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बाहर सत्य के दर्शन होना || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखमा्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥

वह परमपुरुष सब जगह हाथ-पैर वाला, सब जगह आँख, सिर और मुख वाला और सब जगह कानों वाला है, वही लोक में सबको व्याप्त करके स्थित है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय ३, श्लोक १६)

आचार्य प्रशांत: जो मूल औपनिषदिक सिद्धान्त है इस श्लोक के पीछे वो स्पष्ट होना चहिए। सारा जगत, स्थान का सारा प्रसार, समय का पूरा विस्तार मन है। मन क्यों है? क्योंकि मन अपनी सामग्री के अलावा कुछ नहीं होता। मन में जो कुछ मौजूद है मन उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। और मन में समय और स्थान के अलावा और कुछ मौजूद होता नहीं।

मन को कभी भी परखिएगा, जाँचिएगा तो उसमें आपको भूत और भविष्य मिलेंगे, और उसमें आपको दुनियाभर के तमाम व्यक्ति मिलेंगे, वस्तुएँ मिलेंगी, घटनाएँ मिलेंगी, जगह मिलेंगी; यह सब समय और स्थान के अंतर्गत आते हैं। तो जो कुछ भी देखा जा सकता है, जो कुछ भी सोचा जा सकता है, दुनिया में जो कुछ भी है, कभी था, कभी आगे होगा, जो तथ्यरूप में मौजूद है या जिसकी कल्पना की जा सकती है, वो सब कुछ मन है।

तो यह हुआ सिद्धान्त का पहला हिस्सा − संसार मन है। मन में संसार के अतिरिक्त कुछ होता नहीं, और मन जैसा है उसी अनुसार वो संसार को देखता है, प्रक्षेपित करता है, संसार के अर्थ करता है। मन और संसार एक हैं।

आगे बढ़ते हैं। मन क्या है?

मन वो है जो कोई आधार पाने के लिए, कोई अंत पाने के लिए, कोई सम्बल पाने के लिए बेचैन है। क्यों नहीं है मन के पास अपना आधार? क्योंकि मन द्वैत में जीता है। द्वैत में जीने का अर्थ होता है कि मन के भीतर मौजूद एक इकाई को हमेशा दूसरे के सन्दर्भ में परिभाषित किया जाता है।

काला जाने बग़ैर, काले का संज्ञान लिए बग़ैर आप सफ़ेद को ना परिभाषित कर सकते हैं, ना सफ़ेद का अनुभव ले सकते हैं। तो काले को परिभाषित करना है तो सफ़ेद की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है, ऐसा भी कह सकते हैं कि सफ़ेद का निर्माण करना पड़ता है। और सफ़ेद को अगर उपस्थित मानना है तो काले की मौजूदगी अपरिहार्य हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे काले से सफ़ेद हो और सफ़ेद से काला।

और जब इन अर्थों में बात करते हैं हम कि काला सफ़ेद की सहायता से अस्तित्वमान है, सफ़ेद काले की सहायता से अस्तित्वमान है, तो बात थोड़ी जमती सी लगती है। लेकिन बात फँस तब जाती है जब पूछा जाए कि 'काला और सफ़ेद ये दोनों ही कैसे अस्तित्वमान हैं?' तब कोई उत्तर नहीं होता।

जैसे दो लोग यूँ ही बेहोशी में कहीं को चले जा रहे हों, दोनों में से किसी को भी अपना कुछ पता ना हो, लेकिन आपसी संगत के कारण दोनों बड़े आत्मविश्वास से भरपूर हों कि वो अपना परिचय भी जानते हैं और पथ भी। आगे वाले से पूछा जाए कि 'तुम कौन हो?' तो वो बोले कि 'मैं वो जो पीछे वाले के आगे चलता है।' पीछे वाले से पूछा जाए कि 'तुम कौन हो?' तो वह बोले कि 'मैं वो जो आगे वाले के पीछे चलता है।'

दोनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बड़ी चतुराई भरी परिभाषा दे दी। दोनों से ही उत्तर माँगा गया था, दोनों ने ही खानापूर्ति कर दी। लेकिन इस उत्तर की कोई उपयोगिता नहीं है। तुलनात्मक रूप से, द्वैतात्मक रूप से दिया गया उत्तर है। कुछ पता ही नहीं चल रहा कि दोनों हैं कहाँ पर। कुछ पता ही नहीं चल रहा कि दोनों की पूर्ण पहचान क्या है। स्वतंत्र पहचान क्या है दोनों की, कुछ पता ही नहीं चल रहा। स्वतंत्र जैसे दोनों हैं ही नहीं। तो अपनी कोई मुक्त परिभाषा, कोई मुक्त परिचय अपना दे ही नहीं पा रहे।

मन में ऐसा ही है सबकुछ, अमुक्त, बद्ध। कोई ठोस धरातल नहीं उसके पास, कोई ठोस आधार नहीं उसके पास इसलिए मन तलाशता है एक आधार। इसी को दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे कि मन के भीतर जो कुछ है वो अनित्य है, असत है। तो इसलिए मन तलाशता है कुछ ऐसा जो नित्य हो। अपना झूठ जानता है मन, इसलिए तलाशता है उसको जो सत्य हो।

तो हमने पहला सिद्धांत यह जाना था कि मन और संसार एक हैं। और दूसरी बात हम कह रहे हैं कि मन अपने-आपमें निराधार है, असत्य है, इसलिए वो लगातार सत्य की खोज में रहता है। ये खोज जब अनुशासित हो तो साधना बन जाती है। ये खोज जब स्वछंद हो तो चंचलता बन जाती है। और यही खोज जब विकृत हो जाए तो विक्षिप्तता बन जाती है।

रूप कुछ भी हो मन की गति का, मन की अनवरत खोज का, मन लगातार कुछ टटोलता तो रहता है, कुछ पाने के लिए आतुर तो रहता है; उसी का नाम सत्य है। स्पष्ट हो रहा होगा आपको कि उसको सत्य क्यों बोलते हैं। उसको सत्य इसलिए बोलते हैं क्योंकि मन अपने भीतर की सामग्री को असत्य जानता है। मन को स्पष्ट है कि उसके भीतर जो कुछ है वो पूरा नहीं है, विश्वसनीय नहीं है। तो मन को जहाँ पहुँचना है, मन जिसकी ओर जा रहा है वो है सत्य।

अब सत्य की एक अनिवार्य पहचान ये होती है कि वो अकेला, अनूठा, अद्वितीय होता है। उसके आगे-पीछे कोई नहीं होता, वो असंग होता है; उसके हिस्से इत्यादि नहीं होते, अखंड, एक ही होता है सच। एक ही होता है सच।

तो फिर मन आया कहाँ से? मन अगर कहे कि वो अपनी ही जैसी किसी इकाई से आया है तो हम कह रहे हैं मन, मन से आया, और ये बात कुछ जमी नहीं। निश्चित रूप से मन की उत्पत्ति मन के अतिरिक्त किसी और आयाम से हुई है, क्योंकि मन अगर मन से ही आया है तो इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं मिला कि मन कहाँ से आया है। आप कहेंगे मन, मन से आया है। तो आप कहेंगे 'ठीक है, मन का जन्मदाता जो मन है फिर वो कहाँ से आया है?' तो सवाल फिर पीछे को ही खिंचता चला जाएगा, उत्तर नहीं पाएगा।

इस प्रश्न का उत्तर मिले, कि मन कहाँ से आया है, इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि हम कहें कि मन अपने से भिन्न किसी आयाम से, किसी बिंदु से आया है। बिंदु से क्यों? क्योंकि मन तो एक विस्तार है; एक विस्तार अगर दूसरे विस्तार से आ रहा है तो यही बात हो गई कि मन, मन से आ रहा है। मन अगर एक विस्तार है तो मन को किसी बिंदु से ही आना होगा।

और मन यदि असत्य है तो दूसरा आयाम फिर कौनसा बचा जहाँ से मन को आना होगा? सत्य। मन अगर असत्य है और मन आया है किसी दूसरे आयाम से, तो मन को सत्य से ही आना होगा। और सत्य पाँच-सात होते नहीं। इसका मतलब मन जिसको तलाश रहा है, मन उसी से आया है। मन असत्य है, सत्य को तलाश रहा है क्योंकि असत में उसे बेचैनी है, असत निराधार है। और मन की उत्पत्ति भी उसी सत्य से हुई है जहाँ मन जाने की इच्छा रखता है।

मन सत्य से आया है और सत्य को ही जाने की इच्छा रखता है।

अगर सत्य से आया है और सत्य को ही जाने की इच्छा रखता है, तो इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि मन जहाँ से आया है वहीं पर वापस लौट जाने की इच्छा रखता है। मन को अपने स्रोत तक पहुँचना है, मन को अपने जन्मदाता तक पहुँचना है। जहाँ से उठा है मन वहीं पर गिर जाना चाहता है। जहाँ से अस्तित्व पाया है मन ने उसी में समाहित हो जाना चाहता है। तो मन को फिर जन्म देने वाला मन का जन्मदाता ही नहीं है, मन का मुक्तिदाता भी है। वही मन को जन्म दे रहा है, उसी से मन आ रहा है और उसी में वापस लौट जाने में मन की मुक्ति भी निहित है।

तो ये बातें हम कह रहे हैं, मन और संसार एक हैं, और मन विस्तार है किसी बिंदु का; सत है वो बिंदु और असत है मन। और अपनी अनित्यता से, असत्यता से व्याकुल है मन। ये व्याकुलता बताती है कि मन का स्वभाव सत्य है। सत्य पाए बिना मन की बेचैनी, आकुलता शांत होती नहीं। मन को वापस लौटना है वहीं पर। आकुल रहना किसको पसन्द है? तो बिंदु - जिसको हम कह रहे हैं सत्य, स्रोत या प्रथम या पिता या जन्मदाता - बिंदु से मन और मन का ही प्रतिबिम्ब है संसार।

अब क्या कहा जा रहा है श्लोक में? "वह परमपुरुष" − वो जो पहला है, प्रथम है, जो बिंदु है, सत्य है, स्रोत है। "वह परमपुरुष सब जगह हाथ-पैर वाला, सब जगह आँख, सिर और मुख वाला और सब जगह कानों वाला है, वही लोक में सबको व्यक्त करके स्थित है।"

वह सब जगह हाथ, पाँव, सिर, आँख, कान, नाक इत्यादि रखता है। वही लोक में सब को व्याप्त करके स्थित है, माने वो स्वयं हर जगह उपस्थित है, उसकी उपस्थिति हर जगह है। जब कहा जा रहा है हर जगह उसके हाथ हैं, पाँव हैं, नाक हैं, सिर है, आँख हैं, कान हैं तो माने वही हर जगह है। वो हर जगह है, कहाँ? संसार में। स्थान का, समय का सारा जो विस्तार है वो उसी का है। ये अभिव्यक्ति है उसी मूल सिद्धांत की जिसकी हम अभी तक चर्चा कर रहे थे, कि पूरे संसार में वास्तव में वो परम, वो प्रथम ही पसरा हुआ है; वही अभिव्यक्त हो रहा है।

आप जिधर को भी देख रहे हैं, वास्तव में आप चेतना का विस्तार ही देख रहे हैं। और चेतना आ ही रही है उसी से जिसकी तलाश कर रही है चेतना। तलाश करती आपकी आँखें संसार की ओर देख रही हैं। आपको क्या दिखाई दे रहा है? संसार का विस्तार। जब भी संसार की ओर देखते हो, एक अतृप्ति के साथ देखते हो, है न? कभी भी बस यूँ ही नहीं देखते, अकारण नहीं देखते। हम तो प्रयोजन के साथ देखते हैं, सकाम दृष्टि से देखते हैं, कुछ खोजते हुए देखते हैं, कुछ पाने के लिए देखते हैं, कुछ बचाने के लिए देखते हैं, है न?

तो हमारी चेतना कुछ तलाश रही है दुनिया में। किसको तलाश रही है? उसी को जिससे वो आयी है, उसी को जिसकी उसमें गहरी रिक्तता है। चेतना में किस बात की रिक्तता है? चेतना में पूर्णता की रिक्तता है। चेतना में बिंदुत्त्व नहीं है, विस्तार है। बिंदु पूर्ण है, विस्तार अपूर्ण है। अधूरी है चेतना इसलिए दुनिया में लगातार देखती रहती है इधर-उधर कि वो मिल जाए जिससे पूरी हो जाऊँ।

तो आँखें देख रही हैं दुनिया की ओर और खोजना उसी को चाहती हैं जिससे वो आयी हैं। इसी बात को उपनिषद् इस तरीके से अभिव्यक्त करते हैं कि वही परमपुरुष चारों ओर व्याप्त है। वही उपस्थित है चारों ओर। जब तक तुम्हारे लिए इतना बड़ा विस्तार है, तब तक तुम्हारे लिए इस विस्तार में वो ही है, उसी को तलाश रहे हो। नहीं तो यह विस्तार तुम्हारे लिए होता ही क्यों?

लेकिन ऐसा तो हमारा अनुभव होता नहीं। हम तो जब चारों तरफ़ देखते हैं तो हमें सामान दिखाई देता है, जगहें दिखाई देती हैं, लोग दिखाई देते हैं, है न? ये माया है। चूँकि जो देखने वाला है वो शुद्ध नहीं, इसलिए उसको जो दिखाई दे रहा है वो भी अशुद्ध है।

जो शुद्ध हो करके देखेगा उसे देखने पर शुद्धता मात्र दिखाई देगी। जो सकाम दृष्टि से देखेगा उसको देखने पर बस काम्य वस्तु ही दिखाई देगी।

तो इस श्लोक ने बात करी है सत्य की, शुद्धता की। श्लोक कह रहा है कि "जिधर देखो उधर बस उस प्रथम परमपुरुष की उपस्थिति है।" किसके लिए है वो उपस्थिति? जो उस ऋषि जैसा हो जिनसे यह ऋचा आ रही है। ऋषिवर जिधर भी देखेंगे उधर उन्हें उस प्रथम-परम के ही दर्शन होंगे।

अर्थ क्या है इस बात का कि जिधर भी देखेंगे उन्हें सत्य के ही दर्शन होंगे? बस यही अर्थ है कि असत्य के दर्शन नहीं होंगे। चूँकि हम असत्य होकर के देखते हैं इसलिए हम जिधर को देखते हैं, जो कुछ भी देखते हैं वो हमें छल लेता है; हमें उसकी सच्चाई पता ही नहीं चलती।

ऋषि को असत्य नहीं दिखाई देता। ऋषि को ऐसा नहीं है कि कोई खास इकाई, या छवि, या प्रकाश दिखाई देता है जिसको सत्य कहते हैं। जब कहा जा रहा है 'चारों तरफ़ सत्य की उपस्थिति है', और ऋषि दावे के साथ कह रहे हैं कि 'चारों तरफ़ सत्य की उपस्थिति है, वही भर है', तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें कुछ ऐसा अतिरिक्त या विशेष दिखाई दे रहा है जो आपको नहीं दिखाई दे रहा। ऐसा नहीं है कि आप देख रहे हैं तो आपको दिखाई दे रहा है दरवाज़ा, खंभा, दीवारें, लोग, और ऋषि देख रहे हैं तो उनको दिखाई दे रहा है सत्य।

अंतर सूक्ष्म है, समझिए। आप सकाम दृष्टि से देखते हैं, आप अपूर्ण होकर देखते हैं इसलिए देखा जा रहा विषय आपके लिए बहुत अर्थपूर्ण, महत्वपूर्ण हो जाता है। उसमें अर्थ आप भर देते हैं। जब ऋषि देखते हैं तो उनके लिए ये दरवाज़ा बस दरवाज़ा है, खंभा बस खंभा है, दीवार बस दीवार है, कपड़े बस कपड़े हैं, लोग बस लोग हैं, कैमरा बस कैमरा है।

हम जब देखते हैं तो हमारे लिए इस दीवार पर जो रंग किया गया है वो समाज में हमारे मूल्य का द्योतक हो सकता है। कई तरीक़े के पेंट आते हैं न, सस्ते-महँगे। ऋषि देख रहे हैं तो उनको बस दीवार दिखाई दे रही है, दीवार पर रंग है उनको दिख गया। इससे आगे उनकी कहानी बढ़ी ही नहीं। आप जब देख रहे हैं तो आपको दीवार और रंग ही नहीं दिखाई दे रहा, साथ में अपनी प्रतिष्ठा और पहचान भी दिखाई दे रही है।

तो मुझे बताइए अतिरिक्त और विशेष किसने देखा, ऋषि ने या आपने? तो ऋषि को सत्य दिखता है इससे ये अर्थ नहीं लेना है कि उन्हें कुछ विशेष या अद्भुत दिखाई देता है। जो शुद्ध हो वो सहज और सरल भी है। तो ऋषि को अतिरिक्त नहीं दिखाई देता बल्कि ऋषि को तो कुछ कम दिखाई देता है।

सत्य असत्य से एक अर्थ में बड़ा नहीं छोटा होता है। किस अर्थ में सत्य असत्य से छोटा होता है? असत्य प्याज जैसा होता है, बहुत सारे छिलके, परत दर परत। और सत्य क्या है? सब छिलके एक-एक करके जब उतारे गए तो भीतर जो बिंदुभर रिक्तता बची, वो सत्य है। तो इस अर्थ में मैं कह रहा हूँ कि असत्य बड़ा होता है, सत्य छोटा होता है। हम जब देखते हैं तो हमें बहुत कुछ दिखाई देता है, जैसे प्याज के छिलके। परत-दर-परत देखते हैं हम। एक चीज़ देखी, उसके नीचे कोई और बात थी, उसके नीचे कोई और बात थी फिर उसके नीचे कोई और बात थी। जटिल है हमारा देखना, जटिल है हमारा मन।

ऋषि जब देखते हैं तो दीवार क्या है? दीवार मात्र; पदार्थ है। और वो पदार्थ दिखाई भी क्यों दे रहा है? दिखाई सिर्फ़ इसलिए दे रहा है क्योंकि जिस उपकरण का प्रयोग करके देखा जा रहा है वो स्वयं पार्थिव है, भौतिक है। मिट्टी की आँखों से देख रहे हैं तो मिट्टी की दीवार ही तो दिखाई देगी न। मिट्टी, मिट्टी को देख रही है, मिट्टी स्वयं को देख रही है। और पदार्थ का यही लक्षण होता है, वो अपने अलावा किसी और की पहचान कर नहीं सकता। पदार्थ के अलावा कोई है जो पदार्थ को स्पर्श कर सके? पदार्थ के अलावा कुछ है जो पदार्थ से प्रतिक्रिया कर सके? उठा सके, सूँघ सके, उसका संज्ञान ही ले सके, उसकी उपस्थिति को सत्यापित कर सके? कुछ नहीं। तो पदार्थ के लिए पूरा संसार फिर क्या है? पदार्थ मात्र, क्योंकि पदार्थ सिर्फ़ पदार्थ को ही देख सकता है।

तो ऋषि बस ऐसे ही कहते हैं 'आँख देखेगी तो दीवार को ही तो देखेगी'। वो कुछ जोड़ते नहीं हैं उसमें जिसको आँख ने देखा। आँख ने कुछ देखा, ऋषि को कुछ आंतरिक अपूर्णता या आवश्यकता नहीं है कि वो देखे गए में छिलकों की तरह अर्थ चढ़ाएँ; वो नहीं चढ़ाते। इसको कहते हैं 'सत्य मात्र को देखना'। उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है।

पहली बात तो उनका मन आतुर नहीं है देखी गई वस्तु पर अर्थ आरोपित करने में; दूसरी बात, जो वस्तु देखी जा रही है उसको भी वो सत्य नहीं मान रहे, बस देखने वाले उपकरण की छाया भर मान रहे हैं। जो देख रहा है उसकी छाया है दृश्य। दृश्य क्या? दृष्टा की छाया, सत्य नहीं।

तो ऋषि के लिए फिर वास्तव में कुछ भी दृश्यमान नहीं है उस अर्थ में जिस अर्थ में हमारे लिए जगत दृश्यमान है। जब ऋषि के लिए वो सब नहीं है जो हमारे लिए बहुत अर्थवान है, तब ऋषि कहते हैं 'चारों तरफ़ जहाँ देखो वहाँ बस प्रथम पुरुष का ही विस्तार है।' ये बात अच्छे से भीतर उतर जाने दो।

ऋषि को कोई परम, विशेष सत्ता ना दिखाई दे रही है, ना अनुभूत हो रही है। इस कल्पना से बचना कि आप देखते हो तो आपको तो बस सामान्य गद्दे, पर्दे, कुर्सियाँ, फ़र्श, दीवार दिखाई देते हैं, और ऋषि जब देखते हैं तो उन्हें गद्दे, पर्दे, कुर्सियाँ, फ़र्श, दीवार के साथ-साथ कुछ दिव्य आकृतियाँ या प्रकाशित-विभूतियाँ भी दिखाई देती हैं।

बात इससे बिलकुल विपरीत है। हम जब भी कुछ देखते हैं, उसमें सौ अर्थ चढ़ाकर देखते हैं। हम सहज नहीं देखते। फ़र्श, फ़र्श नहीं है। व्यक्ति, व्यक्ति नहीं है। उस व्यक्ति की कई पहचानें हैं जो हम देखते हैं। व्यक्ति हमारे लिए अमहत्वपूर्ण हो जाता है। उसकी पहचानें, उससे जो हमारे रिश्ते हैं, उससे जो हमारा लेन-देन है वो महत्वपूर्ण हो जाता है न, या उसके साथ जो हमारे अनुभव हैं, अतीत है वो महत्वपूर्ण हो जाता है। व्यक्ति पीछे हो जाता है।

ऋषि ऐसे नहीं देखते। वो परतों की कोई आवश्यकता नहीं समझते बाहर, क्योंकि परतें उन्होंने आवश्यक नहीं समझी हैं भीतर।

जब कुछ भी अनावश्यक तुम्हें कहीं दिखाई ना दे, तब तुम कह सकते हो कि तुम्हें परमात्मा के दर्शन हो गए।

अनावश्यक क्या है?

अनावश्यक वो है जो तुम्हारे लिए दुःख का कारण बनता है। अनावश्यक वो है जिसके बिना भी बहुत मज़े में चल लेते तुम, पर जिसकी कामना कर ली तुमने इस भ्राँति के चलते कि अपूर्णता है तुममें, कि कुछ दोष है तुममें।

तो श्लोक के साथ बहुत सावधानी रखनी है। श्लोक ने कह दिया वह परमपुरुष सब जगह हाथ-पैर वाला। सबसे पहले तो याद रखना है कि किसी पुरुष की बात नहीं हो रही है, भले ही वर्णन एक शारीरिक रूप में हो रहा है यहाँ परमसत्ता का, भले ही कहा जा रहा है कि वह सब जगह हाथ-पैर वाला, सब जगह आँख, सिर, मुख और कानों वाला है।

मन तो तत्काल छवि बनाने को आतुर हो जाएगा कि 'भई अब तो श्लोक ने ही अनुज्ञा दे दी, श्लोक ने ही बता दिया कि परमात्मा के सिर, हाथ, पैर, आँख, कान हैं, तो हम क्यों ना कल्पना करें?' नहीं, बचना है। बताने का एक तरीका भर है, बताने की एक विधि मात्र है; और न जानें अन्य भी तो कितनी विधियाँ उपनिषदों में प्रयुक्त हैं। इन सब को विधि ही समझना है, सत्य नहीं।

परमात्मा के हाथ-पाँव नहीं हैं। क्या बताने का प्रयास किया जा रहा है ये समझिए। कहा जा रहा है कि उसकी उपस्थिति सब जगह है। अब इसमें हम थोड़ी सी बात यह जोड़ेंगे कि ऋषि के लिए परमात्मा की उपस्थिति सब जगह है और आम आदमी के लिए परमात्मा की अनुपस्थिति के कारण प्यास और वेदना सब जगह है।

जब श्लोक कहता है कि 'वह सब जगह है', तो ऋषि के लिए वह वास्तव में सब जगह है और बाकियों के लिए भी कुछ है जो सब जगह है, क्या? उसकी अनुपस्थिति के कारण उठती तड़प सब जगह है। और ये बात तो प्रकट सी ही है न? जो सब जगह है, जब वो तुम्हें कहीं ना दिखे तो तुम्हारे भीतर क्या संचारित होगा? पीड़ा, आकुलता।

तो ये हमारा जीवन है। हम भी लगातार देखते ही तो रहते हैं चारों तरफ़, खोजते ही तो रहते हैं दुनियाभर में। किसको खोज रहे हैं लगातार? उसी को। पर चूँकि हम गंदी आँखों से, अज्ञान भरी आँखों से, कामना भरी आँखों से खोज रहे हैं इसलिए सत्य सामने होते हुए भी हमें दिखाई क्या देता है? कामना का कीचड़ मात्र। सच्चाई ठीक सामने होगी, लेकिन देखने वाली आँख में ही कामना का कीचड़ है तो उसे क्या दिखाई देगा! तो उपस्थिति उसकी सब जगह है। उपस्थिति उसकी सब जगह क्यों है? उन सिद्धान्तों के कारण जिनकी हमने आरंभ में चर्चा की। मात्र वही उपस्थित है।

सामने जो है ये चेतना है। चेतना क्या है? प्रथम और एकमात्र बिंदु का विस्तार। बिंदु चेतना बनी, बिंदु ने रूप लिया चेतना का और चेतना ही सामने बन गई जाकर संसार। तो माने बिंदु ही है संसार। वो जो प्रथम बिंदु है वही संसार है, ये हमने पहली बात कही।

और दूसरी हमने जाननी चाही कि 'प्रथम बिंदु ही अगर संसार है तो वो हमें दिखाई क्यों नहीं देता?' वो हमें दिखाई इसलिए नहीं देता क्योंकि हम क्या देखेंगे इसमें हमारे पास विकल्प हैं, चुनाव हैं। तुम देखना चाहो, तुम्हें सच्चाई दिखाई देगी; तुम ना देखना चाहो, तुम पूरा जन्म बड़े विश्वास के साथ झूठ में बिता सकते हो। अब ये भी स्पष्ट हो रहा होगा जो दूसरा हिस्सा है श्लोक का − "वही लोक में सबको व्याप्त करके स्थित है।" उसी प्रथम बिंदु से ये पूरा लोक है। लोक माने क्या? चेतना का विस्तार। उसी प्रथम बिंदु से ये पूरा लोक है।

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