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कैरियर बनाने को ही पैदा हुए हो?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मुझे अपने कैरियर के प्रति उलझाव सा रहता है। जो काम मुझे करना पसंद है, वह मैं कर रहा हूँ। लेकिन उस काम में जॉब सिक्योरिटी मुझे नहीं दिखती। और इस कारण मैं हमेशा ही चिंतित रहता हूँ। कृपा करके इसका समाधान बताएँ।

आचार्य प्रशांत: ये ठीक है: किसी को अगर हर समय ये आशंका है कि उसकी आमदनी का ज़रिया अनिश्चित है, छिन सकता है कभी, तो उससे कुछ परेशानी होनी तो लाजमी है। जो आपने पूछा, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसको हम कह सकें कि अतार्किक है, अधार्मिक है, व्यर्थ है या पाप है। ये जो बात लिखी है, ये तर्कसंगत है भाई। हर जवान आदमी के ऊपर ये दायित्व तो है ही कि किसी पर निर्भर न रहे, अपनी रोटी खुद कमा कर खाए। अब ऐसे में अगर किसी की रोजी-रोटी बिलकुल अनिश्चित चलती हो, सदा संदेह बना रहता हो कि कल मिलेगी कि नहीं मिलेगी, तो उसको इस बात की चिंता तो होनी ही चाहिए, ठीक है। सवाल ये है कि—और चिन्ताएँ नहीं हैं क्या?

ये चिंता अपनी जगह बिलकुल ठीक है—और बाकी चिन्ताएँ? जैसे प्रश्नपत्र में किसी को कुछ न आता हो। 10-10, 20-20 नंबर के भी प्रश्न हैं, और उसके पल्ले ही नहीं पड़ रहे हैं। लेकिन वह रो किस बात पर रहा है? कि एक नंबर का एक प्रश्न है, वो हल नहीं हो रहा है, क्या करें? तुम्हें उस एक नंबर के प्रश्न को भी हल करना चाहिए भाई, एक अंक मिलेगा—लेकिन वो जो 10 और 20-20 अंकों के प्रश्न हैं, उनकी बात कौन करेगा? और कहीं ऐसा न हो कि इस एक अंक के प्रश्न में उलझ कर के सारा समय तुम लगा दो 1 अंक वाले ही मुद्दों में। उन्हीं मुद्दों में जिनका महत्व 1% का ही है, और 10% और 20% और 40% वाले बड़े मुद्दे सब रखे ही रह जाएँ।

कोई नहीं है ऐसा जिसे रोटी की फिक्र नहीं होती। और कोई नहीं है ऐसा जिसे रोटी की फिक्र नहीं करनी चाहिए। अमीर-से-अमीर आदमी भी खाने बैठेगा और उसकी रोटी गड़बड़ होगी तो वो भी परेशान हो जाएगा। वह कहेगा, “ये क्या है, दूसरा कुछ ले कर आओ”। तो रोटी की फ़िक्र तो वो भी कर ही रहा है न? ऐसा तो नहीं है कि बहुत पैसा आ गया है तो रोटी उसके लिए व्यर्थ की चीज़ हो गई। लेकिन बाकी चीज़ें? और कुछ नहीं पूछोगे? सवाल ठीक है। मैं नहीं कह रहा कि सवाल में कुछ गलत है। मैं कह रहा हूँ सवाल ठीक है पर इतना सा ही है। और नहीं कुछ जानना चाहते? एक ही नंबर पाकर संतुष्ट हो जाओगे? जाओ, दिया। परीक्षा फल घोषित हुआ तुम्हारा, ससम्मान आपको एक अंक उपाधि स्वरूप दिया जाता है। दिया, लो। रोटी तुम्हारी सुनिश्चित किए देते हैं। अब? अब क्या करोगे? 

सोचो तो, ऐसा भी तो हो सकता है कि वो जो 10 और 20 अंकों वाले प्रश्न हैं, तुम्हें उनकी सुध आ जाए तो इस एक नंबर के सवाल को तुम बहुत महत्व देना ही बंद कर दो। ऐसा हो सकता है कि नहीं? अभी तो बेहोश हो, पन्ना उलट के ही नहीं देख रहे हैं कि पीछे तरफ और कितने सवाल बचे हुए हैं। न सवाल को पूरा पढ़ रहे हो, न थोड़ा होश में देख रहे हो कि इस सवाल का मूल्य कितना है। मूल्य है एक अंक का। ये भी तो हो सकता है कि तुम इसके मूल्य को पहचान लो, या इसकी मूल्यहीनता को पहचान लो, और जीवन के जो बाकी प्रश्न हैं, उनके मूल्य को जान लो, तो फिर तुम्हें इस तरह के सवालों से बहुत रूचि बचे ही न?

रुपया कुछ खरीदने का माध्यम होता है। क्या खरीदना चाहते हो? और कितना और उससे क्या पाने की आशा है? निश्चित रूप से हर इंसान के लिए कुछ चीज़ें खरीदनी या कमानी ज़रूरी हैं। बंदर को भी फल चाहिए, गाय को घास चाहिए, चिड़िया को घोंसला चाहिए।

आदमी को भी घोंसला चाहिए, आदमी को भी फल चाहिए, आदमी को भी घास चाहिए; ये सब ठीक है, निश्चित रूप से। शरीर लेकर पैदा हुए हो तो वस्तुओं की ज़रूरत तो होगी ही होगी।

कितनी? क्या करोगे?

ये थोड़ा पूछना होगा न। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपनेआप से पूछा ही नहीं कि कितनी वस्तुएँ चाहिए? अपनेआप से पूछने की जगह बाज़ार से पूछ लिया। कई लोग ऐसे होते हैं, वो बाज़ार पहुँच जाते हैं और अपनेआप से नहीं पूछते कि मुझे क्या चाहिए, वो दुकानदार से पूछते हैं, क्या? “तू बता मुझे क्या चाहिए”। दुकानदार तो फिर बता ही देगा कि तुम्हें क्या- क्या चाहिए।

तुम्हें कैसे पता तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हें किसने बताया? तुम्हें तुम्हारे विवेक ने बताया या बाजार और दुकानदार ने बताया, बताओ न?

तुम्हें कैसे पता तुम्हें क्या-क्या चाहिए? और मैं ये कहते हुए भली भांति जानता हूँ कि हम सबको कुछ न कुछ तो चाहिए ही है। और मैं अभी मुक्ति, निर्वाण इत्यादि की बात नहीं कर रहा, मैं बिलकुल पार्थिव, भौतिक चीज़ों की बात कर रहा हूँ। हमें चाहिए, जैसे हमने कहा चिड़िया को चाहिए, गाय को चाहिए, हमें भी चाहिए। पर इसका  निर्धारण करने वाला कौन है कि तुम्हें कितना चाहिए? ये तुम्हें कैसे पता? यह सवाल खीझ पैदा करता है, चिढ़ाता है—है न? पर फिर भी मैं चाहूँगा कि आप इस सवाल के साथ ज़रा सा रहें। आपको कैसे पता कि आपको क्या चाहिए और कितना? किसने बताया? दिवाली का समय है, अगर टीवी की सुनें और रेडियो की सुनें, और बाजार की और दुकानदारों की सुनें तो आपके घर को इतना चाहिए जितना पूरे मोहल्ले में नहीं समाएगा।

आप जिसको अपनी ज़रूरत कहते हैं, उस ज़रूरत का निर्धारण कौन कर रहा है, कैसे पता? और ये सब कहने में, कृपा कर के, तुरंत ये आक्षेप मत कर दीजिएगा मेरे ऊपर कि मैं चाह रहा हूँ कि आप गुफा में रहना शुरू कर दें या कि आप कंदमूल खाकर जीने लग जाएँ या आप लंगोटी धारण कर लें।

मैं नहीं कह रहा। न मैं ये कह रहा हूँ कि वाहन त्याग दें और नंगे पाँव सड़क पर चलना शुरू कर दें। न मैं ये कह रहा हूँ कि बिजली पानी का इस्तेमाल बंद कर दें। न ये कह रहा हूँ कि छत छोड़ दें, खुले आसमान के नीचे जाकर के सोना शुरू कर दें। न, मैं ये नहीं कह रहा हूँ। आप बिलकुल फैल कर के तय करिए कि आपको क्या-क्या चाहिए, कर लीजिए, लेकिन अपने विवेक का प्रयोग कर के। ये सब तो चाहिए ही हैं। और ये जो मुझे ‘चाहिए’, ये मुझे किसी और के कहने पर नहीं चाहिए—न पड़ोसी के कहने पर, न मीडिया के कहने पर, न रिश्तेदारों के कहने पर, न बाजार के कहने पर। मेरा अपना विवेक बता रहा है कि ये सब तो जीवन की भौतिक अनिवार्यताएं हैं, इनकी मुझे आवश्यकता है तो है। चाहिए। और मैं कह रहा हूँ, उस सूची को तुम फैल कर के बना लो।

जहाँ कहीं भी लगता हो कि पता नहीं चाहिए कि नहीं चाहिए, वहाँ कह दो चाहिए, उसका भी नाम लिख लो। और फिर देखो कि ये जो सब चाहिए, वो क्या इतना मुश्किल है पाना कि उसके लिए तुम इतनी चिंता कर रहे हो कि तुमने उसको अपनी चिंताओं में प्रथम चिंता बना लिया है? ये कैरियर क्या चीज़ होती है? क्या करोगे इसका? कैरियर माने क्या? नाम तो कैरियर का इतनी गंभीरता और इतनी सम्मान से लेते हो कि भगवान हो जैसे। कैरियर माने क्या होता है? और ये बड़ी मान्य बात है, जैसे ही एक व्यक्ति दूसरे से बोले, “देखो, मेरे कैरियर का सवाल है,” दूसरा तत्काल समझ जाएगा, “नहीं नहीं नहीं, फिर तो सावधानी बरतो”। 

ये कैरियर माने क्या? कौन सा देवता है ये? किस ईश्वर की आराधना कर रहे हो? “कैरियर देवता,” क्या है ये? क्या मिलता है इससे? क्या चाह रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो तुम्हारा इन्हीं दफ्तरों में और फैक्ट्रियों में शोषण करना चाहते हैं, उन्होंने ही तुम्हारे मन में इस देवता को प्रतिस्थापित कर दिया है? “कैरियर देवता”। “एक आदमी किसी भी चीज़ को छोड़ सकता है, अपने कैरियर को नहीं छोड़ सकता”, “देखो साहब, कैरियर की बात है”।

माँ-बाप मरे जाते हैं, बच्चे का कैरियर बनाना है न। कैरियर माने क्या होता है? जो लोग ये बात बोलते हैं, कैरियर इत्यादि, जैसे आपने बोली, वो इतने विश्वास के साथ बोलते हैं कि ऐसा लगता है कि वो समझ ही गए हैं मानव जन्म का उद्देश्य। बड़ा दृढ़ विश्वास होता है उनका। आप उनसे पूछें कि, “एक पुरातन अनसुलझी गुत्थी है, एक आदिम रहस्य है। मान्यवर, कृपा कर के कुछ कहें”। “क्या?” “बताइए कि आदमी पैदा क्यों होता है। इस मृत्युलोक में मानव जन्म का उद्देश्य क्या है?” तो कहेंगे, “ये तो हम कब के समझ चुके। आदमी पैदा होता है कैरियर बनाने के लिए। इस विषय में हमें कोई अब संदेह, शंका है ही नहीं”।

ये क्या है कैरियरबाजी? कहीं ऐसा तो नहीं कि बस एक धुंधला सा सिद्धांत है, नेब्यूलस कॉन्सेप्ट (छिटपुट अवधारणा)? और तुमने कभी सोचा ही नहीं कि ये चीज़ क्या है। क्या मतलब है कि पद बढ़ेगा, समाज में इज्ज़त बढ़ेगी, और जो पैसा घर लाते हो वो बढ़ेगा, रुतबा और ताकत बढ़ेगी, इसी को कैरियर बोलते हो न? करोगे क्या इन चीज़ों का? और जो कुछ तुम चाह रहे हो इन चीज़ों के साथ करना, वो सब कुछ बहुत अन्य लोगों ने कर लिया इन चीज़ों के साथ—उनको क्या मिला है आज तक? अच्छा चलो, उनका तुम्हें बहुत भरोसा नहीं तो अपनेआप को ही देख लो न। ऐसा तो नहीं कि आज तक तुम्हारे पास बिलकुल ही पैसा नहीं रहा है, ऐसा तो नहीं कि आज तक तुम्हारे पास कोई सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं रही, तुम्हें क्या मिल गया वो सब से? और कितना है जो और अर्जित करना चाहते हो?

मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि आप कैरियर वगैरह पर ध्यान न दें। मैं बस यह समझना चाह रहा हूँ कि इस सवाल की अहमियत एक अंक की है या 20 अंक की। बेशक एक अंक का सवाल भी अधिकार रखता है कि उसका उत्तर दिया जाए। पर एक अंक के सवाल को भाई ज़िंदगी का 1% दे दो न, तुमने तो ज़िंदगी का 80% समर्पित कर दिया है 1% के मूल्य के सवाल को। यह बड़ी असंतुलन की स्थिति है। बात समझ में आ रही है?

जो चीज़ जितनी कीमत की नहीं, तुमने उससे कई-कई गुना ज़्यादा कीमत उसको दे दी है। और क्योंकि तुम्हारे संसाधन सीमित हैं, तो जब तुम एक बिना मूल्य के चीज़ को अधिक मूल्य देते हो तो निश्चित रूप से जिन चीज़ों का वास्तव में मूल्य है, उनसे तुम मूल्य छीन लेते हो। ये दो तरफा गलती हो गई न। हो गई कि नहीं हो गई? जीवन में तेज नहीं, आग नहीं, उल्लास नहीं, ताकत नहीं, और चेहरा लटका हुआ है बस कैरियर की चिंता से, तो बड़ा महंगा सौदा हो गया।

रोटी की खातिर न जाने क्या बेच दिया। और हम थोड़ी छानबीन भी नहीं करते। जो तुम बनना चाहते हो वो तुमसे पहले लाखों-करोड़ों लोग बने बैठे हैं। बने बैठे हैं कि नहीं? जितना तुम कमाना चाहते हो उतना आज भी लाखों करोड़ों लोग कमा रहे हैं। कमा रहे हैं कि नहीं? तुम्हें वो दिखाई ही नहीं देते, पगले। उन्होंने क्या पा लिया है? हो सकता है वो तुम्हारे बगल में वहीं बैठे हों, हो सकता है वो तुम्हारे आगे-पीछे बैठे हों यहीं पर, और वो तुमसे दूना मुँह लटकाए बैठे हैं। और तुम कह रहे हो कि तुम्हें उनके जैसा बनना है। गजब आग्रह है कि जैसे पहले स्टेज का कैंसर का रोगी बड़ा हीन भावना करे, कहे, “वो सब जो दूसरी और तीसरी स्टेज वाले हैं वो आगे निकल गए हैं। हमें अपने ऊपर लाज आती है। ज़िंदगी में हम सदा फिसड्डी ही रह गए। जिधर को बढ़ना चाहते हो उधर जीवन है या मौत, ये तो पूछ लो। बढ़ना तो ठीक है कि बहुत तेजी से आगे बढ़े, दूसरी और तीसरी स्टेज के भी जो रोगी थे, उन्हें पार कर के हम सीधे चौथे चरण पर पहुँच गए—फिर? क्या पनपा रहे हो अपने भीतर? जितनी कैरियरबाजी तुमने कर ली, उतनी ही करने में अपनी हालत देखो बेटा, अभी और करनी है? आप को साफ पता हो आपकी ज़रूरतें कितनी हैं तो आपको बेवजह कहीं झुकना नहीं पड़ता। और आप न खुद को जानते हैं और न अपनी वाजिब ज़रूरतों को जानते हैं, तो आप हर जगह फिर दुम हिलाते फिरेंगे। असल में बात वही है, ये ‘वाजिब’ और ‘ज़रूरत’ शब्द ही हमारे लिए बड़े अर्थहीन हैं। हमने कभी पूछा ही नहीं कि—‘वाजिब’ माने क्या? ‘असली’ माने क्या? ‘सम्यक’ माने क्या? हमें तो टीवी ने सिखाया है कि ज़रूरतें कितनी होनी चाहिए। हमें तो सुपर मार्केट ने सिखाया है ज़रूरतें कितनी होनी चाहिए। और हमने पड़ोस के गुल्लू भैया की शादी में सीखा कि ज़रूरतें कितनी होनी चाहिए। और हमें पता भी नहीं कि वो जो सीख हमने पकड़ ली, वो सीख हमारा जीवन निर्धारित किए दे रही है, हमारी ज़िंदगी का केंद्र बन गई है बिलकुल।

आप हैरान हो जाएंगे अगर आप ईमानदारी से विश्लेषण करें कि आपके पास आज भी जो कुछ है वो आपके पास होना कितना ज़रूरी है। ये तो छोड़िए कि आगे आप क्या पाना चाहते हैं, आपके पास आज भी जो कुछ है वो आपके पास होना कितना ज़रूरी है? बहुत कम है आपके पास कुछ भी ऐसा जो न हो तो आपकी ज़िंदगी रुक जाए या आपकी आत्मिक शांति में खलल पड़ जाए। बहुत दफे तो बहुत चीजें आपके पास ऐसी होती हैं जो होती हैं और आपको याद भी नहीं होती कि आपके पास है, पर उनको पाने में आपने खूब धन, खूब समय, खूब ऊर्जा और खूब संसाधन लगा दिए होते हैं। और उनको पा कर के आप कहीं रख कर के भूल भी गए होते हैं कि वो सब आपके पास है। ये भूलना ही बताता है कि आपने जो अर्जित किया, उसकी आपको ज़रूरत थी नहीं। और इससे भी आगे के किस्से हो जाते हैं कई बार। कुछ कमा कर के लाए और उसको रख कर के भूल गए, ये तो एक नुकसान है, और कुछ कमा कर के लाए, और जो लाए, उसने आपका खून चूसना शुरू कर दिया, अब क्या करेंगे? पहले खर्च करा उसको लाने में, फिर खर्च करेंगे उसको हटाने में। कैरियर का एक पायदान चलना था ताकि पा सकें, अब जब पा लिया है तो कैरियर में अगली प्रोन्नति चाहिए ताकि जो पाया है उसको हटा सकें।

ये सिर्फ हम अपने शोषण का इंतज़ाम करते हैं न? आत्मज्ञान के अभाव में, खुद को न जानने के कारण, हम ये भी नहीं जानते हैं कि हमें ज़िंदगी में वास्तव में ज़रूरत किस चीज़ की है। अरे, जब हम नहीं जानते कि किस चीज़ की ज़रूरत है तो पूरी दुनिया हमारा शोषण करती है—कोई भी, कहीं भी गाजर दिखाता है, हम पहुँच जाते हैं।

इस सवाल पर गौर करिएगा: हम जो कुछ भी कर रहे हैं, जो कुछ भी हमने पा रखा है, पकड़ रखा है, और जो कुछ भी हम अपने भविष्य के लिए चाह रहे हैं, अगर दूसरे न होते, अगर हमें किसी ने बताया न होता कि ये सब पाने वाली और उम्मीद करने वाली चीजें होती हैं, तो क्या हम उनमें से किसी भी चीज़ को चाहते? 100 में से 98 चीजें जो आपने पकड़ रखी हैं या जिनकी आप इच्छा रख रहे हैं, आप पाएंगे ऐसी हैं कि अगर किसी ने आपको सिखाया-पढ़ाया न होता तो आप उन चीज़ों के प्रति कभी आकर्षित होते भी नहीं, क्योंकि आपको उनकी कोई आत्मिक चाह है ही नहीं।

आपके भीतर इच्छा बाहर से ठूसी गई है, आरोपित की गई है। आपके भीतर एक कृत्रिम इच्छा जागृत की गई है, जैसे कि किसी को भूख न लगी हो और उसे एक ऐसी खुशबू सुंघा दी जाए जो शरीर में भूख को उत्तेजित करती है। उसका पेट भरा हुआ है लेकिन ऐसी गंध उसके नथूनों में डाल दी गई कि उसे लग रहा है कि उसे खाना चाहिए और वो खाने पहुँच जाएगा। और खाना उसे मुफ्त तो मिलेगा नहीं। तुम खाओगे तो किसी की तिजोरी भरेगी। ऐसी है दुनिया। जिन्हें आप कहते हैं अपनी तमन्नाएँ, अपनी इच्छाएँ, अपनी आशाएँ, अपनी योजनाएँ, अपने इरादे—वो आपके हैं कितने? नूननू 5 साल का था, टीवी पर खिलौने का विज्ञापन देखता था तो बोलता था, “खिलौना, खिलौना,” और नून्नू 25 साल का हुआ, टीवी पर कैरियर-कैरियर देखने लगा, तो अब बोलता है, “कैरियर-कैरियर”।

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