Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
इस अकेलेपन की वजह और अंजाम जानती हैं ? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
19 min
124 reads

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अभी मैं मास्टर्स कर रही हूँ, सेकंड ईयर में, आई.आई.टी. चेन्नई से रिसर्च कर रही हूँ। एकदम मैकेनिकल हो गए हैं, उसमें कुछ नया ही नहीं लगता। मैं बहुत बोरदम महसूस करती हूँ। कुछ उम्मीद नहीं रहती कि कुछ नया या अच्छा होगा। यदि कभी कुछ अलग-सा घटता है तो फिर उस समय में कुछ ज़िंदा महसूस करती हूँ—चाहे वो अलग सा अच्छा हो, या बुरा। एक ना-उम्मीदी रहती है।

आचार्य प्रशांत: नाउम्मीदी किस चीज़ को लेकर के? आई.आई.टी. चेन्नई में पढ़ाई कर रहे हो, तो पढ़ाई में काफ़ी वक्त जाता होगा?

प्रश्नकर्ता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: कुछ बातें मैंने पहले बताई थीं करने के लिए कि यह करनी शुरू करो—वह कर रहे हो या छोड़ दीं?

प्रश्नकर्ता: रेगुलर (नियमित) नहीं हूँ।

आचार्य प्रशांत: उम्मीद किस चीज़ की है जिसको लेकर नाउम्मीदी है?

प्रश्नकर्ता: कुछ तो अलग हो।

आचार्य प्रशांत: क्या चाहिए?

प्रश्नकर्ता: पता नहीं।

आचार्य प्रशांत: और जो चाहिए वह चाहने का वक़्त कैसे मिलता है? आई.आई.टी. का शेड्यूल इतना सारा ख़ाली समय तो छोड़ता नहीं कि उसमें बैठकर आदमी सपने विचारे। पढ़ाई का क्या हालचाल है?

प्रश्नकर्ता: चल रही है बस!

आचार्य प्रशांत: अरे, कैसी चल रही है?

प्रश्नकर्ता: पहले जितना मैं फ़ोकस नहीं कर पा रही हूँ जितना मैं बी.टेक. में करती थी। अभी मुझसे नहीं हो रहा है इतना।

आचार्य प्रशांत: और जो काम मैंने बताया था उसमें रेगुलर नहीं हो?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: तो पढ़ाई में फ़ोकस नहीं है और जो मैंने रीडिंग बताई थी, और आर्ट्स बताए थे, स्पोर्ट्स बताए थे, उसमें रेगुलर नहीं हो। उधर फ़ोकस नहीं इधर रेगुलेरिटी नहीं। कुल मिला-जुला के क्या बच गया बहुत सारा.....? खाली समय! और उस ख़ाली समय में क्या पक रहा है?

प्रश्नकर्ता: बोरियत।

आचार्य प्रशांत: बोरियत और ना-उम्मीदी। यह अच्छी बात है कि अभी तक सिर्फ़ उसमें बोरियत और ना-उम्मीदी पक रही है। बहुत दिनों तक ना-उम्मीद नहीं रहोगे। मालूम है क्या करोगे? उस ख़ाली समय को भरने के लिए कहीं से कचरा ले आओगे, और वह कचरा ऐसा होगा जो ‘उम्मीद’ देता होगा, उम्मीद का वादा करता होगा। और उस कचरे से अपने ख़ाली समय को भर लोगे—जय राम जी की! उसके बाद आचार्य जी भी नहीं होंगे सवाल पूछने के लिए।

आप अभी जीवन के जिस पड़ाव पर हैं—शिक्षा के भी, उम्र के भी—बहुत सारे कचरे होते हैं जो मन को और ज़िंदगी से भरने के लिए आतुर होते हैं। अगर तुमने अपनेआप को ख़ाली छोड़ा, तो कुछ दिनों तक तो निराश रह लोगे, कुछ दिनों तक तो एक बोरियत रहेगी, जीवन से एक निराशा रहेगी, सूनापन, ख़ालीपन रहेगा—लेकिन बहुत दिनों तक तुम निराशा और ख़ालीपन बर्दाश्त करोगे ही नहीं। तो फिर तुम क्या करोगे? तुम जाकर के किसी हैंडसम कचरे को आमंत्रित कर लाओगे, और वह तुम्हारी ज़िंदगी के सूनेपन को और निराशा को बिल्कुल उम्मीद से भर देगा। बहुत पुरानी कहानी है, यह आज की नहीं है। यह लाखों साल पुरानी कहानी है। सबकी ज़िंदगियाँ ऐसे ही भरी जाती हैं।

अभी तो फिर भी ठीक है। जिस दिन कैंपस से पास-आउट हो जाओगे, और मान लो किसी जॉब में चले गए, तो कैंपस में तो फिर भी ठीक था—बहुत बड़ा कैंपस है, फैसिलिटीज़ (सुविधाएँ) हैं और साथ के लोग हैं—जब जॉब वगैरह पर जाते हो तो वहाँ और सूनापन लगता है, ख़ासतौर पर जो लोग कैंपस से निकलकर जॉब में जाते हैं। और पहली जॉब में जाते हैं, परेशान हो जाते हैं। और हिंदुस्तान है, हिंदुस्तानी लड़की तो और ज़्यादा परेशान हो जाती है। और, और ज़्यादा परेशानी बढ़ जाती है जब पता चले कि सिर्फ़ हम ही निराश बच रहे हैं, बाकी सबको आशाएँ मिलती जा रही हैं, एक-एक करके शहनाईयाँ बजती जा रही हैं। कुछ यह हो रहा है, कुछ वह हो रहा है। फिर जल्दी से हम भी कोई ढूँढ लाते हैं आशा देने के लिए।

इसलिए जब पिछली बार बात हुई थी तो मैंने कहा था कि अपनेआप को ख़ाली मत छोड़ना, सुंदर-से-सुंदर और ऊँचे-से-ऊँचे तरीक़े से अपनी ज़िंदगी को भर लो—म्यूज़िक सीखो, स्पोर्ट्स में एक्टिव हो जाओ, अपने क्षेत्र में जितना तुमको मिनिमम कंपलसरी काम है उससे आगे जाकर के प्रोजेक्ट्स उठाओ, एक-एक क्षण को लाद दो काम से।

प्रश्नकर्ता: शुरुआत में मैं कर रही थी।

आचार्य प्रशांत: बेटा, आप समझ भी रहे हो कि शुरुआत के बाद आपको रोक कौन रहा है? आप समझ ही नहीं रहे न? कौन है जो आपका मन किसी भी ढंग के काम में नहीं लगने दे रहा? आप समझ ही नहीं रहे न? कौन है जो आपको ख़ाली समय इतना दे रहा है? जानते हो कौन है वो? उसी का नाम ‘रानी’ है। आप अगर महिला हैं, तो मैं कहूँगा उसका नाम है ‘रानी’—सिंगल-सेल्ड (एक कोशिकीय) रानी है वो। और अगर आप पुरुष हैं तो मैं कहूँगा उसका नाम ‘बादशाह’ है—वो भी सिंगल-सेल्ड बादशाह है। वो अपने मतलब के लिए आपके पूरे मानसिक माहौल को बदले दे रहा है, मैनिपुलेट कर रहा है, और उसका इरादा बस एक है—वह जो सिंगल सेल है, वह डबल हो जाए।

हमारी यह जो पूरी व्यवस्था है (शरीर की ओर इंगित करते हुए) , वो नौकर है उस रानी की। उस रानी का क्या नाम है? अंडाणु। और अगर आप पुरुष हैं तो आपकी पूरी व्यवस्था नौकर है किसकी? शुक्राणु की। अब उसके पास मुँह तो है नहीं कि वह आपसे आकर बोले कि—“मुझे फर्टिलाइज़ होना है। मुझे फर्टिलाइज़ होना है।” तो वो आकर के सीधे नहीं बोलेगा कि —"मैं फर्टिलाइज़ होना चाहता हूँ," या —"मैं फर्टिलाइज़ करना चाहता हूँ"—वह यह सब तरीक़े निकालता है। वह आपके भीतर एक उदासी भर देगा, वह आपके भीतर एक सूनापन, अकेलापन भर देगा और खासतौर पर जवान लोगों में। शामें वीरान हो जाएँगी, रातें तन्हा हो जाएँगी, और आपको लगेगा यह सब तो कुछ ऊँचे तल का काम हो रहा है। यह तो कुछ शायराना काम हो रहा है। आप गज़ल वगैरह सुनोगे। हो सकता है लिखने भी लग जाओ कुछ कविता, या गज़ल लिख डालो। आपको लगेगा यह तो कुछ उस (ऊँचे) तल का काम हो रहा है—“मैं और मेरी तन्हाई अक्सर यह बातें करते हैं।”

अरे! यह तन्हाई का काम नहीं है। यह किसका काम है? यह एक बहुत छोटे-से उपद्रवी का काम है। बहुत छोटा-सा उपद्रवी है, वह यह सब करवा रहा है। उसी का नाम प्रकृति है। उसका कुल इरादा इतना ही है कि आपका शरीर किसी ऊँचे काम में न लगे, बस बच्चा पैदा करने की मशीन बना रहे। प्रकृति को आपकी पी.एच.डी. में कोई रुचि नहीं है। प्रकृति को कोई समस्या नहीं होगी अगर आप अपना एम.टेक. भी छोड़ दो। आप आई.आई.टी. से आज बाहर निकल जाओ, प्रकृति ताली बजाकर हँसेगी। उसे कोई समस्या नहीं है। वह ख़ुश हो जाएगी बल्कि।

प्रकृति माने समझ रहे हो न? यह जो देह लेकर बैठे हो, और उस देह के भीतर जो अंडाणु लेकर बैठे हो, वह चाहते ही यही हैं कि तुम आई.आई.टी. भी छोड़ दो। प्रकृति के लिए तो यह बहुत तकलीफ़ की बात हो जाती है अगर तुम ज्ञान की सेवा में निकल जाओ, और प्रकृति को खासतौर पर तकलीफ़ होती है जब कोई महिला ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ती है। महिलाओं की तो प्रकृति ने पूरी व्यवस्था कर रखी है अज्ञानी ही रखने की। इसीलिए देखा नहीं है, महिलाएँ कितनी भावुक होती हैं। यह भावनात्मकता और क्या है? यह बस प्रकृति के मिशन को आगे बढ़ाने का औज़ार है और उसी भावुकता की एक अभिव्यक्ति ये सूनापन है—शाम सुनसान है, और रातें तन्हा हैं। फिर रातों में आदमी ग़ज़ल सुनता है और फिर एफ.एम. में भी आ जाते हैं दो-चार।

जब वह रातों में बोलते हैं, तो वह यहाँ से (होठों की ओर इंगित करते हुए) नहीं बोलते, फिर वह यहाँ से (गले की ओर इंगित करते हुए) से बोलते हैं। (भारी आवाज़ में) “रात का वक्त है, (सब हँसते हुए) सब तन्हा आशिक़ों को इस बेबस मुसाफ़िर का सलाम!” फिर एक से बढ़कर एक वह आपके लिए ऐसे गाने चलाते हैं कि आप बह निकलते हो बिलकुल, और फिर सोने से पहले आप कहते हो—"अब थोड़ा नौकरी डॉट कॉम छोड़कर, शादी डॉट कॉम देख लिया जाए, नहीं तो फिर पॉर्न।" और क्या करोगे?

पिछली बार भी चेतावनी दी थी, फिर कह रहा हूँ, ज़िंदगी को, तुम्हें जो भी सबसे ऊँचे-से-ऊँचा उद्देश्य समझ में आता है, उसमें डुबो दो, नहीं तो तत्काल और घातक अंजाम होते हैं। ऐसी राहों पर निकल पड़ते हो कि फिर वापस नहीं लौट पाते, खासतौर पर हिंदुस्तान में। यहाँ पर लौटने की गुंजाइश बड़ी कम होती है।

ग़लतियाँ अगर कर दीं जवानी में, तो उम्रभर के लिए हो जाती हैं। और सब ग़लतियाँ शुरू यहीं से होती हैं—जहाँ पर बैठे हो आप अभी।

प्रश्नकर्ता: शादी की बात कर रहे हो आप, ग़लती मतलब?

आचार्य प्रशांत: बेटा, शादी नहीं होगी तो कुछ और होगा, लेकिन जो मूल सिद्धांत है, वो तो समझो! क्यों कोई मुँह चुराता है ऊँचे साहित्य से? दुनिया में जो ऊँचे-से-ऊँचे लोग हुए हैं, वह आज सिर्फ़ किस रूप में उपलब्ध हैं आपको? किताबों के रूप में उपलब्ध हैं न? मैं आपको बोलकर गया कि आप ऊँचे-से-ऊँचा साहित्य पढ़ो। वह ऊँचा साहित्य पढ़ने का मतलब होता है उन सब लोगों के साथ बैठना जो मानवता के हीरे-मोती हैं; उनकी संगति करना। अब सोचो अगर तुमको उनकी संगति पसंद नहीं आ रही है, उसमें मन नहीं लग रहा है, तो निश्चित रूप से किसी और की संगति चाहिए न? दिख नहीं रहा? बोलो? समझ में नहीं आ रही बात?

मैं अगर आपसे कहूँ यह साहित्य पढ़िए और जानिए दुनिया को, दुनिया के वैज्ञानिकों को जानिए, लेखकों को जानिए, चित्रकारों को जानिए, वह सब लोग जो इतिहास भर में जानने लायक हैं, उनकी बात को समझिए—उन्होंने क्या कहा, कैसे वह जिए, क्या उनका दर्शन था, क्या उनका संदेश था, यह जानिए। और आप कहें, “नहीं साहब, उनकी संगति में तो मुझे रुचि नहीं आ रही,” तो मामला साफ़ है न? इसका मतलब क्या है? आपको किसी और की संगति चाहिए। किसकी संगति चाहिए?

अब भाई, वह लोग तो देहवादी थे नहीं। उनकी बातों में गहराई और गंभीरता है, चाहे आइंस्टाइन हों चाहे रमण महर्षि हों। वहाँ आपको मनोरंजन तो मिलेगा नहीं, तो वहाँ फिर अच्छा नहीं लगता। अगर वहाँ अच्छा नहीं लग रहा है, तो सोचो तो कहाँ अच्छा लग रहा? कोई-न-कोई मिल जाएगा जल्दी ही अच्छा लगाने वाला। “हे! सेनोरीटा!”—अब गए रमण महर्षि! अब कौन-सा फेनमैन और कौन-से आइंस्टाइन? और कौन श्रोडिंगर? अब तो यही लगेगा कि चलो वीकेंड आ गया, आज एक और नई जगह घूमकर आते हैं। “आज संडे है, आज पूरा दिन तुम्हारे साथ बिताऊँगी जानू!”

आप कहोगे, “आचार्य जी, मेरी ज़िंदगी में न कोई बॉयफ्रेंड, न कोई लड़का है, आप इस कहानी को किस दिशा में खींचे लिए जा रहे हो?” बेटा, मैं कहानी को उसी दिशा में खींचे लिए जा रहा हूँ जिस दिशा में वह कहानी लाखों सालों से बह रही है। और तुम उस कहानी का अपवाद नहीं हो सकतीं। तो हो सकता है आज तुम्हारे जीवन में कोई लड़का न हो, पर यह जो सारी तैयारी चल रही है, यह उसी चीज़ की चल रही है। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे मन में किसी लड़के इत्यादि का अभी कोई विचार न आता हो, लेकिन निचले तल पर—विचार नहीं, वृत्ति के तल पर— सबकॉन्शियसली (अवचेतन में) यह जो पूरी तैयारी चल रही है, यह सिर्फ़ उसी चीज़ की चल रही है, क्योंकि प्रकृति और कुछ चाहती ही नहीं है एक जवान लड़की से। और तुम जो कुछ कर रही हो, उसका कुल नतीजा भी वही है। तो मेरी बात को इतनी आसानी से ख़ारिज मत कर देना कि, “ये तो यूँ ही तुक्के मार रहे थे। बेसिर पैर की बातें कर रहे थे।”

मैं बे-सिरपैर की बातें नहीं कर रहा हूँ। तुमको अभी सिर्फ़ अपना सूनापन दिखाई दे रहा है, मुझे यह भी दिखाई दे रहा है कि तुम्हारा यह सूनापन ‘क्यों’ है और इसे ‘कौन’ भरेगा। इस सूनेपन का और कोई सबब है ही नहीं। यह जो विस्टफुलनेस (उत्कंठा) होती है न, ये जो साँझ ढले की आह होती है, ये कभी किशोरों में नहीं निकलती, बच्चों में नहीं निकलती—यह जैसे ही जवानी आती है, वैसे ही हो जाता है।

आपको पता ही नहीं चलता कि आप क्यों गमगीन हो, बस यूँ ही उदास हैं। वह ‘यूँ ही’ की नहीं उदासी है। समझो! दोहरा रहा हूँ, तिहरा रहा हूँ, क्योंकि ज़रूरत है। वह उदासी यूँ ही नहीं है, वह उदासी तुमसे बस एक काम कराना चाहती है। जो लोग अकेलेपन के रोगी हैं कि, “हम अकेले नहीं रह सकते। अकेले नहीं रह सकते!,” वह साफ़ समझ लें कि—कौन है जो अकेला नहीं रह सकता? वही अंडा! उसका तो काम ही है अकेले नहीं रहना। उसको दुकेला चाहिए।

‘लोनलीनेस’ का मतलब तो समझो! कह रही है, “मुझे अकेला नहीं रहना।” 'अकेला नहीं रहना' माने किसके साथ रहना है? रमण महर्षि के साथ तो रहना चाहती नहीं तुम।

प्रश्नकर्ता: सॉल्यूशन (समाधान) क्या है इसके अलावा?

आचार्य प्रशांत: सॉल्यूशन तो बताया गया था, वह तुमने ख़ारिज कर दिया—“बुड्ढा बेकार की बातें बता गया है! फ़ालतू में टाइम खोटा करता है।” क्या-क्या बताया था मैंने? मैंने कहा था, खेलो। मैंने कहा था अभी कैंपस में हो, इससे ज़्यादा अच्छा मौका नहीं मिलेगा स्पोर्ट्स पर हाथ साफ़ करने का। अभी साल-दो-साल हैं किसी एक स्पोर्ट में आगे बढ़ जाओ। ठीक-ठीक याद नहीं है अभी साल भर पुरानी बात हो गई शायद।

प्रश्नकर्ता: स्पोर्ट्स, की-बोर्ड।

आचार्य प्रशांत: हाँ, म्यूज़िक बोला था, और रीडिंग तो निश्चित रूप से बोला होगा।

प्रश्नकर्ता: नहीं, वीडियोज़ बोला था, और एक सोशल ग्रुप से जुड़ने को बोला था।

आचार्य प्रशांत: हाँ! एक सोशल कॉज़ से जुड़ने को बोला था कि एक बड़े अभियान में सम्मिलित हो जाओ। ये तीन-चार चीज़ें बोली थीं, इसमें से किसी एक में भी डूब गए होते, तो काम हो जाता अब तक।

प्रश्नकर्ता: जी, मैं सोशल ग्रुप से जुड़ी हुई हूँ।

आचार्य प्रशांत: जुड़ना माने ये थोड़े ही होता है कि अपना नाम लिखा आए बस।

प्रश्नकर्ता: नहीं, नहीं, काम करते हैं।

आचार्य प्रशांत: तो काम यदि करते होते, तो समय लगता काम में। तो ख़ाली समय कैसे है?

प्रश्नकर्ता: पूरा टाइम(समय) नहीं जाता उसमें।

आचार्य प्रशांत: तो पूरा ही देना होता है, बेटा! ये जो बचा लेते हो, जो चुरा लेते हो, यही समय तो फिर भारी पड़ता है न? ख़ाली समय अपनेआप को देना ही नहीं चाहिए।

अच्छा, अगर तुम मधुमेह के रोगी हो, डायबिटीज़ के, और तुम्हें बहुत सारी टॉफियाँ मिल गईं हैं, तो तुम क्या करोगे? जल्दी बोलो क्या करोगे?

प्रश्नकर्ता: दूर रखेंगे।

आचार्य प्रशांत: दूर रखोगे, तो कहाँ रखोगे? अपने से ही तो दूर रख दोगे। (पास का इशारा करते हुए) वहाँ रख दी हैं। क्या करना चाहिए?

प्रश्नकर्ता: किसी को दे देना चाहिए।

आचार्य प्रशांत: बाँट देना चाहिए न? हाँ! तो हम डायबिटीज़ के रोगी हैं, और ये जो गोलियाँ हैं, ये समय के पल हैं, अगर तुमने इन्हें ख़ुद  खा लिया तो मरोगे। ये जो ‘पर्सनल टाइम’ है न, जो ‘पर्सनल कंज़म्पशन ऑफ टाइम’ है, समय का व्यक्तिगत उपयोग, ये तुम्हें मार देगा, जैसे शक्कर मधुमेह के रोगी को मार देती है।

समय मिले तो उसे तत्काल दूसरों में बाँट दो। और दूसरों से मेरा मतलब ये नहीं कि बगल के कमरे में घुस गए और कहे कि, “उसको मिठाई बाँटने आए हैं—टॉफ़ी।” उसे किसी सार्थक काम में लगा दो। समय मिले तो उसे तत्काल किसी सार्थक काम में लगा दो। एक टॉफ़ी भी तुमने बचा ली, समय का एक पल भी अगर तुमने अपने लिए बचा लिया, तो मरोगे। देयर इज़ नो हेल एक्ससेप्ट पर्सनल टाइम(व्यक्तिगत समय के अलावा और कोई नर्क नहीं है )।

लेकिन हमें बड़ा अच्छा लगता है, हम बार-बार बोलते हैं, “थोड़ा पर्सनल टाइम (व्यक्तिगत समय) मिलना चाहिए न। थोड़ा पर्सनल टाइम मिलना चाहिए न।” करोगे क्या पर्सनल टाइम का? ग़ौर तो करो क्या करोगे! जिसको तुम पर्सनल टाइम बोलते हो, वही तो ज़िंदगी का नर्क है। सारे उपद्रव उसी में तो करते हो।

आज अपनी ज़िंदगी के सब झंझटों को देखो, और साफ़ दिखाई देगा कि वो सब-के-सब पैदा हुए थे तुम्हारे ‘पर्सनल टाइम’ में। न होता पर्सनल टाइम, न होते इतने उपद्रव। ये सज़ा मिली है समय चुराने की, कि आज सौ झंझटों से घिरे हुए हो।

प्रश्नकर्ता: लगातार काम कैसे कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: (व्यंग कसते हुए) काम तो थोड़ी देर के लिए होता है न ताकि उसके बाद आराम हो और मज़ें हों। काम तो है ही इसीलिए ताकि उस से जो प्रॉफिट आए, या रिज़ल्ट आए, या पैसा आए, जो परिणाम आए, उसका बाद में कंज़म्पशन, उपभोग किया जाए।

इसीलिए आदमी की कोशिश रहती है कि कम-से-कम समय में ज़्यादा-से-ज़्यादा आउटपुट निकाल लें। चार घंटे काम करके अगर बीस घंटे पर्सनल टाइम मिल जाए, तो कितना मज़ा आए? है न? पूरी इकोनॉमिक थ्योरी यही है न? और ये मूर्खता है!

ज़िंदगी ऐसी जियो, काम ऐसा चुनो कि उससे एक सेकंड को भी हटने का न मन करे—न ज़रूरत पड़े। और अगर तुम्हारा काम ऐसा है कि उसके बाबत तुम्हें कहना पड़ता है कि—"आचार्य जी, काम कोई कितना कर सकता है?" —तो इसका मतलब है कि तुम काम ही घटिया कर रहे हो। काम ऐसा होना चाहिए जिसको तुम चौबीस में से अठ्ठाईस घंटे कर सको, और तब भी लगे कि—"काश, अभी थोड़ा और कर पाते!"

अगर तुम्हारा काम ऐसा नहीं है कि चौबीस में से उसे तुम अठ्ठाईस घंटे कर सकते हो, तो तुम घटिया काम कर रहे हो कोई—पैसे के लिए कर रहे होगे। काम तुम्हारा अगर ऐसा है कि घड़ी देखते हो कि कब छह बज जाएँ, फिर कार्ड स्वाइप करके बाहर आएँ, और घर को जाएँ, जहाँ ‘पर्सनल टाइम’ मिलेगा, तो बहुत जहन्नुम जैसी ज़िंदगी जी रहे हो।

प्रश्नकर्ता: रिसर्च फ़ील्ड मैंने ही चुना था। प्रोजेक्ट भी मेरे मन का ही मिला है। सब कुछ सही है, पर मेरा मन उखड़ा रहता है।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारा जो चुनाव है वो ‘ज्ञान’ से आ रहा है, और उस चुनाव के प्रति तुम्हारी जो ऊब है, वो तुम्हारे ‘शरीर’ से आ रही है। तुम ऊँची-से-ऊँची चीज़ भी चुन लो, शरीर तो अपना ही राग अलापेगा न? वो जो अंडा बैठा है भीतर, उसे ऊँचाई नहीं चाहिए—उसे साथी चाहिए, शुक्राणु। तुमने ऊँची-से-ऊँची चीज़ चुनी है अपने लिए, पर मैंने अभी कहा न— प्रकृति को ‘ज्ञान’ से क्या लेना-देना? तुमने ज्ञान मार्ग चुना है, तुम कह रही हो कि तुम आई.आई.टियन हो, रिसर्च करोगी, ये सब तुमने चुना, पर ये बात इस देह को तो समझ में आती नहीं न। इसका तो एक ही काम है—डी.एन.ए. आगे बढ़ाना। इसकी इसमें, मैंने कहा तो, कोई रुचि ही नहीं है कि तुम कितना ऊँचा काम करती हो ज़िंदगी में। तो तुम चुन लोगी बहुत ऊँचा काम, लेकिन ये फिर भी क्या चिल्लाएगा?—“मैं तो अकेली हूँ, मैं तो सूनी हूँ, मेरा मन नहीं लगता, मैं तो ऊब रही हूँ, मेरी रुचि नहीं आ रही।” जबकि तुमने जो चुनाव किया है वो बिल्कुल सही है, एकदम ठीक है, तुमने कोई गलती नहीं करी है। लेकिन ये (शरीर की ओर इंगित करते हुए) भाँजी मारेगी—अंडे उछलेंगे।

प्रश्नकर्ता: तो हमें क्या हमेशा फ़ोकस रहना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: (व्यंगात्मक तरीक़े से) नहीं, हमेंशा छितराए हुए रहना चाहिए!

प्रश्नकर्ता: कैसे?

आचार्य प्रशांत: कैसे क्या? अभी कैसे हो? अभी यहाँ इतने लोग हैं, छितराकर सबको देख रही हो क्या? अभी हो न फ़ोकस्ड? तो तुम्हें आता है फ़ोकस्ड रहना। बस जैसे अभी हो, वैसे ही सदा रहो—एकनिष्ठ! सत्यनिष्ठ!

एक बार जान जाओ क्या चीज़ सही है, फिर कोई कितना भी ललचाए, रुझाए, डराए—उसकी ओर देखो मत। बस ये है कि —जो तुम्हें ललचाता है, डराता है, रुझाता है, वो कोई बाहर वाला नहीं है। वो कौन है? वो अपना ही जिस्म है। वही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है —अपना ही शरीर।

तो हम जो अपने सबसे सुंदर और पवित्र निर्णय भी लेते हैं, उनको ख़राब कौन कर देता है? हमारा ही शरीर। इसके भीतर (शरीर की ओर इंगित करते हुए) ही तो दुश्मन बैठा है हमारा, और कौन है? शैतान यही है।

“हे राम! मुझे मुझसे बचा!”

और क्या प्रार्थना होती है?

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles