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जिसे मृत्यु छू नहीं सकती || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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पृथ्व्याप्य तेजोऽनिलस्वे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरं॥

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — इन पाँचों महाभूतों का सम्यक उत्थान होने पर इनसे सम्बंधित पाँच योग विषयक गुणों की सिद्धि होने पर जिस साधक को योगाग्निमय शरीर प्राप्त हो जाता है, उसे न तो रोग होता है, न वृद्धावस्था प्राप्त होती है और न ही असामयिक मृत्यु प्राप्त होती है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक १२)

आचार्य प्रशांत: तो योग की दृष्टि से इसका अर्थ हुआ कि शरीर के सब तत्वों का समुचित शोधन हो जाने के बाद जो योगी होता है, वो रोग से, वृद्धावस्था से और असामयिक मृत्यु से बच जाता है। ठीक है? रोग से, जरा, माने वृद्धावस्था से, और असामयिक मृत्यु से, अकाल मृत्यु से, माने कि चालीस की उम्र में मर गए, साठ की उम्र में मर गए। योगी को स्वास्थ्य लाभ होता है, वो लम्बा जीता है। उसकी सौ वर्ष की आयु होती है। योग की दृष्टि से इसका ये अर्थ हुआ कि आप अपने शरीर पर काम करिए और उससे आपको शरीरगत लाभ अवश्य मिलेंगे।

वेदांत की दृष्टि से इसका क्या अर्थ है?

वेदांत की दृष्टि से अर्थ है कि ये जो पाँच भूत हैं, इनके पार जो निकल गया, ये जो पाँच तत्व हैं जिनसे शरीर बना है, इनके पार जो निकल गया, वो अब शरीर से सम्बंधित रहा ही नहीं, उसका अब शरीर से तादात्म्य रहा ही नहीं। जो अब शरीर है ही नहीं उसको तुम बूढ़ा कर कैसे लोगे? जो अब शरीर है ही नहीं उसे तुम बीमार कर कैसे लोगे? और जो अब शरीर है ही नहीं उसकी अब मृत्यु होगी कैसे?

शरीर जिन तत्वों से बना है उन्हें तत्व जान लो न कि वो तो प्रकृति के तत्व हैं। वो तुम नहीं हो, वो प्रकृति के तत्व ठीक वैसे ही हैं जैसे लोहा, जैसे पानी, जैसे पत्थर। क्यों तुम उनके साथ अपना नाम जोड़ करके अपने लिए ही झंझट पैदा कर रहे हो?

अब मृत्यु नहीं हो सकती तुम्हारी क्योंकि अब जो कुछ भी होगा वो किसके साथ होगा? इन तत्वों के साथ होगा, भाई, शरीर के साथ होगा। तुम्हारे साथ कहाँ कुछ हो रहा है? जो हो रहा है शरीर के साथ हो रहा है। जो प्रतीत भी हो रहा है वो किसको प्रतीत हो रहा है? वो तुम्हारे सूक्ष्म शरीर को प्रतीत हो रहा है। जब कहते हो न कि हाथ पर चोट लगी तो मन तड़प गया, ये जो पूरी प्रक्रिया है, ये शुरू से अंत तक शरीर की ही प्रक्रिया है।

जिसको कह रहे हो 'हाथ', वो क्या है? स्थूल शरीर। और जिसको कह रहे हो 'मन', जो तड़प गया, वो क्या है? सूक्ष्म शरीर। तो तुम अब तड़प भी नहीं जाओगे। ना तो तुम्हें चोट लगेगी, ना तुम तड़प जाओगे। चोट भी शरीर को लगी, तड़प भी शरीर गया। ठीक है, अच्छी बात है।

साक्षित्व तो अमरता है; जो साक्षी हो गया वो मृत्यु का भी साक्षी हो गया। अब मौत को भी वो देखेगा, मृत्यु को भी वो देख रहा है। नहीं, वैसे नहीं कि जैसे आप खिड़की को देखते हैं या किसी का मुँह देखते हैं; ऐसे नहीं। बहुत सूक्ष्म घटना है, उसको मैं शब्दों से क्या बताऊँ कि मृत्यु का साक्षी होने का क्या अर्थ होता है।

और मृत्यु के साक्षी होने का ये अर्थ तो बिलकुल भी नहीं होता है कि आप मर जाएँगे और उसके बाद भी आप मरे हुए शरीर को देखते रहेंगे। ये सब हसरतें मत पाल लीजिएगा कि, 'मैं तो अब साक्षी हो गया, मैंने मौत को देखा, मौत के बाद शरीर मरा हुआ था, उसको देखा। उसके बाद शरीर को जलाया जा रहा था वो भी मैं देख रहा था!' ये किस्सेबाज़ी नहीं है अध्यात्म।

ये बहुत सूक्ष्म बात है, शब्द बता पाने में असफल हैं कि साक्षी होकर के मृत्यु को देखना क्या है, क्योंकि हम जिसको देखना बोलते हैं वो साक्षित्व नहीं है। हम जिसको देखना बोलते हैं वो तो सहभागिता, प्रतिभागिता है। तो साक्षित्व क्या है, ये बात हमारे विचारों से, हमारे सिद्धांतों से बहुत आगे की है।

जब हम कहते हैं, 'साक्षी वो जो सिर्फ़ देखता है, भाग नहीं लेता', तो हमारे मन में तत्काल एक छवि उठती है कि जैसे मैं इस खम्भे को सिर्फ़ देख रहा हूँ, तो मैं साक्षी हो गया। नहीं, आप जब इस खम्भे को देख भी रहे हैं तो भी आप सिर्फ़ एक प्रक्रिया के हिस्से हैं, आप साक्षी नहीं हैं। तो ये मत सोचिएगा कि जैसे आप इस खम्भे को देख रहे हैं और अपने-आपको साक्षी कह रहे हैं गौरव से, वैसे ही आप अपनी मौत को देखेंगे साक्षी होकर के। नहीं, वैसा नहीं होने वाला है क्योंकि साक्षी जब आप खम्भे को देखते हुए नहीं हैं, तो साक्षी आप अपनी मौत को देखते हुए कैसे हो जाएँगे?

साक्षित्व चीज़ ही दूसरी है। वास्तव में साक्षित्व का मतलब 'देखने' से बेहतर है 'ना देखना', क्योंकि देखने में तो, मैंने कहा, क्या आ जाती है? सहभागिता, आप कुछ कर रहे हैं, आप लिप्त हैं। हमने कभी कुछ देखा नहीं मात्र देखने के लिए। हमने जब भी कुछ देखा है उसके साथ हमारा कुछ रिश्ता, कुछ स्वार्थ रहा है।

तो साक्षित्व का बेहतर अर्थ है, 'ना देखना'। साक्षी वो जो कुछ नहीं देखता। तो ये तो मज़ेदार बात हो गई। इसका मतलब ये है कि जिसने इन पंचभूतों को जान लिया वो अपनी मौत नहीं देखता। हमने शुरुआत करी थी ये कहने से कि वो अपनी मृत्यु का साक्षी हो जाता है। उसे मृत्यु कभी नहीं आती, वो तो साक्षी हो गया है। और अब हम कह रहे हैं कि नहीं, वो अपनी मृत्यु कभी देखता नहीं।

जो मृत्यु देखे वही तो मरा है। जिसे लगे कि वो मर रहा है वही तो मरा है। साक्षी वो जो अपनी मृत्यु को कभी देखता ही नहीं। उसे अब मृत्यु से कोई प्रयोजन ही नहीं रह गया, वो नहीं देख रहा है मृत्यु को।

हमने कहा हम वही चीज़ देखते हैं जिससे हमें कोई मतलब, कोई प्रयोजन होता है। मृत्यु भी हम इसीलिए देख रहे होते हैं क्योंकि हमें जीवन से प्रयोजन होता है। जीने की हसरत है तभी तो मौत को देख रहे होते हैं न। "अरे! मौत आ रही, मौत आ रही है!" जिसे जीने की हसरत ही नहीं, वो क्यों देखेगा कि 'मौत आ रही है, मौत आ रही है'? आ रही होगी किसी के लिए, हमें मतलब क्या? परेशान क्यों हों उसकी ओर देखकर? हम कुछ भी नहीं देखते, हमें किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं। हम सब कुछ देखते हैं।

मृत्यु शरीर के साथ घटने वाली कोई घटना नहीं है, मृत्यु मन की एक बहुत पुरानी बीमारी का नाम है। जो स्वस्थ हो गया, वो मन की सब बीमारियों से मुक्त हो गया। मन ही तो बीमार है न। अब मृत्यु नहीं आती।

सबके चेहरे पूछ रहे हैं, "कैसे नहीं आती? नहीं, आती तो है न, मतलब मौत तो होगी।" और ये प्रश्न कोई मुड़कर अपने-आपसे नहीं पूछ रहा है कि, "हाँ, मौत तो होगी पर किसकी होगी?" यहाँ अध्यात्म के क्षेत्र में पहला सवाल ये होना चाहिए, "किसके लिए? टु हूम ? फॉर हूम ? किसके लिए?" मृत्यु हमारा एक विचार है। मृत्यु हमारे लिए लगातार एक डर है। अमर होने का अर्थ होता है कि अब तुम्हें वो विचार नहीं आता। अब तुम्हें वो डर नहीं सताता।

क्या मृत्यु तुमको ठीक मृत्यु के क्षण में परेशान कर सकती है? क्योंकि एक क्षण तो होता ही समय का सबसे छोटा खंड है न? तो उसमें मौत के पास जगह ही कितनी है तुम्हें परेशान करने की? जिस क्षण मृत्यु हो रही है उस क्षण कहाँ परेशान हो पाओगे? जब तक परेशान होओगे तब तक मर जाओगे। तो मौत तुमको कब परेशान करती है, मरते वक़्त या जीते वक़्त? मौत जागृत मन की चेतना की बीमारी है। उसी का दूसरा नाम 'डर' है। उसका मूल कारण है अपने अस्तित्व के प्रति झूठा ज्ञान।

जो ख़ुद को नहीं जानता वो बार-बार अपने-आपको प्रकृति से जोड़कर देखेगा, और प्रकृति में सब कुछ बन-बिगड़ रहा है, उठ-गिर रहा है। जहाँ तुमने अपने-आपको प्रकृति से जोड़ा, तहाँ तुम्हें ये भाव आएगा कि 'मैं भी गया'। कल चाँद पूरा था, आज अधूरा है; 'मैं भी गया'। अभी ज्वार था, अभी भाटा है; 'मैं भी गया'। थोड़ी देर पहले क्या गोल-गोल रोटी रखी हुई थी सामने, अभी उसका मुँह के अंदर क्या बन गया? थूक मिश्रित लोंदा; 'मैं तो गया', क्योंकि प्रकृति में तो यही चल रहा है न? क्या सुन्दर फूल खिला है सुबह-सुबह, अहह! सब जा रहे हैं, देख रहे हैं, फ़ोटो-वोटो भी खींच ली। और शाम को क्या देख रहे हैं?

प्रश्नकर्ता: ज़मीन पर पड़ा हुआ।

आचार्य: नहीं, सिर्फ़ पड़ा ही नहीं हुआ है ज़मीन पर, कोई भैंस आकर पाँव भी रख गयी उस पर। भैंस! 'मैं तो गया'।

प्रकृति लगातार तुमको प्रतिदिन सैकड़ों सन्देश यही भेज रही है कि तुम तो गए। अब कोई आश्चर्य है कि हम लगातार डर में जीते हैं? वो डर हमेशा यही नहीं आएगा कि, 'मैं मरने वाला हूँ आज से बीस साल बाद', वो डर तमाम चीज़ों का आएगा। पर उन सब डरों का मूल कारण है हमारा प्रकृति से तादात्म्य। और प्रकृति में जो कुछ है वो लगातार मिट रहा है। तो हमें भी फिर यही भावना आ रही है लगातार कि 'मैं तो मिटा, मैं तो गया'।

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