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कमाना है, भोगना है, मज़े करने हैं!
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं कि सामान्य ज़रूरतों के लिए बहुत ज़्यादा पैसों की ज़रूरत नहीं है, पर अगर हमारे पास समय है और सामर्थ्य भी, तो ज़्यादा क्यों न कमाएँ? इस दुनिया में बहुत से सुख हैं जिनको पूरा करने के लिए पैसा चाहिए। उदाहरण के लिए, विश्व भ्रमण करने की अपनी कामना पूरी क्यों न की जाए? जब हमें पता है कि मरने के बाद साथ कुछ नहीं जाना है, तो हम भविष्य के बारे में सोचकर आज घुट-घुटकर क्यों जिएँ? ये प्रश्न मैं अपने बेटे की तरफ से पूछ रही हूँ। मेरी और मेरे बेटे की सोच अलग है। मैं आध्यात्मिक हूँ, लेकिन मेरा बेटा अलग सोच रखता है, और वो आत्मनिर्भर भी है।

आचार्य प्रशांत: पहली चीज़ आपने पूछी है कि "अगर अपनी कामनाएँ पूरी करने के लिए पैसा चाहिए तो पैसा क्यों न कमाएँ?" कामना इसलिए थोड़े ही होती है कि बस कामना पूरी हो जाए। कामना का भी उद्देश्य होता है आपको पूरा कर देना न?

उदाहरण के लिए, आपके मन में किसी तरह से ये कामना आ जाए कि आपको (मेज़ पर रखे तौलिए की तरफ इशारा करते हुए) ये उठाकर अपने मुँह पर मार लेना है। ये तौलिया है, और आदमी की तो कैसी-कैसी कामनाएँ होती हैं। कोई भी कामना किसी में भी प्रविष्ट कराई जा सकती है। अब आपमें यही कामना आ गई कि तौलिया उठाओ और नाक पर मारो। आप तौलिया उठाकर सौ दफ़े नाक पर मार लें। इससे कामना तो पूरी हो गई, आप पूरे हुए क्या?

ये भेद समझना बहुत ज़रूरी है। आपकी जो आवश्यकता है और कामना जो चाह रही है, ये दोनों अलग-अलग बातें हैं, भाई। आप अपने-आपको सोचते हैं कि "मैं हूँ कामनाकार या कामी।" ये बात पूरी तरह से सही नहीं है। और इसका प्रमाण ये है कि आपकी अनेकों कामनाएँ आज तक पूरी हो चुकी हैं, हुई हैं कि नहीं हुई हैं? तो कामना तो मस्त पूरी होकर निकल ली, और आप पीछे छूट गए अधूरे के अधूरे। कामना तो पूरी हो गई न? या कामना में कुछ बचा?

आपकी कामना थी कि बड़ी गाड़ी खरीद लें या पैसे से और जो चीज़ें आती हैं वो सब मिल जाएँ, तो वो कामना तो आपने कर ली पूरी। कामना शत-प्रतिशत पूरी हो गई। वो जो आपकी कामना थी—बड़ी गाड़ी खरीद लें; बड़ी गाड़ी घर आ गई, अब उस कामना के पूरे होने में क्या कुछ भी बचा है? कामना तो शत-प्रतिशत पूरी हो गई, आप शत-प्रतिशत पूरे हो पाए क्या?

कामना का पूरापन और आपका अधूरापन, यही चल रहा है। कामना तो बुद्धू बना गई न आपको? कामना आई, आपको बुद्धू बनाया, खाया-पिया, पूरी हुई, और निकल ली। आप बैठे रह गए, और बैठे ही नहीं रह गए, आपने कोई सीख भी नहीं ली पिछले अपघात से।

एक कामना पर भरोसा किया कि उससे आपको कुछ मिल जाएगा, उसके बाद आपने तुरंत भरोसा कर लिया दूसरी कामना पर। अब दूसरी कामना आई, उसने भी कहा, "मुझे पूरा करो, तो मैं तुम्हें पूरा करूँगी।" तो आपने झट से भरोसा करके वो दूसरी कामना भी पूरी कर डाली। और उसमें आपने अपना समय लगा दिया, धन लगा दिया, ऊर्जा लगा दी, जीवन लगा दिया, सब लगा दिया। तो वो कामना भी पूरी हो गई। आपको क्या मिला? वो कामना भी पूरी हो करके फिर आप तीसरी कामना में लगे हैं।

तो कर लो, भाई, विश्वभ्रमण, पर उससे तुम्हें वाकई कुछ हाँसिल हो रहा है क्या? हो रहा है, तो तुम विश्व-भ्रमण ही क्यों कर रहे हो? तुम अंतरिक्ष भ्रमण करो। तुम चाँद-तारों पर जाओ घूमने, अगर उसी से तुम्हें कुछ मिल जाता हो।

अगर भ्रमण ही करने से जीवन का कोई बड़ा सुख मिल रहा होता, तो सबसे सुखी तो बेचारे टैक्सी ड्राइवर, ऑटो ड्राइवर, ट्रेन ड्राइवर, ये लोग होते। नहीं, आप तो शायद ज़्यादा पैसे वाले लोग हैं, आप विश्वभ्रमण की बात कर रहे हैं। तो चलो सबसे सुखी ये हवाई जहाजों के पायलट होते और फ़्लाइट स्टीवर्ड्स (विमान प्रबंधक) और एयर होस्टेसस (विमान परिचारिका) होती। ये सब बिलकुल मुक्त पुरुष और मुक्त स्त्रियाँ हो चुके होते अब तक। इन्होंने तो वाकई पूरा विश्व घूमा है। आपका बेटा बहुत पैसा खर्च करके भी जितनी जगहें नहीं घूम पाएगा, उससे कहीं ज़्यादा तो एक पच्चीस साल की एयर होस्टेस घूम चुकी होती है। उसका तो निर्वाण पक्का ही हो गया होता। इतना घूमा, इतना घूमा, हो गया खत्म! ऐसे होता है क्या?

समझिए तो कि आप अपनी पूरी दुनिया क्यों घूमना चाहते हैं। आप घूमना इसलिए चाहते हैं क्योंकि कुछ खो गया है। आप उसको दुनिया के कोने-कोने में तलाश रहे हैं, और ये बात आपको पता भी नहीं है। इसलिए ये जो पूरा पर्यटन उद्योग है वो फल-फूल रहा है। हर पर्यटक कोई खोई चीज़ खोजने जा रहा है कहीं पर। और वो कह रहा है, "घर में मिली नहीं तो क्या पता स्विट्ज़रलैंड में मिल जाए?"

अरे, पागल! जो चीज़ जहाँ खोई है वहीं तो मिलेगी न। स्विट्ज़रलैंड में खोई थी क्या? जब वहाँ खोई नहीं थी, तो वहाँ खोजने क्यों जा रहा है? पर वहाँ जाकर इधर-उधर घूम रहे हैं। "और बताओ क्या-क्या जगहें हैं? कहाँ जा सकते हैं?" इससे पूछा, उससे पूछा, "कहाँ जा सकते हैं?"

वहाँ खो कर आया था? खोया भीतर है और खोज रहा है जिनेवा में, मिलेगा? फिर वहाँ नहीं मिला तो बोले, "चलो पेरिस चलते हैं।" वहाँ भी नहीं मिला तो बोले, "वो चाँद पर जाने का आजकल टिकट कट रहा है। जल्दी अग्रिम राशि जमा कराओ, हम भी जाएँगे।" चाँद पर खोकर आया था जो वहाँ मिलेगा?

कौन-सी चीज़ खोई है, पहले रुककर ये पता तो करो न। इधर-उधर व्यर्थ मुँह मारने से क्या हो जाएगा? जैसे कोई बच्चा हो छोटा, मूरख, और उसकी फुटबॉल खो गई हो। और उसको वो खोज रहा है रसोई में घुसकर चम्मचों में, छोटी-छोटी कटोरियों में, अपनी छोटी बहन के छोटे-छोटे खिलौनों में।

तुम्हारी जो चीज़ खोई है वो बहुत बड़ी है और साथ-ही-साथ बहुत सूक्ष्म है। वो हवाई जहाज पर बैठकर इधर-उधर भटकने से थोड़े ही मिल जाएगी। हाँ, पैसा तुमको फूँकना है तो फूँक लो। इससे तुमको एक ये गर्व ज़रूर आ जाएगा कि "मैंने देखो डेढ़ लाख रुपए का तो फ़्लाइट का टिकट कटाया है।" उसी में अघाए बैठे रहो, गोलगप्पा हुए। थोड़ी देर में फिर फुस्स हो जाओगे। क्योंकि चाहे डेढ़ लाख की फ़्लाइट हो चाहे पाँच लाख की फ़्लाइट हो, अभी थोड़ी देर में उतर तो ज़मीन पर ही आनी है, और फिर वो बोलेगा, "कृपया नीचे उतरें। आपका पैसा चुक गया। इतने का ही भाड़ा भरा था; जहाज नहीं खरीद लिया है। उतर!" और जब घोषणा हो जाए कि नीचे उतरो, उसके बाद दस मिनट से ज़्यादा बैठकर दिखा देना। क्या मिल जाना है? समझ रहे हो बात को?

तुम पूर्ण हो करके कहीं भी जाओगे, भली बात। भीतर से तृप्त होकर तुम कहीं जा रहे हो, जाओ जहाँ जाना है। पर्यटन करो कि ना करो, क्या फर्क पड़ता है? भीतर से तो तृप्त हो न। और दूसरी ओर भीतर अतृप्ति बनी ही हुई है, और तुम कूद-फांद मचा रहे हो—ये फ़्लाइट , वो फ़्लाइट , हुलिया टाइट—क्या मिल जाएगा?

वैसे ही पूछा है, "जब मरने के बाद कुछ नहीं जाना है, तो हम भविष्य के बारे में सोचकर आज घुट-घुटकर क्यों जिएँ?"

प्रश्नकर्ता शायद ये मान रहा है कि घुट-घुटकर तब जिओगे जब भविष्य के बारे में सोचोगे। तुम मत सोचो भविष्य के बारे में, तो क्या घुट-घुटकर नहीं जी रहे? तुम तो घुट-घुटकर जी ही रहे हो न? बिलकुल मत सोचो भविष्य के बारे में; तुम तो अपने वर्तमान को ही देखो—और उसमें बड़ी घुटन है। वो घुटन तुम अपने साथ लेकर जाओगे। कर लो जितना पर्यटन करना है।

प्रश्नकर्ता ने कहा है, "हम आगे की सोचकर आज घुट-घुटकर क्यों जिएँ? क्योंकि आगे तो मर ही जाना है।" ठीक है, भाई। तुम आगे की मत सोचो। बहुत तुमने उम्दा बात कही कि आगे की नहीं सोचनी चाहिए, आगे तो मौत है। तो आगे की मत सोचो। उससे तुम्हारे वर्तमान पर क्या अंतर पड़ रहा है? वर्तमान में तो घुटन है ही न?

तुम्हारे वर्तमान में घुटन इसलिए नहीं है कि तुम भविष्य के बारे में सोचते हो, तुम्हारे वर्तमान में घुटन इसलिए है क्योंकि तुम्हारा वर्तमान ही उजड़ा हुआ, बेहूदा, बर्बाद है। भविष्य को दोष दे रहे हो। कह रहे हो, "हम भविष्य के बारे में सोचते हैं न इसलिए वर्तमान में दिक्कत है।" नहीं साहब, भविष्य के बारे में सोचने से वर्तमान में नहीं दिक्कत है, वर्तमान 'में ही' दिक्कत है।

वर्तमान में क्या दिक्कत है? वर्तमान में ये दिक्कत है कि गलत नौकरी कर रहे हो, गलत रिश्तों में फँसे हुए हो, गलत उम्मीदें रखी हुई हैं, गलत धारणाएँ हैं, दुनिया के बारे में जो तुम्हारी मूल मान्यता है वो ही गलत है। ये सब कुछ गलत है वर्तमान के बारे में। तो यहाँ तक तुमने सही बोला कि भविष्य के बारे में क्यों सोचें? लेकिन तुम अपने तर्क का इस्तेमाल करके ये कहना चाह रहे हो कि "मैं भविष्य के बारे में क्यों सोचूँ? मैं तो वर्तमान में मौज मारूँगा।"

तुम ये सिद्ध करना चाह रहे हो कि "मैं भविष्य के बारे में क्यों सोचूँ? मैं तो वर्तमान में मौज मारूँगा!" तुम मौज मार कहाँ रहे हो? तुम वर्तमान में मौज मार रहे होते, तो मैं कहता, "बेटा, लगे रहो! और मौज मारो!" सारा अध्यात्म है ही मौज की कला। पर तुम मौज मार कहाँ रहे हो? अपनी शक्ल देखो। चमन उजड़ा हुआ है, और दावा है गुलबहार का। कह रहे हैं, "हम भविष्य की क्यों सोचे? हम तो अभी मौज मारेंगे।" दिखाओ, दो फूल हैं तुम्हारे चमन में कहीं? वो जो हैं वो भी प्लास्टिक के हैं।

हमारे आध्यात्मिक ट्रक ड्राइवरों में भी इतना हुनर होता है। वो पीछे लिखवा कर चलते हैं, "खुशी मिल नहीं सकती बनावट के उसूलों से, और खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से।" अरे, वो नहीं फ़्लाइट में चलते; वो "ओके बाय-बाय टाटा" में चलते हैं, ट्रक में। तब भी उन्हें ये बात पता है। लेकिन तुम यही कागज़ के फूल लेकर इधर-उधर भटक रहे हो और कह रहे हो, "मैं तो मौज मार रहा हूँ।" मौज कहाँ मार रहे हो तुम? बताओ न! तुम मौज के सिर्फ सपने देखते हो। तुम मौज के पीछे सिर्फ लार बहाते हो।

अध्यात्म मौज के खिलाफ कब से हो गया, भाई? अध्यात्म तो है ही आनंद-धर्मा। तुम्हारे पास आनंद नहीं होता है, इसीलिए तो अध्यात्म की आवश्यकता है। और आनंद तुम्हें उपलब्ध हो भी जाए अगर तुम ईमानदारी से ये मान लो कि जीवन में आनंद नहीं है, अतृप्ति है, संताप है। तो आनंद उपलब्ध भी हो जाएगा। कोई रास्ता निकलेगा। पर वो मानने की जगह अकड़कर व्यर्थ के कुतर्क, "मैं पैसा कमाऊँगा, मैं लंदन जाऊँगा।" जाओ। फिर वहाँ से कहाँ जाओगे? "अरे! ये तो सोचा ही नहीं।"

जा सकते हो तो इतनी दूर निकल जाओ कि वापस ना आना पड़े। ये रिटर्न टिकट (वापसी टिकट) का खेल कुछ ठीक नहीं है। इस रिटर्न टिकट के खेल को ही शास्त्रों में, वेदांत में भवचक्र कहा गया है। जीवन-मृत्यु का चक्र और क्या है? *रिटर्न टिकट*। कहीं जाते हो और फिर वापस आ जाते हो, फिर कहीं जाते हो और फिर कहीं से वापस आ जाते हो। तुम जा पाते ही नहीं, तुम निकल नहीं पाते, तुम इस चक्र का भेदन, उल्लंघन नहीं कर पाते।

समझ में आ रही है बात? कबीर साहब क्या बोलते हैं मुक्ति के बारे में? अमरपुर की एक पहचान बताते हैं;

कहें कबीर सत्य वो पथ है जहाँ फिर आना और जाना नहीं।

रिटर्न टिकट का चक्कर नहीं है वहाँ पर कि गए तो लौट कर आए। वो तो फिर निकल गए, पार! तो ले लो न वो फ़्लाइट जो पार निकाल दे। उस फ़्लाइट के लिए तुम्हें टर्मिनल थ्री नहीं जाना होगा; उस फ़्लाइट के लिए तुम्हें भीतर जाना होगा। वो फिर एक ऐसी तीर्थ यात्रा होती है जिसपर यात्री लौटकर नहीं आता। वो यात्रा शुरू तो होती है, खत्म वो यात्री के साथ ही होती है।

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