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लेख
क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, भोक्ता, साक्षी
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: क्षेत्रज्ञ क्या? साक्षी क्या? समझते हैं। क्षेत्रज्ञ का सम्बन्ध निश्चित रूप से, किसी क्षेत्र से ही होगा। 'क्षेत्रज्ञ' माने क्षेत्र का ज्ञाता। अच्छा, किस क्षेत्र की बात हो रही है? वो जो क्षेत्र है, वो हमारे अनुभव का क्षेत्र है। ठीक है? जो कुछ भी अनुभूत है, जो कुछ भी भासित होता है, वह क्षेत्र में आता है। क्षेत्र समझ लो अच्छे से। तो जो दिखाई देता है, उसका अनुभव होता है। ठीक है? तो वह क्षेत्र में आया। जो सुनाई देता है उसका अनुभव होता है? अनुभव होता है या नहीं होता है यह कैसे पता करें? जो भी चीज़ मन को हिला जाए, जो भी चीज़ मन पर निशान छोड़ जाए, मन में अंकित हो जाए, उसको हम अनुभूत वस्तु मानेंगे, कि इसका अनुभव हुआ।

अनुभव का और तो कोई तकाज़ा होता ही नहीं न, अनुभव की एक मात्र कसौटी क्या है? अनुभोक्ता। अनुभोक्ता कौन है? मन। मन कम्पित हो गया तो अनुभव हो गया, और मन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ तो अनुभव नहीं हुआ। तो जो स्पर्श करते हो उसका अनुभव होता है?

श्रोतागण: हाँ।

आचार्य: तो सब स्पर्शित वस्तुएँ किसमें आईं? क्षेत्र में। जिसका विचार करते हो वह मन पर प्रभाव डालता है? तो विचार जिस भी क्षेत्र का किया जा सकता है, वह पूरा विश्व जो विचार की सीमा के भीतर आता है, जिसके विषय में तुम विचार कर सकते हो, वह भी क्षेत्र ही हुआ।

सपने में जो कुछ दिखाई देता है, वो तुम पर असर डालता है? डालता है या नहीं? अरे सपने में तो डालता ही डालता है, सपना अगर ज़बरदस्त आया हो, भयानक जैसा, तो नींद से उठने के बाद भी बहुत देर तक हिले रहते हो। है न? तो स्वप्न का जो पूरा जगत है, वह भी क्षेत्र हुआ। ठीक है ?

इसी तरीके से, और जब तुम गहरा सो जाते हो और बड़ा गहरा सुख मनाते हो, तो उस सुख के भी तुम अनुभोक्ता होते हो न? उस सुख का अनुभव किसे हो रहा है? तुम्हें ही हो रहा है। तो वह भी किस में आया? क्षेत्र में। तो लिखा, पढ़ा, देखा, सुना, कल्पित, विचारित, यह सब कुछ किसमें आएगा? क्षेत्र में। तुम्हारा जो पूरा संसार है, हर तल में, और इस संसार के तुम जितने लोकों की चर्चा कर सकते हो, वह सब क्या हैं? क्षेत्र।

तो शब्द छोटा सा है 'क्षेत्र', लेकिन उसमें हमारे अस्तित्व, और अनुभव के सब तल, समाहित हैं। वह सब क्षेत्र में आ गया, ठीक है न। बात समझ में आ रही है? तुम्हारे शरीर के भीतर जो है वह भी क्षेत्र है और सुदूर ब्रह्माण्ड में कोई तारा जल कर राख हो गया, वह भी क्षेत्र है, ये सब क्षेत्र है।

कोई इस क्षेत्र के बारे में क्यों जानना चाहेगा? अगर कोई इस क्षेत्र के बारे में इसलिए जानना चाहता है, कि वह इस क्षेत्र से भोग का, लोभ का, अनुभव का, सम्बन्ध बनाए रख सके सतत, तो उसको सिर्फ़ कहते हैं भोक्ता। क्या कहते हैं उसको? भोक्ता। अब हम क्षेत्र से आगे निकल रहे हैं। क्षेत्र को हमने मान लिया कि क्षेत्र तो है, जैसे जड़ पदार्थ। अभी के लिए इतना कह दिया कि यह जो पूरा अखिल विश्व है, जो अनुभोक्ता का दृष्टव्य विषय होता है, दृष्टा जिसे देखता है उसको हम क्या नाम दे रहे हैं? क्षेत्र का। अब यह जो क्षेत्र को देखने वाला है, वो अधिकांशतः इस क्षेत्र को देखता ही इसलिए है ताकी वह इस क्षेत्र से कुछ लाभ उठा सके, अपने लिए सुख पा सके, अपने मंतव्यों की प्राप्ति कर सके, ठीक है न? क्षेत्र को इस तरह देखने वालों, क्षेत्र को इस तरह जानने वालों को सिर्फ़ हम कहते हैं भोक्ता। वह क्षेत्र को भोगना चाहते हैं।

भोगते-भोगते यह जो भोक्ता होता है कभी-कभार, बहुत विरल घटना के फलस्वरुप, ऐसी जगह पर पहुँच जाता है जहाँ वो कहता है, “भोगे जा रहा हूँ, भोगे जा रहा हूँ, पर भोग भोग के भी शांत नहीं हो पा रहा। एक बीमारी सी लगी हुई है, बुख़ार सा बना रहता है। एक खिन्नता है, भीतर आग सी है, विश्राम नहीं कर पा रहा, भोगे जा ही रहा हूँ, जैसे भोगने में ही तनाव है।" तब वो क्षेत्र का पुनर्मूल्यांकन करता है। वो क्षेत्र को दुबारा देखता है, एक नई दृष्टि से। देख वो पहले भी रहा था क्षेत्र को, पर पहले वो क्षेत्र को ऐसे देख रहा था जैसे कोई हिंस्र पशु अपने शिकार को देखता है। क्यों देखता है वो अपने शिकार को? छिपकली को भी तुम देखो, आजकल हैं छिपकलियां, जिस कीड़े का उसको शिकार करना है, उसे बहुत थम करके, बड़े ध्यान से देखती है। क्या जानने के लिए? क्या ज्ञान के लिए? नहीं, सिर्फ़ भोग के लिए।

तो देख तो वो पहले भी रहा था संसार को, हो सकता है उसे संसार के बारे में जानकारी भी खूब हो, ठीक वैसे जैसे छिपकली को कीड़े के बारे में जानकारी होती है। कीड़ा अपनी गतिविधियों के बारे में जितना जानता होगा, छिपकली भी उससे कुछ कम नहीं जानती कीड़े के ही बारे में। कीड़े के बारे में जानना है तो या तो कीड़े से पूछो नहीं तो छिपकली से, छिपकली को भी खूब पता होगा। तो आम तौर पर जो भोक्ता है जो संसारी मन है वो संसार को देखता ही इसलिए है, संसार का वो ज्ञान ही इसलिए हासिल करता है ताकि वो उस ज्ञान के माध्यम से भोग के नए-नए रास्ते अविष्कृत कर सकें।

अब वो दुबारा देखता है, खिन्न हो कर, क्षुब्ध होकर, विरक्त हो कर, संसार को। अब वो देखता है संसार को ताकि वो संसार-क्षेत्र से मुक्ति पा सके। देखने और देखने में अंतर आ गया है। देख वो पहले भी रहा था और बहुत सतर्क होकर देख रहा था, बहुत सजगता से देख रहा था, एकदम एकाग्र होकर देख रहा था। देख वो अभी भी रहा है पर पहले देखने की दृष्टि ये थी कि देखूँ ताकि इसको पा लूँ। जैसे छिपकली कीड़े को देखती है, देखूँ ताकि मैं इसको जल्दी से पा लूँ। और अब वो बड़े ध्यान से बड़ी एकाग्रता से देख रहा है, कि देखूँ कि इससे मुक्त कैसे हो सकता हूँ। समझ रहे हो?

ध्यान से किसी चीज़ को देखने की दो वजहें हो सकतीं हैं, उसे ध्यान से नहीं देखोगे तो उसे पा नहीं सकते, एक वजह ये हो सकती है और दूसरी वजह ये होती है कि अगर ध्यान से नहीं देखोगे तो उससे मुक्त नहीं हो सकते।

ये जो दूसरा है जो क्षेत्र का ज्ञान लेना चाहता है, जो क्षेत्र को देख रहा है, जो क्षेत्र का ज्ञाता हुआ है, ताकि क्षेत्र से मुक्त हो सके, ये कहलाता है क्षेत्रज्ञ। जो क्षेत्र का ज्ञाता है ताकि क्षेत्र को भोग सके वो कहलाता है भोक्ता, और जो क्षेत्र को जानता है ताकि क्षेत्र से मुक्त हो सके वो कहलाता है क्षेत्रज्ञ। क्षेत्रज्ञ अभी मुक्त हुआ नहीं है, उसे मुक्ति पानी है, तो इसलिए उसे अभी क्षेत्र से कम-से-कम इतना तो सम्बन्ध रखना ही पड़ेगा कि मुक्ति पा ले। तुम्हें अगर कोई रस्सी काटनी भी है तो तुम उस रस्सी की उपेक्षा नहीं कर सकते। तुम्हें उस रस्सी के साथ जूझना पड़ेगा, तुम्हें उस रस्सी के साथ कुछ रिश्ता तो बनाकर रखना ही पड़ेगा, क्योंकि तुम्हें वो रस्सी काटनी है। तो क्षेत्रज्ञ क्षेत्र से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, उसे मुक्त होना है। वो क्षेत्र से विरक्त हो गया है, पर वो अभी क्षेत्र से पूरी तरह मुक्त हुआ नहीं है।

क्षेत्रज्ञ वो चेतना है जो पदार्थ के संयोग से दुःख पा पा कर अब पदार्थ का त्याग करना चाहती है, वो गुणों का उल्लंघन करना चाहती है, वो क्षेत्रातीत जाना चाहती है। और वही चेतना जब मुक्ति मांग नहीं रही होती, बल्कि मुक्त हो ही जाती है तो उसको कहते हैं साक्षी।

तो श्रीमदभगवत गीता में श्री कृष्ण समझाते हैं कि, ‘क्षेत्र है, क्षेत्रज्ञ है, इनमें भेद करना सीखो पार्थ।’ ये जो भेद करने की सीख दी जा रही है इसका अर्थ है विरक्त होना सीखो पार्थ। भेद माने दूरी, भेद माने अंतराल। और कहते हैं कि, 'अगर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग तुमने ठीक से समझ लिया तो तुम मुझे प्राप्त हो जाओगे।' ये तीन कौन हुए? क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, और कृष्ण माने आत्मा। क्षेत्रज्ञ यदि क्षेत्र से पूर्णतया विलग हो गया तो वो साक्षी, आत्मा हो जाएगा, आत्मा ही साक्षी है।

इसलिए आवश्यक है क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त करना, और इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को, साधक को, संसार की बड़ी बारीक जानकारी होनी चाहिए। क्योंकि भाई तुम्हारा बड़ा काम अटका हुआ है संसार में, तुम्हारी बड़ी गरज है। संसारी आदमी का तो संसार से अधिक-से-अधिक बस भोग का रिश्ता है। उसकी संसार से कुल कितनी गरज है? भोग मिल जाए। अब भोग बड़ी बात है या मुक्ति?

श्रोतागण: मुक्ति।

आचार्य: साधक की संसार से कितनी गरज है? मुक्ति मिल जाए। तो संसारी तो अगर संसार को न जाने एक दफ़े, तो चल सकता है क्योंकि संसार से उसका जो काम है, जो स्वार्थ है, वो छोटा सा ही है, कि संसार तो मुझे इतना ही जानना है कि भोग मिल जाए। कई बार तो भोग बिना संसार को जाने ही मिल जाता है। तो संसारी के लिए अच्छा तो है कि वो संसार को जाने पर अनिवार्य नहीं है। इतने संसारी है उन्हें संसार का कुछ नहीं पता होता लेकिन उनका काम तो चल ही रहा है न।

साधक के लिए तो परम आवश्यक है, अति अनिवार्य है संसार को जानना। क्योंकि साधक का जो स्वार्थ है, वो अति गहरा है। साधक की जो गरज है वो बहुत हार्दिक है। साधक को संसार को बहुत साफ़-साफ़ जानना होगा, उसका रेशा-रेशा समझना होगा, क्योंकि साधक को संसार से एक बहुत कीमती चीज़ चाहिए। जो कीमती-से-कीमती चीज़ संसार के बीचों-बीच निकाली जा सकती है, साधक को तो वो चाहिए। और याद रखना, वो चीज़ मिलेगी संसार के ही बीचों-बीच, क्योंकि और तो हमारे पास कुछ है ही नहीं। साधक भी है कहाँ पर? संसार में। तो साधक को जो उच्चतम चीज़ चाहिए, मुक्ति, वो भी उसे कहाँ मिलनी है?

श्रोतागण: संसार में।

आचार्य: तो साधक को इसीलिए संसार को जानना होगा, ज्ञान लेना होगा। इसलिए क्षेत्रज्ञ बहुत ऊँची अवस्था है चेतना की। क्षेत्रज्ञ का मतलब हुआ, दो बातें: तुम जानते हो, तुम अज्ञ हो, तुम विज्ञ हो और तुम जान इसलिए रहे हो दुनिया को—तुम दुनिया के सब दंद-फंद, दाँव-पेंच, पैंतरे, सब समझते हो, तुम माया को खूब जानते हो—और इसलिए जानते हो, ताकि तुम माया की हर चाल को काट सको, ताकि तुम्हारे पास माया के हर पेंच का जवाब हो। ये हुआ क्षेत्रज्ञ, क्षेत्र का ज्ञाता मात्र, इसे क्षेत्र से कोई अनुराग, कोई आसक्ति नहीं है, बस एक आखिरी सुदूर स्वार्थ इसका बचा है, क्या नाम है उसका? मुक्ति। और जब तुम्हें क्षेत्र से इतना भी लेना-देना, इतना भी सरोकार, इतना भी स्वार्थ नहीं रह जाता कि मुक्ति मिले, तब तुम हो जाते हो साक्षी मात्र।

साक्षी भोक्ता नहीं है, वो दृष्टा भी नहीं है, साक्षी क्षेत्र नहीं है, वो क्षेत्रज्ञ भी नहीं है। साक्षी को वास्तव में अब अवलोकन से भी कोई मतलब नहीं रह गया। क्षेत्रज्ञ अवलोकन करेगा, साक्षी मात्र आलोकन करेगा। क्षेत्रज्ञ देखेगा, साक्षी मात्र आलोकित माने प्रकाशित करेगा, वो देखेगा भी नहीं। रौशनी होती है हम कहते हैं आँखों में, तो ये आँखें अवलोकन करती हैं, देखती हैं। और रौशनी होती है सूर्य में पर सूर्य देखता नहीं, वो मात्र आलोकित करता है। साक्षी सूर्य जैसा होता है, क्षेत्रज्ञ अक्ष जैसा होता है, आँखों जैसा होता है। समझ में आ रही है बात? और भोक्ता? वो अँधा होता है, उसके पास न रौशनी है न आँखें। स्पष्ट हो रहा है?

आध्यात्मिक साहित्य में कहीं कहीं पर क्षेत्रज्ञ और आत्मा को एक ही कहा गया है। जहाँ क्षेत्रज्ञ और आत्मा को एक कहा गया हो वहाँ समझ लेना कि क्षेत्रज्ञ की भी चरम अवस्था की बात हो रही है। क्षेत्रज्ञ की साधारण अवस्था क्या है? क्षेत्रज्ञ को मुक्ति चाहिए। और क्षेत्रज्ञ की चरम अवस्था क्या है कि क्षेत्रज्ञ को मुक्ति मिल गई, क्षेत्रज्ञ मुक्त हो गया। और मुक्त को ही आत्मा कहते हैं। तो जहाँ कहीं पढ़ो कि आत्मा को क्षेत्रज्ञ नाम से विभूषित किया जा रहा है तो समझ लेना यहाँ पर क्षेत्रज्ञ का मुक्त अर्थ लिया जा रहा है। स्पष्ट है?

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