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अपनी हैसियत जितनी ही चुनौती मिलती है सबको || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। कई सालों से साधना कर रहा हूँ, कुछ समय से आपको सुन रहा हूँ, जीवन में स्पष्टता बहुत हद तक आई है। अब जैसे-जैसे आगे बढ़ता जा रहा हूँ, मेरी बीमारियों का पता चल रहा है। जैसे साधना में आगे बढ़ रहा हूँ, माया का हमला उतना ही ज़ोर से हो रहा है। साधना में और आगे बढ़ने के लिए मुझे क्या सावधानियाँ रखनी ज़रूरी हैं कि मैं साधना में आगे लगातार बढ़ सकूँ? कृपया बताएँ।

आचार्य प्रशांत: एक ही सावधानी है - आगे बढ़ते रहो, रुक मत जाना।

और माया का हमला कोई ज़ोर-वोर से नहीं हो रहा है तुम पर। 'ज़ोर' का अनुभव होना बड़ी व्यक्तिगत चीज़ होती है, व्यक्ति-सापेक्ष होती है। एक छोटा-सा बच्चा हो, उसको ज़रा-सा धक्का दे दो तो वो चिल्लाता है, “अरे! इतनी ज़ोर का धक्का दिया रे!” और पहाड़ को दे लो जितनी ज़ोर का धक्का देना है, उसे कुछ पता नहीं चलता।

साधना के आरंभ में भी माया की ओर से विरोध आता है, साधना के मध्य में भी आएगा, और साधना के अंत में भी आएगा। आरंभ में छोटा विरोध आएगा, मध्य में बड़ा विरोध आएगा, अंत में और बड़ा आएगा। और जब भी आएगा, वो तुम्हें 'बड़ा' ही लगेगा। क्यों? क्योंकि जीवन का एक सूत्र अच्छे से समझिए और याद रखिए - आपको अपनी हैसियत से ज़्यादा बड़ी चुनौती मिलेगी ही नहीं। 'हैसियत' से मेरा तात्पर्य – रूपए, पैसे इत्यादि से नहीं है। समझ ही रहे होंगे। मैं 'आंतरिक' सामर्थ्य की बात कर रहा हूँ।

माया भी आपके आंतरिक सामर्थ्य को देखकर आप पर वार करती है। जो बिल्कुल ही निस्तेज लोग होते हैं, अशक्त और सामर्थ्यहीन, उनपर माया का वार भी छोटा-ही-छोटा होता है। माया कहती है, “इनपर ज़ोर का क्या वार करना? इनमें दम ही कितना है!” लेकिन उनको माया का वो छोटा-सा वार भी कैसा लगता है? बहुत बड़ा! क्योंकि उन बेचारों की आंतरिक हैसियत ही बहुत छोटी है। जैसे समझ लो कि तुम्हारी आंतरिक हैसियत अगर एक इकाई की है, तो तुम पर माया का वार भी उसी अनुपात में एक इकाई का होगा। एक यूनिट की अगर तुम्हारी आंतरिक हैसियत है, तो माया भी तुम्हें एक यूनिट के प्रपोर्शनल (आनुपातिक) ही झटका मारेगी; उसी अनुपात में।

फिर जब तुम्हारी आंतरिक औकात बढ़ेगी, तो माया कहेगी, “अरे, बहुत बढ़ रहा है!” अब बढ़कर तुम्हारी औकात हो गयी है पाँच यूनिट की, तो वो तुम्हें झटका भी कितना मारेगी? पाँच यूनिट का। पर जब तुम एक यूनिट के थे, तब भी तुम यही कहते थे, “ज़ोर का झटका लगा!” और जब तुम पाँच यूनिट के हो जाओगे, तब भी तुम यही कहोगे कि —"ज़ोर का झटका लगा," क्योंकि एक के लिए एक का झटका ज़ोर का है, और पाँच वाले के लिए पाँच का झटका ज़ोर का है।

एच/एम = कांस्टेंट

(एच बाय एम् इज़ ईक्वल टू कांस्टेंट)

‘एच’ माने हैसियत और ‘एम’ माने माया का झटका।

एच/एम = कांस्टेंट

समझ में आ रही है बात?

जितना तुम साधना में आगे बढ़ते जाते हो, उतना तैयार रहना, माया और बड़े-बड़े झटके मारती है। बड़े लोगों को छोटी चीज़ वैसे भी शोभा देती नहीं न? अब बड़े आदमी हो गए हो भाई, तो चोट भी तुम्हें अब कैसी मिलेगी? बड़ी मिलेगी! छोटे लोगों को छोटी चोट, बड़े लोगों को बड़ी चोट। बात न्याय की है।

चलते रहो, और कोई सूत्र नहीं है। माया अपने झटके कम नहीं करने वाली।

वास्तव में माया है क्या? तुम्हारा ही जो अतीत तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है, तुम्हारी ही जो ग्रंथियाँ, वृत्तियाँ तुम्हारे भीतर बैठी हुई हैं, वही तो माया हैं! माया कोई इधर-उधर थोड़े ही घूम रही है कि राशन-कार्ड, आधार-कार्ड लेकर, कि, “ये आ रही हैं जी माया श्रीवास्तव!”

'माया' क्या है? हमारे ही भीतर जो सब कलुष जमा है, उसका नाम 'माया' है। उसको जितना रगड़ते हो, उतनी तकलीफ होती है। यही बात मैं कह रहा हूँ—थोड़ा रगड़ोगे, थोड़ी तकलीफ़ होगी, और अगर सफाई पसंद आदमी हो, ज़्यादा रगड़ोगे, ज़्यादा तकलीफ़ होगी। जिन्हें सफ़ाई से प्यार हो, उन्हें तकलीफ़ झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

प्र 2: आचार्य जी, नमस्कार। मेरे मन में एक प्रश्न है कि यदि मैं हर समय कृष्ण को याद रखता हूँ, तो ये कैसे मुमकिन है? अगर मैं पढ़ रहा हूँ या खेल रहा हूँ, तो ख़ुद को मैं कैसे याद दिलाऊँ कि ये कृष्णमय है? किसी भी कर्म के फल से मैं अनछुआ नहीं रह पाता। इसका क्या समाधान है? कृपया मेरी सहायता कीजिए।

आचार्य जी: ये बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, अगर जो कर रहे हो, करते-करते बार-बार कृष्ण का विचार करोगे।

(प्रश्नकर्ता के संदर्भ में पूछते हैं) कौन हैं, बताइए? (प्रश्नकर्ता अपना हाथ उठाकर बताते हैं कि ये सवाल उनका है) ऐसे नहीं करते, गन्दी बात! कृष्ण का विचार थोड़े ही करना होता है कुछ भी करते हुए।

कृष्ण विचारों में नहीं होते, कृष्ण विचारों के केंद्र पर होते हैं। विचारों में तो कुछ भी चले, विचारों का केंद्र कृष्णत्व का होना चाहिए।

विचारों में ही कृष्ण आ गए, ये कोई भली बात नहीं हुई। विचारों में कृष्ण का आना जानते हो कैसा हो जाएगा? जैसे कि तुम्हारे घर में ये जो एल.पी.जी. सिलेंडर होता है, इसकी गैस की गंध आ जाए। ये शुभ है या अशुभ लक्षण है? घर में एल.पी.जी. का सिलेंडर होता है न? और तुम घर में घुसो और तुम्हें गैस की गंध आ रही है, ये शुभ है मामला या अशुभ है? तो कृष्ण को भी ऐसे ही होना चाहिए, सिलेंडर के अंदर-अंदर — वहाँ से वो ऊर्जा दें, अग्नि दें, ताक़त दें। पर अगर वही निकलकर के घर भर में फैल गए तो बड़ी दिक़्क़त हो जाएगी। अब विस्फोट और होगा। विस्फोट नहीं भी हुआ तो बदबू!

बात समझ में आ रही है?

कुछ लोगों की गाड़ियों में पेट्रोल-डीज़ल की गंध आती है। किसकी-किसकी गाड़ी ऐसी है, या कभी हुआ है ऐसा कि गाड़ी में घुस रहे हैं और केबिन में घुसते ही पेट्रोल की गंध आई या डीज़ल की गंध आई? ये शुभ है कि अशुभ है? ये ऐसा ही है जैसे कृष्ण विचारों में आने लग गये। उनको होना कहाँ चाहिए था? टंकी में। जहाँ से वो पूरे इंजन को ताक़त देते। उसकी जगह वो कहाँ आ गये? हवाओं में आ गये, विचारों में आ गये। ये बड़ी गड़बड़ हो गयी!

लेकिन यही सब कार्यक्रम चल रहा है, और इस तरह की शिक्षाएँ भी घूम रही हैं, “कृष्ण का विचार करो!” विचार नहीं करना होता। उनको वहाँ रखना होता है जहाँ से वो हमें पूरे तरीके से अपने अधिकार में लेकर संचालित कर सकें। और वहाँ वो होते ही हैं, वहाँ से वो कभी हटे ही नहीं, वो जगह ही उनकी है—उसी का नाम सत्य, उसी का नाम आत्मा है।

हमें बस उस जगह के निकट जाना होता है। तुम कृष्ण को अपने निकट लाने की कोशिश मत करो! अगर तुम कृष्ण को अपने निकट लाने की कोशिश करोगे तो क्या करोगे? कृष्ण का विचार। ये गलत हो जाएगा। तुम कृष्ण के निकट जाओ, फिर तुम्हारे सारे विचार कृष्णमय हो जाएँगे।

विचारों में कृष्ण का होना बिल्कुल एक बात है, और विचारों का कृष्णमय हो जाना बिल्कुल दूसरी बात है।

विचारों के कृष्णमय हो जाने का अर्थ ये नहीं है कि तुम कृष्ण के बारे में अब सोचोगे। उसका अर्थ होता है कि अब तुम्हारे सब विचारों में शुभता और सम्यकता रहेगी। दिनभर तुमने कृष्ण के बारे में एक पल नहीं सोचा, लेकिन तुम्हारे सारे विचार शुभ थे, इससे पता चलता है कि तुम्हारे विचार कृष्णत्व के स्त्रोत से निकल रहे थे।

ये बात समझ में आ रही है कि नहीं आ रही है?

कृष्ण विचार का विषय नहीं हो सकते; कृष्ण को विचार का स्त्रोत होना होगा।

हम उलटा करते हैं। हम विचार का स्त्रोत तो बदलना ही नहीं चाहते। हमारे विचार का क्या स्त्रोत होता है? अहंकार। स्त्रोत वही बना रहता है, और उसी स्त्रोत से विचार उठ रहा है, हमने उस विचार का विषय किसको बना लिया? कृष्ण को। अब हम कह रहे हैं, “मैं तो कृष्ण भक्त हूँ। हरे रामा! हरे कृष्णा! मैं तो कृष्ण को इतना पूजता हूँ। ये... वो...।” तुम ये बताओ, तुम्हारी ज़बान पर तो कृष्ण हैं, तुम्हारे विचार में भी कृष्ण हैं, तुम्हारी आत्मा में कृष्ण हैं क्या? आत्मा में कृष्ण नदारद हैं! आत्मा में कृष्ण नदारद हैं, कृष्ण कहाँ हैं? विचारों में हैं, और ज़ुबान में हैं। ये कोई अच्छी बात नहीं है।

कृष्ण को जानने वाला या कृष्ण को पूजने वाला वो हुआ जिसे आवश्यकता ही न पड़े कृष्ण का नाम लेने की, या कृष्ण का विचार करने की। कृष्ण हृदय में बैठे हैं, वो कृष्ण के पास जाकर बैठ गया है। अब उसके सारे कर्म और सारे विचारों में किसका रंग है? कृष्ण का रंग है।

एयर कंडीशनर चल रहा हो कहीं पर, आप क्या चाहते हो, ए.सी. ठंडी हवा फेंके, या ए.सी. में जो गैस होती है, ए.सी. वही फेंक दे? बोलो। गैस तो अन्दर ही रहनी चाहिए न? पर हमने उलटा चक्कर चला दिया है। हम कहते हैं कि बात तब है जब ए.सी., भीतर जो गैस भरी हुई है उसके, वो फेंक दे। क्लोरोफ्लोरोकार्बन होते हैं उसमें! उन्हीं से ओज़ोन में छेद हो गया था!

इशारा पकड़ पा रहे हैं?

यहाँ (होंठों की ओर इंगित करते हुए) से कृष्ण-कृष्ण करने से क्या होगा? और यहाँ (माथे की ओर इंगित करते हुए) पर भी कृष्ण का विचार करने से क्या होना है?

अहम् को बोलिए - नतमस्तक रहे।

अहम् को बोलिए - अपनी सीमा में रहे।

अहम् को बोलिए कि समझे कि वो क्या है और कहाँ से आया है।

अहम् से बोलिए - "जाओ, अपने पप्पा का नाम पता करके आओ!”

पप्पा का नाम क्या है? कृष्ण!

उसके बाद अब अहम् जो कुछ भी करेगा, उसमें कृष्णत्व होगा, क्योंकि किसने करा? अरे भाई, अब अहम् को अपने पप्पा का नाम पता चल गया न? तो अहम् के नाम के साथ अब किसका नाम लगा हुआ है? पप्पा का नाम लगा हुआ है। तो जो कुछ भी करा, किसने करा?

किसने करा?

प्र १: कृष्ण ने।

आचार्य जी: आपका पूरा नाम क्या है?

प्र १: सागर साहू।

आचार्य जी: सागर साहू।

तो अक्सर ऐसा होता है कि नहीं कि आप जब कुछ करते हो तो लोग कहते हैं, “साहू जी ने किया”? इनका नाम है - सागर साहू। तो आप जब करते हो कुछ, तो लोग ऐसे कह देंगे न कि, “साहू जी ने ऐसा किया”? कोई पूछेगा, “कौन आया था?,” तो कह देंगे, “साहू जी आए थे।” आपकी कुछ बातें हैं कहीं लिखी हुई, कोई पूछेगा, “ये किसके विचार हैं?” तो लोग कह देंगे, “साहू जी के विचार हैं।” है न? उन विचारों में ‘साहू जी’ लिखा हुआ नहीं है। 'साहू जी' के बारे में नहीं बात की गई है। उन विचारों का विषय नहीं हैं - 'साहू जी'। पर वो विचार कहाँ से आए हैं? कहा जाएगा, “साहू जी से आए हैं।”

इसी तरीक़े से जब हमें पता चल जाता है परमपिता का नाम, तो हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं, वो किसने किया? (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) साहू जी ने किया! और साहू जी कौन हैं? वो हमारा नाम नहीं है। वो किसका नाम है? वो परमपिता का नाम है। वो हमारे नाम के साथ जुड़ गया। तो हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वो उन्होनें ही किया।

“किसने किया?”

“साहू जी ने किया।”

पर ये बात सतही नहीं होनी चाहिए, ये बात बस औपचारिक नहीं होनी चाहिए; ये बात गहरी होनी चाहिए कि - "मुझे पता चल गया है कि मेरा वास्तविक पिता कौन है। तो अब मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, उसको करने का श्रेय किसका है वास्तव में? वो पिताजी का है।"

“किसने किया?”

“साहू जी ने किया।”

लगेगा ऐसा जैसे 'मैं' कर रहा हूँ, वास्तव में कौन कर रहा है? (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) वो कर रहे हैं!

हर विचार मेरा अब सम्यक है; हर कर्म मेरा अब सम्यक है—यही है विचारों में कृष्णता का होना; यही है जीवन में कृष्णता का होना।

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