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पहले हाँ नहीं, ना बोला जाता है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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एको हि रूद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमॉंल्लोकानीशत ईशनीभि:। प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोपान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपा:॥

वह एक परमात्मा ही रूद्र है। वही अपनी प्रभुता-सम्पन्न शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं, अन्य किसी का नहीं। वही समस्त प्राणियों के अन्दर स्थित है, वह सम्पूर्ण लोकों की रचना करके उनका रक्षक होकर प्रलयकाल में उन्हें समेट लेता है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक २)

आचार्य प्रशांत: कौन हैं सब देवता? कौन है उन सब देवताओं के अधिपति महादेव रूद्र? और क्या संबंध हुआ रूद्र का परमात्मा से? और क्या संबंध हुआ देवताओं का, महादेव का और परमात्मा का हमारे मन से? इन विषयों को समझना ज़रूरी है।

देवता माने जो हमें कुछ दे सकें। तो देवता की भी परिभाषा की हमारे ही संदर्भ में गई है। देवता वो जिससे हमें कुछ लाभ हो सके। इस परिभाषा के केंद्र में हमारी किस स्थिति की ओर इशारा है? हम वो हैं जिसे कुछ पाने की, माँगने की अभी ज़रूरत है।

शुरुआत यहाँ से होती है − 'मैं वो हूँ, जो अधूरा है, जो याचक है, जो कुछ पाने का इच्छुक है, जिसका पात्र खाली है। जो उस अवस्था में नहीं है जिस अवस्था में उसे होना चाहिए। चूँकि मैं ऐसा हूँ, इसलिए मुझे आवश्यकता है देव की, जिससे मुझे कुछ मिल सकेगा।'

तो मैं कौन हुआ?

'मैं वो हुआ जो बेचैन है, चिंतित है।'

मैं कहाँ पहुँचना चाहता हूँ?

'मन की एक उच्चतर स्थिति में जिसमें चिंता कम है, अभाव कम है। मैं जी रहा हूँ अभाव की स्थिति में। और मन की उस उच्चतर स्थिति पर मैं पहुँचना चाहता हूँ जिसमें अभाव कम है, पूर्णता ज़्यादा है, संपन्नता ज़्यादा है, वैभव ज़्यादा है। उस स्थिति की ओर मैं देखता हूँ, सर उठा कर के।'

तो मन की एक उच्चतर स्थिति की ही बाहरी अभिव्यक्ति हैं सब देवी-देवता। तुम जैसे हो, उससे उच्चतर जो हो सकते हो सूक्ष्म तौर पर, उसी उच्चतर संभावना की स्थूल अभिव्यक्ति हैं समस्त देवी-देवता।

तो मन की एक निम्न अवस्था की स्थूल अभिव्यक्ति कौन है? जीव। मन की एक निम्न अवस्था की स्थूल अभिव्यक्ति है जीव। मन की एक उच्चतर अवस्था की स्थूल अभिव्यक्ति हैं सब देवता।

इसीलिए उन देवी-देवताओं को शक्ति संपन्न दिखाया जाता है। जो काम जीव नहीं कर सकता, वो माना जाता है कि देवता कर सकते हैं। देवताओं के पास, उदाहरण के लिए, दिव्य वाहन होते हैं। कोई किसी दिव्य यान पर चल रहा है, किसी के पास कोई दिव्य शस्त्र है, कोई इच्छा शक्ति से अपना रूप बदल सकता है, कोई पलक झपकते कहीं पहुँच सकता है, कोई वायु मार्ग से यात्रा करता है, कोई सागर के नीचे निवास करता है।

ये सब जो शक्तियाँ दिखाई जाती हैं देवताओं में, वो वास्तव में किसका द्योतक हैं? वो तुम्हारी वर्तमान अशक्तता का द्योतक हैं। तुम शक्तिहीन हो। तुम शक्तिहीन और अपने से ऊपर की शक्ति संपन्न अवस्था के तुम अभिलाषी हो। उसकी ओर तुम सर उठाकर के देखते हो, उसके सामने तुम हाथ जोड़ करके नमित होते हो।

तुम चूँकि पृथ्वी पर रहते हो नीचे, इसीलिए उस ऊँची अवस्था को तुम स्थूल रूप से आकाश में अवस्थित जानते हो। सब देवता या अधिकांश देवता आकाश में अवस्थित क्यों बताएँ जाते हैं? क्योंकि तुम्हारे संदर्भ में आकाश पृथ्वी के ऊपर है। तो देवताओं को ऊपर रखा गया क्योंकि तुम जानते हो कि तुम निचले हो।

लेकिन फिर भी ये जितने देवता हैं इनमें से कोई भी पूर्ण नहीं है। ये अपेक्षतया, तुलनात्मक रूप से तुमसे उच्चतर ज़रूर हैं, लेकिन फिर भी इनमें तमाम तरह की त्रुटियाँ, हानियाँ, दोष मौजूद हैं। तो फिर देवों से ऊपर बात ज़रूरी हो जाती है महादेव की।

मन की निम्नतम अवस्था का प्रतिनिधि हो गया? जीव। मन की उच्चतर अवस्था के प्रतिनिधि हो गए? देवता। और मन की जो उच्चतम अवस्था है जिसमें मन विलुप्त ही हो गया, जिसमें मन अपनी गति तक पहुँच गया, अपने अंत तक पहुँच गया, अपनी पूर्णता तक पहुँच गया, उसके प्रतिनिधि हो गए महादेव या रुद्र।

श्लोक कह रहा है रुद्र ही परमात्मा हैं। वास्तव में श्लोक कह रहा है कि तुम्हारी ही उच्चतम संभावना परमात्मा है, क्योंकि महादेव इंगित किसको कर रहे हैं? महादेव प्रतिनिधि किसके हैं? स्थूल रूप से महादेव देवों के भी सम्राट हैं, और सूक्ष्म रूप से महादेव तुम्हारे ही मन का अनुपम शिखर हैं। जो ऊँची-से-ऊँची जगह हो सकती है जहाँ तुम्हारा मन पहुँच सकता है, उसका नाम है 'महादेव'। वो ऊँची-से-ऊँची जगह जहाँ तुम्हारा मन पहुँच सकता है, उसी का नाम आत्मा भी है।

तो कहा जा रहा है कि जिसको तुम परमात्मा कहते हो, जो प्रतीत होता है कि तुमसे बाहर कहीं अवस्थित है, वो वास्तव में तुम्हारी ही उच्चतम संभावना का नाम है।

यह श्लोक अपने आरंभ में बहुत भिन्न नहीं है महावाक्य 'अहम् ब्रह्मास्मि' से, कि अहम् ही अपने शुद्धतम रूप में ब्रह्म है। तुम ही जब अपनी आकाश सी ऊँचाई को पा लेते हो, तो तुम ही तो ब्रह्म हो। और तुम वो ऊँचाई ना अर्जित कर पाओ तो तुम हो जीव और ब्रह्म तुम्हारे लिए बस एक दूर का तारा, एक अनपाया सिद्धांत, एक अनसुलझी पहेली।

"वह एक परमात्मा ही रुद्र है।"

देवताओं को ऐसे भी निरूपित किया जाता है कि सब देवता आदमी की किसी कामना का प्रतिनिधित्व करते हैं। तुम्हारी कामना कि तुम आग पर नियंत्रण कर पाओ, अग्नि देव का रूप धारण कर लेती है। तुम्हारी कामना कि तुम जल पर और वर्षा पर और समुद्रों पर प्रभुत्व स्थापित कर पाओ, वरुण देव का रूप ग्रहण कर लेती है। तुम्हारी कामना कि आँधी, तूफान, वायु की किसी भी प्रकार की गति तुम्हारी सहमति से हो, वायु देव का रूप ले लेती है।

तो तुम्हारी सब जो ऊँची कामनाएँ हैं वो बन जाती हैं देवता। और फिर जो तुम्हारी उच्चतम कामना है, वो बन जाती है महादेव। तुम्हारी उच्च कामनाएँ बन जाती हैं देव और उच्चतम कामना बन जाती है महादेव। तुम्हारी उच्चतम कामना मुक्ति की है। तुम्हारी उच्चतम कामना का ही दूसरा नाम परमात्मा है। परमात्मा के लिए ही तुम्हारी उच्चतम कामना है। कामना बुरी नहीं हुई, निचली कामना, छिछली कामना बुरी है।

अध्यात्म कामना विरोधी नहीं होता। अध्यात्म तो तुम्हारे विराट रूप का अभिलाषी है, अध्यात्म तो तुम्हारे विशालता, वैभव और वैराट्य का पुजारी है। अध्यात्म को आपत्ति है तो बस तुम्हारी कृत्रिम हीनता और क्षुद्रता से। तुम ये छोटी-मोटी कामनाएँ क्यों करते हो? अध्यात्म तुम्हारी कामनाओं की क्षुद्रता का विरोधी है। बड़ी कामना करो न, महादेव सी उदात्त कामना करो न। माँग ही रहे हो तो छोटी चीज़ माँग करके क्यों अपना मान घटाते हो?

"वही अपनी प्रभुता-सम्पन्न शक्तियों द्वारा संपूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं, अन्य किसी का नहीं।"

नकार, नकार और अंत में नकार पर और अतिरिक्त ज़ोर। वही सब लोगों पर शासन करता है और सब उसी का आश्रय लेते हैं और फिर, और ज़्यादा स्पष्टता के लिए, ज़ोर के लिए उपनिषद् कह देते हैं 'अन्य किसी का आश्रय नहीं ले सकता कोई भी', क्योंकि आश्रय लेना है तो उच्चतम का लो न। बीच वाले का तुमने किसी का आश्रय लिया तो उससे ऊपर का कोई आएगा और तुमको प्रताड़ित करके चला जाएगा। तुम्हें अगर अपने-आपको किसी से जोड़ना ही है, तुम्हें किसी की शरण में ही जाना है, तो जो उच्चतम है उसके शरणागत हो जाओ न।

किसी छोटे-मोटे की, किसी अपने ही जैसे कि या किसी ऐसे की जो तुमसे बस थोड़ा ही ज़्यादा सामर्थ्यशाली हो, शरण लेकर के तुम्हें लाभ क्या होगा?

जैसे घर में पिताजी गुस्साए हुए हों और तीन-चार हैं छोटे-छोटे बच्चे। जो बिलकुल छुटका, छः साल वाला, पिटने को हुआ तो उसने जाकर के आठ साल वाले की शरण ले ली, दोनों पिटे। तो छः और आठ साल वाले दोनों गए और बारह साल वाले की शरण ले ली, तीनों पिटे। और ये जो सबसे छुटका था, अब ये तीसरी बार पिटा है। अब ये तीनों ने जाकर के जो सबसे बड़ा है, पंद्रह साल वाला, उसकी शरण ले ली। चारों पिटे, और छुटकू चौथी बार पिटा।

उपनिषद् कह रहे हैं, 'तुम शरण ले भी रहे हो तो किसकी? अपने ही जैसों की? सर झुकाना ही है तो किसी बड़े के सामने झुकाओ न।' जाओ सामने वाले कमरे में दादा बैठे हैं; सब उनकी कुर्सी को घेर कर खड़े हो जाओ, फिर नहीं पिटोगे।

दो बातें तुम्हें बताई जा रही हैं, शरणागत तो तुम्हें जाना ही पड़ेगा और दादा उपलब्ध हैं। हमेशा दो बातें बताई जाएँगी, कोई एक बात नहीं। एक बात में तुम्हें बताया जाएगा कि जैसे तुम बने बैठे हो, तुम अशक्त हो। और दूसरी बात में तुम्हें बताया जाएगा कि संभावना बिलकुल है कि तुम शक्ति का सामीप्य पा सको। दोनों बातें हैं।

क्योंकि सिर्फ़ पहली ही बात बताई गई तो फिर जीएँ क्यों? पिटने के लिए? और सिर्फ़ अगर दूसरी बात बताई तो और पिटेंगे, क्योंकि हमें बता दिया गया है कि शक्ति-ही-शक्ति है, और तुम जैसे हो वैसे ही बच जाओगे। तो दादा सामने वाले कमरे में बैठे ही रह जाएँगे और पिछवाड़े में तुम ठुक रहे होगे।

तो पहली बात तो ये ज़रूरी है कि तुम्हें ये स्वीकृति रहे कि तुम जैसे हो, तुमने अगर किसी बड़े की संगति नहीं की, किसी बड़े का आश्रय नहीं लिया, तो बड़ी मार खाओगे। और दूसरी बात, तुम ये भी ना मान लो कि बड़े का आश्रय तुमको सदा उपलब्ध है ही। सदा उपलब्ध नहीं है, तुम्हें थोड़ा प्रयास करना पड़ेगा।

छुटकू को दौड़ लगानी पड़ेगी। दादा हैं तो, पर सामने वाले, बाहर वाले कमरे में। उतनी दूर जाने का श्रम करना पड़ेगा, इसी को आध्यात्मिक साधना कहते हैं। अगर इतना श्रम नहीं किया तो दादा के उपलब्ध होते हुए भी छुटकू तो पिटेगा, जैसे हम पिटते हैं; दादा उपलब्ध है, हम पिट रहे हैं। और भूलना नहीं छुटकू चौथी बार पिटा है आज। उसको समझ में ही नहीं आ रहा है कि किसका आश्रय लेना है, किसका नहीं लेना है।

नीचे वाले से तो कभी नाता जोड़ो ही नहीं। किसी भी व्यवस्था में अगर तुमको संपर्क ही करना है, जुगाड़ ही करना है, सोर्स ही लगाना है तो जो सबसे ऊपर है सीधे उससे लगाओ। या तो हममें ख़ुद इतना माद्दा होता कि किसी की सहायता की ज़रूरत ही ना पड़ती। और जब सहायता ले ही रहे हैं तो चंटुलाल सहायता लेने गए हैं बंटू भईया की, ये कोई बात नहीं। दादा, उनके सामने आएँगे बापराम तो फिर छुटकू की जगह बापराम को पड़ेगा।

"वही अपनी प्रभुता-सम्पन्न शक्तियों के द्वारा संपूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं।"

आजतक तुमने जिन-जिन का आश्रय लिया वो तुम्हें बचा पाए क्या? उद्देश्य है तुमको समझाना कि तुम ग़लत जगह फँसे हुए हो। ये तुम किसके दरबार में हाज़िरी दे रहे हो भाई? उनमें अगर सामर्थ्य ही होती तो तुम्हारी आज ये दुर्दशा क्यों होती। और ऐसा तो नहीं कि तुम झुके नहीं हुए हो, ऐसा तो नहीं कि तुम पराश्रित नहीं हो, ऐसा तो नहीं है कि तुमने उम्मीदें नहीं बाँध रखी, ऐसा तो नहीं है कि तुमने सर नहीं झुका रखा। देखो तो सही कि जहाँ दंडवत कर रहे हो वहाँ से तुम्हें लाभ क्या हो रहा है।

उपनिषद् तुम्हें कोंच रहे हैं, तुम्हारे भीतर विद्रोह सुलगा रहे हैं। वो कह रहे हैं कि तुम बिक भी आए और कुछ नहीं पाए। या तो तुम साक्षात परब्रह्म ही हो जाते, कि अब कौन तुमको खरीदेगा किस बाज़ार में, क्रय-विक्रय के पार निकल गए; वैसे तो तुम हो नहीं। अभी तो तुम कम-से-कम अपनी ही नज़र में एक क्षुद्र जीवात्मा हो।

तुम्हें अगर किसी से संयुक्त ही होना है, तुम्हें अगर अपने से बड़ा ही मानना है तो संसार की इन छोटी-मोटी हस्तियों को क्यों बड़ा मानते हो? इनके सामने क्यों सर झुकाते हो? इनके सामने तो तन कर खड़े हो जाओ। बिलकुल तन कर खड़े हैं, क्यों? "पीछे दादा हैं। इनकी संगत करके भी क्या मिलेगा?"

जानते हो वास्तव में छुटकू चार नहीं आठ बार पिटा है, कैसे? जब दो या तीन या चार इकट्ठे पिट रहे होते थे बापराम से, तो उन चारों में सबसे ज़्यादा कौन पिटता था? छुटकू। और जब बापराम इनको पीट कर चले जाते थे तो ये जितने बड़े भईया होते थे ये अपनी झल्लाहट किस पर निकालते थे? छुटकू पर।

ऐसे तो हैं तुम्हारे आश्रयदाता। तुम जिनका आश्रय ले रहे हो वो तुम्हें विधि की मार से तो बचा ही नहीं पाते, बल्कि उनके हाथों तुम और ज़्यादा मार खाते हो, अतिरिक्त।

उपनिषद् कह रहे हैं, 'छोड़ो ना, बाहर आओ!' बाहर आना ही काफ़ी है। जो सांसारिक छाँव और छलावे से बाहर आ गया, समझ लो वो परमात्मा की शरण में आ गया। परमात्मा कोई जगह तो है नहीं, कोई इंसान नहीं है, कोई इकाई नहीं है कि तुम कहो कि 'मैं फलानी जगह जाकर मत्था टेकता था तो संसार के सामने झुकता था। अब मैं उस दूसरी जगह जा रहा हूँ तो मैं परमात्मा के सामने झुक रहा हूँ।' नहीं!

परमात्मा के आश्रय में जाने का अर्थ है अब सांसारिक आश्रयों का भरोसा नहीं रहा हमें, माने हम हो गए हैं अब निराश्रय, निरालंब। जो अब किसी की शरण नहीं माँगता वो परमात्मा की शरण में चला गया। उल्टा मत कर लेना लेकिन, तुम अगर कहोगे कि परमात्मा की शरण में चला गया वो किसी की शरण नहीं माँगता, तो यह बात बेतुकी है, अव्यावहारिक है। पहले नकार आएगा, पहले ये बात आएगी कि 'अब मैं किसी की शरण नहीं माँगता'। ये बात पहले आएगी और यही बात असली है, इस बात के अलावा कुछ है ही नहीं।

'मैं किसी की शरण नहीं अब माँगता', इसी बात को जब विधायक रूप से, सकारात्मक रूप से, पॉज़िटिव रूप से कहा जाता है तो कह दिया जाता है कि 'अब मैं परमात्मा की शरण माँगता हूँ'। वास्तव में परमात्मा की शरण माँगने जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, बस नकार होता है अनुपयुक्त लोगों की शरण का। 'तुम लोगों की शरण अब नहीं लेते हम। तुम्हारे भरोसे नहीं जीते अब हम!'

ये 'ना' ही असली चीज़ है। जिसने ये 'ना' कह दी उसको परमात्मा को 'हाँ' कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती, वो 'हाँ' अपने-आप हो गई।

'ना' स्थूल है, सक्रिय है, प्रदर्शित है, प्रकट है। 'हाँ' आंतरिक है, सूक्ष्म है, इंपलीसिट है। तो ये नहीं करना है कि मंदिर में जाकर के किसी ईश्वर को 'हाँ, हाँ, हाँ' कह रहे हैं, वो बात ही मूर्खता की है। किसी देव, किसी ईश्वर को 'हाँ' नहीं बोलना है। ऐसे बहुत हैं जो ईश्वर के सामने सर झुकाते हैं लेकिन सौ जगह और सर झुकाते हैं; उसमें कोई कुछ रखा नहीं है। ईश्वर को 'हाँ' नहीं बोलना है, संसार को 'ना' बोलना है'। संसार को 'ना' बोल दिया, इसी में ईश्वर को 'हाँ' बोल दिया।

अन्यथा तुम ईश्वर को कितना भी 'हाँ' बोले जाओ, क्या फ़ायदा है? संसार को तो अभी तुमने 'ना' बोला ही नहीं। इसीलिए ज़्यादातर लोग जो अपने-आपको धार्मिक या आध्यात्मिक कहते हैं उनके अध्यात्म में कोई दम नहीं होता। उन्हें कोई लाभ भी नहीं होता। जीवन भर उन्होंने ईश्वर के सामने सर झुकाया हुआ होता है और वो यही ताज्जुब करते रह जाते हैं कि 'आश्चर्य! हमने तो इतनी भक्ति की, इतने मंदिरों में माथा घिसा, हमें कुछ लाभ क्यों नहीं हुआ?' क्योंकि पागल मंदिर में तो माथा घिसा ही, मंदिर के साथ-साथ सौ और जगहों पर भी तो तूने माथा घिसा। उन सौ जगहों का नकार करना, अस्वीकार करना ज़्यादा ज़रूरी था न। वही तो असली चीज़ थी, वो तो तूने करी ही नहीं।

इससे हम बहुत कतराते हैं। हम कहते हैं, 'देखो, भगवान जी को जो चाहिए वो तो हम दे ही रहे हैं न। भगवान जी को क्या चाहिए? मंगल का प्रसाद; वो तो हम दे ही रहे हैं न। भगवान जी को क्या चाहिए? सुबह-शाम की आरती; वो तो हम दे ही रहे हैं न। तो भगवान जी अपने काम-से-काम रखें। आपको जो चाहिए था, हमने दे दिया। बाकी अपने खाली समय में हम किन-किन अड्डडो पर जाकर के प्रणाम करते हैं उससे भगवान जी को क्या?' नहीं, वही असली चीज़ है।

भगवान जी तुम्हारी सुबह-शाम की आरती और मंगल-शनीचर का प्रसाद नहीं माँग रहे। वो तो यह देखना चाहते हैं कि अभी तुम दुनिया के सामने रीढ़ सीधी करके खड़े हुए कि नहीं। कि अभी तुममें विरोध की कूबत आयी कि नहीं। उसी का नाम तो 'श्रद्धा' है।

श्रद्धा का यह मतलब थोड़े ही है कि किसी ईश्वर के सामने सर झुका दिया। श्रद्धा का मतलब ये है कि दुनिया की धमकियों को ठुकरा दिया, बिना ये जाने कि तुम्हें बचाएगा कौन। दुनिया के लालच को ठुकरा दिया बिना ये जाने कि कल तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा। ये 'श्रद्धा' है।

वो ठुकराना, वो नकार, वो ही असली चीज़ है। और अगर तुम दुनिया के प्रलोभनों को, दुनिया के छद्म जाल को ठुकरा नहीं सकते, तो कोई अध्यात्म नहीं।

"वही समस्त प्राणियों के अन्दर स्थित है, वह सम्पूर्ण लोकों की रचना करके उनका रक्षक होकर प्रलयकाल में उन्हें समेट लेता है।"

"वही समस्त प्राणियों के अंदर स्थित है।" तुम बहुधा कहा करते हो न, 'मेरे अंदर से ये बात आ रही है या फलाना भाव मेरे अंदर है, फलाना विचार मेरे अंदर है, इच्छा मेरे अंदर है, द्वेष मेरे अंदर है, राग मेरे अंदर, आकर्षण मेरे अंदर, विकर्षण मेरे अंदर।'

उपनिषद् तोड़ रहा है उस धारणा को। उपनिषद् कह रहा है, 'ना, ना, ना! ये सब तुम्हारे अंदर नहीं है, ये बाहरी चीज़ें हैं।' अंदर तो तुम्हारे वास्तव में बस एक ही है। उसी को तुम्हें अंदरूनी कहना चाहिए। आंतरिक तो बस वही है, अन्तःस्थल में तो बस वही है, बाकी सब चीज़ें जिन्हें फिर तुम आंतरिक कहते हो, फिर वो क्या हो गईं? बाहरी हो गईं।

अगर मात्र सत्य, परमात्मा ही आंतरिक है, मात्र वो ही अंदर स्थित है, तो बाकी सब बातें, चीज़ें जो तुम्हें अंदर लगती थी वो क्या हुईं? बाहरी, क्योंकि भीतर तो फिर एक ही है; और बाकी सब जो भीतरी लगते थे माने वो झूठ ही भीतरी लगते थे। वो भीतर हैं नहीं, बस लगते थे कि भीतरी हैं और हम कह देते थे कि 'आज मेरे दिल से आवाज़ उठ रही है कि तेरा गला दबा दूँ', या 'आज मेरे दिल से ही आवाज़ उठ रही है कि बढ़िया वाला भोजन मिलना चाहिए।' 'आज भीतर से कुछ बेचैनी सी महसूस हो रही है।'

हम इस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं न, 'अंदर से', 'भीतर से', 'आंतरिक', वो सब आंतरिक नहीं हैं। तुम क्यों अपना अपमान करते हो बेहुदी चीज़ों को आंतरिक बोलकर के?

अंदर तो तुम्हारा सबसे केंद्रीय और पूजनीय बिंदु है न, तो अंदर फिर बातें, चीज़ें भी ऐसी ही होनी चाहिए जो शुद्धतम हों, उच्चतम हों, पूजनीय हों। एक-से-एक क्षुद्र और मूल्यहीन चीज़ों को आंतरिक बोल कर के क्यों अपना ही अपमान करते हो? वो चीज़ें आंतरिक नहीं हैं। न तुम्हारी आदतें आंतरिक हैं, न तुम्हारी स्मृतियाँ आंतरिक हैं, न तुम्हारी वृत्तियाँ आंतरिक हैं, न चित्त आंतरिक है, न विचार, न भावना, न विचारधारा, ये कुछ भी आंतरिक नहीं है। ये सब बाहरी हैं, ये सब प्रकृति के आयाम के हैं। आंतरिक बस परमात्मा है।

यहाँ पर भी कोशिश ये की जा रही हैं कि तुम्हारा पिंड छुड़ाया जाए उन सब से जिनको तुम आंतरिक माने बैठे हो। कुछ तोड़ने की, कुछ काटने की ज़रूरत है। वही प्रयास है। असली ज्ञान नहीं दिया जा रहा, नकली ज्ञान काटा जा रहा है। असली क्या ज्ञान दिया जाए? अगर असलियत यह है कि तुम ज्ञान स्वरूप ही हो, 'बौधो अहम', तो तुम्हें क्या ज्ञान दें? अगर असलियत में, वास्तविकता में तुम स्वयं ज्ञान स्वरूप हो तो तुम्हें क्या ज्ञान दें उपनिषद्?

तो उपनिषद् तुम्हें ज्ञान नहीं देते, वो तुम्हारे छद्म ज्ञान को चुनौती देकर उसे खंडित करते हैं। तुम्हें दर्शा देते हैं कि तुम भूल में हो। तुम अपने-आपको जो मान रहे हो, वो ठीक नहीं। जो ठीक है, न जाने कैसे तुम्हें उसका विस्मरण हो गया।

नकार, नकार। और इस नकार को तुम स्वीकार भी तभी कर पाओगे जब इसकी अनुगूंज को तुम अपने भीतर रहने दोगे। और अनुगूंज से पहले तुम्हारे भीतर स्वयं इसकी एक आहट होनी चाहिए। अन्यथा ये शब्द तुमको बड़े दूर के लगेंगे, बड़े पराए से लगेंगे। तुम कहोगे 'ये बातें क्या हैं? इनका मुझसे संबंध क्या है? मुझे समझ में नहीं आ रही।'

ये बातें समझ में ही उसको आएँगी जो इन बातों की आहट बहुत पहले ही सुन चुका है, अपने अकेलेपन में सुन चुका है। जिसको स्वयं ही ये प्रतीत होने लग गया है कि मामला गड़बड़ है। 'जो मैं सोचता हूँ, जैसे मैं जीता हूँ, मेरी मान्यताएँ कुछ ठीक नहीं बैठ रहीं, जम नहीं रहा कुछ।'

जो उस मुक़ाम पर आकर खड़ा हो गया है, जो संसार-रूपी घर की दहलीज़ पर आकर खड़ा हो गया है, उपनिषद् फिर उसको हाथ पकड़ के बाहर खींच लेते हैं। पर सिर्फ़ उसको जो चौखट पर, दहलीज़ पर खड़ा है। जो दहलीज़ पर खड़े होने को राज़ी नहीं, जो अभी शयनकक्ष में रज़ाई ओढ़कर के खर्राटें मार रहे हैं, उनको उपनिषद् समझ में नहीं आने के। और इसमें उपनिषदों का कोई दोष नहीं, क्योंकि ये तो तुम्हारे अपने स्वतंत्र चयन की बात है कि तुमको अभी ये घर, जो वास्तव में कारावास है, कितना प्यारा लग रहा है। तुमको अभी यहाँ बंधक बने रहना ही अच्छा लग रहा है तो तुम रज़ाई तान कर सोओ।

लेकिन होते हैं कुछ जिनको दिखने लगता है कि भीतर कितनी दासता है। वो उठकर बाहर आ जाते हैं। वो दरवाज़े पर खड़े हैं सलाखें पकड़ कर। आँखें बाहर तलाश रही हैं, 'कोई मिल जाए, थोड़ा सहारा दे दे, थोड़ी ताक़त चाहिए। कोई मिले, विधि बता दे। कोई मिले, तरक़ीब बताए निकल भागने की।' उनको मदद देने के लिए उपनिषद् तत्पर हैं।

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