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कौन कमज़ोर कर रहा मेरे देश की युवा ताकत को || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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ऋषियों की विरासत को,

क्रांतिकारियों की शहादत को,

आज कौन कमज़ोर कर रहा मेरे देश की युवा ताक़त को?

एक वो थी २१ साल की जो जान पर खेल गई; एक ये हैं २१ साल के जो वीडियो गेम खेलते हैं। वो आज़ाद को नहीं जानता, वो बिस्मिल को नहीं जानता, वो सूर्य सेन को नहीं जानता, वो प्रितिलता को नहीं जानता, तो वो जानता किसको है?

अविरल प्रकाश हैं, २८ वर्षीय, कहते हैं, “सर, एक बड़े ज़रूरी मसले पर आपकी राय चाहिए। बात थोड़ी विस्तार में बताता हूँ। मैं दिल्ली की एक अपर मिडिल क्लास, ज्वाइंट फैमिली (उच्च मध्यम वर्गीय संयुक्त परिवार) से हूँ। उम्र मेरी २८ है। आज से २० साल पहले जब पापा, चाचा और बड़े भाइयों को देखता था घर में तो उनके व्यवहार और कैरेक्टर (चरित्र) में थोड़ी गंभीरता, थोड़ी गहराई, थोड़ा बड़प्पन होता था। हमें नाज़ होता था अपने घर के जवान लोगों की ताकत पर। आज २० साल बाद अपने टीनएज भांजों-भतीजों और कज़िंस को देखता हूँ जो १२ से २२ साल के हैं, तो पाता हूँ कि ये लोग ऊपर से तो कॉन्फिडेंट, एग्रेसिव और डिमाँडिंग हैं, पर भीतर से डरे हुए और कमज़ोर हैं। आपसे इसलिए पूछ रहा हूँ, क्योंकि आज दोपहर ही मेरे टीनएज भतीजे को सीवियर डिप्रेशन डायग्नोस हुआ है। और ये लड़का एकदम कूल और कॉन्फिडेंट बनकर घूमता था। इससे पहले घर का एक दूसरा टीनएज बच्चा शराब और ऑनलाइन सेक्स के मामले में कुछ दिन फँसा रहा। हमारी पढ़ी-लिखी कल्चर्ड फैमिली है, फिर भी ये लड़के घर में अब घटिया लैंग्वेज में बात करते हैं। कल्चरल और ग्लोबल अवेयरनेस उनकी ज़ीरो है। और अब ये डिप्रेशन का केस! हम शॉक में हैं। हमें तो पता ही नहीं चला ये क्या हो गया पिछले २० साल में। कौन ज़िम्मेदार है?”

अविरल, तुम्हारे घर में ही नहीं हो रहा, भारत में, दुनिया भर में हो रहा है। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन (अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ) ने पाया कि इस १२-१३ साल की अवधि में ही टीनएजर्स में और जवान लोगों में डिप्रेशन के मामले ५२ प्रतिशत से ६३ प्रतिशत तक बढ़े हैं। बहुत चौकाने वाला आंकड़ा है ये। क्यों डिप्रेशन इतने ज़बरदस्त तरीक़े से फैला है युवाओं में और किशोरों में, टीनेजर्स में? तो स्टडी (अध्ययन) कहती है कि संभवतया कारण है सोशल-मीडिया। प्रोफेसर जीन ट्वेंगे हैं, उन्होंने किताब लिखी है, जिसका उन्होंने शीर्षक दिया है, “कॉन्फिडेंट, असर्टिव एंड एंटाईटेल्ड एंड मोर मिसरेबल देन एवर बिफोर (आत्मविश्वासी, निश्चयात्मक, अधिकारी, और पहले से ज़्यादा दुखी)”। उसमें उन्होंने बताया है ग्रेट इकोनोमिक डिप्रेशन था १९३० का, उस समय भी तनाव के, एंज़ायटी के जो स्तर थे युवाओं में, उससे भी पाँच गुना ज़्यादा तनाव है आज के युवा में। स्थिति ये है इस समय कि हर सौ मिनट में डिप्रेशन के कारण एक किशोर, एक टीनएजर आत्महत्या कर रहा है। बीस प्रतिशत टीनएजर्स कभी-न-कभी डिप्रेशन से होकर गुज़रे ज़रूर हैं। आत्महत्या की दर १९९० के दशक में कम हो रही थी, और २००० के बाद दुबारा बढ़ गई है। इतनी बढ़ गई है कि १५ से २४ आयु वर्ग के लोगों में, किशोरों में ये मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण है।

तो ये अचानक क्या हुआ कि १९९० के दशक में तो जवान लोगों में आत्महत्या की दर हो रही थी कम, और सन २००० लगने के बाद वो दर बदल गई, बढ़ने लगा गई। क्या हुआ? तो वहाँ पर भी कारण वो सोशियल मीडिया ही है। पिछली पूरी शताब्दी में आईक्यू लेवल्स दुनिया की आबादी के लगातार बढ़ते रहे, इसको फ्लिन इफेक्ट बोलते थे। लेकिन बहुत एक अजीब चीज़ देखने को मिल रही है, वो ये है कि सन २००० के बाद से जो बच्चे पैदा हो रहे हैं उनका आईक्यू लगातार घटता ही जा रहा है, घटता ही जा रहा है। और बढ़ता जा रहा था पहले, १०० से बढ़ रहा था। १०० से बढ़ रहा था, पिछले २०-२५ साल में अचानक घटना शुरू हो गया। ये जो हमारे टीनएजर्स हैं, और ये जवान लोग हैं, ये लगातार डंब (मंद) होते जा रहे हैं। उनका आईक्यू गिरता जा रहा है। कारण कोई समझ नहीं पा रहा। पोषण, न्यूट्रीशन, पहले से बेहतर हुआ है, नॉलेज और इंफॉर्मेशन के स्रोत पहले से कई ज़्यादा खुल गए हैं, तो आईक्यू तो बढ़ना चाहिए था। लेकिन २५ साल में आईक्यू लगातार गिरता जा रहा है। और यहाँ पर भी अनुमान यही है कि कारण है सोशल-मीडिया। समझ रहे हो?

अब सोशल-मीडिया अपने आप में डिप्रेशन का, आत्महत्या का, गिरते आईक्यू लेवल्स का ज़िम्मेदार कैसे हो सकता है? हम किशोरों की, टीनएजरों की और यंग एडल्ट्स की बात कर रहे हैं; ये इंप्रेशनेबल होते हैं। ये जल्दी प्रभावित हो जाते हैं और ये उत्सुक होते हैं। ये दुनिया की ओर देख रहे होते हैं कुछ जानने के लिए, कुछ सीखने के लिए। और अभी उनमें इतनी बुद्धि, इतना विवेक नहीं होता है कि ये साफ़ समझ पाएँ कि इनके लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है। बात समझ रहे हो? लेकिन संगति इनको चाहिए। आगे बढ़ने के लिए किसी-न-किसी को आदर्श इनको बनाना है। तो उसके लिए ये जाते हैं सोशल-मीडिया की ओर।

अब होता क्या है सोशल-मीडिया पर? सोशल-मीडिया पर क्या नहीं होता पहले ये देखो। तो अविरल अगर तुमने बात करी है अपने भांजों-भतीजों की, उनसे अगर मैं पूछूँ कि, "खुदीराम बोस के बारे में जानते हो?" तो वो तुम्हारा मुँह ताकने लगेंगे। वो कहेंगे, “ये किसकी बात कर रहे हो?”

खुदीराम बोस (1889-1908), वीरगति के समय आयु: १९ वर्ष।

खुदीराम बोस पता है कौन हैं? वो भी एक टीनएजर ही थे। १८ साल के टीनएजर थे जिन्होंने शहादत कुबूल ली थी, अंग्रेज़ों के हाथों मारे गए थे। पर इस टीनएजर का नाम तुम्हारे घर के लड़कों को नहीं पता होगा। इसी तरीक़े से मैं अगर उनसे पूछूँ कि मुझे बताओ भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव कितने साल के थे जब फांसी पर चढ़े थे, तो ये भी तुम्हारे घर के जवान लड़कों को नहीं पता होगा, जबकि ये तीनों ही २२-२२, २३-२३ साल के थे। और २३ ही मार्च को फाँसी पर चढ़ गए थे।

अब टीनएजर को या यंग एडल्ट को संगति चाहिए। सवाल ये है उसे किसकी संगति मिल रही है? इन जैसे टीनएजर्स की संगति मिल रही है क्या उसको? और बहुत ज़बरदस्त किशोर और युवा हुए हैं भारत के और दुनिया के इतिहास में, मैं उनका नाम लेता चलूँगा। मैं अगर अभी तुमसे पूछूँ कि विनय बसु के बारे में बताओ तो ये नाम ही शायद तुम्हारे भांजे ने तो छोड़ दो, या भतीजे ने, अविरल तुमने ख़ुद न कभी सुना हो, कि, “विनय बसु? ये कौन है?”

विनय बसु (1908-1930), वीरगति के समय आयु: २२ वर्ष

विनय बसु एक बहुत ज़बरदस्त जवान क्रांतिकारी थे। और उनके साथ नाम अमर है बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता का।

बादल गुप्ता (1912-1930), वीरगति के समय आयु: १८ वर्ष

दिनेश गुप्ता (1911-1931), वीरगति के समय आयु: १९ वर्ष

आप कहेंगे बादल गुप्ता, दिनेश गुप्ता एकदम ही सुने हुए नाम नहीं हैं। वो थोड़ा-सा जाकर के इंटरनेट पर पढ़िए तो सही या कोई किताब लेकर के पढ़िए तो सही, 'बैटल ऑफ द वेरांडाह'। कलकत्ता की राइटर्स बिल्डिंग का अपने नाम सुना होगा। वहाँ पर ये तीनों युवा क्रांतिकारी घुस गए थे और आई जी सिंपसन था जिसने बहुत क्रूरतापूर्वक दमन कर रखा था भारतीयों का और जेलों में बंद क्रांतिकारियों का। तो वहाँ घुसे, और राइटर्स बिल्डिंग आप जानते ही हैं कलकत्ता की कैसी है, वहाँ उसको गोली मारी और उसके बाद वहाँ मौजूद और उस जगह पर धावा मारने पहुँचे बड़े सशक्त पुलिस बल से कुछ देर तक लोहा लेते रहे। उसके बाद तीनों अपनी मर्ज़ी से शहीद हो गए। विनय बसु ने ख़ुद को गोली मारी, उसके बाद भी ज़िंदा रह गए। अंग्रेज़ उन्हें पकड़ करके अस्पताल में भर्ती करा आए। उनको जहाँ गोली लगी थी वो उस जगह को जानबूझकर के अपने हाथों से लगातार खोदते रहे, खोदते रहे, खोदते रहे, जब तक उनकी मौत नहीं हो गयी।

ये भी तो एक जवान आदमी है न! और उनके साथ २ टीनेगर थे, १८-१८ साल के ये लड़के थे: बादल गुप्ता, दिनेश गुप्ता। १८ साल समझते हो? बारहवीं का लड़का। इनके बारे में क्यों नहीं पता है हमारे आज के टीनेजर्स को? क्या वजह है? और ये बड़ी ज़बरदस्त कहानी है। टीनेजर्स की भाषा में कहें तो इंप्रेसिव भी है और इंस्पिरेशनल भी है। लेकिन फिर भी हमें इनका कुछ पता नहीं।

यतिंद्रनथ दास (1904-1929), वीरगति के समय आयु: २५ वर्ष

यतिंद्रनाथ थे, उन्होंने कहा कि जेलों में क्रांतिकारियों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता है तो अनशन करेंगे। और वो अनशन उनका ऐसा था कि ६३ दिनों तक उन्होंने कुछ अपने भीतर जाने नहीं दिया। उनके नाक के भीतर नली लगाकर के कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश की जाती तो खाँसना शुरू कर देते ज़ोर से।६३ दिन समझते हो? ६३ दिन कुछ खाए-पिए बिना रहना? और ये २४ साल के थे। एक बार में फाँसी पर झूल जाना या गोली खाकर मर जाना तो फिर भी अपेक्षतया थोड़ा आसान है, ६३ दिनों तक धीरे-धीरे जानबूझकर के मौत की ओर बढ़ना समझो तो! २४ साल, २४ साल का लड़का ही है। इनके बारे में पता ही नहीं होगा न?

मैं अभी पूछूँ सूर्य सेन के बारे में बताओ, निर्मल सेन के बारे में बताओ, तो कुछ नहीं बता पाएँगे तुम्हारे घर के टीनएजर्स और लड़के।

सूर्य सेन वीरगति के समय आयु: ३९ वर्ष शिक्षक जिन्होंने सैकड़ों छात्रों में क्रांति भर दी।

तो इनकी संगति तो नहीं ही कर रहा है आज का युवा वर्ग। किसकी संगति कर रहा है? इस सवाल के साथ रहो। किसकी संगति कर रहा है? टीनएजर है आज का, वो इन टीनएजर्स की संगति तो नहीं कर रहा है और इनको तो अपना रोल मॉडल नहीं मान रहा है। तो आज का जो टीनएजर है वो फिर संगति कर किस टीनएजर की रहा है? क्योंकि किसी की तो कर रहा है।

लड़कियों की, महिलाओं की ओर देखूँ तो शांति घोष, सुनीति चौधुरी, ये १५-१५ साल की लड़कियाँ थीं। १८ की उम्र में, बारहवी में होते हो अगर तो १५ की उम्र में तो नौवीं-दसवीं में होते हो। और १५ की उम्र में इन्होंने जाकर के गोली चला दी थी सीधे और जेल चली गईं थीं। अंग्रेज़ों पर सीधे गोली चला दी थी। और ये वो उम्र है जब आज की टीनएज लड़कियाँ ऐसा व्यवहार कर रही होती हैं अधिकतर जैसे अभी छोटी-सी, नन्ही-सी डॉल हों, गुड़िया हों।

शांति घोष क्रांति के समय आयु: १५ वर्ष

सुनीति चौधुरी क्रांति के समय आयु: १४ वर्ष

कनकलता बरूआ वीरगति के समय आयु: १७ वर्ष

कनकलता बरूआ का नाम ही नहीं सुना होगा इन टीनएज लड़के-लड़कियों ने। मृत्यु बाहिनी की सदस्या थीं और सत्राह की उम्र में प्रदर्शन कर रही भीड़ का नेतृत्व कर रही थीं हाथ में तिरंगा लेकर के। गोली खाई और अंग्रेज़ों ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर निकलोगे सड़क पर तो गोली खाओगे। चेतावनी के बावजूद निकलीं, सामने से गोली खाईं और सड़क पर ही वीरगति को प्राप्त हो गईं। और ये सत्रह साल की हैं। क्या इनके बारे में जान रहे हैं आज के टीनएजर्स? इनके बारे में तो नहीं जान रहे।

मैं अभी कहूँ कल्पना दत्त, बीना दास, प्रीतिलता वड्डेदार, इनका नाम भी सुना है आज की किशोर, टीनएज लड़कियों ने?

कल्पना दत्त क्रांति के समय आयु: १८ वर्ष

बीना दास क्रांति के समय आयु: २१ वर्ष

प्रीतिलता वड्डेदार वीरगति के समय आयु: २१ वर्ष

२१ साल की थीं प्रीतिलता वड्डेदार, सूर्य सेन के कहने पर चटगांव में जो ब्रिटिश क्लब था, एंटरटेनमेंट क्लब, उसमें जाकर के बम लगा आईं, फायरिंग करी। और जब क्लब के भीतर से जवाबी फायरिंग होने लग गई, एक गोली उनको लग गई, तो सायनाइड खाकर के जान दे दी।

एक वो थीं २१ साल की जो जान पर खेल गईं, एक ये हैं २१ साल के जो वीडियो गेम खेलते हैं। ये तो २१ की थीं, और कल्पना दत्त और बीना दास इनके साथ जब थीं तो वो १८-१८ साल की थीं। १८ के साल में ज़बरदस्त तरीक़े से क्रांतिकारी गतिविधियों में उतर भी गईं, पकड़ी भी गईं, जेल भी हो आईं। इनके बारे में हमारा टीनएजर नहीं जान रहा है। उस सवाल के साथ रहना कि इनके बारे में हमारा जो टीनएजर है, जो किशोर है, वो क्यों नहीं जान रहा है? और जबकि इनकी कहानियाँ ऐसी हैं कि जानने लायक हैं। एक बार आप इनकी कहानियों के साथ हो लो तो उसके बाद दुनिया भर की जो बेहूदा दो-कौड़ी की ख़ुराफ़ाती कहानियाँ हैं, वो आपके दिमाग से तुरंत उतर भी जाएँगी। लेकिन फिर भी ये कहानियाँ नहीं पता हैं।

ये तो हो गई स्वतंत्रता सैनानियों की बात, इसी तरीक़े से अगर मैं विज्ञान के क्षेत्र में आऊँ तो ब्लेज़ पास्कल ने १९ की उम्र में, और हम बात कर रहे हैं १९वीं शताब्दी की—१९ की उम्र में, १९वीं शताब्दी में, केल्क्युलेटर तैयार कर दिया था जो अबैकस का विकल्प हो सकता था। जॉन वॉन न्यूमन, जिन्होंने पहला हाइड्रोजन बम तैयार करा है, और जो पहले कुछ कंप्यूटर्स को बनाने में काफ़ी अग्रणी रहे थे, उनके रिसर्च आर्टिकल्स उनकी टीनएज में ही प्रकाशित होने शुरू हो गए थे। भारतीयों की बात करें तो चन्द्रशेखर वेंकटरमन अपने तीसवें दशक में ही थे, ४० के नहीं हुए थे, जब उन्होंने रमन-इफैक्ट खोज निकाला था। जिसके लिए फिर उनको नोबल पुरस्कार भी मिला। इनके बारे में क्यों नहीं पता है? इनकी कहानियाँ क्यों नहीं पता हैं हमारे किशोरों को? इनके साथ हम क्यों नहीं सोशल-मीडिया पर समय गुज़ार रहे?

महिलाओं में अगर याद करना हो तो मेरी क्युरी, मरिया गीताना ऐन्येसी, ये इतनी ज़बरदस्त टीनएजर्स थीं कि १५-१६ साल का कोई भी लड़का या लड़की इनकी संगति पाकर के धन्य हो जाए, खुश हो जाए, फूला नहीं समाए। मरिया गीताना ऐन्येसी के बारे में विख्यात है कि वो जब १३-१४ साल की थीं तो उनके घर में लोग आएँ और कोई उनसे बोले, जो की होता है नई-नई लड़की अभी किशोर हो रही है, एडोलोसेंस (किशोरावस्था) में जा रही है, कि “आओ नाचें,” तो वाल्ट्स करते वक्त वो न्यूटन की ग्रैविटी की चर्चा करने लग जाती थीं। और कहते हैं कि जो एक बार उनके साथ नाच लेता था वो फिर दोबारा कभी उनका हाथ नहीं माँगता था नाचने के लिए। लड़के आते थे, कहते थे “आओ नाचो,” तो कहती थीं ठीक है, “आओ नाचते हैं।” और वो नाच रही हैं और चर्चा वो सारी कर रही हैं फिज़िक्स पर। कोई लड़का ऐसा होता ही नहीं था कि कहे कि अब दोबारा भी नाचना है।

इनके बारे में क्यों नहीं आज की लड़कियों को पता है? कहिए।

और अध्यात्म के क्षेत्र में अगर कहूँ तो फिर तो न जाने कितने उदाहरण हैं। विवेकानन्द ३० का होने से पहले-पहले पूरा भारत भ्रमण कर चुके थे और ४० का होने से पहले-पहले अपनी जीवन लीला पूरी करके अपना सब संस्थापना का और किताबों का काम करके इस दुनिया को विदा भी दे चुके थे।

आदिशंकर बहुत ही छोटी उम्र में सब बातें समझ करके घर से निकल पड़े थे। केरल से और पूरे देश में घूमकर के उन्होंने अद्वैत की बात करी, धर्म का प्रचार करा। और ज़्यादा जिए नहीं, ३०-३५ का होते-होते उन्होंने भी दुनिया को विदा दे दी।

अष्टावक्र हैं, नचिकेता हैं, ये सब शास्त्रों में आनेवाले नाम हैं। इनमें ये बात साझी है कि बहुत ही छोटी उम्र में—किसी ने ८ की उम्र में, किसी ने ११, किसी ने १४ की उम्र में—इन्होंने बहुत बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं। जीवन में बड़ी गहराई, बड़ी गंभीरता हासिल कर ली थी।

जवानों के लिए ये क्यों नहीं आदर्श हैं? जवान इनकी कहानियाँ क्यों नहीं जानते हैं? इनकी संगति क्यों नहीं करते हैं? बात समझ में आ रही है?

कला के क्षेत्र से लें तो पिकासो हैं। एक ज़बरदस्त टीनएजर थे पिकासो। और चलो ऐतिहासिक चरित्रों की बात अगर नहीं भी करनी है, अगर वर्तमान के लोगों की ही बात करनी है तो आज के टीनएजर्स को, जो आज के युवा वैज्ञानिक हैं, बिलकुल कम उम्र के जीवित, क्या उनके नाम भी पता हैं? मैं कहूँ डैनियल ई हर्टाडो, नाम पता है क्या? क्यों नहीं पता? सोरेन हाबुर्ज। “नहीं, नहीं जानते। क्या? क्या बोल दिया?” कुछ नहीं पता।

क्यों नहीं पता है? वजह ये है कि दिमाग तो छोटा सा ही है न, सीमित ही है, उसमें या तो ये चीज़ रह सकती है या ये चीज़ रह सकती है। डॉ फियोना जे बेक का नाम पूछो, कितने टीनएजर्स को पता होगा? नहीं पता है क्योंकि सोशल-मीडिया पर उन्हें कुछ और ही दूसरे टीनएजर्स हैं जिसकी संगति मिल रही है।

अविरल तुमने लिखा है कि, “हमें तो पता ही नहीं चला ये क्या हो गया। कौन ज़िम्मेदार है?” बहुत चीज़ें ज़िम्मेदार हैं।

दो तरीक़ों से तो सोशल-मीडिया ही ज़िम्मेदार है:

पहला, सोशल-मीडिया पर टीनएजर को दूसरों की बहुत ग्लोरीफाइड और नकली इमेज या छवि दिखाई जाती है और फिर उसके ऊपर दबाव पड़ता है कि वो अपनी भी एक बड़ी सुंदर, ताकतवर और नकली छवि प्रदर्शित करे। ये जो नकली छवि होती है ये ज़िन्दगी की ठोकरों का, ज़िंदगी के सवालों का सामना कर नहीं पातीं। और जब वास्तविक जीवन से पाला पड़ता है तो ये छवि टूट जाती हैं। जब ये टूटती है छवि तो बड़ा दुःख होता है और जो युवा है, टीनएजर, वो फिर कई तरीक़े के रोगों से ग्रस्त हो सकता है, डिप्रेशन में जा सकता है। ऑनलाइन आप अपना एक पर्सोना (शख़्सियत) बनाकर रखते हो जिसमें आप कूल हो, कॉन्फिडेंट हो, आउटस्पोकन हो, और जब आप ज़िंदगी में उतरते हो, सड़क पर उतरते हो, तो ये पर्सोना बिल्कुल ध्वस्त हो जाता है। जिसका नतीजा होता है कि आपकी सेल्फ-एस्टीम, आपका आत्मसम्मान बिल्कुल बिखर जाता है, और आप मानसिक रूप से बहुत चोट पाते हो।

दूसरा तरीक़ा जिससे सोशल-मीडिया टीनएजर्स को तबाह कर रहा है, वो है इन्फ्लुएंसर्स का। बहुत सारे मीडियोकर (औसत) लोग होते हैं जो पाते हैं कि ज़हरीले शब्द, विचार और छवियाँ बेचकर, प्रचारित करके, वो भी ज़िंदगी में सफल हो सकते हैं। ये सफलता उनको वरना मिलनी नहीं थी। तो फिर वो जल्दी से प्रसिद्धि और पैसा दोनों अर्जित करते हैं ज़हरीली धारणाएँ और ज़हरीले ख़याल और ज़हरीले तरीक़े का व्यवहार प्रचारित करवा के युवाओं में और टीनएजर्स में। ये जो इन्फ्लूएंसर्स होते हैं ये रोल मॉडल बन जाते हैं ये दिखाकर के कि देखो सस्ते और घटिया तरीक़ों का इस्तेमाल करके भी सफलता पायी जा सकती है। तो फिर बहुत सारे टीनएजर इनका फॉर्मूला कॉपी करने लग जाते हैं लेकिन पाते हैं कि ज़िंदगी इनको तो सफलता दे नहीं रही है उस फॉर्मूले पर चलाकर के, और तब इनको झटका लग जाता है, ये भी डिप्रेशन में आ जाते हैं।

वो जो इन्फ्लुएंसर है वो तो खूब पैसा बना गया टीनएजर्स के दिमाग में ज़हर घोलकर के, लेकिन उससे जो नुक़सान हुआ है टीनएजर को, उसको ठीक होने में हो सकता है बहुत साल लग जाएँ।

किस हद तक घातक हैं ये सोशल-मीडिया इंफ्लुएंसर्स, मैं कुछ आंकड़े बताता हूँ। भारत में टीनएजर्स की संख्या करीब २० करोड़ की है। इन २० करोड़ में से १० करोड़ या १० करोड़ से भी ज़्यादा टीनएजर्स किसी-न-किसी सोशल-मीडिया इन्फ्लूएंसर को यूट्यूब, इंस्टाग्राम वगैरह पर फॉलो करते हैं। माने कि ५० प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा भारतीय टीनएजर ग़लत रोल मॉडल्स के प्रभाव में हैं। ग़लत आदर्शों के ज़हरीले प्रभाव में हैं हमारे टीनएजर्स, और ये टीनएजर्स जो ऐतिहासिक या वर्तमान समय के वास्तविक महान लोग हैं, उनसे कोई संबंध नहीं अनुभव करते। सर्वेज़ में पता चला है कि एक चौकाने वाला अनुपात है इन टीनएजर्स का जिनको ऐतिहासिक या वर्तमान महान व्यक्तित्वों के नाम तक नहीं पता हैं। इसका मतलब ये है कि वो जो सोशल-मीडिया आइकन है इनका, वही इनके दिमाग में सबसे ज़्यादा जगह रखता है, और ये सिर्फ़ उसी से प्रभावित हो रहे हैं। तो इसका जो भयानक निष्कर्ष है वो ये है कि भारत का भविष्य इन्हीं घटिया सोशल-मीडिया इन्फ्लिएंसर्स के द्वारा निर्धारित हो रहा है। बहुत ही गैरज़िम्मेदार और मूर्ख क़िस्म के लोग युवाओं में बहुत प्रसिद्ध होकर के यूथ-आइकन बन गए हैं, कल्चरल ट्रेंड्सेटर बन गए हैं। भारत के भविष्य के लिए ये बहुत ख़तरनाक बात है।

क्या सभी सोशल-मीडिया इंफ्लुएंसर नालायक और घातक ही होते हैं? नहीं ऐसा नहीं है। कुछ बहुत बढ़िया सोशल-मीडिया इंफ्लूएंसर भी हैं। वो बहुत जान लगाकर काम कर रहे हैं अवेयरनेस फैलाने के लिए साइंस और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में, साहित्य के क्षेत्र में, सस्टेनेबल डेवलपमेंट के क्षेत्र में, विगनिज़्म, क्लाइमेट चेंज, स्वास्थ्य, शिक्षा, अध्यात्म आदि के क्षेत्र में। लेकिन ये जो असली हीरो हैं, इनको ज़्यादा फॉलोवरशिप या अटेंशन मिलता ही नहीं है। क्यों नहीं मिलता? प्रमुख कारण तो यही है कि ये जो हमारा यूथ है, उसके दिमा़ग को ग़लत रोल-मॉडल्स ने घेर रखा है तो फिर सही चीज़ की ओर जाने के लिए जगह, स्थान उपलब्ध ही नहीं है। अगर ८० का दशक होता, ९० का दशक होता तो तुम्हें पता होता न कि तुम्हारे घर के बच्चों से कौन मिलने जुलने आ रहा है। तब साफ़  पता होता। आज तुम्हें नहीं पता लगता क्योंकि तुम्हारे घर के टीनएजर्स से और जवान लड़कों से जो लोग मिलने आ रहे हैं वो दरवाज़े से नहीं आ रहे हैं, वो गैजेट्स से आ रहे हैं, वो मोबाइल की स्क्रीन से आ रहे हैं। तुम्हें नहीं पता लगता। और आज तुम्हारे घर के बच्चों से मिलने वो आ रहे हैं जो अगर ८०-९० के दशक में दरवाज़े से मिलने आ रहे होते तो तुम कहते कि, “मोहल्ले के इस लफंगे से तेरी संगति है? इस लफंगे को भी जूता मारूंगा और तू भी चाटा खाएगा!” हुआ करते थे न बिगड़े हुए लड़के, फूहड़ बदमिजाज़ लड़के, जिनके साथ अगर आपके घर का बच्चा पाया जाए तो आप कहते थे इसकी संगति ख़राब हो गई है, कुसंगति में फँस गया है? और आप तो कहते तो कहते थे, पड़ोसवाले आकर के चेतावनी देते थे कि आपके लड़के की संगति ग़लत हो गई है। वो जो ८०-९० दशक के फूहड़ लड़के थे, आज वो सोशल-मीडिया के सुपरस्टार हैं। जो उस ज़माने में इधर से गरियाए जाते, उधर से लतियाए जाते, जिनको कोई अपने घर में घुसने न देता आज, वो इंस्टाग्राम पर, यूट्यूब पर सेलिब्रिटीज हैं। उनके मिल्यंस में नहीं उनके करोड़ों में फॉलोवर हैं।

और ये फॉलोवर जानते हो कौन हैं, अविरल? ये फॉलोवर हैं तुम्हारे भांजे, भतीजे, कज़िंस। सारी ज़िंदगी , सारी क़िस्मत तुम्हारी इसी बात से तय हो जाती है कि तुमने किसको अपना आदर्श बना लिया और किसकी संगति स्वीकार कर ली। और मैं दोहरा के कह रहा हूँ कि एक टीनएजर और एक जवान आदमी ज़बरदस्त तरीक़े से इंप्रेशनेबल होता है, वल्नरेबल होता है। उसको जिसकी संगति मिल गई वो वैसा ही हो जाएगा। और सोशल-मीडिया की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वहाँ जो चल रहा होता है वो और ज़्यादा चलने लग जाता है, ट्रेंडिंग हो जाता है। और हमारी प्रकृति ऐसी है कि हमको बुराइयाँ ज़्यादा आसानी से आकर्षित करती हैं बजाय अच्छाइयों के।

अब इन दोनों बातों को मिलाकर के देखो क्या मिलता है। हम सोशल-मीडिया पर उसी माल-मसाले की ओर जाएँगे जो घटिया स्तर का है। कुछ लोगों को अपवाद स्वरूप छोड़ दो। एक टीनएजर ९९ प्रतिशत संभावना है कि किसी घटिया चीज़ की ओर आकर्षित होगा सोशल-मीडिया पर। और जब वो घटिया चीज़ की ओर आकर्षित होगा तो वो जो घटिया चीज़ है उसको १० और लोगों को रिकमेंडेशन में दिखाएगा। १० और देखेंगे उसमें से ८ उसकी ओर आकर्षित हो जाएँगे क्योंकि घटिया चीज़ आकर्षक भी होती ही होती है। और फिर वो चीज़ फैलने लगेगी, ट्रेंड करने लगेगी। और धीरे-धीरे ये जो घटिया व्यक्ति होगा, जिसको मैं कह रहा हूँ कि ८०-९० के दशक में अगर दिख जाता आपको तो आप उसको जूते मार के अपने घर से निकलते, कि, “खबरदार! अगर तूने मेरे भतीजे को अपनी बुरी संगति दी तो।” वो आज भी अगर आपके सामने सशरीर आ जाए आपके घर में, और आप उसकी भाषा सुन लें भद्दी, और आप उसके ज्ञान का स्तर देख लें, आप उसके मन का स्तर देख लें, तो आप आज भी उसे अपने घर से निकाल देंगे। पर वो आज आपके घर में, मैं कह रहा हूँ, दरवाज़े के माध्यम से आता ही नहीं; वो आज आपके घर में आपके टीनएजर के मोबाइल के माध्यम से चोरी-छुपे आता है।

और अब वो एक सेलिब्रिटी हो चुका है। जब वो एक सेलिब्रिटी हो जाता है तो उसको फॉलो करना और ज़्यादा संभावित और आसान हो जाता है। क्योंकि आपका बच्चा कहता है कि भई इतने लोग इसके पीछे हैं, वो भी मेरी ही उम्र के, तो ज़रूर उसमें कोई बात होगी। और दूसरी बात, सोशल-मीडिया पर आपका बच्चा जहाँ भी जाएगा, वहाँ उसको यही फूहड़ लफंगे दिखाई देंगे क्योंकि भई अब तो ये हो चुके हैं ट्रेंडिंग सेलिब्रिटीज़। तो कहाँ तक आपका बच्चा इनसे बचा रहेगा? बड़ा मुश्किल है। ये कारण है कि वो सब कुछ देखने को मिल रहा है अमेरिका में, पूरी दुनिया में, भारत में, जो आज हमारे सामने आ रहा है। सोशल-मीडिया का कितना ज़बरदस्त संबंध है डिप्रेशन से, अन्य मानसिक बीमारियों से, ये बात अब बस खुलनी शुरू हुई है पिछले २-३ सालों से।

देखिए आपके ऊपर जब कोई खुला हमला करता है न तो आपको बात समझ में आ जाती है और आप उसके ख़िलाफ सुरक्षा का इंतज़ाम कर लेते हो। ठीक है न? आपके देश पर कोई आक्रमण करे चीन से, पाकिस्तान से, या आपके घर पर कोई आक्रमण करे तो आप उसके ख़िलाफ सीमाएँ चौकस कर लोगे, दरवाज़े बंध कर लोगे, ये सब कर लोगे। पर जब आपका दुश्मन आपके घर के भीतर घुसकर के बैठा हो, आपके मोबाइल फोन के अंदर से बात करता हो, वो भी सेलिब्रिटी बनकर के, तो फिर आप क्या करोगे? आपको पता ही नहीं चलेगा कि वो आपका दुश्मन है। बल्कि होगा ये कि लाखों, करोड़ों लोग तो कह रहे हैं कि ये हमें जान से प्यारा है, ये हमारा स्वीटहार्ट है।

टीनएज लड़कियों को भगत सिंह का पता हो न हो, खुदीराम बोस का पता हो न हो, विनय बसु का पता हो न हो, पर वो कहेंगी ये जो लफंगा है, ये हमारा डार्लिंग है। उसकी इतनी औकात है? उसकी इतनी हैसियत है कि तुमने उसको सर पर बैठा रखा है, सचमुच? ये वही लड़के हैं जिन्हें स्कूलों से निकाला जाता है। ये वही लड़के हैं जो तमाम तरीके के बाल-सुधार गृहों में पाए जाते हैं। ये वही लड़के हैं जिनसे आप दुनिया के किसी भी विषय पर २ मिनट कोई समझदारी की, तमीज़ की बात नहीं कर सकते। और आपने अपने घर के लड़कों-बच्चों को इस तरह की लोगों की संगति में खुला छोड़ दिया है। और अब आप मुझसे सवाल लिखकर के पूछ रहे हैं कि, “आचार्य जी, हमें तो सदमा लग गया है, ये हमारे घर में क्या हो रहा है? हमारे घर के लड़के गाली-गलौज देते हैं। गंदी भाषा में बात करते हैं। ऑनलाइन सेक्स और शराब में लिप्त पाए जाते हैं। सीव्यर डिप्रेशन डायग्नोस हुआ है और कल्चरल और ग्लोबल अवेयरनेस इनकी ज़ीरो है।”

अब तुमको ते बात समझ में आ रही है? जब उनके हाथ में तुमने मोबाइल दिया था तब नहीं देखा था? चलो मोबाइल दे दिया तो दिया, मोबाइल तो बहुत अच्छी जानकारी का स्रोत भी हो सकता है। पर तुमने देखा था कि सोशल-मीडिया पर तुम्हारे ये छोटे भाई, कज़िंस, भांजे, भतीजे, ये किसको फॉलो कर रहे हैं? ये देखा था? संगति का मतलब बस ये होता है कि पार्क में बाहर लड़का फुटबॉल किसके साथ खेल रहा है या सबसे बड़ी संगति ये होती है कि वो सोशल-मीडिया पर फॉलो किसको कर रहा है?

देश का जो सबसे बड़ा लफंगा हो, अगर वो देश का सबसे बड़ा टीनएज सेलिब्रिटी भी बन गया हो तो माँ-बाप को समझ जाना चाहिए कि अब बहुत ज़बरदस्त खतरा है। समझ में आ रही है बात? और इस तरह के खतरे एक नहीं हज़ार हैं क्योंकि खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलता है। जब इतना आसान हो गया है ज़िन्दगी में सफल, सक्सेसफुल कहलाना कि कुछ नहीं करना है, आ जाओ सामने कैमरा रख लो और शुरू कर दो व्यर्थ प्रलाप, गाली-गलौज और रातो-रात तुम स्टार हो जाओगे, तो फिर एक, दो या चार-पाँच स्टार ही क्यों हों? गली-गली से स्टार क्यों नहीं निकलेंगे इसी तरीके के बेहूदे?

यही तो अब रोल-मॉडल्स हैं। और अगर इनको हर तरह की सफलता मिल रही है, पैसे की भी मिल रही है, ख्याति भी मिल रही है, ताकत भी मिल रही है, तो जो दूसरे टीनएजर्स या जवान लोग हैं वो भी इन्हीं के नक्शे कदम पर क्यों नहीं चलना चाहेंगे, बताओ? भई, कौन लम्बी-चौढ़ी पढ़ाई-लिखाई करे और एक बड़े लंबे रास्ते पर चलकर के ज़िन्दगी में सफलता हासिल करे? करना क्या है? क्या करना है चीज़ों को जान के? क्या करना है कि आपमें दुनिया की समझ हो, विज्ञान की समझ हो, इतिहास की समझ हो, आर्ट्स की समझ हो, साइकोलॉजी की समझ हो, करना के है इन सब चीज़ों का?

सबसे आसानी से तो हम खिचते ऐब की तरफ ही हैं न, बुराई के तरफ ही हैं। तो जो सबसे गंदी और घटिया तुम्हारी बुराई हो, उसको आकर कैमरों पर प्रदर्शित कर दो, लोग आकर्षित हो जाएँगे। और सोशल-मीडिया कंपनीज़ का इसमें फायदा ही फायदा है। भई, उनको तो अपनी व्यूअरशिप, मेंबरशिप, फॉलोअर्शिप बढ़ानी है। ऐप को तो अपने डाउनलोड्स बढ़ाने हैं, वो चाहे जिस तरीके से बढ़ते हों। ये जो अभी चीनी ऐप्स बैन हुई हैं, सबको पता है कि इनपर अधिकांश मसाला किस किस्म का होता था। कैसा होता था? ऐसा होता था कि आप मसाले को देखें तो आपकी चेतना का स्तर बढ़ेगा, आप बेहतर इंसान बन जाएँगे? बोलो? ऐसा होता था? तो ज़्यादातर जो इन पर कंटेंट होता है वो बेहूदा ही क्यों होता है? क्रेस, क्रेप क्यों होता है? वो इसीलिए होता है क्योंकि हमारी फित्रत ऐसी होती है कि हम बुराई की ओर ही ज़्यादा आकर्षित होते हैं। ऐसे में समझदार लोगों का फर्ज़ होता है कि वो घर के बच्चों को, टीनएजर्स को, दिशा देकर के उनको सही संगति में लगाएँ। वो दिशा आपने दी नहीं। आपको लगा वो वहाँ कोने में वहाँ बैठकर के मोबाइल पर कुछ देख रहा है। कान में कुछ उसने लगा लिया है तो कुछ अच्छा ही कर रहा होगा। उधम तो नहीं कर रहा न, मार-पिटाई तो नहीं कर रहा न। आपको पता ही नहीं है कि उसके कान में ज़हर जा रहा है और वो जो आँखों से अपनी देख रहा है, वो बिलकुल नर्किए है। आपको लगा, नहीं कोई बात नहीं, माँ-बाप यहाँ अपना टीवी देख रहे हैं, वो चम्पू वहाँ पर बैठकर के यूट्यूब पर कुछ देखे जा रहा है। और फिर आपको बड़ा ताज्जुब होता है कि चम्पू ने गाली-गलौज कहाँ से सीख ली इतनी! “अरे, हमारी सोसायटी में तो कोई गालियाँ देता नहीं, हमारा चम्पू कहाँ से गालियाँ देने लग गया?” वो सुन क्या रहा था यूट्यूब पर आपने देखा ये? अब आपको ताज्जुब हो रहा है कि मेरा चम्पू शराब में और ड्रग्स में कैसे फँस गया। जो तुम लिख रहे हो कि, “ऑनलाइन सेक्स में कैसे आ गया,” क्योंकि ये सब बुराइयाँ एक साथ चलती हैं। तुम उसे एक चीज़ सिखाओ, दूसरी चीज़ की ओर वो अपने आप बढ़ जाएगा। ऊपर उठने में हमेशा मेहनत लगती है न, नीचे गिरना तो आसान ही होता है।

मेरी अपील है सब अभिभावकों से, गार्जियंस से कि खास खयाल रखिए कि आपका एडोलिसेंट या टीनएज बच्चा, आपका किशोर, ऑनलाइन किस तरह की संगति रख रहा है। मैं ये नहीं कह रहा कि आप चौकीदार-पुलिस बनके उसके ऊपर चढ़ जाएँ, पर आपको पता तो हो कम-से-कम किसका फैन बन गया है वो आजकल। कौन उसकी नजर में सेलिब्रिटी है? क्योंकि तुम जिसके फैन बन गए हो, तुम बिल्कुल वैसे ही हो जाने हो, पक्का समझ लो। वरना तुम फैन होते क्यों? कहीं-न-कहीं तुम्हारी अभिलाषा है कि तुम्हें वैसा होना है।

पहली बात तो नज़र रखिए कि किसकी तरफ़ जा रहा है आपके घर का टीनएजर, और दूसरी बात, जिधर को जाना चाहिए उधर जाने के लिए उसे प्रेरित भी करें। आदमी के इतिहास में एक से बढ़कर एक ज़बरदस्त किशोर जवान लड़के-लड़कियाँ हुए हैं। ऐसे हैं कि आप बिलकुल उत्साह से, उमंग से, प्रेरणा से भर जाएँ उनका जीवन देखकर के। अक्सर उन्होंने बहुत छोटा ही जीवन जिया है, पर उनका वो छोटा जीवन भी आग की लपट की तरह रहा है। उनके संपर्क में आकर के आपके घर का बच्चा भी प्रकाशित हो जाएगा।

उदाहरण के लिए अभी मैंने जिन क्रांतिकारियों की बात की वो सब आपस में जुड़े हुए थे अधिकतर। उनको क्या मिली हुई थी? एक दूसरे की संगति। जैसे एक मशाल से दूसरी लौ जलती है। तो ये भी अगर महान हो पाए, ऊँचे हो पाए, ज़बरदस्त हो पाए, तो इसमें बहुत बड़ा योगदान इनको मिली सुसंगती का था। इनके ऊँचे आदर्श थे, बहुत ऊँचे आदर्श थे। उदाहरण के लिए बंगाल के जिन क्रांतिकारी लड़के-लड़कियों की मैंने बात की, उनमें से कई सुभाष चन्द्र बोस से अतिप्रेरित थे, तो उनके सामने एक उच्चतर आदर्श होता था। कल्पना दत्त के सामने सूर्य सेन का आदर्श था। आप अपने बच्चे को जो आदर्श दे देंगे वो वैसा ही हो जाएगा, नहीं तो फिर पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत?

डिप्रेशन तो शुरुआत भर है, आगे और भी बहुत कुछ हो सकता है। मैं डरा नहीं रहा हूँ, मैं सिर्फ सावधान कर रहा हूँ। जिस देश की जवान पीढ़ी बर्बाद हो गई, उस देश को अब दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है।

अब याद रखिएगा, जो दुश्मन सीमा पार होता है वो कम खतरनाक होता है; जो दुश्मन आपके ही समाज में बैठ गया है आपमें से ही एक बनकर, बल्कि रोल मॉडल और सेलिब्रिटी बनकर, वो ज़्यादा खतरनाक होता है। सचेत रहिए।

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