्ता क्या है? खाना बेहतर कहाँ से मिल सकता है? आग क्या है? पानी क्या है? मैं पत्थरों पर छलांग मार कर लाँघ कैसे सकता हूँ? मैं नदी को तैर कर पार कैसे कर सकता हूँ? मैं बेहतर तरीके से घर कैसे बना सकता हूँ?" ये सब सवाल वो खुद पूछ लेगा। आप उसे नहीं भी सिखाओ तो भी उसके पास सवाल रहेंगे जैसे एक छोटा बच्चा होता है, उसके पास कितने सवाल होते हैं? और आपने उससे कहा नहीं होता है कि, "तुम सवाल पूछो" लेकिन वो कैसे-कैसे सवाल पूछता है। उसके सारे सवाल लेकिन सम्बंधित बाहरी दुनिया से ही होते हैं, तो इससे हमें ये पता चलता है कि हमारी वृत्ति क्या है प्राकृतिक रूप से? वृत्ति माने टेंडेंसी , हमारा झुकाव क्या है? छोटा बच्चा जैसे पूछ लेगा कि, " फ्रिज क्या है?" तो जो बड़ा बच्चा होता है चालीस साल वाला वो कह देता है, "फ्रिज बेहतर तरीके से कैसे बनाया जा सकता है? फ्रिज में अगला नयापन क्या ला सकते हैं? रेफ्रिजरेशन टेक्नोलॉजी मैं अगला ब्रेक-थ्रू क्या हो सकता है?" लेकिन दोनों बात किसकी कर रहे हैं? फ्रिज की ही कर रहे हैं।

अध्यात्म का मतलब है वो सवाल पूछना जो पूछने का आपका कभी मन नहीं करता, कभी इरादा नहीं होता, तभी नियत नहीं होती, कभी प्राकृतिक रूप से वो विचार आपको आता ही नहीं। क्या? कि, "भाई दुनिया को देखने वाला मैं कौन हूँ? मैं कुछ सोचती हूँ तो सोच मेरी है या उस सोच के पीछे भी कुछ और कारण हैं? मैं जिसको अपनी सत्ता बोलती हूँ, अपनी चीज़ें बोलती हूँ, अपनी भावनाएँ बोलती हूँ, अपनी उपलब्धियाँ बोलती हूँ, या भविष्य की अपनी आशाएँ बोलती हूँ, वो मेरी ही हैं क्या? ये 'मैं' नाम की इकाई चीज़ क्या होती है?" तो ये बहुत सीधी-सीधी, पत्थर की लकीर जैसी अध्यात्म की परिभाषा है, इसके अलावा अध्यात्म कुछ और नहीं होता। बाकी सब कुछ जो होता है - कारण मैं बता रहा हूँ मैं क्यों इतना रिजिड (कड़ा) हो करके कह रहा हूँ कि अध्यात्म 'मैं' की खोजबीन के अलावा कुछ नहीं है, कारण है। कारण ये है कि 'मैं' के अलावा जो कुछ भी है भक्ति, वो तो 'मैं' का विषय है न, 'मैं' का सब्जेक्ट है न? उदाहरण के लिए- मैं हूँ और फिर ये क्या है? (अपने हाथ की ओर इशारा करते हुए) ये शरीर है तो मैं कह देता हूँ, "ये मेरा शरीर है, जिसको मैं देख रहा हूँ।" 'मैं' के अतिरिक्त जो कुछ भी है पूरी दुनिया, वो 'मैं' का सब्जेक्ट है, वो मैं का परसेप्शन (अनुभूति) है। तो पूरी दुनिया एक तरफ, यहाँ तक कि ये शरीर, मन, विचार भी एक तरफ, दुनिया की सारी चीज़ें एक तरफ, आदमी का इतिहास एक तरफ, पूरा यूनिवर्स , ब्रह्मांड एक तरफ, और 'मैं' बिलकुल दूसरी तरफ। ये सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट (विषय और वस्तु) की क्लासिकल डुआलिटी (द्वैत) है।

इसमें जो ऑब्जेक्ट (विषय) वाला पक्ष है, उसको तो विज्ञान निपटा लेता है। विज्ञान का काम है ऑब्जेक्ट वाले पक्ष को निपटाते रहना, तो वो अपना निपटाते रहता है। साइंस (विज्ञान) में मैं जो सोशल साइंसेज (सामाजिक विज्ञान) हैं, मैं उनको भी शामिल कर लेता हूँ- आप उसमें और मनोविज्ञान, साइकोलॉजी ये सब भी जोड़ लीजिए। तो ऑब्जेक्ट (विषय) वाला पक्ष तो निपट गया, ऑब्जेक्ट (विषय) वाला पक्ष तो हमने वहाँ से देख लिया। सब्जेक्ट वाला पक्ष कोई नहीं देखता कि, "'मैं' कहाँ से आता है?" और अध्यात्म सिर्फ यही नहीं पूछता कि, "'मैं' कहाँ से आता है?" अध्यात्म का जो उच्चतर ध्येय होता है वो होता है उस 'मैं' की शांति भी। जो कि जो जिज्ञासा है आध्यात्मिक उससे जुड़ी हुई ही चीज़ है। एक बार आप जान गए कि ये 'मैं' क्या है, कहाँ से आता है, 'मैं' अपने बारे में जान गया, वो जो 'मैं' है, अहं है, जैसे ही वो अपने बारे में जान गया तो फिर वो वैसा ही नहीं रह सकता, जैसा वो आमतौर पर रहता है। आप कह सकते हो वो बेहतर हो जाता है, आप कह सकते हो वो घुल जाता है, मिट जाता है, आप कह सकते हो पूर्ण हो जाता है, आप कह सकते हो शून्य हो जाता है लेकिन वो वैसा ही नहीं रह जाता जैसा वो आमतौर पर पाया जाता है, तो ये अध्यात्म है।

दूसरी बात आपने पूछी कि, "अध्यात्म और ध्यान का क्या संबंध है? ये साथ-साथ चलते हैं?" इत्यादि। देखिए, ध्यान कौन कर रहा है? ध्यान 'मन' करता है। ठीक है न? मन। और मन की अभी हमने बात करी ही थी। मन, इंद्रियों का जो पूरा समुदाय है उसके साथ बिलकुल एक जुड़ी हुई चीज़ है। इंद्रियाँ और मन एक दूसरे से अलग-अलग चल ही नहीं सकते। तो इंद्रियाँ कहाँ से सूचना, इनपुट , खोज-खबर लाकर के देती हैं मन को? इधर से, उधर से, बाहर क्या चल रहा है। ठीक है? तो मन अब पूरे ब्रह्मांड को तो एक साथ तो देख नहीं सकता क्योंकि सीमित है इंद्रियों की सामर्थ्य से, तो वो अपनी सुविधावश या अपनी रुचिवश या अपने स्वार्थवश किसी एक चीज़ पर जा करके आमतौर पर एकाग्र होता है। ठीक है न? हमें खाना चाहिए तो हम जाकर खाने पर एकाग्र हो जाएँगे, हम टीवी देख रहे हैं तो हम टीवी की स्क्रीन पर एकाग्र हो जाएँगे, हम किसी से बात कर रहे हैं तो उसके चेहरे पर, उसकी आँखों पर एकाग्र हो जाएँगे, इस तरीके से करते हैं। तो मन की जो, आप समझ ही गई होंगी जो प्राकृतिक टेंडेंसी (वृत्ति) है वो है किसी चीज़ पर एकाग्र होने की। जब आप किसी चीज़ पर एकाग्र हो जाते हैं तो उसको कहते हैं साधारण एकाग्रता या कंसंट्रेशन , ठीक है? जब आप दुनिया की किसी चीज़ पर एकाग्र हो गए तो वो साधारण एकाग्रता हो गई लेकिन हम ये भी जानते हैं कि दुनिया की चीज़ों पर एकाग्र होकर के, दुनिया में सहूलियत मिल जाती है, कुछ व्यवहारिक फायदे हो जाते हैं, लेकिन वो आख़िरी शांति नहीं मिलती जिसकी मन को तलाश है। तो मन जब कहता है कि, "मुझे वो आख़िरी शांति चाहिए इसीलिए मैं एकाग्र होऊँगा बस उस शांति पर ही। मैं ध्येय बनाऊँगा बस शांति को ही।" तब इसको कहते हैं ध्यान। ठीक है? तो जब आपका ध्येय है- एक निराकार, मौन, निर्गुण, अंतिम शांति तो उस वक्त जो प्रक्रिया चल रही है वो है ध्यान की और उस वक्त मन हो गया है ध्याता क्योंकि ध्येय आपका है- शांति और अध्यात्म में वही आख़िरी ध्येय होता है। अभी थोड़ी देर पहले हमने बात करी थी न कि अध्यात्म अंततः इस बारे में है कि ये जो सुलगता हुआ, धुँआ छोड़ता हुआ, बुखार में रहता है अहं, परेशान, इसको शांत कैसे किया जाए। तो ध्येय होता है शांति। ध्यान सिर्फ और सिर्फ शांति, या अंत, या मौन, उसको सच भी बोला जाता है या कभी उसको परम बोल देते हैं, कभी परमात्मा भी बोल देते हैं, सिर्फ उसको लक्ष्य बनाने को ध्यान कहते हैं बाकी सब जो कुछ भी करा जा रहा है ध्यान के नाम पर वो वास्तव में किसी-न-किसी तरह का कंसंट्रेशन (एकाग्रता) मात्र है। उसके कुछ लाभ हो सकते हैं, व्यवहारिक तल पर पर वो ध्यान नहीं है।

प्र: यदि ध्यान तब होता है जब आपका जो अंतिम लक्ष्य है वो शांति है तो आजकल बहुत सारी कंपनीज़ हैं और डिवाइसेज़ (उपकरण) हैं, मोबाइल एप्लीकेशन्स हैं जो कि ध्यान के व्यवसाय में हैं। जिनका टैगलाइन मान लीजिए, जिनका सेलिंग प्वाइंट ये है कि- यदि आप हमारी ऐप तीन मिनट के लिए इस्तेमाल करेंगे तो आप का फोकस बढ़ेगा, एकाग्रता बढ़ेगी। मैं खुद भी यहाँ आने के बाद एक ऐसी ईईजी डिवाइस इस्तेमाल करने लगी ध्यान के लिए जो आपको हर सत्र के बाद में आपका बायोफीडबैक डेटा देती है कि आप इतने प्रतिशत शांत थे, इतने प्रतिशत आपका मन सक्रिय था।

तो मेरे हिसाब से, मेरे खुद के अनुभवों को देख कर मुझे ऐसा लगा कि मेरे भौतिक दुनिया के जो लक्ष्य थे, कि मुझे ये उपलब्धि होनी चाहिए। उसने बहुत सूक्ष्म तरीके से मुझे ध्यान और अध्यात्म की तरफ उन्मुख कर दिया कि आज मैं देखती हूँ कि आज मैं कितने प्रतिशत शांत रह सकती हूँ मेडिटेशन में और अक्सर ये डेटा फिर आप सोशल मीडिया पर भी साझा कर सकते हैं तो ये एक कम्युनिटी कंपटीशन (सामुदायिक प्रतियोगिता) हो गया कि कौन कितने समय तक मेडिटेशन कर सकता है तो वो स्प्रिचुअल ईगो (आध्यात्मिक अहंकार) के जाल से कैसे बचा जा सकता है?

आचार्य: देखिए ध्याता आप बनते हैं शांति के लिए। है न? वो शांति इतनी दुर्लभ चीज़ क्यों है? दुर्लभ इसलिए नहीं है कि किसी ने छुपा रखी है, कोई साज़िश कर रहा है, और शांति वो आपको देना नहीं चाहता। दुर्लभ इसलिए है क्योंकि उस शांति की जो हमें कीमत देनी होती है, वो हम देना नहीं चाहते। जितनी ऊँची, शुद्ध, प्योर आप शांति चाहेंगे उसकी उतनी ऊँची आपको कीमत देनी पड़ती है। और कीमत माने कोई दुनिया वाली कीमत नहीं। कीमत यही होती है कि आप के आंतरिक ढर्रे टूटते हैं, अहंकार को चोट लगती है, कुछ सुख-सुविधाओं पर चोट लग सकती है, तो ये कीमत देनी होती है उस ऊँची शांति की। ठीक है? ज़्यादातर लोग बेचारे फँस जाते हैं, वो फँस ये जाते हैं कि उन्हें शांति तो चाहिए लेकिन उतनी कीमत नहीं देना चाहते।

जैसे कि कोई किसी बहुत महंगे शोरूम के सामने खड़ा हो गया हो, बहुत ही ज़बरदस्त-सा कोई ब्रांड है, कोई भी ब्रांड हो सकता है- परमात्मा! वो ब्रांड है परमात्मा और वहाँ पर शांति जो है वो मिल रही है। तो आप विंडो शॉपिंग कर रहे हैं, आप अंदर झाँक रहे हैं, वो शांति आपको लग तो बहुत खूबसूरत रही है, आपको चाहिए तो पर वो जो प्राइस टैग लटक रहा है उतना आप देना भी नहीं चाहते। देना आप इसलिए नहीं चाह रहे हैं कि आपके पास उतना है नहीं देने के लिए, देना आप इसलिए नहीं चाह रहे हैं क्योंकि आप कहीं-न-कहीं भीतर बेईमानी रखे हैं। आप कह रहे हैं, "चीज़ भी ऊँची मिल जाए और उतना उसका पैसा भी न देना पड़े।" तो फिर आप अगले शोरूम में जाते हैं। अब वहाँ पर उसी का समझ लीजिए कि एक 'नकली वर्जन (संस्करण)' रखा हुआ है, उसी शांति का। ठीक है? और वो सस्ता है। ठीक है? क्या कहते हैं उन चीज़ों को? वो जो नकली माल बना दिया जाता है ब्रांड्स का? काउंटर फीड गुड्स कह लीजिए या जो भी कह लीजिए, तो वो शांति जो अगले शोरूम में दिख रही है वो बिलकुल वैसी ही है जैसी परमात्मा वाले शोरूम में दिख रही थी लेकिन कीमत देनी पड़ रही है बस पाँच प्रतिशत। पिच्यानवे प्रतिशत आपका बच गया, तो आप झट से उसको ले लेते हैं।

ये हो रहा है आज की दुनिया में- असली चीज़, असली कीमत माँगती है और आप छोटी वाली शांति ले आए उससे कुछ तो फायदा हो ही जाता है न? क्या फायदा हो जाता है? मन परेशान है, हमने कहा कि बुखार में रहता है, जलता रहता है। आप वो नकली वाली शांति भी अपने घर ले आए तो कुछ समय के लिए तो शांत हो गए न? कुछ समय के लिए शांत हो गए, अच्छा लगा और फिर हुआ कि अरे! फिर अशांत हो गए तो आपने कहा "सस्ती थी, दोबारा ले आएँगे!" अब ये कुचक्र है- वो चीज़ सस्ती है तो आपके पूरे काम नहीं आई लेकिन चूँकि सस्ती है इसीलिए आप कहते हो कि, "मैं दोबारा भी तो ला सकता हूँ इसको।" तो आप फिर से जाओगे, फिर से वही सस्ती चीज़ खरीद लाओगे और आपको फिर इसकी लत लग जाती है। आप वही-वही करते रहते हो कि, "मैं जितनी बार परेशान होऊँगा मैं उतनी बार मैं कोई शांत होने की टेक्निक (विधि) लगा लूँगा।" कई तरह की टेक्निक्स होती हैं। वो जो मौजूदा ध्यान की विधियाँ हैं वो भी वैसी ही टेक्निक्स हैं।थोड़ी देर के लिए वो आपको शांत कर देंगी। कुछ लोग ड्रग्स ले लेते हैं, कुछ लोग एनल्जेसिक्स ले लेते हैं, कुछ इंटरटेनमेंट ले लेते हैं, कुछ, कुछ और कर लेते हैं किसी तरह का, कोई अपना दिल बहलाव। लेकिन ये सब क्या कर रहे हैं? ये सब आपको असली चीज़ के खिलाफ एक सस्ता विकल्प दे रहे हैं तो कुल मिलाकर के जो नकली ध्यान या नकली मेडिटेशन है वो असली मेडिटेशन के खिलाफ खड़ा हुआ है। वो ये पक्का कर रहा है कि आप असली की तरफ जाएँगे ही नहीं क्योंकि नकली आपको बहुत सस्ता मिल रहा है। जब तक आपको वो नकली, जाली माल मिल रहा है आप असली बताओ न क्यों खरीदोगे? भाई! पायरेटेड अगर आपको कोई चीज़ मिल रही है बहुत-बहुत सस्ती तो आप असली क्यों खरीदोगे? तो बाज़ार में पायरेटेड चीज़ का होना असली चीज़ के खिलाफ एक साज़िश जैसा है। समझ रहे हैं?

हालाँकि लगता यही है कि, "देखो मुझे भी इस ध्यान से शांति ही मिल रही है।" लेकिन आप समझिए इस बात को कि ये जो छोटी शांति है, ये आपको बड़ी शांति की ओर नहीं जाने देगी क्योंकि ये छोटी शांति पा करके आपको थोड़ा चैन मिल जाएगा, सुकून मिल जाएगा, पेट भर-सा जाएगा। तो आप असली चीज़ की तरफ जाओगे ही नहीं। द स्मॉल बिकम्स द एनिमी ऑफ द लार्ज (छोटा बड़े का दुश्मन बन जाता है) क्योंकि थोड़ा-सा मिल गया है न, ज़्यादा अब क्यों चाहिए मुझे?

प्र: थोड़ा-सा मिल गया और चकाचौंध के साथ भी मिल गया क्योंकि देख भी सकते हैं कि अरे! इतना अच्छा ध्यान हुआ या दस मिनट ध्यान में बैठे।

आचार्य: बहुत बढ़िया! बहुत अच्छे! बहुत अच्छे! आप ऐसे समझो कि- आप अगर एक छोटी चीज़ ही लक्ष्य कर रहे हो, कोई छोटी चीज़ है सौ यूनिट्स की, वो है ही सौ यूनिट्स की। और उसकी तुलना में आप कोई बड़ी चीज़ लक्ष्य कर रहे हो जो अनंत यूनिट्स की है। आप छोटी चीज़ सौ यूनिट की लक्ष्य कर रहे थे लेकिन आप उसमें तीस यूनिट तक पहुँच गए और बड़ी चीज़ अनंत है, उसमें आप तीन हज़ार यूनिट्स तक पहुँच गए। छोटी सौ यूनिट की चीज़ थी, लक्ष्य सौ का था उसमें आप तीस तक पहुँच गए और बड़ी चीज़ अनंत है उसमें आपने बहुत मेहनत करी और आप तीन हज़ार तक पहुँच गए। ये दो लोग हैं 'ए' और 'बी'। 'ए' तीस तक पहुँच गया और 'बी' तीस हज़ार तक पहुँच गया। बी ने ए से कितने गुना ज़्यादा मेहनत करी?

प्र: बहुत ही ज़्यादा।

आचार्य: सौ गुना ज़्यादा मेहनत करी। 'ए' ने कुल तीस यूनिट हासिल किया है, 'बी' ने तीन हज़ार यूनिट्स हासिल किए हैं। 'बी' ने मेहनत तो 'ए' की अपेक्षा सौ गुनी करी है लेकिन 'ए' बोल पाएगा कि, "मैंने तीस प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर लिया।" क्योंकि उसका लक्ष्य ही कितना है?

प्र: सौ।

आचार्य: तो वो कहेगा, "मैंने तीस प्रतिशत हासिल कर लिया" और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देगा कि, "तीस प्रतिशत हासिल कर लिया है और जल्द ही चैंपियन बनने वाला हूँ।" 'बी' का लक्ष्य है अनंत अब अनंत की तुलना में तीन हज़ार कितना है? शून्य! तो 'बी' बेचारा शून्य प्रतिशत पर रह गया 'ए' तीस प्रतिशत पर आ गया जबकि 'बी' ने मेहनत सौ गुनी करी है। 'बी' की वास्तविक उपलब्धि 'ए' की तुलना में सौ गुनी ज़्यादा है लेकिन दुनिया की नजरों में 'ए' खड़ा हुआ है तीस प्रतिशत पर और 'बी' खड़ा हुआ है शून्य प्रतिशत पर अब इसको थोड़ा और आगे बढ़ाओ। 'ए' बढ़ सकता है आगे, 'ए' जाकर के अस्सी-नब्बे पर आ सकता है, वो अस्सी प्रतिशत, नब्बे प्रतिशत वाला कहलाएगा, वो वास्तविक हीरो, चैंपियन हो जाएगा दुनिया में। वह जो बी है वो एक लाख यूनिट पर भी पहुँच जाए तो उसकी उपलब्धि शून्य ही कहलाएगी क्योंकि अनंत है न जो आप पाना चाहते हो?

मन जिस की चाह में है वो अनंत है, अनंत की तुलना में तो आपने एक लाख यूनिट की भी उपलब्धि कर ली तो आप शून्य पर ही हो। तो जो मन प्रतिस्पर्धा में लगा हो, जो मन तुलनात्मक रूप से देखता हो कि, "भाई! मुझे कितनी शांति मिली, तुलना में मेरे पड़ोसी के।" वो तो फिर किसी छोटी चीज़ को ही लक्ष्य करेगा फिर क्योंकि जो लोग बहुत बड़ी चीज़ को लक्ष्य करते हैं उनके जीतने की संभावना कम होती है न? आप जितनी बड़ी चीज़ को लक्ष्य करोगी आपकी जीत की संभावना उतनी कम होती जाएगी और मेहनत आपकी उतनी बढ़ती जाएगी तो बेहतर ये है कि छोटी शांति को लक्ष्य करो, छोटा वाला ध्यान कर लो, सस्ता वाला कुछ ध्यान कर लो। कौन-सा ध्यान कर लो? कोई ऐप ले ली और उसमें झींगुर की आवाज़ आ रही है या झरने की आवाज़ आ रही है या पक्षियों के कलरव सुबह का। वो रिकॉर्डड है, आपने पाँच मिनट सुन लिया और वो आप पाँच मिनट सुनोगे तो कई बार हार्ट रेट (हृदय गति) भी उससे वाकई कम हो जाता है, ब्लड प्रेशर (रक्त चाप) भी वाकई कम हो जाता है क्योंकि वो चीज़ सूदिंग (सुखदायक) होती है, इसमें कोई इन्कार नहीं। तो आपको ये लगेगा कि, "मेरा कुछ तो फायदा हो ही गया।" और मैं बिलकुल नहीं मना कर रहा हूँ कि फायदा नहीं हुआ। फायदा हुआ निःसंदेह लेकिन ये फायदा आपको नुकसान दे रहा है। नुकसान ऐसे दे रहा है कि ये छोटी चीज़ चूँकि आपको सुविधा से मिल जा रही है इसलिए आपको बड़ी चीज़ की ओर जाने नहीं दे रही। अभी हमने कहा था न- कि *द स्मॉल बिकम्स द एनिमी ऑफ द लार्ज*।

प्र: आपने जैसे बोला कि ये छोटी चीज़ से फायदा तो हो रहा है तो मुझे इन चीज़ों की उपयोगिता वहाँ नजर आती है जिन्होंने इस दिशा में बिलकुल अभी शुरुआत करी हो, जिन्हें सच्चे गुरु या शास्त्र उपलब्ध नहीं हुए हैं या जिन्हें पता नहीं कि कहाँ से शुरुआत करनी है। तो मुझे लगता है कि ये एप्स हो गईं, या ये जो डिवाइसेज़ हो गईं, उनसे कुछ फायदा हो सकता है।

लेकिन खुद इस्तेमाल करने के अनुभव से मैं ये कह सकती हूँ कि ये एक तरह की बैसाखी बन जाते हैं जैसे कि हैंडिकैप्ड वर्ज़न ऑफ मैडिटेशन (ध्यान का अपंग संस्करण) और पता नहीं कि ये डिजाइनर्स की नीयत है कि आप उनको इस्तेमाल करते रहें, कभी छोड़े नहीं या वो अपने आप मन की टेंडेंसी (वृत्ति) है कि वो चीज़ें छूट नहीं पाती। तो क्या शुरुआत में इनका कुछ महत्व है?

आचार्य: हाँ बिलकुल महत्व है और इसीलिए ध्यान की जो विधियाँ हैं वो इजाद की गईं थी, उनका उद्देश्य यही था। उनका उद्देश्य ये था कि आप उन विधियों में आए और आपको छोटी शांति मिले, तो उस छोटी शांति से आप इतने चकित हो जाएँ और इतने ज़्यादा आग्रही हो जाएँ, इतने उत्सुक हो जाएँ कि आप कहें कि, "मुझे बड़ी चीज़ चाहिए।" आपको एक सैंपल (नमूना) दिया जा रहा था। ये छोटी जो ध्यान की विधि है न ये सिर्फ और सिर्फ जो रैंक बिगनर (प्रारंभिके स्तर) है उसके लिए है कि उसको स्वाद चखाया जा रहा है कि, "आप ये लीजिए और देखिए ये आपको पसंद आएगा?" जैसे ही आपको पसंद आएगा आप कहेंगे, "और चाहिए! और चाहिए!"

अभी तो आप यू.एस में है, हिंदुस्तान में आप देखते हो न क्या होता है? लोग मूंगफली वाले के पास जाते हैं या मिठाई वाले के पास जाते हैं तो देखते हैं कि कोई नई मिठाई रखी है तो वो पहले क्या करता है मिठाईवाला?

प्र: थोड़ा-सा चखा देता है।

आचार्य: थोड़ा-सा चखाता है, वो आपको क्यों चखाया जा रहा है? वो इसलिए चखाया जा रहा है कि थोड़ा-सा आप चख कर कहें कि, "वाह मज़ा आ गया! पेट भर गया! मैं वापस जा रहा हूँ"?

प्र: नहीं।

आचार्य: वो थोड़ा-सा आपको इसलिए चखाया जा रहा है ताकि आप उसको चखें और कहें कि, "बहुत बढ़िया! पाँच किलो बाँध दो।" वो चखाने का उद्देश्य ये है कि आप और माँगें, और माँगें। लेकिन जो अहंकार होता है, ईगो हमारी- वो बड़ी शातिर, बड़ी चालाक होती है। मालूम है वो क्या करती है? वो ऐसे करती है कि वो गई और उसने कहा कि, "थोड़ा-सा चखने को दीजिएगा" तो बीस ग्राम मिल गया, बीस ग्राम चखा। बीस ग्राम चख लिया और पीछे आ गए। दस मिनट के लिए शायद भूख थोड़ी सी शांत हो गई। दस मिनट के बाद या आधे घंटे के बाद फिर गए फिर बोले, "अब वो वाली चखा देना, दूसरी वाली चखाना।" फिर से बीस ग्राम चख ली और फिर वापस आ गए। फिर थोड़ी देर बाद गए फिर कुछ और चख लिया तो ये होने की जगह कि चखना और आगे बढ़ने का इन्सेन्टिव (प्रोत्साहन) बन रहा है, उल्टा ये हो रहा है कि ये थोड़ा-सा चखना और आगे बढ़ने के खिलाफ बैरियर (अवरोध) बन रहा है।

जिन्होंने ध्यान की विधियाँ बनाई थीं, वो सीधे-सरल लोग थे। उन्हें शायद अंदाज़ा नहीं था कि एक समय ऐसा भी आएगा, जब ध्यान की ही विधियों का दुरुपयोग ध्यान के विरुद्ध कर दिया जाएगा। उन्होंने ये सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा भी हो सकता है या शायद सोचा भी हो तो सोच कर मुस्कुरा दिए होंगे। कहा होगा "भाई अपना-अपना कर्म, अपना-अपना कर्मफल। जो इस तरह की हरकत करेंगे वो फिर कर्मफल भी भुगतेंगे। तो ये विधियाँ अनइनीशिएटिड (अदीक्षित) लोगों के लिए अच्छी हैं लेकिन एक साफ-साफ समय सीमा होनी चाहिए कि, "ये ध्यान की विधि मेरे लिए बस दो महीने या छह महीने तक उपयोगी है। उसके बाद मुझे इसे छोड़ देना है।"

भाई! जैसे तैरने में, अब मुझे तो तैरना-वैरना कभी आया नहीं लेकिन मैं जितनी बार स्विमिंग पूल गया तो उतनी बार वो टायर दे देते हैं हवा से भरे हुए। वो टायर अच्छे हैं कि बुरे हैं?

प्र: शुरुआत करने के लिए एक टूल (उपकरण) हैं।

आचार्य: शुरुआत करने के लिए, डर निकालने के लिए एक उपकरण हैं और कोई मेरे जैसा हो जाए और दस साल बीस साल बीत जाएँ और वो टायर में ही बैठा हुआ है स्विमिंग पूल में। तो ज़्यादातर जो ध्यानी लोग हैं उनकी यही हालत है कि वो सागर में तो कभी पहुँच ही नहीं पाए क्योंकि वो स्विमिंग पूल में ही बैठे हैं वो भी टायर पर और वो अपने आपको ये दिलासा भी दिए दे रहे हैं कि "देखो! हम पानी को जानते हैं।" वो अपने आपको बोलते हैं, "देखो स्विमिंग पूल पच्चीस फीट गहरा है।" अरे! पच्चीस फीट तो गहरा है पर तुमने कौन-सा पच्चीस फीट की गहराई चख ली? तुम तो टायर पर ही बैठे हो। विधि माने टायर! विधि माने तरीका! विधि माने सपोर्ट! जैसा कि आपने कहा- बैसाखी।

असली ध्यान किसी विधि का मोहताज नहीं होता। हाँ, विधि शुरुआत करने के लिए ठीक हो सकती है लेकिन जल्दी-से-जल्दी छूट जानी चाहिए। दो महीने, छह महीने में विधि छूट जानी चाहिए। जो लोग दस-दस साल से विधियाँ ही चला रहे हैं कि, "मैं ऐसे करता हूँ, वैसे करता हूँ, फलानी क्रिया, ये-वो", वो वही हैं स्विमिंग पूल में टायर वाले।

प्र: तो 'असली ध्यान' विधि के बिना क्या है?

आचार्य: जैसे अभी हो रहा है, ये ध्यान है। उद्देश्य शांति है और उस शांति के लिए जिस चीज़ पर केंद्रित होना पड़े, एकाग्र होना पड़े, कंसंट्रेट होना पड़े वो करो। निराकार चाहिए और उस निराकार की प्राप्ति के लिए जिस भी साकार वस्तु से संबंध बनाना पड़े बना लो। ये प्रतिदिन का, प्रतिक्षण का ध्यान है। समझ रहे हैं? तो इस बातचीत में जो उद्देश्य है- वो निराकार है। क्या निराकार है? शांति। शांति का कोई आकार, रूप, रंग, गंध इत्यादि तो होता नहीं। तो वो उद्देश्य है और उस उद्देश्य के लिए आप अभी एक साकार वस्तु के सामने बैठी हैं, उस साकार वस्तु का क्या नाम है? आपकी स्क्रीन * । ठीक है? और आपने कुछ वहाँ पर अपना * गैजेट्स (उपकरण) लगा रखे होंगे वो सब भी साकार हैं। उसके अलावा आप जिस व्यक्ति से बात कर रही हैं, वो व्यक्ति भी साकार है। तो ये सब साकार चीज़ें हैं आप जिन पर अभी फोकस या कंसंट्रेट कर रही हैं। लेकिन आपका इरादा इन किसी भी साकार वस्तुओं से संबंधित होने का नहीं है। आपका इरादा है निराकार तक पहुँचने का उस निराकार को ही शांति, मौन, सत्य इत्यादि कहते हैं। तो ये प्रतिक्षण का ध्यान है। प्रतिक्षण के ध्यान में आप पूरे तरीके से मुक्त होते हो किसी भी चीज़ पर एकाग्र होने के लिए।

उदाहरण के लिए मैं बैठा हूँ यहाँ पर, मैं ये चाय है, मैं इस पर एकाग्र हो सकता हूँ। ठीक है? मैं पूरी तरीके से इसको देख सकता हूँ और इस वक्त मैं बिलकुल परमात्मा के बारे में नहीं सोच रहा हूँ। वास्तविक ध्यान में आपके विचारों में परमात्मा या सत्य या मुक्ति या शांति आते ही नहीं। विचार तो आपके किसी साकार वस्तु से ही संबंधित होते हैं, पर वो साकार वस्तु कौन-सी होती है? जो आपको निराकार तक ले जाएगी, माने शांति तक ले जाएगी। अब अभी हम बात कर सकें, अभी ये बातचीत हमारी सही चल सके, उसके लिए ज़रूरी है कि शायद मैं एक चुसकी ले लूँ (अपने कप से वीगन चाय की एक चुस्की लेते हुए) अब लेकिन ये वाला जो ध्यान है, ये कोई मानेगा ही नहीं कि ध्यान है। कह रहे हैं बातचीत करते हुए बीच में चाय पी रहे हैं, ये ध्यान हो गया? जी साहब, यही ध्यान है! अच्छा, अभी ये सड़क पर चलते जा रहे थे तो वो ध्यान हो गया? बिलकुल वही ध्यान है! अगर आप सड़क पर सही वजह से चल रहे हो, अगर आप सड़क पर सही मंज़िल की ओर चल रहे हो, तो सड़क पर चलना ध्यान है। आप समझ रही हैं? आप खाना बना रहे हैं, आप नहा रहे हैं, आप पौधों में पानी डाल रहे हैं, आप अपने रोज़मर्रा का कोई भी काम कर रहे हैं, बात ये है कि वो काम आप क्यों कर रहे हैं? करने वाला अहंकार है न? वो क्यों कर रहा है? अगर वो सही मंसूबे से, सही नियत, उद्देश्य से काम कर रहा है तो ध्यान चल रहा है। ध्येय सही है, तो जीवन ही ध्यान है।

प्र: ध्येय सही है, तो जीवन ही ध्यान है।

ये सारे काम करते वक्त, कई लोग इसे फ्लो स्टेट (प्रवाह) का नाम देते हैं, तो क्या वो सही नामकरण है?

आचार्य: दो प्रवाह होते हैं न हमारे अंदर? दो प्रवाह होते हैं- एक प्रवाह तो वो होता है कि कोई गुस्से में है, आपने देखा है वो कितने प्रवाह में होता है? या वो और किसी शारीरिक वृत्ति या उत्तेजना के अभी एक क्षण में है तो आपने देखा है उसमें कितना प्रवाह होता है? उसको रोका नहीं जा सकता, वो एकदम जानवर जैसा हो जाता है। प्रवाह, एकदम बह रहा है। तो एक प्रवाह वो भी होता है, वो प्राकृतिक प्रवाह है, वो बहुत गड़बड़ चीज़ होती है। ज़्यादातर जब हम कहते हैं कि 'आई एम इन द फ्लो' या 'गो विद द फ्लो' तो वो वही जानवर वाले प्रवाह की बात हो रही होती है। तो इसीलिए बहुत गड़बड़ है वो प्रवाह और एक दूसरा प्रवाह होता है जिसमें आप अपने आपको ऐसा बना चुके हो कि सही चीज़ की ओर जाते समय आप रास्ते की बाधाओं की परवाह नहीं करते। आप ऐसे हो गए हो कि जैसे पानी बह रहा है, बीच-बीच में पत्थर वगैरह आ रहे हैं लेकिन वो परवाह नहीं कर रहा है। वो ऊपर से दाएँ-बाएँ से रास्ता अपना बना ले रहा है, ये दूसरा प्रवाह है। तो ये फ्लो (प्रवाह) शब्द थोड़ा-सा इसके खिलाफ सतर्क रहने की ज़रूरत है कि कौन-से प्रवाह की बात हो रही है? ज़्यादातर आप जो प्रवाह देखोगे वो गलत प्रवाह है और जब प्रवाह गलत होता है तब ज़रूरी हो जाता है ब्रेक लगाना या अपने आपको झिंझोड़ देना और अपने आपको बिलकुल पकड़ लेना कि, "मत बहो! तुम गलत बहे जा रहे हो।"

शुरुआत हमेशा गलत प्रवाह से ही होगी क्योंकि हम सब पैदा ही ऐसे होते हैं। उसके बाद अपने आप को ज़बरदस्ती पकड़-पकड़ कर सही प्रवाह का अभ्यास दिलाना पड़ता है और फिर जब आप सही प्रवाह में आ गए तो उसकी बात दूसरी होती है। उसमें जो आनंद होता है, जो रस होता है वो गलत प्रवाह में नहीं होता। बिलकुल गलत प्रवाह में नहीं होता। लेकिन वो सही प्रवाह कभी आपको अपने आप नहीं मिलेगा। वो आपको अभ्यास से मिलेगा, उसके लिए आप में बहुत तीव्र इच्छा होनी चाहिए कि, "मैं सही प्रवाह में पहुँच पाऊँ।"

प्र: तो जैसे एक बेहोशी का प्रवाह और एक होश वाला प्रवाह।

आचार्य: बहुत बढ़िया! एकदम ठीक!

प्र: तो आचार्य जी, हमारी जो कंडीशनिंग (संस्कार) है बचपन से- वो हमेशा किसी एक उद्देश्य की तरफ होती है कि पढ़ाई की उपलब्धियाँ, या एक्स्ट्रा-करिकुलर की उपलब्धियाँ, या नौकरी की उपलब्धियाँ, और हमेशा से एक छवि उन चीज़ों की होती है दिमाग में कि एक सफल जीवन कैसा दिखना चाहिए! तो उस चीज़ को दिमाग में रखकर हर इंसान बढ़े जाता है सफलता की खोज में। ध्यान में हम जिस शांति की बात कर रहे हैं, उसकी कोई छवि नहीं है, निराकार है जैसे कि आपने कहा। तो हमारा जो ये दिमाग है, जो दीक्षित ही हुआ है किसी विशेष लक्ष्य का पीछा करने के लिए। उस दिमाग को फिर से दीक्षित कैसे किया जाए? और दूसरा मुझे नहीं पता दूसरों के अनुभव ये हुए हैं कि नहीं लेकिन मैंने जब ध्यान करना शुरू किया तो अंदर का जितना कचरा, जितनी नकारात्मकता, जितना गुस्सा, सब बाहर निकल कर आता था और लोग अक्सर पूछते भी थे कि "अरे! तुम तो ध्यान कर रहे हो तुम्हें तो बहुत ही शांत होना चाहिए और तुम तो गुस्सैल-पर-गुस्सैल होते जा रहे हो?" बिना सही मार्गदर्शन के ये सारी चीज़ें जब निकल कर आती हैं तो लक्ष्य स्पष्ट दिख नहीं रहा होता और दूसरा ये बाधाएँ जो समझ नहीं पा रहे हैं। तो इन चीज़ों से कैसे आगे बढ़ा जाए?

आचार्य: जब हम एक ऐसी जिंदगी जी रहे हैं जिसमें ध्येय हमारे गलत हैं। दिख रहे हैं, दिख तो रहे हैं- साकार हैं, सामने हैं, प्रचलित हैं, लेकिन गलत हैं तो उनसे छूटने के लिए हमें 'सही लक्ष्य' की ज़रूरत नहीं है। ये अगर हमने धारणा बना ली कि, "भाई मान लो कि मैं गलत जिंदगी जी रही हूँ पर इसको कैसे छोड़ दूँ जब तक मुझे सही चीज़ का पता नहीं है?" तो फिर आप गलत चीज़ को शायद कभी न छोड़ पाएँ। गलत चीज़ को छोड़ने के लिए आपको सही चीज़ नहीं चाहिए। गलत चीज़ को छोड़ने के लिए आपको गलत चीज़ को ही साफ-साफ देखना होगा, उसे बिना सही या गलत माने। कोई ज़रूरत नहीं है कि आप पहले से ही घोषित कर दें कि हम जो कर रहे हैं वो गलत हैं, हमारे रास्ते गलत हैं, या हमारे चुनाव गलत हैं वगैरह-वगैरह। बस हम जो कर रहे हैं उसको गौर से देखना है कि, "मैं ऐसे जा रहा हूँ, मैं वैसे जा रहा हूँ, इसमें मुझे मिल क्या रहा है? मेरी मनोस्थिति कैसी बन रही है? ये सब करके शांति कितनी है ज़िन्दगी में? डर कितना बचा हुआ है?" ये सवाल पूछना होता है और जब गलत चीज़, गलत दिखने लगती है तो फिर एक भीतर से तड़प उठती है, एक ऊर्जा उठती है जो आपको गलत से हटाती है और गलत से हटने को ही फिर सही कहते हैं। ठीक है?

तो सही चीज़ ऐसी नहीं है कि वो आपके सामने एक विकल्प के तौर पर खड़ी हो जाएगी। वो विकल्प नहीं होती। हम ये कहते हैं कि "मेरे पास पाँच चीज़ें हैं, साहब! आपने इन पाँचों चीज़ों को गलत बता दिया; मैं इन्हें छोड़ सकता हूँ पर आप पहले मुझे छठी सही चीज़ बता दीजिए।" नहीं ऐसे नहीं होगा! मामला यहाँ थोड़ा अलग चलता है! रोमांचक है मामला! मामला ये है कि आप इन पाँचों को एक-एक करके या एक साथ छोड़ते चलें और जैसे आप इनको छोड़ते चलेंगे वैसे अपने आप जो सही है वो प्रकट होता चलेगा, भले ही वो जो सही चीज़ है वो प्रकट होते समय आपको ये बता कर न प्रकट हो कि उसका नाम है- सही। हो सकता है ये आपको बहुत बाद में पता चले कि आपको सही चीज़ मिल चुकी है। ठीक है? लेकिन वो मिल रही होगी। नाम बाद में इसलिए पता चलेगा क्योंकि हमने तो सारा नामकरण उल्टा-पुल्टा ही कर रखा है न? जब हम गलत को ही सही बोल रहे थे, तब जब सही हमारे सामने आएगा तो उसको सही कैसे बोल देंगे? तो इसकी प्रक्रिया यही होती है कि अपनी ज़िंदगी को, अपने फैसलों को, अपने रिश्तेदारों को, अपने संबंधों को, रोज़मर्रा के अपने कामों को, देखते चलो और पूछते चलो कि, "ये मैं कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ? क्या मिला? क्या पाया? क्या खोया? अभी-अभी मैंने ये निर्णय लिया इसका प्रभाव क्या हुआ? अभी-अभी फलाना व्यक्ति मेरे सामने आ गया, उसका मेरे ज़हन पर असर क्या हुआ?" ये सब सवाल पूछने होते हैं और इसी को ध्यान कहते हैं। यही ध्यान है।

प्र: और जो जवाब निकल कर आते हैं उनसे आईडेंटिफाई (पहचान) न करना। क्या ये भी एक चाल है कि सवाल तो पूछे- कि ये क्यों हो रहा है? पर जो जवाब निकल कर आए...

आचार्य: ' आईडेंटिफाई न करना' आप इस भाषा में भी कह सकती हैं। लेकिन ज़्यादा उपयोगी भाषा होगी कि जो जवाब निकल कर आएँ, उनकी मार बर्दाश्त कर पाना। क्योंकि जवाब अच्छे नहीं होते। आप जितना ज़्यादा साफ-सुथरा और ईमानदार सवाल पूछोगे जवाब उतना ही ज़्यादा थप्पड़ की तरह आएगा। तो ज़्यादातर लोग फिर इसीलिए सवाल ही नहीं पूछते क्योंकि उन्हें पता है कि जवाब बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। तो इसीलिए वो चुपचाप जो हो रहा होता है, वो उसको ही, खुद को ये समझा लेते हैं कि, "यही सही हो रहा है। ये बिलकुल ठीक चल रहा है हमारा!" और उनसे आप अगर थोड़ा गहराई से बात करने लग जाएँ, सवाल-जवाब करने लग जाएँ तो वो डर जाएँगे, पीछे हट जाएँगे।

अपने भीतर फिर ये एक इच्छा शक्ति होनी चाहिए न, एक हौसला होना चाहिए, एक निर्णय होना चाहिए कि, "पर्दे के पीछे क्या है? मुझे जानना है, मैं जानूँगी और पर्दे के पीछे से अगर स्केलेटन (कंकाल) भी निकलता है तो स्वीकार है पर मुझे पर्दा तो हटाना-ही-हटाना है। उसके पीछे चाहे जैसा भी मंजर हो, कितना भी खौफनाक मैं झेल लूँगी। पर्दा तो हटे!" इतना पक्का समझिए पर्दा जब आप हटाना शुरू करेंगी तो जैसे आपने कहा न- ध्यान करना शुरू किया तो गुस्सा सामने आया, ये हुआ, वो हुआ, तो पर्दे तो जब हटेंगे तो पहले तो उनके पीछे से यही सब कीड़े-मकौड़े, गंदगी और कंकाल यही सब निकलेंगे। ठीक है? इस उम्मीद में मत रहिएगा कि एक दिन कोई आख़िरी पर्दा हटेगा तो उसके पीछे से कोई मज़ेदार चीज़ निकलेगी। वैसा कुछ नहीं है लेकिन ये हौसला रखिए कि जो भी निकलेगा झेल लेंगे और धीरे-धीरे ऐसा होने लगता है एक खास दर्द होता है, वो मज़ा देना शुरू कर देता है, फिर बुरा नहीं लगता।

प्र: एक तरह का ये इंटरनल कॉनफ्लिक्ट (आंतरिक द्वंद) है कि अपने आप के ही अंदर छह, सात, आठ लोग लड़ रहे हैं आपस में...

आचार्य: हाँ, बिलकुल! और वो सब-के-सब नकली हैं और जो 'आंतरिक ईमानदारी' है उसको उन छहों, सातों को ध्वस्त करके आगे बढ़ना है, हमें खुद को ही हराना है। हमारा जो 'असली मैं' है उसको हराना है 'नकली मैं' को और नकली 'मैं' कितने हैं? सात, आठ, दस, बारह, दो हज़ार, अनंत हैं, पता नहीं कितनी पूरी भीड़ है अंदर। वो पूरी भीड़ को हराना है किसी एक ने और वो जो एक है, वो बेचारा उपेक्षित पड़ा रहता है। हम उसकी कुछ परवाह नहीं करते, उसे रोटी-पानी भी नहीं देते। ये जो पूरी भीड़ है, ये पार्टी करती रहती है अंदर। इनकी पार्टी ख़राब करनी है, यही अध्यात्म है।

प्र: एक ही साथ, काफी सवाल पूछ लिए मैंने। मुझे आख़िर में यही लग रहा है जगने के लिए गुरु का मार्गदर्शन महत्वपूर्ण और स्पष्ट होता जाता है आप जैसे-जैसे इस मार्ग पर अग्रसर होते जाते हैं।

पर मेरे जैसे बहुत से लोग हैं, विशेषरूप से युवा जो ढूँढ रहे हैं। कुछ लोग आप के चैनल पर आए हैं, मैं भी इसी तरीके से पहुँची क्योंकि मैं मार्गदर्शन ढूँढ रही थी। लेकिन कई बहुत ढोंगी गुरु भी हैं जो कई तरीके की चीज़ें आपको दे सकते हैं तो आप जो भी कहना चाहें इस बारे में कि गुरु को कैसे ढूँढा जाए क्योंकि ये भी एक कला है मेरे हिसाब से कि...

आचार्य: ईमानदारी होनी चाहिए! ईमानदारी होनी चाहिए! देखिए गुरु सही है या गलत वो तो सीधे-सीधे आपको पता चल जाएगा कि आप पर असर क्या हो रहा है। और आप पर असर क्या हो रहा है ये कोई गुरु वगैरह आकर नहीं बता सकता। तो आपको ही देखना है। देखिए अल्टीमेटली (अंततः) बात गुरु वगैरह की है नहीं, बात आपकी ज़िंदगी की है। हर व्यक्ति को अपनी ज़िंदगी जीनी है। है न? गुरु जिसे हम बोलते हैं, उसे कुछ और भी बोल सकते हैं- मार्गदर्शक बोल लीजिए, दोस्त बोल लीजिए, जो भी है। वो उसमें अधिक-से-अधिक सहायक हो सकता है।

कोई गारंटी नहीं है कि आपको जो कोई मिल जाएगा यूट्यूब पर, मैं मिल गया हूँ, कोई मिल गया हो, और कोई मिल गया हो, वो आपके लिए अच्छा ही होगा। अच्छा है या बुरा है, वो आपकी ईमानदारी को तय करना है। आपको साफ-साफ देखना है कि आपको जो चाहिए वो आपको मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है। उसके लिए सबसे पहले तो आपको साफ होना चाहिए कि आपको चाहिए क्या। उसके लिए आपको साफ होना चाहिए कि आपको कोई नकली, ढोंगी चीज़, नहीं चाहिए। अब मान लीजिए कि आप हैं ही किसी छोटी-सी ही चीज़ की तलाश में। तो वो छोटी चीज़ आपको आसानी से मिल जाएगी न। फिर तो आप उस छोटी चीज़ को ही बढ़िया बोल देंगी, महान बोल देंगी और फिर आप क्यों कहेंगी कि वो जो छोटी चीज़ है, वो ढोंगी है? क्योंकि आपको चाहिए ही कुछ छोटा था। तो माने पहली शर्त क्या है? पहली शर्त ये है कि आपकी तलाश किसी सही चीज़ की होनी चाहिए। देखिए जब आप सही चीज़ की तलाश करने निकलोगे तो ज़ाहिर-सी बात है कि फिर कोई आप नकली चीज़ स्वीकार करोगे नहीं। या मान लीजिए आपने धोखे से स्वीकार कर भी ली। तो वो जो नकली चीज़ आप अपने घर ले आए, आप पाएँगे कि वो काम तो कर नहीं पा रही है, तो आप उसको फिर हटा दोगे।

इसको ऐसे समझिए- आपके पास बहुत अच्छी गाड़ी है! ठीक है? और आपको उसमें लगाने के लिए कोई स्पेयर पार्ट (कलपुर्ज़ा) चाहिए या कोई एक्सेसरीज़ चाहिए। तो गाड़ी जितनी अच्छी होगी, उसका स्पेयर पार्ट , उसकी एक्सेसरीज़ भी उसके हिसाब से महँगी होती हैं न? धोखे से अगर आप कोई घटिया, नकली चीज़ ले भी आए तो आप पाओगे कि वो उस गाड़ी के साथ फिट नहीं हो रही है, तो अपने आप उस नकली चीज़ को आप रिजेक्ट (अस्वीकार) कर दोगे। यही काम ज़िंदगी में होना चाहिए कि आपका जो उद्देश्य है वो बहुत बड़ा होना चाहिए। उस बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अगर आप कोई नकली गुरु ले आए या कोई नकली किताब अपने घर ले आए या कोई नकली विधि घर ले आए, तो हो सकता है आपको एक बार धोखा हो गया। किसी से भी हो सकता है, इंसान हैं हम सब। तो धोखा हो गया, कोई नकली चीज़ ले आए लेकिन फिर आप पाओगे कि वो मिसफिट (अनुपयुक्त) है, वो आपके उद्देश्य में काम नहीं आ रही, तो वो स्वतः ही छूट जाएगी न? तो ऐसे चलता है काम।

आपका उद्देश्य सही होना चाहिए! तो जो उसमें आपको सही सहारा चाहिए वो फिर अपने आप मिलने लग जाता है न क्योंकि गलत सहारा काम नहीं आता तो आप गलत सहारों को एक-एक करके रिजेक्ट करते जाते हो और फिर धीरे-धीरे कहीं इधर से, उधर से, थोड़ा-मोड़ा सही सहारा मिलने लग जाता है। याद रखिए- अध्यात्म में गुरु केंद्रीय नहीं होता। बात 'आत्म' की है, 'आत्म' केंद्रीय होता है। आत्म! गुरु या टीचर उस आत्म तक पहुँचने में आपके काम आ रहा है तो ठीक है, नहीं तो भाड़ में जाए। सीधा-सा है। उसका उपयोग किया जाता है। अंतिम लक्ष्य गुरु की भक्ति करना नहीं है, अंतिम लक्ष्य जानने के लिए आपको सबसे पहले शुरुआत को याद रखना होगा। आप सर्वप्रथम अध्यात्म और ध्यान की तरफ बढ़े ही क्यों थे? हम उसमें तो इसलिए गए थे न क्योंकि हम भीतर से अशांत थे, तनाव में थे, बेचैन थे।

तो अब मैं डॉक्टर के पास गया हूँ क्योंकि मुझे बुखार है और चार घंटे बाद पाया जाता है कि मैं डॉक्टर की क्लीनिक में बैठ कर, "ॐ श्री गुरु देवाय नमः! ॐ श्री डॉक्टर देवाय नमः! ॐ श्री डॉक्टर देवाय नमः!" कर रहा हूँ तो ये क्या हो गया? मैं डॉक्टर के पास क्या इसलिए गया था कि मैं डॉक्टर का भजन-कीर्तन शुरू कर दूँ? मैं डॉक्टर का ही यशोगान-गुणगान शुरू कर दूँ? डॉक्टर के पास जाना मेरा सफल हुआ या नहीं हुआ उसको जानने का तो बस एक ही तरीका है न, क्या? मेरा बुखार मिटा कि नहीं मिटा। उसके लिए मुझे अपनी तकलीफ़ के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। मुझे डॉक्टर से संबंध नहीं बनाना है, मुझे अपनी तकलीफ मिटानी है। डॉक्टर की आरती उतार कर के मुझे क्या मिल जाएगा?अगर मेरी तकलीफ नहीं मिटी और फिर डॉक्टर भी अगर असली डॉक्टर है तो उसकी ज़्यादा तुम आरती उतारोगे तो वो तुम्हें बाहर निकाल देगा। वो कहेगा "यार! पाँच और हैं, मेरी ज़िंदगी का भी कोई मिशन है, मुझे मेरा काम करने दो। मुझे ये थोड़े ही करना है कि दस लोग बैठ कर के मेरा गुणगान करें और मेरे गीत गाएँ। मुझे तो लोगों का इलाज करना है। वो करने दो न। तुम यहाँ क्यों बैठ गए? तुम अगर ठीक हो गए हो तो तुम अब आगे जाओ। तुम अपना काम करो या तुम खुद और लोगों को शिक्षा दो, कुछ भी और कुछ अच्छा करो दुनिया में। यहाँ बैठकर क्या कर रहे हो? तो गुरु को लेकर अति सतर्क रहने की आवश्यकता है एक तरफ तो - हाँ! हम सब को निश्चितरूप से सहारे की आवश्यकता है - और दूसरी तरफ हमें बहुत-बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है कि वो सहारा कहीं आदत या बैसाखी तो नहीं बन रहा या वास्तव में वो सही सहारा है भी या नहीं? ये भी तो हो सकता है कि जो आपका पथप्रदर्शक है वही आपको पथभ्रष्ट कर रहा है।

प्र: अधिकांशतः ऐसा देखा जाता है कि गुरु ही अहंकार का स्रोत बन गया है।

आचार्य: बिलकुल! बिलकुल! और फिर आप ऐसे ही गुरु को पकड़ोगे जिसके साथ ईगो (अहंकार) चमक सकती हो और फिर वो कोई समाज स्वीकृत गुरु होना चाहिए क्योंकि अगर आपने कोई विरल/दुर्लभ-सा गुरु पकड़ लिया तो फिर आप किसको बताओगे?

प्र: मेरे प्रश्न ख़त्म होते जा रहे हैं।

आचार्य: बढिया!

अच्छी बातचीत रही और मैं आशा करता हूँ कि आपको सभी प्रकार की आंतरिक मदद मिले, जो आपके लिए आवश्यक और सही हो। मैंने कल ही आपके लक्ष्यों और आपकी कुछ उपलब्धियों के बारे में पढ़ा, जो सराहनीय है।

प्र: उन लक्ष्यों और उपलब्धियों से उत्पन्न असंतोष ने मुझे सहज ही शांति की तलाश की ओर उन्मुख कर दिया।

आचार्य: बिलकुल! एक व्यक्ति, एक जिज्ञासु और एक भारतीय महिला के रूप में मैं आपके प्रयास और आपके द्वारा कवर (तय) की गई दूरी की प्रशंसा करता हूँ।

प्र: बहुत बहुत धन्यवाद आपको!

एक चीज़ जो आचार्य जी ने इस बातचीत के दौरान कही, वो बहुत गहरे तक अंदर जाकर बैठी। आचार्य जी ने एक बात कही इस बातचीत में कि "यदि आपका ध्येय सही है तो जीवन ही अध्यात्म है।" वो सीख मेरे लिए बहुत ही बड़ी है और उसे पूरे तरीके से समझ पाने में भी समय लगेगा और अपने जीवन में उतारने में भी समय लगेगा लेकिन ये बहुत ही बड़ी सीख मुझे लगी जो मैं ले सकती हूँ और कोई भी ले सकता है कि अध्यात्म जीवन का कोई एक हिस्सा नहीं है, पहलू नहीं है लेकिन अगर आप अपना जीवन सही तरीके से जी रहे हैं तो अध्यात्म जीवन जीने का ही तरीका है।

मैं आशा करती हूँ कि जिस तरीके से मैं इस बातचीत के बाद एक खजाने के तौर पर आचार्य जी की सीख लेकर निकली हूँ, आप भी इस बातचीत से जुड़ पाएँ। मैं आशा करती हूँ कि मेरे सवालों के ज़रिए या इस बातचीत के ज़रिए आपके भी कई सवालों का जवाब आपको इस वीडियो में मिले। धन्यवाद!

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